आत्मकथ्य
मेरा जीवन
वाया
टुकड़ा-टुकड़ा स्मृतियाँ
(पार्ट-1)
सुभाष नीरव
अनुक्रम
1- हे भगवान, ये बारिश रोज ही हुआ करे !
2- मोरीवाला तांबे का सिक्का
3- कैसी लगती हूँ ?
4- आशा पारिख के आशिक !
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हे भगवान, ये बारिश रोज ही हुआ करे !
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मेरा जन्म आज़ादी के छह वर्ष बाद एक गरीब पंजाबी परिवार में हुआ जो सन् 1947 के भारत-पाक विभाजन में अपना सब कुछ गंवा कर, तन और मन पर गहरे जख़्म लेकर पाकिस्तान से भारत आया था और आश्रय व रोजी रोटी की तलाश में पश्चिम उत्तर प्रदेश के एक बहुत छोटे से उपनगर – मुराद नगर- में आ बसा था। इस लुटे-पिटे परिवार में मेरे माता-पिता, दादा, नानी और चाचा थे। उन दिनों मुराद नगर स्थित आर्डनेंस फैक्टरी में श्रमिकों की भर्ती हो रही थी और मेरे पिता को यहाँ एक श्रमिक के रूप में नौकरी मिल गई थी, साथ में रहने को छोटा-सा मकान भी। मकान क्या था, खपरैल की छत और मिट्टी के फर्श वाला एक बड़ा कमरा और एक छोटा-सा दीवार से ढका बरामदा। कहा जाता है, आज़ादी से पहले यहाँ अंग्रेजों के घोड़े बांधे जाते थे। पर लुटे-पिटे मेरे परिवार को इस ‘सिर-लुकाई’ का ही बहुत बड़ा सहारा था। भारत में आकर उन्होंने पाकिस्तान में छूट गई अपनी ज़मीन-जायदाद का कोई क्लेम नहीं भरा था, जो मिल गया, उसी सें संतोष कर लिया था और अपने कड़वे अतीत के काले दिनों के साथ-साथ तन-मन पर झेले ज़ख़्मों को भूलने की कोशिश करने लगे थे। अक्सर घर में होने वाली बातों में ये किस्से शामिल होते थे जिन्हें सुन-सुनकर मैं बड़ा हो रहा था।
मुझसे बड़ी एक बहन थी। कहते हैं कि मेरे दादा शिकार के बहुत शौकीन थे और उन्हें तीतर-बटेर पकड़ कर पिंजरों में पालने का शौक था। उन्होंने मेरे जन्म पर अपने सारे पिंजरे खोल दिए थे और तीतरों-बटेरों को आकाश में उड़ा दिया था। मेरे बाद दो बहनें व दो भाई और पैदा हुए। नानी भी हमारे संग ही रहती थीं जिसे हम सब भाबो कहा करते थे। नानी के कोई बेटा नहीं था, तीन बेटियाँ ही थीं। भारत-पाक विभाजन के बाद, वह आरंभ में तो बारी-बारी से अपने तीनों दामादों के पास रहा करती थीं, पर बाद में स्थायी तौर पर अपने सबसे छोटे दामाद यानी मेरे पिता के पास ही रहने लगी थीं। वह बाहर वाले छोटे कमरे में जो रसोई का भी काम देता था, रहा करती थीं। दरअसल, यह कमरा नहीं, छोटा-सा बरामदा था जो पाँच फीट ऊँची दीवार से घिरा हुआ था। इसमें लकड़ी का एक जंगला था जो आने-जाने के लिए द्वार का काम करता था। ठंड के दिनों में दीवार के ऊपर की खाली जगह और जंगले को टाट-बोरियों से ढक दिया जाता था। यह बरामदा-नुमा कमरा बहुद्देशीय था। नानी का बिस्तर-चारपाई, रसोई का सामान, आलतू-फालतू सामान के लिए टांट आदि को अपने में समोये हुए तो था ही, अक्सर घर की स्त्रियाँ इसे गुसलखाने के रूप में भी इस्तेमाल किया करती थीं। नानी, माँ या बहनों को जब नहाना होता तो घर के पुरुष घर से बाहर निकल जाते और टाट और बोरियों के पर्दे गिरा कर वे जल्दी-जल्दी नहा लिया करतीं। जब तक नानी की देह में जान थी, हाथ-पैर चलते थे, वह फैक्टरी के साहबों के घरों में झाड़ू-पौचा, बर्तन मांजना, बच्चों की देखभाल आदि का काम किया करती थी और अपने गुजारे लायक कमा लेती थीं। बाद में, जब शरीर साथ देने से इंकार करने लगा तो उन्होंने काम करना छोड़ दिया और पूरी तरह अपने दामाद और बेटी पर आश्रित हो गईं। दादा भी थे, पर वह साथ वाले घर में हमारे चाचा के संग रहते थे।
जब मैं पाँच वर्ष का हुआ तो दादा मुझे घर के पास वाले आदर्श विद्यालय में दाखिला दिलाने ले गए। बड़ी बहन भी वहीं पढ़ती थी। दादा बताया करते कि शुरू का एक महीना तो मैंने उन्हें खूब परेशान किया। जैसे ही, वह मुझे स्कूल में छोड़कर अपनी पीठ घुमाते, मैं रोता हुआ उनके पीछे-पीछे घर तक आ जाता। यह स्कूल छप्पर का बना था, बस हैड मास्टर का आफिस ही पक्का था। सभी विद्यार्थी ज़मीन पर टाट बिछाकर बैठते थे और ये टाट-बोरी हर विद्यार्थी अपने घर से लेकर आता था। बारिश के दिनों में बहुत आफ़त हो जाती थी। छप्पर में से पानी टपकता था और कईबार तो कक्षाओं में पानी भर जाता था और बैठने की कोई जगह नहीं बचती थी। ऐसे में, हैडमास्टर बच्चों की छुट्टी कर देता था और हम सब बच्चे मन ही मन प्रार्थना करते थे कि हे भगवान, ये बारिश रोज ही हुआ करे।
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मोरीवाला तांबे का सिक्का
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मेरी बड़ी बहन मुझसे सिर्फ़ एक कक्षा आगे थी। हम दोनों स्कूल के लिए एक साथ घर से निकलते थे और एकसाथ घर लौटते थे। बस्ते के अलावा हमारे हाथों में तख्तियाँ होती थीं और बोरी या टाट का टुकड़ा। स्कूल के बाहर एक छोटी-सी दुकान थी – छप्परवाली। दुकान पर एक काले रंग का थुलथुल शरीर वाला आदमी सिर पर बड़ा-सा पग्गड़ बाँधे बैठता था। आधी छुट्टी और पूरी छूट्टी के समय उसकी दुकान पर बच्चों की भीड़ लग जाती। कोई चना-मुरमुरा माँग रहा होता, कोई खट्टी मीठी गोलियाँ, कोई आम पापड़ और कोई चूरन या इमली। मेरी बहन को इमली खाने का बहुत शौक था। उन दिनों मोरी वाला तांबे का सिक्का चला करता था, उस सिक्के की बहुत सारी इमली आ जाती थी। हम भाई-बहन पूरी छुट्टी में रास्ते भर इमली खाते-चूसते हुए लौटते। बहन से मेरी अक्सर इस बात पर लड़ाई होती थी कि उसने मुझे कम इमली दी और खुद ज्यादा रख ली। सिक्का तो मुझे भी मिलता था, पर मैं उसे आधी छुट्टी में ही चूरन या मीठी गोलियों पर खर्च कर देता था और बहन से छुपकर खाता था, उसे अपनी चीज़ में शामिल नहीं करता था।
दूसरी कक्षा तक तो मुझे उस स्कूल में कोई परेशानी नहीं हुई। पर जब मैं तीसरी कक्षा में आया और बहन चौथी में तो मुझे स्कूल जाने में डर लगने लगा। मैं स्कूल न जाने के बहाने बनाता, कभी पेट दर्द और कभी सिरदर्द। पर मेरे बहाने अधिक चलते नहीं थे। मेरे भय का कारण स्कूल के दो मास्टर थे। एक पीटी मास्टर जो सुबह प्रार्थना के समय सब बच्चों की ड्रैस, जूते, नाखून देखता और जो बच्चा ड्रैस में न होता या उसकी ड्रैस गंदी होती, या पांव में सफेद कपड़े के जूते न होते या उंगलियों के नाखून बढे होते, तो उसकी खैर न होती। शहतूत की पतली टहनी जब वह हवा में लहराता तो हम बच्चों की जान सूख जाती। कई बच्चों का तो पेशाब निकल जाता। दूसरा, गणित मास्टर था, जिसका नाम तो कुछ और था, पर सभी उसे खचेड़ू मास्टर कहते थे। वह देखने में दुबला पतला था और उसके दायें हाथ की पांचों उंगलियां टेढ़ी थीं। पहाड़ा याद न होने पर वह बच्चों की पीठ पर अपनी टेढ़ी उंगलियों वाले हाथ का गुट्टू बनाकर जब ‘धांय-धांय’ करता तो मार खाने वाले की जो हालत होती, सो होती ही थी, दूसरे बच्चों की भी मारे डर के घिघ्घी बंध जाती।
पर इसी मास्टर ने हमें चौथी कक्षा में ही पचास तक पहाड़े कंठस्थ करवा दिये थे जो दसवीं कक्षा तक हमें गुणा–भाग के सवालों को हल करने में बेहद सहायक हुए। चौथी कक्षा के कक्षा-अध्यापक यही मास्टर थे। पूरी कक्षा को इन्होंने चार भागों में विभक्त कर दिया था। चारों का एक एक मॉनीटर बना दिया। पहले भाग के विद्यार्थी वो थे जो पढ़ने-लिखने में बहुत होशियार थे। दूसरे भाग में उनसे कम होशियार, तीसरे में उनसे भी कम और चौथे में बिल्कुल नालायक। अक्सर मार इसी चौथे भाग के बच्चों को पड़ती। मुझे इस चौथे भाग का मॉनीटर बना दिया गया था। मेरे हिस्से में दस-ग्यारह बच्चे थे जो गरीब घरों से थे और आसपास के गांवों से आते थे। मैं इनकी कापियाँ जांचता और मास्टर जी को दिखाता। ये बच्चे मेरा बहुत आदर करने लगे थे क्योंकि मैं उन्हें अक्सर मास्टर जी की मार से बचा लिया करता था। ये बच्चे छुट्टी के दिन मेरे घर के बाहर कुछ न कुछ लिए खड़े होते। उनके हाथों में थैले होते जिनमें हरा साग, हरी सब्जियाँ, अमरूद, आम, गन्ने और न जाने क्या क्या भरा होता। मेरी नानी, मेरे दादा, मेरे चाचा-चाची और मेरे माता-पिता यह सब देखकर दंग होते और मन ही मन खुश भी। उन्हें लगता, उनका बेटा बहुत होशियार है इसलिए कक्षा में मॉनीटर है और ये बच्चे इसीलिए हमारे बेटे को इस प्रकार के तोहफ़े देकर खुश होते हैं।
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कैसी लगती हूँ ?
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कक्षा पाँच में कमलजीत नाम की हमारी कक्षाध्यापिका थीं। उनका नाम मुझे इसलिए अभी तक याद है क्योंकि मेरी बड़ी बहन का नाम कमलेश था और घर में सभी उसे कमला या कमली कहकर बुलाते थे। यह नई कक्षाध्यापिका इतनी सुन्दर थीं कि मैं हर समय छिपछिप कर उनके चेहरे की ओर देखा करता था। गोल गोरे-चिट्टे चेहरे पर पतली-सी नाक और बिल्लोरी आंखें देखकर मैं दस-ग्यारह वर्ष का बालक अपनी सुध-बुध खो देता था। फिर मेरे मन में उनके करीब अधिक से अधिक खड़ा होने, उनसे बात करने की इच्छा तीव्र होने लग पड़ी। इसके लिए मैं बहाने ढूंढ़ने लगा। और एक दिन उन्होंने मेरी चोरी पकड़ ली।
“तू मेरी ओर क्या घूरता रहता है ?”
यह सवाल सुनकर मैं सहम-सा गया था।
टीचर ने मेरा उत्तर न पाकर मुझे अपने पास खड़ा कर लिया तो मैं इतना घबरा उठा कि मेरा चेहरा रुआंसा हो गया। उसने मुझे अपनी बांहों में लेकर प्यार से पूछा, “मैं तुझे अच्छी लगती हूँ?” मैंने सिर हिलाकर ‘हाँ’ में उत्तर दिया।
“अच्छा ! कैसी लगती हूँ ?”
मेरे चाचा को फिल्में देखने का बहुत शौक था। कस्बे में टैंट वाला एक टाकीज़ था- जय टाकीज़। हर शुक्रवार को नई फिल्म लगती थी। एक रिक्शा जो बड़े-बड़े रंगीन पोस्टरों से ढका होता, पूरे फैक्टरी एस्टेट में घूमता था। रिक्शावाला लाउड-स्पीकर पर लच्छेदार भाषा में फिल्म की मशहूरी करता था। हम बच्चे उसके पीछे पीछे दूर तक दौड़ते थे। पोस्टरों पर हीरो-हीरोइनों के रंगीन या श्याम-श्वेत चित्र हमें खूब लुभाते थे। जब भी कोई नई फिल्म लगती, चाचा फैक्ट्री से आकर, खाना खाने के बाद साइकिल उठा अपने दोस्तों के संग रात का आखिरी शो देखने चल पड़ते। कभी कभी मुझे भी साइकिल पर बिठाकर ले जाते। उन दिनों शम्मी कपूर और आशा पारीख की कोई फिल्म मैंने चाचा के संग देखी थी। फिल्म देखने के बाद चाचा कई दिनों तक अपने दोस्तों के संग फिल्म की बातें किया करते रहते थे। देवानंद, राजकपूर, शम्मी कपूर, नर्गिस, मीना कुमारी, आशा पारीख के नाम उनकी बातों में बार बार आते थे। मैं उनकी बातें बड़े गौर से सुना करता था।
टीचर का प्रश्न सुनकर मेरे मुँह से अचानक निकल गया, “आशा पारीख !”
मेरे उत्तर पर वह एक ज़ोरदार ठहाका लगाकर हँस पड़ी और मेरे चेहरे पर हल्की-सी चपत लगा कर बोली, “अभी तेरे पढ़ने के दिन हैं बेटा, आशा पारीख को छोड़ और मन लगाकर पढ़ाई कर।”
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आशा पारिख के आशिक !
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उन दिनों पाँचवी और आठवीं की जिला स्तर पर परीक्षा होती थी। हमारी पाँचवी कक्षा का सेंटर मुरादनगर की गंग नहर के उस पार एक गांव में पड़ा था। हम बच्चों के माँ-बाप, हमें उस गांव के स्कूल में छोड़ आए थे। हमारे संग हमारे स्कूल के कुछ अध्यापक भी थे जिनमें से कुछ वहीं बच्चों के संग रहते थे और कुछ रोज़ सुबह साइकिलों पर स्कूल पहुँच जाते थे और दोपहर में अपने घर लौट जाते थे। सब बच्चों के पास अपना अपना बिस्तर था और टीन के सन्दूक या पीपे। मेरी माँ ने मुझे पंजीरी के लड्डू बना कर दिए थे। हमें स्कूल के एक बड़े कमरे में ठहराया गया था। रात में हमारे अध्यापक हमें अगले दिन के पेपर की तैयारी करवाते और खास खास प्रश्नों को दोहरवाते। कमल जीत मैडम हमारे बगल वाले कमरे में अकेली थीं और उससे आगे वाले कमरे में तीन अध्यापक थे। मेरी हैरानी का कोई ठिकाना न रहा जब कमलजीत मैडम ने मुझे अपने कमरे में बुला कर कहा, “ओ आशा पारीख के आशिक ! तू अपना पीपा बिस्तर यहीं मेरे कमरे में ले आ। तू मेरे संग रहेगा।”
करीब सप्ताह भर हम उस गांव में रहे। मैं रोज़ रात में कमलजीत मैडम के कमरे में सोता था। सोने से पहले वह मुझे लैम्प की रौशनी में पढ़ाती थीं और रात का खाना भी मुझे अपने संग खिलाती थीं। रात में जब मैडम के बिस्तर की बगल में मैं अपना बिस्तर लगाकर सोता तो उनकी देहगंध मुझे मदहोश-सा कर देती थी। औरत का स्पर्श, उसकी देहगंध, उसके प्रति आकर्षण, ये सब किसी पुरुष को क्यों मदहोश करते हैं, उस आयु में मेरी समझ से बाहर की बातें थीं। आज सोचता हूँ कि मेरी टीचर ने मुझ दस-ग्यारह बरस के बालक को अपने संग क्यों रखा ? शायद, एक अनजान गांव में, एक अकेली जवान लड़की अपने अकेलेपन को भरना और अपने को सुरक्षित महसूस करना चाहती थी।
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