संदर्भ: न्यूमरोलॉजी
प्रस्तुति: ऐस्ट्रोविजन
नंबर बोले, किस्मत खोले-2
अंक, ग्रह और राशि
सभी मूल अंकों 1,2,3,4,5,6,7,8 और 9 का सभी ग्रहों से ठीक वैसा ही संबंध है, जैसा कि बारह राशियों के साथ होता है। ग्रहों की चर्चा किये बगैर किसी भी तरह के ज्यातिषीय प्रभाव की गणना नहीं की जा सकती है। व्यक्ति जन्म से लेकर पूरे जीवन काल के दौरान ग्रहों के प्रभाव में बना रहता है। इसकी चाल और एक-दूसरे पर प्रभाव की दशा में व्यक्ति अपनी क्षमता और ऊर्जा को अर्जित करता है। किसी भी व्यक्ति के जन्म की तारीख, समय और स्थान के सीधा संबंध उन ग्रहों के साथ सीधे तौर पर खगोलिय गणना के अधार पर बन जाता है। उसके बाद जैसे-जैसे ग्रहों का परिभ्रमण होता है वैसे-वैसे व्यक्ति अपने ऊपर उन ग्रहों के प्रभाव को महसूस करता है। इसके आकलन के लिए ज्यातिष में राशियों से निकाला जाता है, तो एक अन्य तरीका अंक ज्योतिष में भी है। इसे समझने से पहले आइए पहले जानते हैं कि ग्रहों की चाल और दिशा कैसी होती है।
कैसे-कैसे शक्तिशाली ग्रह
सूर्य या किसी अन्य तारे के चारों ओर परिक्रमा करने वाले खगोल पिण्डों को ग्रह कहते हैं। अंतर्राष्ट्रीय खगोलीय संघ के अनुसार हमारे सौर मंडल में आठ ग्रह हैं - बुध, शुक्र, पृथ्वी, मंगल, बृहस्पति, शनि, युरेनस और नेप्चून। इनके अतिरिक्त तीन बौने ग्रह और हैं - सीरीस, प्लूटो और एरीस। प्राचीन खगोलशास्त्रियों ने तारों और ग्रहों के बीच में अन्तर इस तरह किया- रात में आकाश में चमकने वाले अधिकतर पिण्ड हमेशा पूरब की दिशा से उठते हैं, एक निश्चित गति प्राप्त करते हैं और पश्चिम की दिशा में अस्त होते हैं। इन पिण्डों का आपस में एक दूसरे के सापेक्ष भी कोई परिवर्तन नहीं होता है। इन पिण्डों को तारा कहा गया। पर कुछ ऐसे भी पिण्ड हैं, जो बाकी पिण्डों के सापेक्ष में कभी आगे जाते थे और कभी पीछे। यानी कि वे घुमक्कड़ थे। अंग्रेजी का च्संदमज;प्लेनेटद्धएक लैटिन का शब्द है, जिसका अर्थ होता है इधर-उधर घूमने वाला। इसलिये इन पिण्डों का नाम प्लेनेट और हिन्दी में ग्रह रख दिया गया। शनि के परे के ग्रह दूरबीन के बिना नहीं दिखाई देते हैं, इसलिए प्राचीन वैज्ञानिकों को केवल पांच ग्रहों का ज्ञान था, पृथ्वी को उस समय ग्रह नहीं माना जाता था।
ज्योतिषियों का दावा है कि पृथ्वी से जुड़े प्राणियों की प्रभा ;ऊर्जा पिंडोंद्ध और मन को ग्रह प्रभावित करते हैं। प्रत्येक ग्रह में एक विशिष्ट ऊर्जा गुणवत्ता होती है। ग्रहों की ऊर्जा किसी व्यक्ति के भाग्य के साथ एक विशिष्ट तरीके से उस वक्त जुड़ जाती है जब वे अपने जन्मस्थान पर अपनी पहली सांस लेता है। यह ऊर्जा जुड़ाव धरती के निवासियों के साथ तब तक रहता है जब तक उसका वर्तमान शरीर जीवित रहता है। नौ ग्रह, सार्वभौमिक, आद्यप्ररुपीय ऊर्जा के संचारक हैं। प्रत्येक ग्रह के गुण स्थूल जगत और सूक्ष्म जगत वाले ब्रह्मांड के समग्र संतुलन को बनाए रखने में मदद करते हैं।
मनुष्य भी, ग्रह या उसके स्वामी देवता के साथ संयम के माध्यम से किसी विशिष्ट ग्रह की चुनिन्दा ऊर्जा के साथ खुद की अनुकूलता बिठा लेता है। विशिष्ट देवताओं की पूजा का प्रभाव उनकी संबंधित ऊर्जा के माध्यम से पूजा करने वाले व्यक्ति के लिए तदनुसार विशेष रूप से संबंधित ग्रह द्वारा धारण किये गए भाव के अनुसार फलता है। ब्रह्मांडीय ऊर्जा जो हम हमेशा प्राप्त करते हैं उसमें अलग-अलग खगोलीय पिंडों से आ रही ऊर्जा शामिल होती हैं। इस क्रम में जब हम बार-बार किसी मंत्र का उच्चारण करते हैं तो किसी खास फ्रीक्वेंसी के साथ तालमेल बैठाते हैं और यह फ्रीक्वेंसी ब्रह्मांडीय ऊर्जा के साथ संपर्क स्थापित करती है और उसे हमारे शरीर के भीतर और आसपास खींचती है।
इस धारणा की चर्चा कि ग्रह, तारे और अन्य खगोलीय पिंड, ऊर्जा की ऐसी सजीव सत्ता हैं जो ब्रह्माण्ड के अन्य प्राणियों को प्रभावित करते हैं कई अन्य प्राचीन संस्कृतियों में भी मिलती है और इस मान्यता का उपयोग कई आधुनिक कथा साहित्य की पृष्ठभूमि में किया गया है।ज्योतिष के अनुसार ग्रह की परिभाषा अलग है।
भारतीय ज्योतिष और पौराणिक कथाओं में नौ ग्रह गिने जाते हैं, सूर्य, चन्द्रमा, बुध, शुक्र, मंगल, गुरु, शनि, राहु और केतु। इनमें सबसे बड़ा सूर्य ग्रह के चारो ओर भिन्न आयतन, आकार और द्रव्यमान के ग्रह अपनी कक्षा में धूरी पर स्थिर होकर घूमता रहता है। कक्षा मे इनकी औसत चाल सूर्य से औसत दूरी पर निर्भर करता है। इस समस्त कार्यप्रणाली को कैप्लर के विश्लेषित किया है। उनके द्वारा बताए गए नियम के अनुसार सभी ग्रह सूर्य के चारों ओर परिभ्रमण करते समय अपनी चाल द्वारा समान समय में समान क्षेत्र को प्रभावित करते हैं।
विशेष तौर पर दो ग्रह सूर्य और चंद्रमा है। चंद्रमा सूर्य के चारो ओर घूमने वाली और अपनी धूरी पर घूर्णन करने वाली पृथ्वी के के चारो ओर घूमने वाला एक उपग्रह है। यानि कि चंद्रमा पृथ्वी के साथ विशेष तालमेल बिठाकर सूर्य का परिभ्रमण करने वाला ग्रह है। इस कारण इसे उपग्रह भी कहा जाता है। सूर्य और चंद्रमा के प्रभावों को हर कोई महसूस करता है, तो इनका इस्तेमाल समय की गणनाओं के लिए किया जाता है। अगर इन दोनों का पृथ्वी पर पड़ने वाले प्रभाव के बारे में देखें तो सूर्य जहां तेज रोशनी, ताप और उसके विविध प्रभावों के जरिये सभी जीवों को पर सीधा असर डालता है। जबकि चंद्रमा का दिखने वाला प्रभाव मध्यम रोशनी और शीतलता है। समुद्र में एक से 50 मीटर तक उठने वाली लहरें चंद्रमा के प्रभाव के करण ही बनती हैं। इसकी ऊंचाई तक उठने के बारे में इंग्लैंड के डार्विन, फ्रांस के फ्लेमेरियन और जर्मनी के दूसरे कई वैज्ञानिकों ने शोध कर पता लगाया है कि इसकी मूल वजह में चंद्रमा का पृथ्वी के साथ बना हुआ गुरुत्वीय आकर्षण है। इस आधार पर कहा गया कि चंद्रमा का प्रभाव जीव-जंतुओं पर भी पड़ता है। मनुष्य का मस्तिष्क इसके पूरी तरह प्रभावित होता है।
इसी आधार पर चंद्रमा के संदर्भ में बताया गया कि जब एक छोटा सा ग्रह पृथ्वी और मनुष्य को प्रभावित कर सकता है तो उससे कई गुणा बड़े ग्रह का उसी तरह का प्रभाव क्यों नहीं पड़ सकता है। हालांकि यह ग्रहों के अपने व्यास और पृथ्वी से उनकी दूरी पर निर्भर करता है। ग्रहों के व्यास के अनुसार सबसे बड़ा सूर्य और सबसे छोटा बुध है। उनका क्रम इस प्रकार हैः-
सूर्य, 2. नेपच्यून, 3. यूरेनस, 4. शनि, 5 बृहस्पति, 6. मंगल, 7. पृथ्वी, 8. शुक्र, 9. चंद्रमा, 10. बुध। आइए अब नजर डालते हैं इन ग्रह के शक्तिशाली प्रभाव के तथ्यों पर।
सूर्य
खगोलीय विशिष्टताः सूर्य अथवा सूरज सौरमंडल के केन्द्र में स्थित एक तारा है, जिसके चारों तरफ पृथ्वी और सौरमंडल के अन्य अवयव घूमते हैं। सूर्य हमारे सौर मंडल का सबसे बड़ा पिंड है और उसका व्यास लगभग 13 लाख 90 हजार किलोमीटर है जो पृथ्वी से लगभग 109 गुना अधिक है।ऊर्जा का यह शक्तिशाली भंडार मुख्य रूप से हाइड्रोजन और हीलियम गैसों का एक विशाल गोला है। परमाणु विलय की प्रक्रिया द्वारा सूर्य अपने केंद्र में ऊर्जा पैदा करता है। सूर्य से निकली ऊर्जा का छोटा सा भाग ही पृथ्वी पर पहुंचता है, जिसमें से 15 प्रतिशत अंतरिक्ष में परावर्तित हो जाता है, 30 प्रतिशत पानी को भाप बनाने में काम आता है और बहुत सी ऊर्जा पेड़-पौधे समुद्र सोख लेते हैं। इसकी मजबूत गुरुत्वाकर्षण शक्ति विभिन्न कक्षाओं में घूमते हुए पृथ्वी और अन्य ग्रहों को इसकी तरफ खींच कर रखती है।
सूर्य से पृथ्वी की औसत दूरी लगभग 14,96,500,000 किलोमीटर या 9,29,60,000 मील है तथा सूर्य से पृथ्वी पर प्रकाश को आने में 8.3 मिनट का समय लगता है। इसी प्रकाशीय ऊर्जा से प्रकाश-संश्लेषण नामक एक महत्वपूर्ण जैव-रासायनिक अभिक्रिया होती है जो पृथ्वी पर जीवन का आधार है। यह पृथ्वी के जलवायु और मौसम को प्रभावित करता है। सूर्य की सतह का निर्माण हाइड्रोजन, हिलियम, लोहा, निकेल, आॅक्सीजन, सिलिकन, सल्फर, मैग्निसियम, कार्बन, नियोन, कैल्सियम, क्रोमियम तत्वों से हुआ है। इनमें से हाइड्रोजन सूर्य के सतह की मात्रा का 74 प्रतिशत तथा हिलियम 24 प्रतिशत है।
इस जलते हुए गैसीय पिंड को दूरदर्शी यंत्र से देखने पर इसकी सतह पर छोटे-बड़े धब्बे दिखलाई पड़ते हैं। इन्हें सौर कलंक कहा जाता है। ये कलंक अपने स्थान से सरकते हुए दिखाई पड़ते हैं। इससे वैज्ञानिकों ने निष्कर्ष निकाला है कि सूर्य पूरब से पश्चिम की ओर 27 दिनों में अपने अक्ष पर एक परिक्रमा करता है। जिस प्रकार पृथ्वी और अन्य ग्रह सूरज की परिक्रमा करते हैं उसी प्रकार सूरज भी आकाश गंगा के केन्द्र की परिक्रमा करता है। इसको परिक्रमा करनें में 22 से 25 करोड़ वर्ष लगते हैं। इसे एक निहारिका वर्ष भी कहते हैं। इसके परिक्रमा करने की गति 251 किलोमीटर प्रति सेकेंड है।
ज्योतिष महत्वः सूर्य को मुखिया कहा गया है। हिंदू धार्मिक ग्रंथ के अनुसार सौर देवता हैं। उनके बाल और हाथ स्वर्ण के हैं। उनके रथ को सात घोड़े खींचते हैं, जो सात चक्रों का प्रतिनिधित्व करते हैं। वे रवि के रूप में रवि-वार या इतवार के स्वामी हैं। ऐसी मान्यता है कि कोई प्राणी हर दिन सूर्य के भगवान के दृश्य के रूप में देख सकता है। इसके अलावा, शैव और वैष्णव सूर्य को अक्सर क्रमशः शिव और विष्णु के एक पहलू के रूप में मानते हैं। उदाहरण के लिए, सूर्य को वैष्णव द्वारा सूर्य नारायण कहा जाता है। शैव धर्मशास्त्र में, सूर्य को शिव के आठ रूपों में से एक कहा जाता है, जिसका नाम अष्टमूर्ति है। उन्हें सत्व गुण का माना जाता है और वे आत्मा, राजा, ऊंचे व्यक्तियों या पिता का प्रतिनिधित्व करते हैं। हिन्दू पौराणिक कथाओं के अनुसार, सूर्य की अधिक प्रसिð संततियों में हैं शनि (सैटर्नद्), यम (मृत्यु के देवताद्) और महाभारत के कर्ण । माना जाता है कि गायत्री मंत्र या आदित्य हृदय मंत्र (आदित्य हृदयमद्) का जप भगवान सूर्य को प्रसन्न करता है तथा सूर्य के साथ जुड़ा अन्न है गेहूं।
बुध
खगोलिय विशिष्टताः यह सौर मंडल का सूर्य से सबसे निकट स्थित और आकार मे सबसे छोटा ग्रह है। इसका वर्गीकरण बौना ग्रह के रूप मे कियाजाता है तथा सूर्य की एक परिक्रमा करने मे 88 दिन लगाता है। यह लोहे और जस्ते का बना हुआ हैं। यह अपने परिक्रमा पथ पर 29 मील प्रति क्षण की गति से चक्कर लगाता हैं। बुध व्यास से गैनिमीड और टाईटन चण्द्रमाआंे से छोटा है, लेकिन द्रव्यमान मे दूगना है। कक्षा में सूर्य से 57,910,000 किमी से है।
रोमन मिथकों के अनुसार बुध व्यापार, यात्रा और चोर्यकर्म का देवता , युनानी देवता हर्मीश का रोमन रूप , देवताओ का संदेशवाहक देवता है। इसे संदेशवाहक देवता का नाम इस कारण मिला क्योंकि यह ग्रह आकाश मे काफी तेजी से गमन करता है। बुध को ईसा से ३ सहस्त्राब्दि पहले सूमेरीयन काल से जाना जाता रहा है। इसे कभी सूर्योदय तो कभी सूर्यास्त का तारा कहा जाता रहा है। ग्रीक खगोल विज्ञानियो को ज्ञात था कि यह दो नाम एक ही ग्रह के हैं।
ज्योतिष महत्वः यह भारतीय ज्योतिष शास्त्र में नियत एक ग्रह है। बुध चंद्रमा का तारा या रोहिणी से पुत्र कहलाता है। बुध को माल और व्यापारियों का स्वामी और रक्षक माना जाता है। यह हल्के स्वभाव के, सुवक्ता और एक हरे वर्ण वाले कहलाते हैं। उन्हें कृपाण, फरसा और ढाल धारण किये हुए दिखाया जाता है और सवारी पंखों वाला सिंह बताते हैं। एक अन्य रूप में इन्हें राजदण्ड और कमल लिये हुए उड़ने वाले कालीन या सिंहों द्वारा खींचे गए रथ पर आरूढ़ दिखाया गया है।
बुध का राज बुधवार दिवस पर रहता है। आधुनिक हिन्दी, उर्दु, तेलुगु, बंगाली, मराठी, कन्नड़ और गुजराती भाषाओं में सप्ताह के तीसरे दिवस को बुधवार कहा जाता है। बुध का विवाह वैवस्वत मनु की पुत्री इला से हुआ था। इला से प्रसन्न होकर मित्रावरुण ने उसे अपने कुल की कन्या तथा मनु का पुत्र होने का वरदान दिया। कन्या भाव में उसने चन्द्रमा के पुत्र बुध से विवाह करके पुरूरवा नामक पुत्र को जन्म दिया। तदुपरान्त वह सुद्युम्न बन गयी और उसने अत्यन्त धर्मात्मा तीन पुत्रों से मनु के वंश की वृध्दि की।
ज्योतिष शास्त्र में बुð को एक शुभ ग्रह माना जाता है। किसी हानिकर या अशुभकारी ग्रह के संगम से यह हानिकर भी हो सकता है। बुध मिथुन एवं कन्या राशियों का स्वामी है तथा कन्या राशि में उच्च भाव में स्थित रहता है तथा मीन राशि में नीच भाव में रहता है। यह सूर्य और शुक्र के साथ मित्र भाव से तथा चंद्रमा से शत्रुतापूर्ण और अन्य ग्रहों के प्रति तटस्थ रहता है। यह ग्रह बुद्धि, संचार, विश्लेषण, चेतना ;विशेष रूप से त्वचाद्ध, विज्ञान, गणित, व्यापार, शिक्षा और अनुसंधान का प्रतिनिधित्व करता है। सभी प्रकार के लिखित शब्द और सभी प्रकार की यात्राएं बुध के अधीन आती हैं।
बुध तीन नक्षत्रों का स्यावामी है- अश्लेषा, ज्येष्ठ, और रेवती । हरे रंग, धातु, पीतल और रत्नों में पन्ना बुध की प्रिय वस्तुएं हैं। इसके साथ जुड़ी दिशा उत्तर है, मौसम शरद और तत्व पृथ्वी है। इसके प्रभावकारी अंक 5 हैं
शुक्र
खगोलिय विशिष्टताः सूर्य से दूसरा ग्रह है और छठंवा सबसे बड़ा ग्रह है शुक्र। इसका परिक्रमा पथ 108,200,000 किलोमीटर लम्बा है। इसका व्यास 12,103ऽ6 किलोमीटर है। शुक्र का आकार और बनाबट लगभग पृथ्वी के बराबर है। इसलिए शुक्र को पृथ्वी की बहन कहा जाता है। इय ग्रह को सुंदरता और प्यार की देवी के नाम से जाना जाता है। इसे यूनानी में अफ्रोदिते तथा बेबीलोन निवासी इसे ईश्तर कहते थे। क्योंकि यह सबसे ज्यादा चमकीला ग्रह है।
शुक्र ग्रह को प्रागैतिहासिक काल से जाना जाता। यह सूर्य और चंद्रमा के अलावा आकाश में सबसे चमकदार पिंड है। बुध के जैसे ही इसे भी दो नामो भोर का तारा और शाम का तारा नामों से जाना जाता रहा है। ग्रीक खगोलशास्त्री जानते थे कि यह दोनांे एक ही है। गैलीलीयो ने बताया कि शुक्र कलायें दिखाता है, क्योकि वह सूर्य की परिक्रमा करता है। इस बारे में गैलेलीयो द्वारा शुक्र की कलाओं के निरिक्षण कोपरनिकस के सूर्यकेन्द्री सौरमंडल सिðांत के सत्यापन के लिये सबसे मजबूत प्रमाण दिये गए थे।
शुक्र का घुर्णन विचित्र है, यह काफी धीमा है। इसका एक दिन 243 पृथ्वी के दिन के बराबर है जो कि शुक्र के एक वर्ष से कुछ ज्यादा है। शुक्र का घुर्णन और उसकी कक्षा कुछ इस तरह है कि शुक्र की केवल एक ही सतह पृथ्वी से दिखायी देती है। शुक्र को पृथ्वी का जुंड़वा ग्रह कहा जाता है क्योंकि, शुक्र पृथ्वी से थोड़ा ही छोटा है। इन समानता से यह सोचा जाता था कि बादलो के निचे शुक्र ग्रह पृथ्वी के जैसे होगा और शायद वहां पर जीवन होगा। लेकिन बाद के निरिक्षणों से ज्ञात हुआ कि शुक्र पृथ्वी से काफी अलग है और यहां जीवन की संभावना न्यूनतम है।
ज्योतिष महत्वः शुक्र, जो साफ, शुð या चमक, स्पष्टता के लिए संस्कृकृत रूप है। भृगु और उशान के बेटे का नाम है। वे दैत्यों के शिक्षक और असुरों के गुरु हैं। जिन्हें शुक्र ग्रह के साथ पहचाना जाता है वे हैं सम्माननीय शुक्राचार्य , जो शुक्र-वार के स्वामी हैं। प्रकृकृति से वे राजसी हैं और धन, खुशी और प्रजनन का प्रतिनिधित्व करते हैं।
वे सफेद रंग, मध्यम आयु वर्ग और भले चेहरे के हैं। उनकी विभिन्न सवारियों का वर्णन मिलता है, ऊंट पर या एक घोड़े पर या एक मगरमच्छ पर. वे एक छड़ी, माला और एक कमल धारण करते हैं और कभी-कभी एक धनुष और तीर।
ज्योतिष में, एक दशा होती है या ग्रह अवधि होती है जिसे शुक्र दशा के रूप में जाना जाता है जो किसी व्यक्ति की कुंडली में 20 वर्षों तक सक्रिय बनी रहती है. यह दशा, माना जाता है कि किसी व्यक्ति के जीवन में अधिक धन, भाग्य और ऐशो-आराम देती है अगर उस व्यक्ति की कुंडली में शुक्र मजबूत स्थान पर विराजमान हो और साथ ही साथ शुक्र उसकी कुंडली में एक महत्वपूर्ण फलदायक ग्रह के रूप में हो.
मंगल ग्रह
मंगल सौरमंडल में सूर्य से चैथा ग्रह है। पृथ्वी से इसकी आभा रक्तिम दिखती है, जिस वजह से इसे लाल ग्रह के नाम से भी जाना जाता है। सौरमंडल के ग्रह दो तरह के होते हैं - स्थलीय ग्रहष,जिनमें जमीन होती है और गैसीय ग्रहष् जिनमें अधिकतर गैस ही गैस है। पृथ्वी की तरह, मंगल भी एक स्थलीय धरातल वाला ग्रह है। इसका वातावरण विरल है। इसकी सतह देखने पर चंद्रमा के गर्त और पृथ्वी के ज्वालामुखियों, घाटियों, रेगिस्तान और ध्रूवीय बर्फीली चोटियों की याद दिलाती है। हमारे सौरमंडल का सबसे अधिक ऊँचा पर्वत, ओलम्पस मोन्स मंगल पर ही स्थित है। साथ ही विशालतम कैन्यन वैलेस मैरीनेरिस भी यहीं पर स्थित है। अपनी भौगोलिक विशेषताओं के अलावा, मंगल का घूर्णन काल और मौसमी चक्र पृथ्वी के समान हैं। मंगल की सूर्य से औसत दूरी लगभग 23 करोड़ कि.मी. और कक्षीय अवधि 687 ; पृथ्वी द्ध दिवस है। मंगल पर सौर दिवस एक पृथ्वी दिवस से मात्र थोड़ा सा लंबा है। 24 घंटे, 39 मिनट और 35.244सेकण्ड। एक मंगल वर्ष1.8809 पृथ्वी वर्ष के बराबर या 1 वर्ष, 320 दिन और 18.2घंटे है।
ज्योतिष महत्वः भारतीय ज्योतिष में मंगल एक लाल ग्रह अर्थात मंगल ग्रह के लिए नाम है। संस्कृत में मंगल को अंगारका ;जो लाल रंग का होद्ध,या भौम ;भूमि पुत्रद्ध भी कहा जाता है। वह युð के देवता है और अविवाहित हैं। उन्हें पृथ्वी या भूमि का पुत्र माना जाता है । वह मेष और वृश्चिक राशियों के स्वामी और मनोगत विज्ञान ;रुचका महापुरुष योगद्ध के गुरु हैं। वह लाल या लौ रंग से चित्रांकित है, उनके हाथो में चार शस्त्र, एक त्रिशूल, एक गदा, एक पद्म या कमल और एक शूल हंै। उनका वाहन एक भेड़ है तथा वे मंगला-वार के अधिष्ठाता हंै। उनकी प्रकृति तमस गुण वाली है और वे ऊर्जावान कार्रवाई, आत्मविश्वास और अहंकार का प्रतिनिधित्व करते हैं।
उन्हें लाल रंग या लौ के रंग में रंगा जाता है, चतुर्भुज, एक त्रिशूल, मुगदर, कमल और एक भाला लिए हुए चित्रित किया जाता है। उनका वाहन एक भेड़ा है।
मंगल का नाम युद्ध के रोमन देवता पर है। विभिन्न संस्कृतियों में, मंगल वास्तव में मर्दानगी और युवाओं का प्रतिनिधित्व करता है। इसके प्रतीक, एक तीर एक चक्र के साथ ऊपरी दाएं से बाहर की ओर इशारा करते हुए, का उपयोग पुरुष लिंग के लिए भी एक चिन्ह के रूप में हुआ है।
बृहस्पति
सूर्य से पांचवां और हमारे सौरमंडल का सबसे बड़ा ग्रह है। यह एक गैस दानव है, जिसका द्रव्यमान सूर्य के हजारवें भाग के बराबर तथा सौरमंडल में मौजूद अन्य सात ग्रहों के कुल द्रव्यमान का ढाई गुना है। बृहस्पति को शनि, युरेनस और नेप्चून के साथ एक गैसीय ग्रह के रूप में वर्गीकृत किया गया है। इन चारों ग्रहों को बाहरी ग्रहों के रूप में जाना जाता है।
यह ग्रह प्राचीन काल से ही खगोलविदों द्वारा जाना जाता रहा है तथा यह कई संस्कृतियों की पौराणिक कथाओं और धार्मिक विश्वासों के साथ जुड़ा हुआ था। रोमन सभ्यता ने अपने देवता जुपिटर के नाम पर इसका नाम रखा था। जब इसे पृथ्वी से देखा गया, तो यह चन्द्रमा और शुक्र के बाद तीसरा सबसे अधिक चमकदार निकाय बन गया। मंगल ग्रह अपनी कक्षा के कुछ बिंदुओं पर बृहस्पति की चमक से मेल खाता है।
बृहस्पति एक चैथाई हीलियम द्रव्यमान के साथ मुख्य रूप से हाइड्रोजन से बना हुआ है और इसका भारी तत्वों से युक्त एक चट्टानी कोर हो सकता है। अपने तेज घूर्णन के कारण बृहस्पति का आकार एक चपटा उपगोल, भूमध्य रेखा के पास चारों ओर एक मामूली लेकिन ध्यान देने योग्य उभार लिए हुए है। इसके बाहरी वातावरण में विभिन्न अक्षांशों पर कई पृथक दृदृश्य पट्टियां नजर आती हंै, जो अपनी सीमाओं के साथ भिन्न-भिन्न वातावरण के परिणामस्वरूप बनती है। बृहस्पति के विश्मयकारी एक बड़ा लाल धब्बा एक विशाल तूफान है। उसके अस्तित्व को 17 वीं सदी के बाद तब से ही जान लिया गया था जब इसे पहली बार दूरबीन से देखा गया था। यह ग्रह एक शक्तिशाली चुम्बकीय क्षेत्र और एक धुंधले ग्रहीय वलय प्रणाली से घिरा हुआ है। बृहस्पति के कम से कम 64 चन्द्रमा हैं। इनमें वो चार सबसे बड़े चन्द्रमा भी शामिल है, जिसे गेलीलियन चन्द्रमा कहा जाता है। उन्हें सन् 1610 में पहली बार गैलीलियो गैलिली द्वारा खोजा गया था। गैनिमीड सबसे बड़ा चन्द्रमा है जिसका व्यास बुध ग्रह से भी ज्यादा है। यहां चन्द्रमा का तात्पर्य उपग्रह से है।
बृहस्पति एकमात्र ग्रह है जिसका सूर्य के साथ द्रव्यमान केंद्र सूर्य के आयतन से बाहर स्थित है। इसकी सूर्य से औसत दूरी 77 करोड़ 80 लाख कि .मी. ;5.25 खगोलीय इकाईद्ध है और यह सूर्य का एक पूरा चक्कर हर 11.86 वर्ष में लगाता है। इसकी शनि से दो-तिहाई कक्षीय अवधि है। सौरमंडल के इन दो बड़े ग्रहों के मध्य 5ः2 की कक्षीय प्रतिध्वनी बना रहा है। इस अनुसार जितने समय में बृहस्पति सूर्य के पांच चक्कर लगाता है उतने ही समय में शनि सूर्य के दो चक्कर ही लगा पाता है।
ज्योतिष महत्वः भारतीय पौराणिक कथाओं में बृहस्पति ग्रह के देवता को प्राचीन काल से जान लिया गया था। यह रात को आसमान में नग्न आंखों से दिखाई देता है और कभी-कभी दिन में भी देखा जा सकता है जब सूर्य नीचे हो। बेबीलोनियन से , यह निकाय उनके देवता मर्डक का प्रतिनिधि है। वे क्रांतिवृत्त के साथ इस ग्रह की लगभग 12-वर्षीय कक्षीय अवधि का इस्तेमाल उनकी राशि चक्र के नक्षत्रों को परिभाषित करने करते थे। इन्हें आकाश का देवता कहा गया तथा मध्य युग में ज्योतिषियों द्वारा खुशी या आनंदित भाव को दर्शाने वाला कहा गया। वैदिक ज्योतिष में, हिंदू ज्योतिषियों ने इस ग्रह का नाम देवताओं के धर्माचार्य बृहस्पति पर रखा और प्रायः गुरु कहा गया। अंग्रेजी भाषा में ज्ीनतेकंल ;गुरुवारद्ध से लिया गया है। बृहस्पति, देवताओं के गुरु हैं, शील और धर्म के अवतार हैं, प्रार्थनाओं और बलिदानों के मुख्य प्रस्तावक हैं, जिन्हें देवताओं के पुरोहित के रूप में प्रदर्शित किया जाता है और वे मनुष्यों के लिए मध्यस्त हैं। वे बृहस्पति ग्रह के स्वामी हैं। वे सत्व गुणी हैं और ज्ञान और शिक्षण का प्रतिनिधित्व करते हैं। अधिकतर लोग बृहस्पति को गुरु बुलाते हैं। हिन्दू शास्त्रों के अनुसार वे देवताओं के गुरु हैं और दानवों के गुरु शुक्राचार्य के कट्टर विरोधी हैं। उन्हें गुरु के रूप में भी जाना जाता है, ज्ञान और वाग्मिता के देवता, जिनके नाम कई कृकृतियां हैं।
प्रार्थना या भक्ति के स्वामी माने जाने वाले इस ग्रह का ज्योतिष में विशेष महत्व है। इस अनुसार बृहस्पति इसी नौ के ग्रह के स्वामी माने जाते हैं। इन्हें गुरु, चुरा या देवगुरु भी कहा जाता है। इन्हें किसी भी ग्रह से अत्यधिक शुभ ग्रह माना जाता है। गुरु या बृहस्पति धनु राशि और मीन राशि के स्वामी हैं। बृहस्पति ग्रह कर्क राशि में उच्च भाव में रहता है और मकर राशि में नीच बनता है। सूर्य चंद्रमा और मंगल ग्रह बृहस्पति के लिए मित्र ग्रह है, बुध शत्रु है और शनि तटस्थ है। बृहस्पति के तीन नक्षत्र पुनर्वसु, विशाखा, पूर्वा भाद्रपद होते हैं।
गुरु को वैदिक ज्योतिष में आकाश का तत्त्व माना गया है। इसका गुण विशालता, विकास, और व्यक्ति की कुंडली और जीवन में विस्तार का संकेत होता है। गुरु पिछले जन्मों के कर्म, धर्म, दर्शन, ज्ञान और संतानों से संबंधित विषयों के संतुलन का प्रतिनिधित्व करता है। यह शिक्षण, शिक्षा और ज्ञान के प्रसार से संबंð है। जिनकी कुंडली में बृहस्पति उच्च होता है, वे मनुष्य जीवन की प्रगति के साथ-साथ कुछ मोटे या वसायुक्त होते जाते हैं, किन्तु उनका साम्राज्य और समृðि बढ़ जाती है। मधुमेह का सीधा संबंध कुण्डली के बृहस्पति से माना जाता है। पारंपरिक हिंदू ज्योतिष के अनुसार गुरु की पूजा आराधन पेट को प्रभावित करने वाली बीमारियों से छुटकारा दिला सकता है तथा पापों का शमन करता है।
निम्न वस्तुएं बृहस्पति से जुड़ी होती हैं- पीला रंग, स्वर्ण धातु, पीला रत्न पुखराज एवं पीला नीलम, शीत श्रृतु ,पूर्व दिशा, अंतरिक्ष एवं आकाश तत्त्व। इसकी दशा ;विशमोत्तरी दशाद्ध सोलह वर्ष होती है। वे पीले या सुनहरे रंग के हैं और एक छड़ी, एक कमल और अपनी माला धारण करते हैं।
शनि
शनि सौरमण्डल का एक सदस्य ग्रह है। यह सूरज से छटे स्थान पर है और सौरमंडल में बृहस्पति के बाद सबसे बड़ा ग्रह हैं। इसके कक्षीय परिभ्रमण का पथ 14,29,40,000 किलोमीटर है। शनि के 60 उपग्रह हैं, जिसमें टाइटन सबसे बड़ा है। टाइटन बृहस्पति के उपग्रह गिनिमेड के बाद दूसरा सबसे बड़ा उपग्रह् है। शनि ग्रह की खोज प्राचीन काल में ही हो गई थी। गैलीलियो गैलिली ने सन् 1610 में दूरबीन की सहायता से इस ग्रह को खोजा था। इस ग्रह की रचना 75 प्रतिशत हाइड्रोजन और 25 प्रतिशत हीलियम से हुई है। यहां जल, मिथेन, अमोनिया और पत्थर बहुत कम मात्रा में पाए जाते हैं। हमारे सौर मण्डल में चार ग्रहों को गैस दानव कहा जाता है, क्योंकि इनमें मिटटी-पत्थर की बजाय अधिकतर गैस है और इनका आकार बहुत ही विशाल है। शनि इनमंे से एक है, बाकी तीन बृहस्पति, अरुण (युरेनसद्) और वरुण (नॅप्टयून) हैं। नवग्रहों के कक्ष क्रम में शनि सूर्य से सर्वाधिक दूरी पर अट्ठासी करोड,इकसठ लाख मील दूर है। पृथ्वी से शनि की दूरी 71 करोड़,31 लाख, 43 हजार मील दूर है तथा इसका व्यास पचत्तर हजार एक सौ मील है। यह छः मील प्रति सेकेण्ड की गति से 21.5 वर्ष में अपनी कक्षा मे सूर्य की परिक्रमा पूरी करता है। शनि के धरातल का तापमान 240 फोरनहाइट है, जबकि इसके चारो ओर सात वलय हैं। शनि के 15 चन्द्रमाओं में से प्रत्येक का व्यास पृथ्वी से काफी अधिक है।
पौराणिक महत्वः शनि ग्रह के प्रति अनेक आख्यान पुराणों में वर्णित हैं। उसके अनुसार शनि को सूर्य पुत्र माना जाता है, लेकिन साथ ही पितृ शत्रु भी। शनि ग्रह के संबंध मे अनेक भ्रांतियां है और उसे मारक, अशुभ और दुख कारक माना जाता है। पाश्चात्य ज्योतिषी भी उसे दुख देने वाला मानते हैं, लेकिन शनि उतना अशुभ और मारक नही है, जितना उसे माना जाता है। इसलिये वह शत्रु नही मित्र है। मोक्ष को देने वाला एकमात्र शनि ग्रह ही है। सत्य तो यह ही है कि शनि प्रकृति में संतुलन पैदा करता है, और हर प्राणी के साथ न्याय करता है। जो लोग अनुचित विषमता और अस्वाभाविक समता को आश्रय देते हैं, शनि केवल उन्हीं को प्रताड़ित करता है।
वैदूर्य कांति रमलः,प्रजानां वाणातसी कुसुम वर्ण विभश्च शरतः।
अन्यापि वर्ण भुव गच्छति तत्सवर्णाभि सूर्यात्मजः अव्यतीति मुनि प्रवादः।।
भावार्थः-शनि ग्रह वैदूर्य रत्न अथवा बाणफूल या अलसी के फूल जैसे निर्मल रंग से जब प्रकाशित होता है, तो उस समय प्रजा के लिये शुभ फल देता है। यह अन्य वर्णों को प्रकाश देता है, तो उच्च वर्णों को समाप्त करता है,ऐसी श्रृषि महात्मा कहते हैं।
शनि के संबंध में एक बहुत ही चर्चित कहानी उनकी माता-पिता के संबंध में भी है। माता के छल के कारण पिता ने उसे शाप दिया। पिता अर्थात सूर्य ने कहा, ‘तू क्रूरतापूर्ण दृष्टि देखने वाला मंदगामी ग्रह हो जाये।’ यह भी आख्यान मिलता है कि शनि के प्रकोप से ही अपने राज्य को घोर दुर्भिक्ष से बचाने के लिये राजा दशरथ उनसे मुकाबला करने पहुंचे तो उनका पुरुषार्थ देख कर शनि ने उनसे वरदान मांगने के लिये कहा। राजा दशरथ ने विधिवत स्तुति कर उसे प्रसन्न किया। पद्म पुराण में इस प्रसंग का सविस्तार वर्णन है। ब्रह्मवैवर्त पुराण में शनि ने जगत जननी पार्वती को बताया है कि मैं सौ जन्मो तक जातक की करनी का फल भुगतान करता हूं। एक बार जब विष्णुप्रिया लक्ष्मी ने शनि से पूछा कि तुम क्यों जातकों को धन हानि करते हो, क्यों सभी तुम्हारे प्रभाव से प्रताड़ित रहते हैं, तो शनि महाराज ने उत्तर दिया,‘मातेश्वरी,उसमें मेरा कोई दोष नहीं है, परमपिता परमात्मा ने मुझे तीनों लोकों का न्यायाधीश नियुक्त किया हुआ है, इसलिये जो भी तीनों लोकों के अंदर अन्याय करता है, उसे दंड देना मेरा काम है।’
एक आख्यान और मिलता है कि किस प्रकार से )षि अगस्त ने जब शनि देव से प्रार्थना की थी, तो उन्हांेने राक्षसों से उनको मुक्ति दिलवाई थी। जिस किसी ने भी अन्याय किया, उनको ही उन्हांेने दंड दिया, चाहे वह भगवान शिव की अर्धांगिनी सती रही हों, जिन्होंने सीता का रूप रखने के बाद बाबा भोले नाथ से झूठ बोलकर अपनी सफाई दी और परिणाम में उनको अपने ही पिता की यज्ञ में हवन कुंड में जल कर मरने के लिये शनि देव ने विवश कर दिया, अथवा राजा हरिश्चन्द्र रहे हों, जिनके दान देने के अभिमान के कारण सप्तनीक बाजार में बिकना पड़ा और, श्मशान की रखवाली तक करनी पड़ी। राजा नल और दमयन्ती को ही ले लीजिये, जिनके तुच्छ पापों की सजा के लिये उन्हंे दर-दर का होकर भटकना पड़ा, और भूनी हुई मछलियां तक पानी में तैर कर भाग गईं, फिर साधारण मनुष्य के द्वारा जो भी मनसा,वाचा,कर्मणा,पाप कर दिया जाता है वह चाहे जाने में किया जाय या अनजाने में,उसे भुगतना तो पड़ेगा ही।
मत्स्य पुराण में शनि देव का शरीर इन्द्र कांति की नीलमणि जैसी है, वे गिð पर सवार हैं, हाथ में धनुष बाण है एक हाथ से वर मुद्रा भी है, शनि देव का विकराल रूप डरावना भी है। शनि पापियों के लिये हमेशा ही संहारक हैं। पश्चिम के साहित्य में भी अनेक आख्यान मिलते हैं। शनि देव के अनेक मंदिर हैं। भारत में भी शनि देव के अनेक मन्दिर हैं, जैसे शिंगणापुर, वृंदावन के कोकिला वन, ग्वालियर के शनिश्चराजी, दिल्ली तथा अनेक शहरों मंे महाराज शनि के मन्दिर हैं।
ज्योतिष महत्वः फलित ज्योतिष के शास्त्रो में शनि को अनेक नामों से संबोधित किया गया है, जैसे मन्दगामी, सूर्य-पुत्र और शनिश्चर आदि। शनि के नक्षत्र हैं, पुष्य, अनुराधा और उत्तराभाद्र पद। यह दो राशियों मकर,और कुम्भ का स्वामी है। तुला राशि में 20 अंश पर शनि परमोच्च है और मेष राशि के 20 अंश प परमनीच है। नीलम शनि का रत्न है। शनि की तीसरी,सातवीं,और दसवीं दृष्टि मानी जाती है। शनि सूर्य,चन्द्र,मंगल का शत्रु, बुध, शुक्र को मित्र तथा गुरु को सम मानता है। शारीरिक रोगों में शनि को वायु विकार, हड्डियों और दंत रोगों का कारक माना जाता है।
अंकशास्त्र में शनि
ज्योतिष विद्याओं मे अंक विद्या के द्वारा हम थोडे़ समय में ही प्रश्न कर्ता का स्पष्ट उत्तर मिल सकता है। अंक विद्या में 8 का अंक शनि को प्राप्त हुआ है। शनि परमतपस्वी और न्याय का कारक माना जाता है, इसकी विशेषता पुराणों में प्रतिपादित है। आपका जिस तारीख को जन्म हुआ है, गणना करिये, और योग अगर 8 आये, तो आपका अंकाधिपति शनिश्चर ही होगा। जैसे-8,17, 26 तारीख आदि।
शनि अंक आठ का ज्योतिषीय प्रभावः अंक आठ वाले व्यक्ति धीरे-धीरे उन्नति करते हैं, और उनको सफलता देर से ही मिल पाती है। परिश्रम बहुत करना पड़ता है, लेकिन जितना किया जाता है उतना मिल नहीं पाता है। ऐसे व्यक्ति वकील और न्यायाधीश तक बन जाते हैं। इसके अलावा लोहा, पत्थर आदि के व्यवसाय के द्वारा जीविका भी चलाते हैं। दिमाग हमेशा अशांत सा ही रहता है और परिवार से भी अलग हाने की संभावना बन जाती है। इनके दाम्पत्य जीवन में भी कटुता आती है। अतः इस अंक वाले व्यक्तियों को प्रथम शनि के विधिवत बीज मंत्र का जाप करने की सलाह दी गई है। तदोपरांत साढ़े पांच रत्ती का नीलम धारण करने के लिए बताया जाता है। ऐसा करने से आठ अंक से प्रभावित व्यक्ति हर क्षेत्र में उन्नति करता हुआ अपना लक्ष्य शीघ्र प्राप्त कर सकता है और जीवन में तप भी कर पाता है। इसी के फलस्वरूप उस व्यक्ति का इहलोक और परलोक सार्थक होता है।
शनि प्रधान व्यक्ति तपस्वी और परोपकारी होता है, वह न्यायवान, विचारवान, तथा विद्वान भी होता है। बुद्धि कुशाग्र होती है, शांत स्वभाव होता है और वह कठिन से कठिन परिस्थति में अपने को जिंदा रख सकता है। ऐसे व्यक्ति को लोहा से जुडे़ व्यवसायों में लाभ अधिक होता है। शनिप्रधान जातकों की अंतर्भावना को कोई जल्दी पहिचान नहीं पाता है। इनके अंदर मानव परीक्षक के गुण विद्यमान होते हैं। शनि की प्रकृति में व्यक्ति चालाकी, आलसी, धीरे-धीरे काम करने वाला, शरीर में ठंडक अधिक होने से रोगी, आलसी होने के कारण बात बात मे तर्क करने वाला और अपने को दंड से बचाने के लिये मधुर भाषी होता है। दाम्पत्यजीवन सामान्य होता है। अधिक परिश्रम करने के बाद भी धन और धान्य कम ही होता है।
जातक न तो समय से सोते हैं और न ही समय से जागते हैं। हमेशा उनके दिमाग में चिंता बनी रहती है। वे लोहा, स्टील, मशीनरी, ठेका, बीमा, पुराने वस्तुओं का व्यापार या राज कार्यों के अन्दर काम कर अपनी जीविका चलाते हैं। शनि प्रधान व्यक्ति में कुछ कमियां होती हैं, जैसे वे नये कपडे़ पहिनेंगे तो जूते उनके पुराने होंगे, हर बात में शंका करने लगेंगे, अपनी आदत के अनुसार हठ बहुत करेंगे, अधिकतर जातकों के विचार पुराने होते हैं। उनके सामने जो भी परेशानी होती है सबके सामने उसे उजागर करने में उनको कोई शर्म नहीं आती है। वे अक्सर अपने भाई और बांधवों से अपने विचार विपरीत रखते हैं, धन का हमेशा उनके पास अभाव ही रहता है। रोग उनके शरीर में मानो हमेशा ही पनपते रहते हैं। आलसी होने के कारण भाग्य की गाड़ी आती है और चली जाती है उनको पहिचान ही नहीं होती है। जो भी धन पिता के द्वारा दिया जाता है वह अधिकतर मामलों में अपव्यय ही कर दिया जाता है। अपने मित्रों से विरोध रहता है और अपनी माता के सुख से भी जातक अधिकतर वंचित ही रहता हैं।
शनि को सन्तुलन और न्याय का ग्रह माना गया है, जो लोग अनुचित बातों के द्वारा अपनी चलाने की कोशिश करते हैं और समाज के हित में नही होने वाली बातों को भी मान्यता देने की कोशिश करते है। अहंकार के कारण अपनी ही बात को सबसे आगे रखते हैं। अनुचित विषमता या कहें कि अस्वभाविक समता को आश्रय देते हैं। शनि उनको ही पीड़ित करता है। शनि हमसे कुपित न हो,उससे पहले ही हमे समझ लेना चाहिये कि हम कहीं अन्याय तो नहीं कर रहे हैं या अनावश्यक विषमता का साथ तो नहीं दे रहे हैं।
शनि को एक तप कारक ग्रह भी कहा गया है। अर्थात तप करने से शरीर परिपक्व होता है। शनि का रंग गहरा नीला होता है। इससे निरंतर गहरे नीले रंग की किरणें पृथ्वी पर गिरती रहती हैं। शरीर में इस ग्रह का स्थान उदर और जंघाओं में है। शूद्र वर्ण, तामस प्रकृति, वात प्रकृति प्रधान तथा भाग्यहीन नीरस वस्तुओं पर अधिकार रखता है। शनि सीमा ग्रह कहलाता है, क्योंकि जहां पर सूर्य की सीमा समाप्त होती है, वहीं से शनि की सीमा शुरु हो जाती है। जगत में सच्चे और झूठे का भेद समझना शनि का विशेष गुण है। विपत्ति, कष्ट, निर्धनता, देने के साथ साथ बहुत बड़ा गुरु तथा शिक्षक भी है।
जब तक शनि की सीमा से प्राणी बाहर नही होता है, संसार में उन्नति सम्भव नही है। शनि जब तक जातक को पीड़ित करता है, तबतक चारों तरफ तबाही मचा देता है। जातक को कोई भी रास्ता चलने के लिये नहीं मिलता है। करोड़पति को भी खाकपति बना देना इसका कुप्रभाव है। अच्छे और शुभ कर्मों बाले जातकों का उच्च होकर उनके भाग्य को बढ़ाता है। जो भी धन या संपत्ति जातक कमाता है, उसे सदुपयोग में लगाता है। गृहस्थ जीवन को सुचारु रूप से चलाने के साथ धर्म पर चलने की प्रेरणा देकर तपस्या और समाधि आदि की तरफ अग्रसर होता है। अगर उसका कर्म निंदनीय और क्रूर है, तो नीच का होकर भाग्य कितना ही असरदार क्यों न हो वह उसके नकारात्मक चपेट में आ ही जाता है। शनि ऐसे व्यक्ति को कंगाली देकर भी मरने नहीं देता है।
शनि के विरोध मे जाते ही जातक का विवेक समाप्त हो जाता है।निर्णय लेने की शक्ति कम हो जाती है, प्रयास करने पर भी सभी कार्यों मे असफलता ही हाथ लगती है। स्वभाव में चिड़चिड़ापन आ जाता है, नौकरी करने वालों का अधिकारियों और साथियों से झगडे, व्यापारियों को लंबी आर्थिक हानि होने लगती है। विद्यार्थियों का पढ़ने मंे मन नहीं लगता है। बार-बार अनुत्तीर्ण होने लगते हैं। जातक चाहने पर भी शुभ काम नहीं कर पाता है। दिमागी उन्माद के कारण उन कामों को कर बैठता है, जिनसे करने के बाद केवल पछतावा ही हाथ लगता है। शरीर में वात रोग हो जाने के कारण शरीर फूल जाता है और हाथ पैर काम नहीं करते हैं। एकान्त वास रहने के कारण से सीलन और नमी के कारण गठिया जैसे रोग हो जाते हैं। हाथ पैर के जोड़ों मंे वात की ठण्डक भर जाने से गांठों के रोग पैदा हो जाते हैं, शरीर के जोड़ों में सूजन आने से दर्द के मारे जातक को पग-पग पर कठिनाई होती है। मानसिक तनाव के कारण लगातार नशों के खिंचाव से स्नायु में दुर्बलता आ जाती है।
अधिक सोंचने के कारण और घर-परिवार के अंदर क्लेश होने से विभिन्न प्रकार से नशे और मादक पदार्थ लेने की आदत पड़ जाती है। शनि प्रभाव वाले अधिकतर व्यक्ति को बीड़ी, सिगरेट और तम्बाकू के सेवन से क्षय रोग हो जाता है। या फिर अधिक तामसी पदार्थ लेने से कैंसर जैसे रोग भी हो जाते हैं। पेट के अन्दर मल जमा रहने के कारण आंतों के अन्दर मल चिपक जाता है और आंतों मंे छाले होने से अल्सर जैसे रोग हो जाते हैं। शनि ऐसे रोगों को देकर जो दुष्ट कर्म जातक के द्वारा किये गये होते हैं,उन कर्मों का भुगतान करता है। यानि कि जैसा व्यक्ति ने कर्म किया है उसका पूरा-पूरा भुगतान करना ही शनिदेव का कार्य है।
शनि की मणि नीलम है। प्राणी मात्र के शरीर में लोहे की मात्रा सब धातुओं से अधिक होती है, शरीर में लोहे की मात्रा कम होते ही उसका चलना फिरना दूभर हो जाता है और शरीर में कितने ही रोग पैदा हो जाते हैं। इसलिए इसके लौह कम होने से पैदा हुए रोगों की औषधि खाने से भी फायदा नहीं हो तो ऐसे व्यक्ति को समझ लेना चाहिये कि शनि खराब चल रहा है। शनि मकर तथा कुम्भ राशि का स्वामी है। इसका उच्च तुला राशि में और नीच मेष राशि में अनुभव किया जाता है। इसकी धातु लोहा, अनाज चना और दालों में उड़द की दाल मानी जाती है।
चन्द्रमा
यह पृथ्वी का एकमात्र उपग्रह है। यह सौर मंडल का पाचवां सबसे विशाल प्राकृतिक उपग्रह है। पृथ्वी के मध्य से चन्द्रमा के मध्य तक कि दूरी 384,403 किलोमीटर है। यह दूरी पृथ्वी कि परिधि के 30 गुना है। चन्द्रमा पर गुरुत्वाकर्षण पृथ्वी से1/6 है तथा पृथ्वी कि परिक्रमा 27.3 दिन मंे पूरा कर लेता है और अपने अक्ष के चारो ओर एक पूरा चक्कर भी 27.3 दिन में ही लगाता है। यही कारण है कि चन्द्रमा का एक हिस्सा हमेसा पृथ्वी की ओर होता है। यदि चन्द्रमा पर खड़े होकर पृथ्वी को देखा जाए तो पृथ्वी साफ -साफ अपने अक्ष पर घूर्णन करती हुई नजर आएगी, लेकिन आसमान में उसकी स्थिति सदा स्थिर बनी रहेगी अर्थात पृथ्वी को कई वर्षो तक निहारते रहने पर भी वह अपनी जगह से टस से मस नहीं होगी। पृथ्वी- चन्द्रमा-सूर्य ज्यामिति के कारण चन्द्र दशा हर 29.5 दिनों में बदलती है।
आकार के हिसाब से अपने स्वामी ग्रह के सापेक्ष यह सौरमंडल में सबसे बड़ा प्राकृतिक उपग्रह है, जिसका व्यास पृथ्वी का एक चैथाई तथा द्रव्यमान 1/81 है। बृहस्पति के उपग्रह के बाद चन्द्रमा दूसरा सबसे अधिक घनत्व वाला उपग्रह है। सूर्य के बाद आसमान में सबसे अधिक चमकदार निकाय चन्द्रमा है। समुद्री ज्वार और भाटा चन्द्रमा की गुरुत्वाकर्षण शक्ति के कारण आते हंै। चन्द्रमा की तात्कालिक कक्षीय दूरी, पृथ्वी के व्यास का 30 गुना है इसीलिए आसमान में सूर्य और चन्द्रमा का आकार हमेशा सामान नजर आता है। जब चन्द्रमा अपनी कक्षा में घूमता हुआ सूर्य और पृथ्वी के बीच से होकर गुजरता है और सूर्य को पूरी तरह ढंक लेता है, तो उसे सूर्यग्रहण की घटना घटित होती है।
अन्तरिक्ष मंे मानव सिर्फ चन्द्रमा पर ही कदम रख सका है। सोवियत राष्ट्र का लूना-1 पहला अन्तरिक्ष यान था, जो चन्द्रमा के पास से गुजरा था लेकिन लूना-2 पहला यान था, जो चन्द्रमा की धरती पर उतरा था। सन् 1968 में केवल नासा अपोलो कार्यक्रम ने उस समय मानव मिशन भेजने की उपलब्धि हासिल की थी और पहली मानवयुक्त ‘चंद्र परिक्रमा मिशन’ की शुरुआत अपोलो -8 के साथ की गई। सन् 1969 से 1972 के बीच छह मानवयुक्त यान ने चन्द्रमा की धरती पर कदम रखा, जिसमें से अपोलो-11 ने सबसे पहले कदम रखा। इन मिशनों ने वापसी के दौरान 380 कि. ग्रा. से ज्यादा चंद्र चट्टानों को साथ लेकर लौटे, जिसका इस्तेमाल चंद्रमा की उत्पत्ति, उसकी आंतरिक संरचना के गठन और उसके बाद के इतिहास की विस्तृत भूवैज्ञानिक समझ विकसित करने के लिए किया गया। ऐसा माना जाता है कि करीब 4.5 अरब वर्ष पहले पृथ्वी के साथ विशाल टक्कर की घटना ने इसका गठन किया है।
अध्यात्मिक महत्वः चन्द्र एक चन्द्र देवता हैं। चंद्र यानि चांद को सोम के रूप में भी जाना जाता है और उन्हें वैदिक चंद्र देवता सोम के साथ पहचाना जाता है। उन्हें जवान, सुंदर, गौर, द्विबाहु के रूप में वर्णित किया गया है और उनके हाथों में एक मुगदर और एक कमल रहता है। वे हर रात पूरे आकाश में अपना रथ ;चांदद्ध चलाते हैं, जिसे दस सफेद घोड़े या मृग द्वारा खींचा जाता है। वह ओस से जुड़े हुए हैं, और जनन क्षमता के देवताओं में से एक हैं। उन्हें निषादिपति भी कहा जाता है। यहां निशा यानि कि रात और आदिपति अर्थात देवता। साथ ही इन्हें शुपारक, जो रात्रि को आलोकित करे, की संज्ञा दी गई है। सोम के रूप में चंद्रमा सोमवार के स्वामी हैं। वे सत्व गुण वाले हैं और मन, माता की रानी का प्रतिनिधित्व करते हैं।
राहू
हिन्दू ज्योतिष के अनुसार उस असुर का कटा हुआ सिर है, जो ग्रहण के समय सूर्य या चंद्रमा का ग्रहण करता है। इसे कलात्मक रूप में बिना धड़ वाले सर्प के रूप में दिखाया जाता है, जो रथ पर आरूढ़ है और रथ आठ श्याम वर्णी घोड़ों द्वारा खींचा जा रहा है। वैदिक ज्योतिष के अनुसार राहु को नवग्रह में एक स्थान दिया गया है। दिन में राहुकाल नामक मुहूर्त 24 मिनट की अवधि होती है, जो अशुभ मानी जाती है।
पौराणिक ग्रंथों में वर्णित कथा के अनुसार समुद्र मंथन के समय राहु नामक एक असुर ने धोखे से दिव्य अमृत की कुछ बूंदें पी ली थीं। सूर्य और चंद्र ने उसे पहचान लिया और मोहिनी अवतार में भगवान विष्णु को बता दिया। इससे पहले कि अमृत उसके गले से नीचे उतरता, विष्णु जी ने उसका गला सुदर्शन चक्र से काट कर अलग कर दिया। जिससे उसका सिर अमर हो गया। यही राहु ग्रह बना और सूर्य चंद्रमा से इसी कारण द्वेष रखता है। इसी द्वेष के चलते वह सूर्य और चंद्र को ग्रहण करने का प्रयास करता है। ग्रहण करने के पश्चात सूर्य या चंद्र उसके कटे गले से निकल आते हैं और मुक्त हो जाते हैं।
भारतीय ज्योतिष के अनुसार राहु और केतु सूर्य एवं चंद्र के परिक्रमा पथों के आपस में काटने के दो बिन्दुओं के द्योतक हैं। सूर्य और चंद्र के ब्रह्मांड में चलने के अनुसार ही राहु और केतु की स्थिति भी बदलती रहती है। अंग्रेजी या यूरोपीय विज्ञान में राहू एवं केतु को को क्रमशः उत्तरी एवं दक्षिणी लूनर नोड कहते हैं। तभी ये तथ्य कि सूर्य या चंद्र जब इनमें से किसी एक बिन्दु या स्थिति पर उपस्थित होते हैं ग्रहण होता है। यही तथ्य इस कथा का जन्मदाता बना कि राहु या केतु ग्रहण के समय सूर्य या चंद्र को ग्रसित कर लेते हैं।
राहु पौराणिक संदर्भों से धोखेबाजों, सुखार्थियों, विदेशी भूमि में संपदा विक्रेताओं, ड्रग विक्रेताओं, विष व्यापारियों, निष्ठाहीन और अनैतिक कृकृत्यों, आदि का प्रतीक रहा है। यह अधार्मिक व्यक्ति, निर्वासित, कठोर भाषणकर्ताओं, झूठी बातें करने वाले, मलिन लोगों का द्योतक भी रहा है। इसके द्वारा पेट में अल्सर, हड्डियों, और स्थानांतरगमन की समस्याएं आती हैं। राहु व्यक्ति के शक्तिवर्धन, शत्रुओं को मित्र बनाने में महत्वपूर्ण रूप से सहायक रहता है। बौð धर्म के अनुसार राहु क्रोध के देवताएं में से एक हैं।
राहू कालः राहु काल वेला को ज्योतिषशास्त्र के अनुसार शुभ कार्यो में विघ्न और बाधा डालने वाला बताया गया है। अतः राहु काल में किसी भी शुभ कार्य की शुरूआत नहीं करनी चाहिए। वैदिक ज्योतिष में वर्णित है कि प्रत्येक दिन का कुछ समय अलग अलग ग्रहों के प्रभाव में रहता है। ग्रहों के प्रभाव से प्रत्येक काल का अपना महत्व होता है। मुख्य रूप से समय के तीन भागों का इनमें विशेष महत्व होता है। समय के ये तीन मुख्य भाग हैं- यम गण्ड, राहु काल और कुलिक काल। इनमें कुलिक काल में शुभ कार्य शुरू किया जा सकता है, जबकि राहु काल और यम गण्ड को किसी भी शुभ काम को शुरू करने के लिए शुभ नहीं माना गया है।ग्रहों के गोचर के क्रम में सभी ग्रहों का अपना नियत समय होता है इसी प्रकार प्रत्येक दिवस एक निश्चित समय तक राहु काल होता है। वैदिक ज्योतिष के अनुसार प्रत्येक दिन का एक भाग राहु काल होता है।
सूर्योंदय और सूर्यास्त के आधार पर अलग-अलग स्थानों पर राहुकाल की अवधि में अंतर होता है। राहु काल प्रातःकाल में किसी भी दिन नहीं होता है.हफ्ते के सातों दिन इसका अलग अलग समय होता है। सोमवार को यह दिन के द्वितीय भाग में, शनिवार को तीसरे भाग में, शुक्रवार को चतुर्थ भाग में, बुधवार को पांचवें भाग में, गुरूवार को छठे भाग में, मंगलवार को सातवें भाग में और रविवार के दिन आठवें भाग पर राहु का प्रभाव होता है।
राहु काल ज्ञात करने के लिए वैदिक ज्योतिष में विशेष नियम बताया गया है। इस नियम के अनुसार सूर्योदय से सूर्यास्त तक पूरे दिन को आठ बराबर भागों में विभाजित किया जाता है। इस गणना में सूर्योदय का सामन्य समय 6 बजे सुबह माना जाता है और सूर्यास्त का 6 बजे शाम। इस प्रकार एक दिन 12 घंटे का होता है। 12 घंटे को 8 से विभाजित किया जता है। इस गणना के आधार पर सूर्योदय से सूर्यास्त तक दिन का प्रत्येक भाग 1.5 घंटे का होता है। इस आधार पर यह समय प्रत्येक दिन में राहु काल का होता है।
राहु काल में कार्यः राहु को नैसर्गिक अशुभ कारक ग्रह माना गया है। गोचर में राहु के प्रभाव में जो समय होता है उस समय राहु से संबंधित कार्य किये जाये तो उनमें सकारात्मक परिणाम प्राप्त होता है। इस समय राहु की शांति के लिए यज्ञ किये जा सकते हैं। इस अवधि में शुभ ग्रहों के लिए यज्ञ और उनसे संबंधित कार्य को करने में राहु बाधक होता है। शुभ ग्रहों की पूजा व यज्ञ इस अवधि में करने पर परिणाम अपूर्ण प्राप्त होता है। अतः किसी कार्य को शुरू करने से पहले राहु काल का विचार कर लिया जाए, तो परिणाम में अनुकूलता की संभावना अधिक रहती है।
केतु
भारतीय ज्योतिष में उतरती लूनर मोड को दिया गया नाम है। केतु एक रूप में राहु नामक ग्रह के सिर का धड़ है। यह सिर समुद्र मंथन के समय मोहिनी अवतार रूपी भगवान विष्णु ने काट दिया था। यह एक छाया ग्रह है। मान्यता है कि इसका मानव जीवन एवं पूरी सृष्टि पर अत्यधिक प्रभाव रहता है। कुछ मनुष्यों के लिये ये ग्रह ख्याति पाने का अत्यंत सहायक रहता है। केतु को प्रायः सिर पर कोई रत्न या तारा लिये हुए दिखाया जाता है, जिससे रहस्यमयी प्रकाश निकल रहा होता है।
भारतीय ज्योतिष के अनुसार राहु और केतु, सूर्य एवं चंद्र के परिक्रमा पथों के आपस में काटने के दो बिन्दुओं के द्योतक हैं। सूर्य और चंद्र के ब्रह्मांड में चलने के अनुसार ही राहु और केतु की स्थिति भी बदलती रहती है। अंग्रेजी या यूरोपीय विज्ञान में राहू एवं केतु को को क्रमशः उत्तरी एवं दक्षिणी लूनर नोड कहते हैं। तभी ये तथ्य कि सूर्य या चंद्र जब इनमें से किसी एक बिन्दु या स्थिति पर उपस्थित होते हैं और ग्रहण होता है। ये तथ्य इस कथा का जन्मदाता बना कि राहु या केतु ग्रहण के समय सूर्य या चंद्र को ग्रसित कर लेते हैं।
हिन्दू ज्योतिष में केतु अच्छी व बुरी आध्यात्मिकता एवं परा-प्राकृतिक प्रभावों का कार्मिक संग्रह का द्योतक है। केतु विष्णु के मत्स्य अवतार से संबंधित है। केतु भावना भौतिकीकरण के शोधन के आध्यात्मिक प्रक्रिया का प्रतीक है और हानिकर और लाभदायक, दोनों ही ओर माना जाता है। क्योंकि ये जहां एक ओर दुःख एवं हानि देता है, वहीं दूसरी ओर एक व्यक्ति को देवता तक बना सकता है। यह व्यक्ति को आध्यात्मिकता की ओर मोड़ने के लिये भौतिक हानि तक करा सकता है।
यह ग्रह तर्क, बुद्धि, ज्ञान, वैराग्य, कल्पना, अंतर्दृष्टि, मर्मज्ञता, विक्षोभ और अन्य मानसिक गुणों का कारक है। माना जाता है कि केतु भक्त के परिवार को समृðि दिलाता है। सर्पदंश या अन्य रोगों के प्रभाव से हुए विष के प्रभाव से मुक्ति दिलाता है। ये अपने भक्तों को अच्छा स्वास्थ्य, धन-संपदा व पशु-संपदा दिलाता है। मनुष्य के शरीर में केतु अग्नि तत्व का प्रतिनिधित्व करता है। ज्योतिष गणनाओं के लिए केतु को कुछ ज्योतिषी तटस्थ अथवा नपुंसक ग्रह मानते हैं, जबकि कुछ अन्य इसे नर ग्रह मानते हैं।
केतु स्वभाव से मंगल की भांति ही एक क्रूर ग्रह है तथा मंगल के प्रतिनिधित्व में आने वाले कई क्षेत्रों का प्रतिनिधित्व केतु भी करता है। यह ग्रह तीन नक्षत्रों अश्विनी, मघा एवं मूल नक्षत्र का स्वामी है। यही केतु जन्म कुण्डली में राहु के साथ मिलकर कालसर्प योग की स्थिति बनाता है।
केतु के अधीन आने वाले जातक जीवन में अच्छी ऊंचाइयों पर पहुंचते हैं, जिनमें से अधिकांश आध्यात्मिक ऊंचाईयों पर होते हैं। केतु की पत्नी सिंहिका और विप्रचित्ति में से एक के एक सौ एक पुत्र हुए, जिनमें से राहू ज्येष्ठतम है एवं अन्य केतु ही कहलाते हैं। केतु को आम तौर पर एक छाया ग्रह के रूप में जाना जाता है। उसे राक्षस सांप की पूंछ के रूप में माना जाता है। माना जाता है कि मानव जीवन पर इसका एक जबरदस्त प्रभाव पड़ता है और पूरी सृष्टि पर भी।
नेपच्यून अथवा वरुण
जहां सौरमंडल का आठवां और अंतिम ग्रह नेपच्यून पहले से ही वक्री भ्रमण कर रहा है। वास्तव में नेपच्यून सूर्य की एक परिक्रमा 164.80 वर्ष में पूरी करता है। जो कुछ दिन पहले ही पूरी हो चुकी है, किंतु खोज की दृष्टि से 23 सितंबर 2011 को इसका एक कैलेंडर वर्ष पूरा हो गया।
दरअसल नेपच्यून की खोज 23 सितंबर 1846 की रात्रि को जर्मन खगोलविद् योहन्ना गाल्ले ने सर्वप्रथम दूरबीन से देखकर की। इससे पहले 1845 में ब्रिटेन के छात्र एडम्स ने तथा 1846 में फ्रांस के खगोलविद् उरबई लवेरिए ने गणितीय गणना के आधार पर यूरेनस से परे किसी अज्ञात पिंड की कक्षा की स्थिति का पता लगा लिया था, किंतु दूरबीन उपलब्ध न होने से वे इस पिंड को देख नहीं सके।
लवेरिए ने जर्मनी के अपने मित्र गाल्ले को पत्र लिखा। इस प्रकार बिना परिश्रम के गाल्ले को नेपच्यून ग्रह को खोजने का श्रेय प्राप्त हो गया। नेपच्यून की खोज से सारे योरप में तहलका मच गया। लवेरिए ने ही पत्र द्वारा गाल्ले को नेपच्यून की स्थिति की सूचना दी थी। रोमन और यूनानी आख्यानों में नेपच्यून को समुद्र ;जलद्ध का देवता माना गया। भारत में भी इसे जल का देवता ;वरुणद्ध माना जाता है। ज्योतिष के अनुसार नेपच्यून जलीय राशि मीन का स्वामी है।
पाश्चात्य ज्योतिष के अनुसार नेपच्यून एक शांत और बृहस्पति तथा चंद्रमा की तरह मंगलकारी ग्रह है। यह एक सामथ्यवान ग्रह है। प्लूटो को ग्रहों की श्रेणी से अपदस्थ करने के बाद अब यह सौरमंडल का अंतिम ग्रह है। इसका व्यास 49,000 किलोमीटर है, जो पृथ्वी के व्यास से 3.5 गुना अधिक है। यह अपनी धूरी पर 29 डिग्री झुका हुआ 16 घंटे 11 मिनट में एक बार घूम जाता है। अपनी कक्षा में 5.48 किलोमीटर प्रति सेकंड की गति से 164.80 वर्ष में सूर्य की एक परिक्रमा पूरी करता है।
आकार में यह सौरमंडल का चैथा बड़ा गैसीय ग्रह है। इसके वायुमंडल में हाईड्रोजन ;80 प्रतिशतद्ध, हीलियम ;19 प्रतिशतद्ध, मिथेन ;1 प्रतिशतद्ध गैसें पाई जाती हैं, जिनके कारण यह नीले रंग का दिखाई देता है। इसके आठ उपग्रह और आसपास हल्के वलय पाए जाते हैं। इसका तापमान शून्य से नीचे 197 डिग्री से. है। इस ग्रह पर 200 किमी प्रति घंटे की रफ्तार से तेज हरिकेन आंधियां चलती हैं। इस पर काला बैंगनी और सफेद धब्बा भी देखा गया, जो एक रहस्य बना हुआ है।
प्रस्तुति: ऐस्ट्रोविजन