इंक़िलाब पसंद
मेरी और सलीम की दोस्ती को पाँच साल का अर्सा गुज़र चुका है। उस ज़माने में हम ने एक ही स्कूल से दसवीं जमात का इम्तिहान पास किया, एक ही कॉलेज में दाख़िल हूए और एक ही साथ एफ़-ए- के इम्तिहान में शामिल हो कर फ़ेल हुए। फिर पुराना कॉलेज छोड़कर एक नए कॉलेज में दाख़िल हूए इस साल मैं तो पास हो गया। मगर सलीम सू-ए-क़िस्मत से फिर फ़ेल हो गया।
सलीम की दुबारा नाकामयाबी से लोग ये नतीजा अख़्ज़ करते हैं कि वो आवाराह मिज़ाज और नालायक़ है। ये बिलकुल इफ़्तिरा है। सलीम का बग़ली दोस्त होने की हैसियत से मैं ये वसूक़ से कह सकता हूँ कि सलीम का दिमाग़ बहुत रोशन है। अगर वो कॉलेज की पढ़ाई की तरफ़ ज़रा भी तवज्जो देता तो कोई वजह न थी कि वो सूबा भर में अव्वल न रहता। अब यहां ये सवाल पैदा होता है कि उस ने पढ़ाई की तरफ़ क्यों तवज्जो न दी? जहां तक मेरा ज़ेहन काम देता है मुझे उस की तमाम तर वजह, वो ख़्यालात मालूम होते हैं जो एक अर्से से इस के दिल-ओ-दिमाग़ पर आहिस्ता आहिस्ता छा रहे थे?
दसवीं जमात और कॉलेज में दाख़िल होते वक़्त सलीम का दिमाग़ उन तमाम उलझनों से आज़ाद था। जिन्हों ने उसे इन दिनों पागलख़ाने की चारदीवारी में क़ैद कर रख्खा है। अय्याम-ए-कॉलेज में वो दीगर तलबा की तरह खेल कूद में हिस्सा लिया करता था। सब लड़कों में हर-दिल-अज़ीज़ था। मगर यकायक उस के वालिद की नागहानी मौत ने उस के मुतबस्सिम चेहरे पर ग़म की निक़ाब ओढ़ा दी अब खेल कूद की जगह ग़ौर-ओ-फ़िक्र ने ले ली।
वो क्या ख़यालात थे, जो सलीम के मुज़्तरिब दिमाग़ में पैदा हूए? ये मुझे मालूम नहीं। सलीम की नफ़्सियात का मुताला करना बहुत अहम काम है। इस के इलावा वो ख़ुद अपनी दिली आवाज़ से ना-आश्ना था। उस ने कई मर्तबा गुफ़्तुगू करते वक़्त या यूंही सैर करते हूए अचानक मेरा बाज़ू पकड़ कर कहा है। “अब्बास जी चाहता है कि......।”
“हाँ। हाँ। क्या जी चाहता है।” मैंने उस की तरफ़ तमाम तवज्जो मब्ज़ूल करके पूछा है। मगर मेरे इस इस्तिफ़सार पर उस के चेहरे की ग़ैरमामूली तबदीली और गले में सांस के तसादुम ने साफ़ तौर पर ज़ाहिर किया कि वो अपने दिली मुद्दा को ख़ुद न पहचानते हूए अल्फ़ाज़ में साफ़ तौर पर ज़ाहिर नहीं कर सकता।
वो शख़्स जो अपने एहसासात को किसी शक्ल में पेश कर के दूसरे ज़ेहन पर मुंतक़िल कर सकता है। वो दरअसल अपने दिल का बोझ हल्का करने की क़ुदरत का मालिक है। और वो शख़्स जो महसूस करता है। मगर अपने एहसास को ख़ुद आप अच्छी तरह नहीं समझता। और फिर इस इज़्तिराब को बयान करने की क़ुदरत नहीं रखता उस शख़्स के मुतरादिफ़ है। जो अपने हलक़ में ठुँसी हूई चीज़ को बाहर निकालने की कोशिश कर रहा हो। मगर वो गले से नीचे उतरती चली जा रही हो ये एक ज़ेहनी अज़ाब है। जिस की तफ़सील लफ़्ज़ों में नहीं आ सकती।
सलीम शुरू ही से अपनी आवाज़ से ना-आश्ना रहा है। और होता भी क्योंकर जब उस के सीने में ख़यकलात का एक हुजूम छाया रहता था। बाअज़ औक़ात ऐसा भी हुआ है कि वो बैठा बैठा उठ खड़ा हुआ है। और कमरे में चक्कर लगा कर लंबे लंबे सांस भरने शुरू कर दिए ग़ालिबन वो अपने अंदरूनी इंतिशार से तंग आकर इन ख़यालात को जो इस के सीने में भाप के मानिंद चक्कर लगा रहे होते। सांसों के ज़रीये बाहर निकालने का कोशां हुआ करता था। इज़्तिराब के इन्ही तकलीफ़-देह लम्हात में उस ने अक्सर औक़ात मुझ से मुख़ातब हो कर कहा “अब्बास! ये ख़ाकी कशती किसी रोज़ तुन्द मौजों की ताब न ला कर चट्टानों से टकरा कर पाश पाश हो जाएगी मुझे अंदेशा है कि....... ”
वो अपने अंदेशे को पूरी तरह बयान नहीं कर सकता था। सलीम किसी मुतवक़्क़े हादिसे का मुंतज़िर ज़रूर था। मगर उसे ये मालूम न था कि वो हादिसा किस शक्ल में पर्दा ज़हूर पर नुमूदार होगा उस की निगाहें एक अर्से से धुंदले ख़यालात की सूरत में एक मौहूम साया देख रही थीं। जो उस की तरफ़ बढ़ता चला आ रहा था। मगर वो ये नहीं बता सकता था कि इस तारीक शक्ल के पर्दे में क्या निहां है।
मैंने सलीम की नफ़्सियात समझने की बहुत कोशिश की है। मगर मुझे उस की मुनक़लिब आदात के होते हुए कभी मालूम नहीं हो सका कि वो किन गहराईयों में ग़ोता-ज़न है। और वो इस दुनिया में रह कर अपने मुस्तक़बिल के लिए क्या करना चाहता है। जब कि अपने वालिद के इंतिक़ाल के बाद वो हर क़िस्म के सरमाए से महरूम कर दिया गया था।
मैं एक अर्से से सलीम को मुनक़लिब होते देख रहा था। उस की आदात दिन ब-दिन बदल रही थीं कल का खलनडरा लढ़का का, मेरा हम-जमाअत एक मुफ़क्किर में तबदील हो रहा था। ये तबदीली मेरे लिए सख़्त बाइस-ए-हैरत थी।
कुछ अर्से से सलीम की तबीयत पर एक ग़ैरमामूली सुकून छा गया था। जब देखो अपने घर में ख़ामोश बैठा हुआ है। और अपने भारी सर को घुटनों में थामे कुछ सोच रहा है वो क्या सोच रहा होता। ये मेरी तरह ख़ुद उसे भी मालूम न था। इन लम्हात में मैंने उसे अक्सर औक़ात अपनी गर्म आँखों पर दवात का आहनी ढकना या गिलास का बैरूनी हिस्सा फेरते देखा है शायद वो इस अमल से अपनी आँखों की हरारत कम करना चाहता था।
सलीम ने कॉलेज छोड़ते ही ग़ैर मुल्की मुसन्निफ़ों की भारी भरकम तसानीफ़ का मुताला शुरू कर दिया था। शुरू शुरू में मुझे उस की मेज़ पर एक किताब नज़र आई। फिर आहिस्ता आहिस्ता इस अलमारी में जिस में वो शतरंज। ताश और इसी क़िस्म की दीगर खेलें रखा करता था। किताबें ही किताबें नज़र आने लगीं इस के इलावा वो कई कई दिनों तक घर से कहीं बाहर चला जाया करता था।
जहां तक मेरा ख़याल है सलीम की तबीयत का ग़ैरमामूली सुकून इन किताबों के अनथक मुताला का नतीजा था। जो उस ने बड़े करीने से अलमारी में सजा रखी थीं।
सलीम का अज़ीज़ तरीन दोस्त होने की हैसियत मैं मैं उस की तबीयत के ग़ैरमामूली सुकून से सख़्त परेशान था। मुझे अंदेशा था। कि ये सुकून किसी वहशत-ख़ेज़ तूफ़ान का पेश-ख़ेमा है। इस के इलावा मुझे सलीम की सेहत का भी ख़याल था। वो पहले ही बहुत कमज़ोर जुस्से का वाक़्य हुआ था। इस पर उस ने ख़्वाह-मख़्वाह अपने आप को ख़ुदा मालूम किन किन उलझनों में फंसा लिया था। सलीम की उम्र बमुश्किल बीस साल की होगी। मगर उस की आँखों के नीचे शब बेदारी की वजह से स्याह हलक़े पड़ गए थे। पेशानी जो इस से क़बल बिलकुल हमवार थी अब इस पर कई शिकन पड़े रहते थे जो उस की ज़हनी परेशानी को ज़ाहिर करते थे। चेहरा जो कुछ अर्सा पहले बहुत शगुफ़्ता हुआ करता था। अब उस पर नाक और लब के दरमियान गहिरी लकीरें पड़ गई थीं। जिन्हों ने सलीम को क़ब्ल अज़-वक़्त मोअम्मर बना दिया था इस ग़ैरमामूली तबदीली को मैंने अपनी आँखों के सामने वक़ूअ-पज़ीर होते देखा है। जो मुझे एक शोबदे से कम मालूम नहीं होती ये क्या तअज्जुब की बात है। कि मेरी उम्र का लड़का मेरी नज़रों के सामने बूढ़ा हो जाये।
सलीम पागलख़ाने में है। इस में कोई शक नहीं। मगर इस के ये मानी नहीं हो सकते कि वो सड़ी और दीवाना है। उसे ग़ालिबन इस बना पर पागलख़ाने भेजा गया है कि वो बाज़ारों में बुलंद बाँग तक़रीरें करता है राह गुज़रों को पकड़ पकड़ कर उन्हें ज़िंदगी के मुश्किल मसाइल बता कर जवाब तलब करता है। और उमरा के हरीर पोश बच्चों का लिबास उतार कर नंगे बच्चों को पहना देता है मुम्किन है। ये हरकात डाक्टरों के नज़दीक दीवानगी की अलामतें हों। मगर मैं यक़ीन के साथ का सकता हूँ कि सलीम पागल नहीं है। बल्कि वो लोग जिन्हों ने उसे अमन-ए-आम्मा में ख़लल डालने वाला तसव्वुर करते हुए आहनी सलाखों के पिंजरे में क़ैद कर दिया है। किसी दीवाने हैवान से कम नहीं हैं!
अगर वो अपनी ग़ैर मरबूत तक़रीर के ज़रीये लोगों तक अपना पैग़ाम पहुंचाना चाहता है। तो क्या उन का फ़र्ज़ नहीं कि वो उस के हर लफ़्ज़ को ग़ौर से सुनें?
अगर वो राह गुज़रों के साथ फ़ल्सफ़ा-ए-हयात पर तबादला-ए-ख़यकलात करना चाहता है। तो क्या इस के ये मानी लिए जाऐंगे कि उस का वजूद मजलिसी दायरा के लिए नुक़्सानदेह है? क्या ज़िंदगी के हक़ीक़ी मानी से बा-ख़बर होना हर इंसान का फ़र्ज़ नहीं है? अगर वो मुतमव्विल अश्ख़ास के बच्चों का लिबास उतार कर गुरबा के ब्रहना बच्चों का तन ढाँपना चाहता है तो क्या ये अमल उन अफ़राद को उन के फ़राइज़ से आगाह नहीं करता जो फ़लकबोस इमारतों में दूसरे लोगों के बलबूते पर आराम की ज़िंदगी बसर कर रहे हैं। क्या नंगों की सतर पोशी करना ऐसा फ़ेअल है कि इसे दीवानगी पर महमूल किया जाये?
सलीम हरगिज़ पागल नहीं है। मगर मुझे ये तस्लीम है कि उस के अफ़्क़ार ने उसे बेखु़द ज़रूर बना रख्खा है। दरअसल वो दुनिया को कुछ पैग़ाम देना चाहता है। मगर दे नहीं सकता एक कमसिन बच्चे की तरह वो तुतला तुतला कर अपने कलबी एहसासात बयान करना चाहता है। मगर अल्फ़ाज़ उसकी ज़बान पर आते ही बिखर जाते हैं।
वो इस से क़ब्ल ज़ेहनी अज़ीयत में मुब्तला है। मगर अब उसे और अज़ीयत में डाल दिया गया है। वो पहले ही से अपने अफ़्क़ार की उलझनों में गिरफ़्तार है। और अब उसे ज़िंदाँ-नुमा कोठड़ी में क़ैद कर दिया गया है क्या ये ज़ुल्म नहीं है?
मैंने आज तक सलीम की कोई भी ऐसी हरकत नहीं देखी। जिस से मैं ये नतीजा निकाल सकूं। कि वो दीवाना है। हाँ अलबत्ता कुछ अर्से से मैं उस के ज़ेहनी इन्क़िलाबात का मुशाहिदा ज़रूर करता रहा हूँ।
शुरू शुरू में जब मैंने उस के कमरे के तमाम फ़र्नीचर को अपनी अपनी जगह से हटा हुआ पाया तो मैंने इस तब्दीली की तरफ़ ख़ास तवज्जो न दी दरअसल मैंने उस वक़्त जो ख़याल किया कि शायद सलीम ने फ़र्नीचर की मौजूदा जगह को ज़्यादा मौज़ूं ख़याल किया है। और हक़ीक़त तो ये है कि मेरी नज़रों को जो कुर्सियों और मेज़ों को कई सालों से एक जगह देखने की आदी थीं। वो ग़ैर मुतवक़्क़े तब्दीली बहुत भली मालूम हुई।
इस वाक़े के चंद रोज़ बाद जब मैं कॉलेज से फ़ारिग़ हो कर सलीम के कमरे में दाख़िल हुआ तो क्या देखता हूँ कि फ़िल्मी मुमस्सिलों की दो तसावीर जो एक अर्से से कमरे की दीवारों पर आवेज़ां थीं और जिन्हें मैं और सलीम ने बहुत मुश्किल के बाद फ़राहम किया था। बाहर टोकरी में फटी पड़ी हैं और उन की जगह उन्ही चौखटों में मुख़्तलिफ़ मुसन्निफ़ों की तस्वीरें लटक रही हैं चूँकि मैं ख़ुद इन तसावीर का इतना मुश्ताक़ न था। इस लिए मुझे सलीम का ये इंक़िलाब बहुत पसंद आया। चुनांचे हम उस रोज़ देर तक इन तस्वीरों के मुतअल्लिक़ गुफ़्तुगू भी करते रहे।
जहां तक मुझे याद है इस वाक़िया के बाद सलीम के कमरे में एक माह तक कोई ख़ास काबिल-ए-ज़िकर तब्दीली वाक़्य नहीं हुई। मगर इस अर्से के बाद मैंने एक रोज़ अचानक कमरे में बड़ा सा तख़्त पड़ा पाया जिस पर सलीम ने कपड़ा बिछा कर किताबें चुन रखीं थीं और आप क़रीब ही ज़मीन पर एक तकिया का सहारा लिए कुछ लिखने में मसरूफ़ था। मैं ये देख कर सख़्त मुतअज्जिब हुआ। और कमरे में दाख़िल होते ही सलीम से ये सवाल किया। “क्यों मियां! उस तख़्त के क्या मानी?”
सलीम जैसा कि उस की आदत थी मुस्कुराया और कहने लगा। “कुर्सियों पर रोज़ाना बैठते बैठते तबीयत उकता गई है। अब ये फ़र्श वाला सिलसिला ही रहेगा।”
बात माक़ूल थी। मैं चुप रहा। वाक़ई रोज़ाना एक ही चीज़ का इस्तिमाल करते करते तबीयत ज़रूर उचाट हो जाया करती है। मगर जब पंद्रह बीस रोज़ के बाद मैंने वो तख़्त मा तकिए के ग़ायब पाया। तो मेरे तअज्जुब की कोई इंतिहा न रही। और मुझे शुबा सा हुआ कि कहीं मेरा दोस्त वाक़ई ख़ब्ती तो नहीं हो गया है।
सलीम सख़्त गर्म-मिज़ाज वाक़्य हूआ है। इस के इलावा उस के वज़नी अफ़्क़ार ने उसे मामूल से ज़्यादा चिड़चिड़ा बना रक्खा था। इस लिए मैं उमूमन उस से ऐसे सवालात नहीं किया करता। जो उस के दिमाग़ी तवाज़ुन को दरहम बरहम कर दें या जिन से वो ख़्वाह-मख़्वाह खिज जाये।
फ़र्नीचर की तब्दीली, तस्वीरों का इंक़िलाब, तख़्त की आमद और फिर उस का ग़ायब हो जाना वाक़ई किसी हद तक तअज्जुब-ख़ेज़ ज़रूर हैं और वाजिब था कि मैं इन उमूर की वजह दरयाफ़्त करता। मगर चूँकि मुझे सलीम को आज़ुरदा-ए-ख़ातिर करना, और इस के काम में दख़ल देना मंज़ूर ना था। इस लिए में ख़ामोश रहा।
थोड़े अर्से के बाद सलीम के कमरे में हर दूसरे तीसरे दिन कोई न कोई तब्दीली देखना मेरा मामूल हो गया अगर आज कमरे में तख़्त मौजूद है। तो हफ़्ते के बाद वहां से उठा दिया गया है। उस के दो रोज़ बाद वो मेज़ जो कुछ अर्सा पहले कमरे के दाएं तरफ़ पड़ी थी। रात रात में वहां से उठा कर दूसरी तरफ़ रख दी गई है। अँगीठी पर रखी हूई तसावीर के ज़ाविए बदले जा रहे हैं। कपड़े लटकाने की खूंटियां एक जगह से उखेड़ कर दूसरी जगह पर जड़ दी गई हैं। कुर्सियों के रुख़ तब्दील किए गए हैं गोया कमरे की हर शैय एक क़िस्म की क़वाइद कराई जाती थी।
एक रोज़ जब मैंने कमरे के तमाम फ़र्नीचर को मुख़ालिफ़ रुख़ में पाया तो मुझ से न रहा गया। और मैंने सलीम से दरयाफ़्त कर ही लिया। “सलीम मैं एक अर्से से इस कमरे को गिरगिट की तरह रंग बदलता देख रहा हूँ। आख़िर बताओ तो सही ये तुम्हारा कोई नया फ़ल्सफ़ा है।?”
“तुम जानते नहीं हो, मैं इन्क़िलाब पसंद हूँ” सलीम ने जवाब दिया। ये सुन कर मैं और भी मुतअज्जिब हुआ। अगर सलीम ने ये अल्फ़ाज़ अपनी हस्ब-ए-मामूल मुस्कुराहट के साथ कहे होते तो मैं यक़ीनी तौर पर ये ख़याल करता कि वो सिर्फ़ मज़ाक़ कर रहा है। मगर ये जवाब देते वक़्त उस का चेहरा इस अमर का शाहिद था, कि वो संजीदा है।
और मेरे सवाल का जवाब वो उन्ही अल्फ़ाज़ में देना चाहता है लेकिन फिर भी मैं तज़बज़ुब की हालत में था। चुनांचे मैंने उस से कहा। “मज़ाक़ कर रहे हो यार?”
“तुम्हारी क़सम बहुत बड़ा इन्क़िलाब पसंद” ये कहते हुए वो खिलखिला कर हंस पड़ा।
मुझे याद है कि इस के बाद उस ने ऐसी गुफ़्तुगू शुरू की थी। मगर हम दोनों किसी और मौज़ू पर इज़हार-ए-ख़यालात करने लग गए थे ये सलीम की आदत है कि वो बहुत सी बातों को दिलचस्प गुफ़्तुगू के पर्दे में छुपा लिया करता है।
इन दिनों जब कभी मैं सलीम के जवाब पर ग़ौर करता हूँ। मुझे मालूम होता है कि सलीम दरहक़ीक़त इन्क़िलाब पसंद वाक़्य हुआ है इस के ये मानी नहीं कि वो किसी सलतनत का तख़्ता उलटने के दरपे है। या वो दीगर इन्क़िलाब पसंदों की तरह चौराहों में बम फेंक कर दहश्त फैलाना चाहता है। बल्कि जहां तक मेरा ख़याल है। वो हर चीज़ में इन्क़िलाब देखना चाहता है। यही वजह है कि उस की नज़रें अपने कमरे में पड़ी हुई अश्या को एक ही जगह पर न देख सकती थीं। मुम्किन है मेरा ये क़ियाफ़ा किस हद तक ग़लत हो। मगर मैं ये वसूक़ से कह सकता हूँ कि उस की जुस्तुजू किसी ऐसे इन्क़िलाब की तरफ़ रुजू करती है जिस के आसार उस के कमरे की रोज़ाना तबदीलियों से ज़ाहिर हैं।
बादियुन्नज़र मैं कमरे की अश्या को रोज़ उलट पलट करते रहना दीवानगी के मुतरादिफ़ है। लेकिन अगर सलीम की इन बे-मानी हरकात का अमीक़ मुताला किया जाये तो ये अम्र रोशन हो जाएगा कि उन के पस-ए-पर्दा एक ऐसी क़ुव्वत काम कर रही थी। जिस से वो ख़ुद नाआशना था इसी क़ुव्वत ने जिसे मैं ज़ेहनी तअस्सुब का नाम देता हूँ। सलीम के दिमाग़ में तलातुम बपा कर दिया। और इस का नतीजा ये हुआ कि वो इस तूफ़ान की ताब न ला कर अज़-खुद रफ़्ता हो गया। और पागलख़ाने की चारदीवारी में क़ैद कर दिया गया।
पागलख़ाने जाने से कुछ रोज़ पहले सलीम मुझे अचानक शहर के एक होटल में चाय पीता हुआ मिला। मैं और वो दोनों एक छोटे से कमरे में बैठ गए। इस लिए कि मैं उस से कुछ गुफ़्तुगू करना चाहता था। मैंने अपने बाज़ार के चंद दुकानदारों से सुना था कि अब सलीम होटलों में पागलों की तरह तक़रीरें करता है ..... मैं ये चाहता था कि उस से फ़ौरन मिल कर उसे इस क़िस्म की हरकात करने से मना कर दूं। इस के इलावा ये अंदेशा था कि शायद वो कहीं सचमुच मख़्बूतुलहवात न हो गया हो। चूँकि मैं उस से फ़ौरन ही बात करना चाहता था इस लिए मैंने होटल में गुफ़्तुगू करना मुनासिब समझा।
कुर्सी पर बैठते वक़्त मैं ग़ौर से सलीम के चेहरे की तरफ़ देख रहा था। वो मुझे इस तरह घूरते देख कर सख़्त मुतअज्जिब हुआ। वो कहने लगा...... “शायद मैं सलीम नहीं हूँ।”
आवाज़ में किस क़दर दर्द था। गो ये जुम्ला आप की नज़रों में बिलकुल सादा मालूम हो। मगर ख़ुदा गवाह है मेरी आँखें बे-इख़्तयार नमनाक हो गईं। “शायद मैं सलीम नहीं हूँ” गोया वो हरवक़्त इस बात का मुतवक़्क़े था कि किसी रोज़ उस का बेहतरीन दोस्त भी उसे न पहचान सकेगा। शायद उसे मालूम था कि वो बहुत हद तक तब्दील हो चुका है।
मैंने ज़ब्त से काम लिया। और अपने आँसूओं को रूमाल में छुपा कर उस के कांधे पर हाथ रखते हुए कहा।
“सलीम मैंने सुना है कि तुम ने मेरे लाहौर जाने के बाद यहां बाज़ारों में तक़रीरें करनी शुरू कर दी हैं जानते भी हो। अब तुम्हें शहर का बच्चा बच्चा पागल के नाम से पुकारता है ”
“पागल! शहर का बच्चा बच्चा मुझे पागल के नाम से पुकारता है पागल! हाँ अब्बास, मैं पागल हूँ पागल दीवाना ख़िरद बाख़्ता लोग मुझे दीवाना कहते हैं मालूम है क्यों?”
यहां तक कि वो मेरी तरफ़ सर-ता-पा इस्तिफ़हाम बन कर देखने लगा। मगर मेरी तरफ़ से कोई जवाब न पा कर वो दुबारा गोया हुआ।
“इस लिए कि मैं उन्हें ग़रीबों के नंगे बच्चे दिखला दिखला कर ये पूछता हूँ। कि इस बढ़ती हुई ग़ुर्बत का क्या ईलाज हो सकता है? वो मुझे कोई जवाब नहीं दे सकते। इस लिए वो मुझे पागल तसव्वुर करते हैं आह अगर मुझे सिर्फ़ ये मालूम हो कि ज़ुल्मत के इस ज़माने में रोशनी की एक शुआ क्योंकर फ़राहम की जा सकती है। हज़ारों ग़रीब बच्चों का तारीक मुस्तक़बिल क्योंकर मुनव्वर बनाया जा सकता है।
वो मुझे पागल कहते हैं वो जिन की नब्ज़-ए-हयात दूसरों के ख़ून की मरहून मिन्नत है, वो जिन का फ़िर्दोस गुरबा के जहन्नम की मुस्तआर ईंटों से उस्तुवार किया गया है, जिन के साज़-ए-इशरत के हर तार के साथ बेवाओं की आहें यतीमों की उर्यानी, लावारिस बच्चों की सदा-ए-गिरिया लिपटी हुई है कहीं, मगर एक ज़माना आने वाला है जब यही परवर्दा-ए-ग़ुर्बत अपने दिलों के मुशतर्का लहू में उंगलियां डुबो डुबो कर उन लोगों की पेशानियों पर अपनी लानतें लिखेंगे वो वक़्त नज़दीक है जब अर्ज़ी जन्नत के दरवाज़े हर शख़्स के लिए वाहोंगे।
मैं पूछता हूँ कि अगर मैं आराम में हूँ। तो क्या वजह है कि तुम तकलीफ़ की ज़िंदगी बसर करो? क्या यही इंसानियत है कि मैं कारख़ाने का मालिक होते हूए हर शब एक नई रक़ासा का नाच देखता हूँ, हर रोज़ कलब में सैंकड़ों रुपय क़िमारबाज़ी की नज़र कर देता हूँ। और अपनी निकम्मी से निकम्मी ख़्वाहिश पर बे-दरेग़ रुपया बहा कर अपना दिल ख़ुश करता हूँ, और मेरे मज़दूरों को एक वक़्त की रोटी नसीब नहीं होती। उन के बच्चे मिट्टी के एक खिलौने के लिए तरसते हैं फिर लुत्फ़ ये है कि मैं मुहज़्ज़ब हूँ, मेरी हर जगह इज़्ज़त की जाती है, और वो लोग जिन कि पसीना मेरे लिए गौहर तैय्यार करता है। मजलिसी दायरे में हक़ारत की नज़र से देखे जाते हैं। मैं ख़ुद उन से नफ़रत करता हूँ तुम ही बताओ, क्या ये दोनों ज़ालिम-ओ-मज़लूम अपने फ़राइज़ से ना-आश्ना नहीं हैं? मैं इन दोनों को उन के फ़राइज़ से आगाह करना चाहता हूँ। मगर किस तरह करूं? ये मुझे मालूम नहीं।”
सलीम ने इस क़दर कह कर हाँपते हुए ठंडी चाय का एक घूँट भरा और मेरी तरफ़ देखे बग़ैर फिर बोलना शुरू कर दिया।
“मैं पागल नहीं हूँ मुझे एक वकील समझो। बग़ैर किसी उम्मीद के, जो उस चीज़ की वकालत कर रहा है। जो बिलकुल गुम हो चुकी है मैं एक दबी हुई आवाज़ हूँ इंसानियत एक मुँह है। और मैं एक चीख़। मैं अपनी आवाज़ दूसरों तक पहुंचाने की कोशिश करता हूँ। मगर वो मेरे ख़यालात के बोझ तले दबी हूई है।
मैं बहुत कुछ कहना चाहता हूँ मगर इसी लिए कुछ कह नहीं सकता। कि मुझे बहुत कुछ कहना है। मैं अपना पैग़ाम कहाँ से शुरू करूं ये मुझे मालूम नहीं। मैं अपनी आवाज़ के बिखरे हुए टुकड़े फ़राहम करता हूँ ज़ेहनी अज़ीयत के धुनदले गुबार में से चंद ख़यालात तमहीद के तौर पर पेश करने की सई करता हूँ। अपने एहसासात की अमीक़ गहराईयों से चंद एहसास सतह पर लाता हूँ। कि दूसरे अज़हान पर मुंतक़िल कर सकूं मगर मेरी आवाज़ के टुकड़े फिर मुंतशिर हो जाते हैं। ख़यालात फिर तारीकी में रुपोश हो जाते हैं। एहसासात फिर ग़ोता लगा जाते हैं मैं कुछ नहीं कह सकता।
जब मैं ये देखता हूँ। कि मेरे ख़यालात मुंतशिर होने के बाद फिर जमा हो रहे हैं। तो जहां कहीं मेरी क़ुव्वत-ए-गोयाई काम देती है मैं शहर के रूअसा से मुख़ातब हो कर ये कहने लग जाता हूँ।
मर्मरीं महल्लात के मकीनो! तुम इस वसीअ कायनात में सिर्फ़ सूरज की रोशनी देखते हो। मगर यक़ीन जानो। इस के साय भी होते हैं तुम मुझे सलीम के नाम से जानते हो, ये ग़लती है मैं वो कपकपी हूँ जो एक कुंवारी लड़की के जिस्म पर तारी होती है। जब वो ग़ुर्बत से तंग आकर पहली दफ़ा एवान-ए-गुनाह की तरफ़ क़दम बढ़ाने लगे आओ हम सब काँपें!
तुम हंसते हो। मगर नहीं तुम्हें मुझे ज़रूर सुनना होगा मैं एक ग़ोता ख़ौर हूँ। क़ुदरत ने मुझे तारीक समुंद्र की गहराईयों में दबो दिया...... कि मैं कुछ ढूंढ कर लाऊं मैं एक बेबहा मोती लाया हूँ वो सच्चाई है इस तलाश में मैंने ग़ुर्बत देखी है, गरस्नगी बर्दाश्त की है। लोगों की नफ़रत से दो-चार हुआ हूँ। जाड़े में ग़रीबों की रगों में ख़ून को मुंजमिद होते देखा है, नौजवान लड़कियों को इशरत कदों की ज़ीनत बढ़ाते देखा है इस लिए कि वो मजबूर थीं अब मैं यही कुछ तुम्हारे मुँह पर क़ै कर देना चाहता हूँ कि तुम्हें तस्वीर-ए-ज़िंदगी का तारीक पहलू नज़र आ जाये।
इंसानियत एक दिल है। हर शख़्स के पहलू में एक ही क़िस्म का दिल मौजूद है। अगर तुम्हारे बूट ग़रीब मज़दूरों के नंगे सीनों पर ठोकरें लगाते हैं। अगर तुम अपने शहवानी जज़्बात की भड़कती हुई आग किसी हमसाया नादार लड़की की इस्मतदरी से ठंडी करते हो। अगर तुम्हारी ग़फ़लत से हज़ार-हा यतीम बच्चे गहवारा-ए-जहालत में पल कर जेलों को आबाद करते हैं। अगर तुम्हारा दिल काजल के मानिंद स्याह है। तो ये तुम्हारा क़ुसूर नहीं। ऐवान-ए-मुआशरत ही कुछ ऐसे ढब पर उस्तुवार किया गया है। कि उस की हर छत अपनी हमसाया छत को दाबे हूए है हर ईंट दूसरी ईंट को।
जानते हो, मौजूदा निज़ाम के क्या मानी हैं? ये कि लोगों के सीनों को जिहालत-कदा बनाए। इंसानी तलज़्ज़ुज़ की कश्ती हो और हवस की मौजों में बहा दे, जवान लड़कियों की इस्मत छीन कर उन्हें ऐवान-ए-तिजारत में खुले बंदों हुस्न-फ़रोशी पर मजबूर कर दे ग़रीबों का ख़ून चूस कर उन्हें जली हुई राख के मानिंद क़ब्र की मिट्टी में यकसाँ करदे किया उसी को तुम तहज़ीब का नाम देते हो भयानक क़स्साबी!! तारीक शैतनियत!!!
आह अगर तुम सिर्फ़ वो देख सको। जिस का मैंने मुशाहिदा किया है! ऐसे बहुत से लोग हैं। जो कब्र-नुमा झोनपड़ों में ज़िंदगी के सांस पूरे कर रहे हैं। तुम्हारी नज़रों के सामने ऐसे अफ़राद मौजूद हैं। जो मौत के मुँह में जी रहे हैं। ऐसी लड़कियां हैं। जो बारह साल की उम्र में इस्मत फ़रोशी शुरू करती हैं। और बीस साल की उम्र में क़ब्र की सर्दी से लिपट जाती हैं मगर तुम हाँ तुम, जो अपने लिबास की तराश के मुतअल्लिक़ घंटों ग़ौर करते रहते हो। ये नहीं देखते। बल्कि उलटा ग़रीबों से छीन कर उमरा की दौलतों में इज़ाफ़ा करते हो। मज़दूर से लेकर काहिल के हवाले कर देते हो। डिग्री पहने इंसान का लिबास उतार कर हरीर पोश के सुपुर्द कर देते हो।
तुम गुरबा के ग़ैर मुख़्ततिम मसाइब पर हंसते हो। मगर तुम्हें ये मालूम नहीं। कि अगर दरख़्त का निचला हिस्सा लागर मुर्दा हो रहा है तो किसी रोज़ वो बालाई हिस्से के बोझ को बर्दाश्त न करते हुए गिर पड़ेगा।”
यहां तक बोल कर सलीम ख़ामोश हो गया और ठंडी चाय को आहिस्ता आहिस्ता पीने लगा।
तक़रीर के दौरान में मैं सह्र ज़दा आदमी की तरह चुप चुप बैठा उस के मुँह से निकले हुए अल्फ़ाज़ जो बारिश की तरह बरस रहे थे। बग़ौर सुनता रहा। मैं सख़्त हैरान था। कि वो सलीम जो आज से कुछ अर्सा पहले बिलकुल ख़ामोश हुआ करता था । इतनी तवील तक़रीर क्योंकर जारी रख सका है। इस के इलावा ख़यालात किस क़दर हक़ पर मबनी थे। और आवाज़ में कितना असर था मैं अभी उस की तक़रीर के मुतअल्लिक़ कुछ सोच ही रहा था। कि वो फिर बोला
“ख़ानदान के ख़ानदान शहर के ये नहंग निगल जाते हैं। अवाम के अख़लाक़ क़वानीन से मस्ख़ किए जाते हैं। लोगों के ज़ख़्म जुरमानों से कुरेदे जाते हैं। टैक्सों के ज़रिये दामन-ए-ग़ुर्बत कतरा जाता है। तबाह शुदा ज़ेहनियत जिहालत की तारीकी स्याह बना देती है। हर तरफ़ हालत-ए-नज़ा के सांस की लर्ज़ां आवाज़ें, उर्यानी, गुनाह और फ़रेब है। मगर दावा ये है कि अवाम अम्न की ज़िंदगी बसर कर रहे हैं क्या इस के ये मानी नहीं हैं कि हमारी आँखों पर स्याह पट्टी बांधी जा रही है। हमारे कानों में पिघला हूआ सीसा उतारा जा रहा है। हमारे जिस्म मसाइब के कूड़े से बेहिस बनाए जा रहे हैं। ताकि हम न देख सकें। न सुन सकें और न महसूस कर सकें! इंसान जिसे बुलंदियों पर परवाज़ करना था। क्या उस के बाल-ओ-पर नोच कर उसे ज़मीन पर रेंगने के लिए मजबूर नहीं किया जा रहा? क्या उमरा की नज़र फ़रेब इमारतें मज़दूरों के गोश्त पोस्त से तैय्यार नहीं की जातीं? क्या अवाम के मकतूब-ए-हयात पर जराइम की मोहर सब्त नहीं की जाती? क्या मजलिसी बदन की रगों में बदी का ख़ून मोजज़न नहीं है। क्या जम्हूर की ज़िंदगी कशमकश-ए-पैहम, अनथक मेहनत और क़ुव्वत-ए-बर्दाश्त का मुरक्कब नहीं है? बताओ बताओ, बताते क्यों नहीं?”
“दरुस्त है” मेरे मुँह से बे-इख़्तयार निकल गया।
“तो फिर इस का ईलाज करना तुम्हारा फ़र्ज़ है क्या तुम कोई तरीक़ा नहीं बता सकते। कि इस इंसानी तज़लील को क्योंकर रोका जा सकता है मगर आह! तुम्हें मालूम नहीं, मुझे ख़ुद मालूम नहीं!!”
थोड़ी देर के बाद वो मेरा हाथ पकड़ कर राज़ दाराना लहजे में यूं कहने लगा। “अब्बास! अवाम सख़्त तकलीफ़ बर्दाश्त कर रहे हैं। बाअज़ औक़ात जब कभी मैं किसी सख़्ता हाल इंसान के सीने से आह बुलंद होते देखता हूँ। तो मुझे अंदेशा होता है कि कहीं शहर न जल जाये! अच्छा अब मैं जाता हूँ, तुम लाहौर वापस कब जा रहे हो?”
ये कह कर वो उठा। और टोपी सँभाल कर बाहर चलने लगा।
“ठहरो! मैं भी तुम्हारे साथ चलता हूँ कहाँ जाओगे अब?”
उसे यकलख़्त कहीं जाने के लिए तैय्यार देख कर मैंने उसे फ़ौरन ही कहा।
“मगर मैं अकेला जाना चाहता हूँ किसी बाग़ में जाऊंगा।”
मैं ख़ामोश हो गया। और वो होटल से निकल कर बाज़ार के हुजूम में गुम हो गया इस गुफ़्तुगू के चौथे रोज़ मुझे लाहौर में इत्तिला मिली कि सलीम ने मेरे जाने के बाद बाज़ारों में दीवाना वार शोर बरपा करना शुरू कर दिया था। इस लिए उसे पागलख़ाने में दाख़िल कर लिया गया है।
२४ मार्च १९३५-ई-
इशाअत-ए-अव्वलीं, अलीगढ़ मैगज़ीन