Suni ansuni pyari bate in Hindi Spiritual Stories by PRAFUL DETROJA books and stories PDF | सुनी अनसुनी प्यारी प्यारी बातें

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सुनी अनसुनी प्यारी प्यारी बातें

सुनी अनसुनी प्यारी प्यारी बातें

एक चोर राजमहल में चोरी करने गया, उसने राजा-रानी की बातें सुनी । राजा रानी से कह रहे थे कि गंगा तट पर बहुत साधु ठहरे हैं, उनमें से किसी एक को चुनकर अपनी कन्या का विवाह कर देंगें । यह सुनकर चोर साधु का रुप धारण कर गंगा तट पर जा बैठा । दूसरे दिन जब राजा के अधिकरी एक-एक करके सभी साधुओं से विनती करने लगे तब सभी ने विवाह करना अस्वीकार किया । जब चोर के पास आकर अधिकारियों ने निवेदन किया तब उसने हां ना कुछ भी नहीं कहा ।

राजा के पास जाकर अधिकारियों ने कहा कि सभी ने मना किया, परंतु एक साधु लगता है, मान जाएंगे । राजा स्वयं जाकर साधुवेषधारी चोर के पास हाथ जोडकर खडे हो गये एवं विनती करने लगे । चोर के मन में विचार आया कि मात्र साधु का वेष धारण करने से राजा मेंरे सामने हाथ जोडकर खडा है; तो यदि मैं सचमुच साधु बन गया,तो संसार में ऐसी कोई भी वस्तु नहीं, जो मेरे लिए अप्राप्त होगी । उसने विवाह के प्रस्ताव को अमान्य कर दिया एवं सच्चे अर्थ में साधु बन गया । उसने कभी भी विवाह नहीं किया एवं साधना कर संतपद प्राप्त किया ।

जबतक तुम्हें अभिमानसे मित्रता और विनयसे शत्रुता है, तबतक तुम्हें सच्चा आदर नहीं मिलेगा। जबतक तुम्हें स्वार्थकी परवा है और परार्थकी नहीं, तबतक तुम्हारा स्वार्थ सिद्ध नहीं होगा। जबतक तुम्हें बाहरी रोगोंसे डर है और काम-क्रोधादि आदि भीतरी रोगोंसे प्रीति है, तबतक तुम निरोग नहीं हो सकोगे।

जबतक तुम्हें धर्मसे उदासीनता और अधर्मसे प्रीति है, तबतक तुम सदा असहाय ही रहोगे। जबतक तुम्हें मृत्युका डर है और मुक्ति की चाह नहीं है, तबतक तुम बार-बार मरते ही रहोगे। जबतक तुम्हें घर-परिवारकी चिन्ता है और भगवान् की कृपा पर भरोसा नहीं है, तबतक तुम्हें चिन्ता-युक्त ही रहना पड़ेगा। जबतक तुम्हें प्रतिशोधसे प्रेम है, और क्षमासे अरुचि है, तबतक तुम शत्रुओंसे घिरे ही रहोगे। जबतक तुम्हें विपत्तिसे भय है और प्रभुमें अविश्वास है, तबतक तुम पर विपत्ति बनी ही रहेगी।

सच्चा यज्ञ वही है, जो भगवान्-को प्रसन्न करनेवाला और जगत्-का कल्याण करनेवाला हो । सच्चा तप वही है, जो धर्मके लिये प्राणोंकी बलि चढ़ानेके लिये प्रस्तुत कर दे । सच्चा दान वही है, जो बिना फल चाहे दिया जाय और जिसमें यथार्थ त्याग हो । सच्चा जीवन वही है, जो केवल प्रभुकी सेवाके लिये लोकहितमें लगा हो ।

सच्चा मरण वही है, जो मौतको सदाके लिये मार दे । सच्चा भोग वही है, जो भोक्तापनको भगा दे और सबके भोक्ता भगवान्-से मिला दे । सच्चा त्याग वही है, जो त्याग्की स्मृतिका भी त्याग करा दे । सच्चा वैराग्य वही है, जो सबको मनसे निकाल दे और प्रभु-सेवाके लिये एकान्तमें तैयार रहे । सच्चा विश्वास वही है, जो विपत्ति और विनाशमें भी प्रभुकी कृपाके दर्शन कराता रहे । सच्चा स्मरण वही है, जो बिना हुए कभी रहे ही नहीं ।

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जब हम प्रभु की भक्ति से खुद को जोड़ लेते हैं, तभी हमारी वास्तविक जीवन-यात्रा प्रारंभ होती है। मानव जीवन एक यात्रा है और इस यात्रा का प्रारंभ उसके जन्म के साथ होता है। एक शिशु जन्म लेता है, शैशव अवस्था आती है, फिर वह युवावस्था में प्रवेश करता है। वृद्धावस्था के बाद अंतिम चरण में मृत्यु का तांडव होता है।

साधारणत: लोग जन्म और मृत्यु के इस अंतराल को ही जीवन समझते हैं, लेकिन महापुरुषों ने इसको जीवन नहीं माना है। वास्तव में जीवन का प्रारंभ ही तभी होता है, जब हम प्रभु की वास्तविक भक्ति को जान कर उनकी ओर जाना आरंभ कर देते हैं, उनसे जुड़ने की कोशिश करते हैं। गोस्वामी तुलसीदास कहते हैं :-

जिन्ह हरिभगति हृदयं नहिं आनी, जीवत सव समान तेइ प्रानी अर्थात:- जिसके अंत:करण में प्रभु की भक्ति नहीं है, वह एक शव की तरह है, जीवित होते हुए भी मृतक के समान है। महापुरुषों के अनुसार, वास्तविक जीवन केवल श्वासों के चलने का नाम नहीं, अपितु प्रभु की भक्ति को जानकर मनुष्य जन्म के उद्देश्य को पूर्ण कर लेना है।

श्री गुरु नानक देव जी कहते हैं :- सो जीविआ जिसु मनि वसिआ सोइ, नानक अवरु न जीवै कोइ॥ अर्थात:- जिसके मन में प्रभु का निवास हो गया है, वास्तव में वही जीवित है। बाकी सभी तो मृतक के समान हैं, क्योंकि वे ईश्वर को जाने बिना क्षण-प्रति क्षण मृत्यु की ओर बढ़ रहे हैं। श्री गुरु नानक देव जी कहते हैं कि प्रभु कृपा से ही इस जीव को मानव तन मिला है, लेकिन यह जीव अपने जीवन के वास्तविक उद्देश्य को जानने का प्रयास तक नहीं करता, बल्कि सारा समय व्यर्थ ही गंवा देता है। हमें जीवन के मूल्य को पहचानकर प्रभु मूल्य से स्वयं को समय रहते जोड़ लेना चाहिए।

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मृत्यु से भय कैसा राजा परीक्षित को श्रीमद्भागवत पुराण सुनाते हुए जब शुकदेव जी महाराज को छह दिन बीत गए और तक्षक (सर्प) के काटने से मृत्यु होने में एक दिन शेष रह गया, तब भी राजा परीक्षित का शोक और मृत्यु का भय दूर नहीं हुआ। अपने मरने की घड़ी निकट आती देखकर राजा का मन क्षुब्ध हो रहा था।

तब शुकदेव जी महाराज ने परीक्षित को एक कथा सुनानी आरंभ की राजन ! बहुत समय पहले की बात है; एक राजा किसी जंगल में शिकार खेलने गया। संयोगवश वह रास्ता भूलकर बड़े घने जंगल में जा पहुँचा। उसे रास्ता ढूंढते-ढूंढते रात्रि पड़ गई और भारी वर्षा पड़ने लगी।

जंगल में सिंह, व्याघ्र आदि बोलने लगे। वह राजा बहुत डर गया और किसी प्रकार उस भयानक जंगल में रात्रि बिताने के लिए विश्राम का स्थान ढूंढने लगा। रात के समय में अंधेरा होने की वजह से उसे एक दीपक दिखाई दिया। वहाँ पहुँचकर उसने एक गंदे बहेलिये की झोंपड़ी देखी । वह बहेलिया ज्यादा चल-फिर नहीं सकता था, इसलिए झोंपड़ी में ही एक ओर उसने मल-मूत्र त्यागने का स्थान बना रखा था। अपने खाने के लिए जानवरों का मांस उसने झोंपड़ी की छत पर लटका रखा था।

बड़ी गंदी, छोटी, अंधेरी और दुर्गंधयुक्त वह झोंपड़ी थी। उस झोंपड़ी को देखकर पहले तो राजा ठिठका, लेकिन पीछे उसने सिर छिपाने का कोई और आश्रय न देखकर उस बहेलिये से अपनी झोंपड़ी में रात भर ठहर जाने देने के लिए प्रार्थना की। बहेलिये ने कहा कि आश्रय के लोभी राहगीर कभी-कभी यहाँ आ भटकते हैं।

मैं उन्हें ठहरा तो लेता हूँ, लेकिन दूसरे दिन जाते समय वे बहुत झंझट करते हैं। इस झोंपड़ी की गंध उन्हें ऐसी भा जाती है कि फिर वे उसे छोड़ना ही नहीं चाहते और इसी में ही रहने की कोशिश करते हैं एवं अपना कब्जा जमाते हैं। ऐसे झंझट में मैं कई बार पड़ चुका हूँ।। इसलिए मैं अब किसी को भी यहां नहीं ठहरने देता। मैं आपको भी इसमें नहीं ठहरने दूंगा। राजा ने प्रतिज्ञा की कि वह सुबह होते ही इस झोंपड़ी को अवश्य खाली कर देगा।

उसका काम तो बहुत बड़ा है, यहाँ तो वह संयोगवश भटकते हुए आया है, सिर्फ एक रात्रि ही काटनी है। बहेलिये ने राजा को ठहरने की अनुमति दे दी, पर सुबह होते ही बिना कोई झंझट किए झोंपड़ी खाली कर देने की शर्त को फिर दोहरा दिया। राजा रात भर एक कोने में पड़ा सोता रहा।

सोने में झोंपड़ी की दुर्गंध उसके मस्तिष्क में ऐसी बस गई कि सुबह उठा तो वही सब परमप्रिय लगने लगा। अपने जीवन के वास्तविक उद्देश्य को भूलकर वहीं निवास करने की बात सोचने लगा। वह बहेलिये से और ठहरने की प्रार्थना करने लगा। इस पर बहेलिया भड़क गया और राजा को भला-बुरा कहने लगा। राजा को अब वह जगह छोड़ना झंझट लगने लगा और दोनों के बीच उस स्थान को लेकर विवाद खड़ा हो गया। कथा सुनाकर शुकदेव जी महाराज ने परीक्षित से पूछा," परीक्षित ! बताओ, उस राजा का उस स्थान पर सदा के लिए रहने के लिए झंझट करना उचित था ? " परीक्षित ने उत्तर दिया," भगवन् !

वह कौन राजा था, उसका नाम तो बताइये ? वह तो बड़ा भारी मूर्ख जान पड़ता है, जो ऐसी गंदी झोंपड़ी में, अपनी प्रतिज्ञा तोड़कर एवं अपना वास्तविक उद्देश्य भूलकर, नियत अवधि से भी अधिक रहना चाहता है। उसकी मूर्खता पर तो मुझे आश्चर्य होता है। " श्री शुकदेव जी महाराज ने कहा," हे राजा परीक्षित ! वह बड़े भारी मूर्ख तो स्वयं आप ही हैं। इस मल-मूल की गठरी देह (शरीर) में जितने समय आपकी आत्मा को रहना आवश्यक था, वह अवधि तो कल समाप्त हो रही है। अब आपको उस लोक जाना है, जहाँ से आप आएं हैं।

फिर भी आप झंझट फैला रहे हैं और मरना नहीं चाहते। क्या यह आपकी मूर्खता नहीं है ? राजा परीक्षित का ज्ञान जाग पड़ा और वे बंधन मुक्ति के लिए सहर्ष तैयार हो गए। मेरे भाई - बहनों, वास्तव में यही सत्य है। जब एक जीव अपनी माँ की कोख से जन्म लेता है तो अपनी माँ की कोख के अन्दर भगवान से प्रार्थना करता है कि हे भगवन् !

मुझे यहाँ ( इस कोख ) से मुक्त कीजिए, मैं आपका भजन-सुमिरन करूँगा। और जब वह जन्म लेकर इस संसार में आता है तो ( उस राजा की तरह हैरान होकर ) सोचने लगता है कि मैं ये कहाँ आ गया ( और पैदा होते ही रोने लगता है ) फिर उस गंध से भरी झोंपड़ी की तरह उसे यहाँ की खुशबू ऐसी भा जाती है कि वह अपना वास्तविक उद्देश्य भूलकर यहाँ से जाना ही नहीं चाहता है। यह राजा परीक्षित की कथा भी है और मेरी तथा आपकी भी ।

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भक्त जटायु की अंतिम साँसे चल रही थी तब लक्ष्मण जी ने उसे कहा कि हे जटायु तुम्हे मालूम था कि रावण से यूद्ध कदापि नही जीत सकते तो तुमने उसे ललकारा क्यों ? तब जटायु ने बहुत अच्छा जबाब दिया था । जटायु ने कहा कि मुझे मालूम था कि मैं रावण से युद्घ में नही जीत सकता पर अगर मेंने उस वक्त रावण से युद्ध नही किया होता तो भारतवर्ष की आने वाली पीढ़िया मुझे कायर कहती । अरे एक नारी का अपहरण मेरी आँखों के सामने हो रहा है और में कायरो की भांति बिल में पड़ा रहूं इससे तो मृत्यु ही अच्छी है अपने सर पे कायरता का कलंक लेके जीना नहीं चाहता था इसलिए पक्षि के विचार है अगर भारतवर्ष के हर लोग की ऐसी सोच होती तो आज भारत विश्वगुरू होता भक्त हो तो जटायु जेसा ।

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ज्वाला देवी मंदिर की कथा ज्वाला देवी का यह स्थान धूमा देवी का स्थान भी माना जाता हैं ! इसकी मान्यता ५१ शक्ति पीठों में हैं ! कहा जाता हैं कि यहाँ पर भगवती सती की जिह्वा गिरी थी! इस तीर्थ में देवी के दर्शन 'ज्योति' के रूप में किये जाते हैं! पर्वत की चट्टान से नौ विभिन्न स्थानों पर ज्योति बिना किसी ईधन के स्वतः प्रज्ज्वलित होती हैं!

इसी कारण देवी को ज्वाला देवी के नाम से पुकारा जाता हैं और यह स्थान ज्वाला माई नाम से प्रसिद्ध हैं! ज्वाला देवी का यह स्थान हिमाचल प्रदेश के जिला कांगड़ा में स्थित हैं! पंजाब राज्य में जिला होशियारपुर गोपी पुरा डेरा नामक स्थान से लगभग २० किलोमीटर की दूरी पर ज्वाला जी का मंदिर हैं! पठानकोट से कांगड़ा होते हुए भी यात्री ज्वालामुखी पहुँच सकते हैं !

कांगड़ा से ज्वालामुखी का लगभग ३ घंटे का बस मार्ग हैं! यहाँ से हर आधे घंटे में बसें चलती हैं! श्री ज्वालादेवी मंदिर में देवी के दर्शन नौ ज्योतियों के रूप में होते हैं! यह ज्योतियाँ कभी कम कभी अधिक के रूप में भी विद्यमान रहती हैं! भाव इस प्रकार माना जाता हैं कि माँ दुर्गा के नव रूप में जो नव दुर्गा कहे गए हैं वो ही चौदह भुवन हैं और सृष्टि की रचना करने वाली हैं! मंदिर के द्वार के सामने चाँदी के आले में जो मुख्य ज्योति सुशोभित हैं उसको महाकाली का रूप कहा जाता हैं ! यह पूर्ण ब्रहम - ज्योति तथा भक्ति और मुक्ति को देने वाली हैं !

ज्योतियों के पवित्र नाम व् दर्शन इस प्रकार हैं पवित्र ज्योति दर्शन १ चाँदी के आले में सुशोभित मुख्य ज्योति का पवित्र नाम महाकाली हैं जो मुक्ति भुक्ति देने वाली हैं! २ इसके नीचे जो ज्योति सुशोभित हैं वह महा माया 'अन्न पूर्णा ' की हैं जो माता भंडार भरने वाली हैं! ३ तीसरी ज्योति शत्रुओं का विनाश करने वाली माता चंडी की हैं !

४ समस्त व्याधियों का नाश करने वाली यह ज्योति हिंगलाज भवानी की हैं! ५ पंचम ज्योति विन्ध्य्वासिनी हैं, जो शोक से छुटकारा देती हैं! ६ छठी ज्योति महालक्ष्मी माता की हैं जो धन - धन्य देने वाली हैं ! यह कुण्ड में विराजमान हैं! ७ यह ज्योति विद्यादात्री माता शारद की हैं जो कुण्ड में सुशोभित हैं! ८ यह संतान सुख देने वाली अम्बिका माई की ज्योति हैं जो कुण्ड में दर्शन दे रही हैं ! ९ यह ज्योति अंजना माता की हाँ जो यहीं कुण्ड में दर्शन दे रही हैं ! (संकलन)

Praful patel