आवश्यक जानकारी
प्रस्तुति: सुनीता सुमन
गाय की खूबियां
गाय को गौमाता कहने की वजह धार्मिक और आध्यात्मिक ही नहीं, वैज्ञानिक आधार लिए हुए भी है। गाय जो हमें देती हैं वह कहीं अन्य से असंभव है। आईए जानते हैं उनकी समस्त खूबियों के बारे में। गाय आधिदैविक, अधिदैहिक एवं आधिभौतिक तीनों तापों का नाश करने में सक्षम है। इसी कारण अमृततुल्य दूध, दही, घी, गोमूत्र, गोमय तथा गोरोचना-जैसी अमूल्य वस्तुएं प्रदान करने वाली गाय को शास्त्रों में "सर्वसुखप्रदा" कहा गया है।
सृष्टि के निर्माण में, जो 32 मूल तत्व, घटक के रूप में है, वे सारे के सारे गाय के शरीर में विध्यमान है| अतः गाय की परिक्रमा करना अर्थात पूरी पृथ्वी की परिक्रमा करना है| गाय जो श्वास छोड़ती है, वह वायु एंटी-वाइरस है| गाय द्वारा छोड़ी गयी श्वास से सभी अदृश्य एवं हानिकारक बैक्टेरिया मर जाते है| गाय के शरीर से सतत एक दैवीय ऊर्जा निकलती रहती है जो मनुष्य शरीर के लिए बहुत लाभकारी है| गाय के शरीर से पवित्र गुग्गल जैसी सुगंध आती है जो वातावरण को शुद्ध और पवित्र करती है |
अमेरिका में कृषि विभाग द्वारा प्रकाशित हुई पुस्तक “The cow is a wonderful laboratory” के अनुसार पृथ्वी पर समस्त जीव-जंतुओं और सभी दुग्धधारी जीवों में केवल गाय ही ऐसी प्राणी है, जिसे ईश्वर ने 180 फुट (2160 इंच) लम्बी आंत दी है, जो अन्य किसी भी पशुओ में नहीं है |
भविष्य पुराण में लिखा गया है कि गोमाता कि पृष्ठदेश में ब्रह्म का गले में विष्णु का, मुख में रुद्र का, मध्य में समस्त देवताओं का और रोमकूपों में महर्षिगण, पूँछ में अन्नत नाग, खूरों में समस्त पर्वत, गौमूत्र में गंगा, गौमय में लक्ष्मी और नेत्रों में सूर्य-चन्द्र का वास हैं।
गाय आधिदैविक, अधिदैहिक एवं आधिभौतिक तीनों तापों का नाश करने में सक्षम है। इसी कारण अमृततुल्य दूध, दही, घी, गोमूत्र, गोमय तथा गोरोचना-जैसी अमूल्य वस्तुएं प्रदान करने वाली गाय को शास्त्रों में "सर्वसुखप्रदा" कहा गया है।
गाय की सींगो का आकर सामान्यतः पिरामिड जैसा होता है, जो कि शक्तिशाली एंटीना की तरह आकाशीय उर्जा (कोस्मिक एनर्जी) को संग्रह करने का कार्य करते है | गाय के कूबड/ककुद्द में सूर्य- केतु नाड़ी होती है, जो सूर्य के गुणों को धारण करती है। सभी नक्षत्रों की यह रिसीवर है। यही कारण है कि गौमूत्र, गोबर, दूध, दही, घी में औषधीय गुण होते हैं। गाय के कूबड़ में पायी जाने वाली नाड़ी, सूर्य के निकलने वाली अल्ट्रावायलेट किरणों को रोकती है।
गाय के दूध/ घी में पीलापन रंग का राज है कि, उसमें सोने की भी आंशिक मात्रा पायी जाती है। करीब 1600 किलोलीटर दूध में 10 ग्राम सोना पाया जाता है। जिससे शरीर की प्रतिरोधक क्षमता बढती है |
शोधकर्ताओं ने गाय के दूध में मौजूद "लैक्टोफेरिसिन B25" (लेफसिन B25) की खोज की है जो “गैस्ट्रिक कैंसर” की कोशिकाओं को रोकने में मदद करती हैं।
गाय के दूध के अन्दर जल 87 %, वसा 4 %, प्रोटीन 4%, शर्करा 5 %, तथा अन्य तत्व 1 से 2 % प्रतिशत पाया जाता है | गाय के दूध में 8 प्रकार के प्रोटीन 11 प्रकार के विटामिन, पाया जाता है | गाय के दूध में ‘कैरोटिन‘ नामक प्रदार्थ भैस या जर्सी गाय के दूध की तुलना में दस गुना अधिक होता है |
भैस या जर्सी गाय का दूध गर्म करने पर, उसके पोषक तत्व ज्यादातर ख़त्म हो जाते है परन्तु गाय के दूध के पोषक तत्व, गर्म करने पर भी सुरक्षित रहता है |
गाय के मूत्र में आयुर्वेद का खजाना है, इसके अन्दर ‘कार्बोलिक एसिड‘ होता है, जो कीटाणु नासक है | गौमूत्र चाहे जितने दिनों तक रखे, ख़राब नहीं होता है और इसमें कैसर को रोकने वाली ‘करक्यूमिन‘ पायी जाती है | गौमूत्र में नाइट्रोजन ,फास्फेट, यूरिक एसिड, पोटेशियम, सोडियम, लैक्टोज, सल्फर, अमोनिया, लवण रहित विटामिन ए वी सी डी ई, इन्जैम आदि तत्व पाए जाते है | गौमूत्र में मुख्यतः 16 खनिज तत्व पाये जाते है, जो शरीर की प्रतिरोधक क्षमता बढाता है | आयुर्वेद के अनुसार गौमूत्र का नियमित सेवन, कई बीमारियों को खत्म कर सकता है। नियमित रूप से 20 मिली गौमूत्र प्रात: सायं पीने से निम्न रोगों में लाभ होता है। 1.भूख की कमी, 2. अजीर्ण, 3. हर्निया, 4. मिर्गी, 5. चक्कर आना, 6. बवासीर, 7. प्रमेह, 8.मधुमेह, 9.कब्ज, 10. उदररोग, 11. गैस, 12. लूलगना, 13.पीलिया, 14. खुजली, 15.मुखरोग, 16.ब्लडप्रेशर, 17.कुष्ठ रोग, 18. जांडिस, 19. भगन्दर, 20. दन्तरोग, 21. नेत्र रोग, 22. धातु क्षीणता, 23. जुकाम, 24. बुखार, 25. त्वचा रोग, 26. घाव, 27. सिरदर्द, 28. दमा, 29. स्त्रीरोग, 30. स्तनरोग, 31.छिहीरिया, 32. अनिद्रा। जो लोग नियमित रूप से गौमूत्र का सेवन करते हैं, उनकी रोगप्रतिरोधी क्षमता बढ़ती है। शरीर स्वस्थ और ऊर्जावान बना रहता है।
गौमूत्र से औषधियाँ: गौमूत्र अर्क (सादा) 2. औषधियुक्त गौमूत्र अर्क (विभिन्न रोगों के हिसाब से) 3. गौमूत्र घनबटी 4. गौमूत्रासव 5. नारी संजीवनी 6. बालपाल रस 7. पमेहारी आदि।
देसी गाय के गोबर-मूत्र-मिश्रण से ‘'प्रोपिलीन ऑक्साइड” उत्पन्न होती है, जो बारिस लाने में सहायक होती है | इसी के मिश्रण से ‘इथिलीन ऑक्साइड‘ गैस भी निकलती है, जो “ऑपरेशन थियटर” में काम आता है |
पिछली सदी के अंत मे ब्राज़ील ने भारतीय पशुधन का आयात किया था । ब्राज़ील गई गायों मे गुजरात की "गिर" और "कंकरेज" नस्ल तथा आन्ध्रप्रदेश की "ओंगल" नस्ल की गाय शामिल थी । आपको जानकर आश्चर्य होगा कि आज पुरे विश्व में भारतीय नस्ल की गाय का ब्राजील सबसे बडा निर्यातक देश है , जबकि भारत में देशी गाय की दुर्दशा किसी से छिपी हुई नहीं है | इतना ही नहीं, बल्कि ब्राज़ील में हुए एक प्रतिस्पर्धा में भारतीय नस्ल की एक गाय ने सबसे अधिक दूध देकर ये साबित कर दिया कि जर्सी गाय की वकालत करने वालों के तर्क में खोखलापन है |
दूध को दो श्रेणियों मे बांटा गया है- A1 और A2 { A1 जर्सी का और A2 भारतीय देशी गाय का } भारत सहित पुरे विश्व में A1 दूध पीकर लोग कैंसर, मधुमेह, गठिया ,अस्थमा, मानसिक विकार जैसे दर्जनों रोगों का शिकार हो गए है| दुनिया भर में डेयरी उद्योग अपने पशुओं की प्रजनन नीतियों में '' अच्छा दूध अर्थात् BCM7 मुक्त A2 दूध “ के उत्पादन के आधार पर बदलाव ला रही हैं| विश्व बाज़ार में न्युज़ीलेंड, ओस्ट्रेलिया, कोरिआ, जापान और अब अमेरिका मे प्रमाणित A2 दूध के दाम साधारण A1 डेरी दूध के दाम से कही अधिक हैं| जबकि A2 दूध सिर्फ भारतीय नस्ल की देशी गाय से प्राप्त होता है
भारतीय देशी गाय में वात्सल्य भावना कूट—कूटकर भरी होती है। वह अपने बच्चे को जन्म देने के बाद 18 घंटे तक चाटती—दुलारती रहती है। यही कारण है कि सैंकड़ों बछड़ों के बीच भी अपने बच्चे को पहचान लेती है। और तो और, गाय जबतक अपने बच्चे को दूध नहीं पिलाती है, तबतक दूध नहीं देती है। जबकि भैंस या जर्सी गाय चारा खाते ही दूध दूहने की अनुमति दे देती है। यही कारण है कि गाय का दूध पीने वाले बच्चे में काफी शांत और सौम्य आचरण एवं व्यवहार ज्यादा देखे गए हैं।
गायों की लोकप्रिय भारतीय प्रजातियां
वेचूर
गोवंश की वेचूर प्रजाति केरल प्रदेश की है। छोटे कद की इस नस्ल की गाय को केरल में त्रिचूर जिला स्थित मनूथी में केरल कृषि विश्वविद्यालय ने विकसित किया है, जिनकी संख्या बहुत कम 100 के करीब है। वैसे इस नस्ल के ऊपर मध्य प्रदेश के सतना जिले में चित्रकूट स्थित दीनदयाल शोध संस्थान में विकासात्मक काम किया गया हैं। इस जाति की गायों पर जहां रोगांे का प्रभाव बहुत ही कम पड़ता है, वहीं इस नस्ल की गायों के दूध में सर्वाधिक औषधीय गुण पाए जाते हैं। इसे दुधरू श्रेणी की गायों में रखा जा सकता है। यहां तक कि इसके पालने में बहुत ही कम खर्च आता है, जो एक बकरी पालने के खर्च जैसा ही होता है। हल्के लाल, काले और सफेद रंगों के खूबसूरत मेल की इस नस्ल की गायों का सिर लंबा और संकरा होता है, जबकि सिंगें छोटी, पूंछ लंबी और लालट कर्व लिए होती हैं। कान सामान्य लेकिन दिखने में आकर्षक होते हैं।
अमृत महाल
कर्नाटक के मैसूर, हासन, चिकमगलूर और चित्रदुर्गा जिले में पायी जाने वाली अमृतमहाल नस्ल की गायें खाकी रंग की होती है। इस प्रजाति की गायों का रंग खाकी, मस्तक और गला काले रंग की, सिर लंबा , जबकि मुंह और नथुने कम चैड़ाई के होते हैं। इन्हें वर्ष 1575 और 1632 के दौरान विकसित किया गया, जिन्हें एक ताकतवर नजरिए से देखा गया, क्योंकि इसके बैल मध्यम कद के और बहुत ही फूर्तीले होते हैं। एक जमाने में ये बैल मुख्य रूप से परिवहन के लिए इस्तेमाल आते थे और इन्हें बेन्ने चेवड़ी कहा जाता था। टिपू सुल्तान से इसे नया नाम अमृतमहाल दिया था। हालांकि ये गायें बहुत कम दूध देती हैं। इनकी सिंगें लंबी, नुकीली और पीछे की और लहराती हुई होती हैं तथा कान छोटे और क्षैतिज अर्थात दोनों ओर फैले होते हैं। खूर कड़े और काफी सटे होते हैं।
बरगूर
गौवंश की यह प्रजाति तमिलनाडू के इरोडे की बरगूर नामक पहाड़ी क्षेत्र में पायी जाती है। इन्हें जगंली गायों के रूप में भी जाना जाता है। इस जाति की गाय काफी कम मात्रा में दूध देती हैं, लेकिन इसके बैल काफी तेज चलने वाले और सहनशील होते हैं, जिनसे लंबे समय तक परिवहन संबंधी काम लिया जा सकता है। इनका रंग भूरा और सफेद मिला हुआ चितकबरे जैसा होता है। मध्यम कद की इस नस्ल की गायों का सिर लंबा, पूंछ छोटी और मस्तक उभरा हुआ होता है। सिंगें लंबी, ऊपर की ओर उठी, लेकिन पीछे की ओर झुकी हुई नुकीली गहरे भूरे रंग होती है। कान पीछे की ओर तने़ होते हैं।
डांगी
महाराष्ट्र के अहमद नगर, नासिक और अंग्स क्षेत्र में पायी जाने वाली गौवंश डांगी प्रजाति की गाय को डंग्स घाट्स भी कहा जाता है। इस जाति के बैल बहुत ही मजबूत और परिश्रमी होते हैं और गायें दूध बहुत ही कम मात्रा में देती हैं। भारी देह वाली मध्यम कद की इन गायों को चितकबरी गाय के रूप में भी जाना जाता है, जिसके रंग गाढ़ा लाल, काला और सफेद होते हैं। सिंगें छोटी मगर मोटी, नथुने बड़े, कान छोटे ओर सिंगों की तरह पीछे की ओर झुके उसके साथ सामानांतर में होते हैं। खुरें बहुत ही कठोर, काली चकमक पत्थर की तरह होते हैं तथा त्वचा से निकलने वाल तेल इन्हें बारिश के दुष्प्रभाव के बचाता है।
जवारी
कर्नाटक के बीजापुर और हुबली क्षेत्रों में पायी जाने वली जवारी प्रजाति की गायें छोटे कद की होती हैं। इनमें रोगों से लड़ने और विपरीत जलवायु को सहन करने की अच्छी क्षमता होती है। अर्थात इनको कोई बीमारी नहीं होती है। ये अलग-अलग रंगों में पायी जाती हैं। जैसे पूरी काली, भूरी या स्लेटी रंगों की होती हैं। थूथन का रंग भी गाढ़ा भूरा होता है। इसी तरह से खूर गाढ़े भूरे या स्लेटी होते हैं। सिर छोटे, मस्तक चैड़ाई लिए हुए और सिंगें फैली हुई छोटे आकर की होती हैं। छोटे पैरों के कारण इसके बौनेपन का आभास होता है। सामान्य मात्रा में दूध देती हैं।
कंगायम
तमिलनाडु की इरोड, डिंडगल और कोयंबटूर जिलों में पायी जाने वाली कंगायम प्रजाति की गायें मध्यम आकार की होती हैं। इनका रंग सफेद या स्लेटी होता है, जबकि इस नस्ल के बैल गाढ़े रंगों के कूबड़, वाले होते हैं। हालांकि इन्हें लाल, काले, हल्के पीले रंगों के मिश्रित रूप में देखा जाता है। मस्तक चैड़ी, आंखें, खुरें और थूथन कालापन लिए होते है। सिंगें लंबे और ऊपर की ओर होती है। इस प्रजाति के गोवंश अपनी स्फूर्ति और श्रम-सहिष्णुता के लिए विशेष तौर पर प्रसिद्ध हैं। कम दूध देने के बावजूद ये गायें 10 से 12 सालों तक दूध देती हैं।
कंकरेज
गौवंश की प्रजाति कंकरेज भारत की सबसे पुरानी नस्लों में से एक है, जो गुजरात प्रदेश के काठियावाड़, बड़ौदा, कच्छ और सूरत में पायी जाती है। इसकी उपलब्धता राजस्थान के जोधपुर में भी है। छोटे किंतु चैड़े मुंह वाली यह दोहरे एवं भारी नस्ल की गाय बढि़यार और सर्वांगी के नाम से भी जानी जाती है। इनका रंग काला या स्लेटी होता है। इसके बैलों काला कूबड़ होता है। छोटी नाक थोड़ी ऊपर की ओर उठी होती है। सिंगंे लंबी, मजबूत और लुभावने होते हैं तथा कान लटके हुए लंबे और मस्तिष्क चिकनी उभरी होती है। इस प्रजाति की गाय या बैल दोनों के गले के नीचे का लटकता हुआ झालरनुमा मांस भी इसकी खास पहचान है। इसे दुधारू गायों की श्रेणी में रखा जा सकता है।
कृष्णाबेली
कर्नाटक के कृष्णा नदी के तटीय क्षेत्रों में पायी जानी वाली कृष्णाबेली गाय की नस्ल गिर, ओंगोल, कांकरेज, हल्लिकर नस्लों से ही विकसित की गई है। यह महाराष्ट्र और आंध्र प्रदेश के कुछ इलाके में भी पायी जाती है। इनके मुंह का अगला हस्सा बड़ा और सिंगें सामान्य से छोटी और ऊपर में अंदर की ओर मुड़ी होती है। मस्तिष्क उभरा हुआ तथा दानों कान छोटे मगरे नुकीले होते हैं। पूंछ जमीन को करीब-करीब छूती हुई काली होती है। गाय जहां स्लेटी, भूरा और काले रंग की होती है, जबकि बैल गहरे रंग के होते हैं। यह औसत गायों की तरह ही दूध देती है।