चील्हा अजिया
’अजिया पांय लागी।’
कभी थोड़ा हाथ उठाकर कभी सिर हिलाकर आषीश देतीं चील्हा अजिया। सफेद धोती, हाथ में डोल्ची जिसमें सिंधौरा, बाती, धूप और अक्षत आदि पूजा का सामान होता ।
दूली बाबा तीस बरस पहले ही साथ छोड़ गये थे। उनके समय से ही नवरात्री का अनुश्ठान होते आ रहा था। कई दिन पहले से ही तैय्यारी षुरु हो जाती। ऊपर तक घर की पोताई करतीं। इधर-उधर की माटी न लातीं। झांड़ा बीर बाबा के तालाब की पूर्ण षुद्ध। बाकी ताल-तलैया तो गूं-गोइड़हरी वाले थे। बीर बाबा के तलाय की तलैया। और किसी की हिम्मत न पड़ती। कहा जाता कि जब भी लोगों ने मुरहाई करने की कोषिष की मुंह-टांग अउर........अंगभंगी हो गए थे। चीन्हा-बिचारी कर गाय का गोबर आता और भितरहाइ दल्लान से गलियारे तक लिपाई करतीं। मजाल कि कोई कूकर बांदर .....। विद्या दादा कलष स्थापित करवाते, विधिवत।
................................. ................................ ...............................
’आजु लाखिया लपकी लइगा, असŸाी।’
फूल तोड़ने में प्रतियोगिता चलती। जो जल्दी कर ले जाता वही मइया को पुश्पों से लाद देता। लाखिया का जी फूलों से न भरता था। जब तक टोका-टाकी न होती सब अरोंछ लेता। अजिया का पट्टीदार........... और कौन।
प्रातः आरती-पूजा और दिन भर निर्जला। बिलकुल जेठ की एकादषी जैसे। संध्या आरती के पष्चात लौंग और जल प्रसाद रुप में ग्रहण कर वहीं पूजा घर में जमीन पर या लकड़ी की चैकी में विश्राम।
तब हर किसी की हिम्म्त न पड़ती थी इस व्रत को साधने की। सुभीते भी इतने कहां थे। अब तो पूरा घर नहीें तो हर घर में एकाध धरती साधक अवष्य मिल जायेगा/जायेगी। अब इसकी व्यवस्था अपने तरीकों से यथा- पेटी भर सेब, अन्यान्य मौसमी फल, कुट्टू का आटा, सांवा के चावल, छोटा-बड़ा साबूदाना, षकरकंद, आलू, खोया, दूध-दही, व्रत का विषेश रामरस और सब कुछ पैकेज में चाहे पंडित प्रोविजन षाॅप से या आॅनलाइन। संस्कृति संस्थान से मंगाने वालों के लिए विषेश रियायत। ये लोग संस्कृति और धर्म के ध्वजा धारक जो ठहरे। इनके यहां सब कुछ उपलब्ध-षुद्ध, पवित्र, तनिक भी मिलावट नहीं षेश सब विश मिश्रित।
अजिया के लरिका - बहुरिया-सारा परिवार षहर में रहता था। ये गांव के हाहा-हूती घर, धरती धमक्का बाग और चक की रखवाली के लिए यहां रामा ष्यामा करतीं।
इस बार के वासंतीय नवरात्री अप्रैल के द्वितीय सप्ताह में पड़ रहे थे। बच्चों का ग्रीश्मावकाष षुरु हो रहा था सो मंझले बेटे ने प्लान किया कि अबकी रामनवमी अम्मा के साथ गांव मंे हो।
घर भर गया। लगा कि कोई जलसा हो रहा है। अबकी बार पूजा में अजिया के लिए किसी चीज की कमी नहीं। घी, फल, धूप-दीप नैवेद्य का पूरा इंतजाम बेटे-बहू के आ जाने से हो गया था। बड़ा पोता वहीं षहर में तबला बजाना सीख लिया था सो आरती गाजे-बाजे के साथ होतीं। यद्यपि अजिया को बहुत अच्छा न लगता-’यह का बाजा बजावै सिखा है? खान-दान म यह कबो न भवा। बाजा वाला बनिहै का?’ सबको रस मिलता और आयुष अजिया से लिपट जाता। छोटका कभी पूजा घर का सामान छूता तो कभी अजिया को छेड़ता। बहू आंखे काढ़ती मगर.......और उसे बाहर ले जाना पड़ता।
................................. ............................. ....................
’............न जानामि विसर्जनम्
...........पूजां चैव न जानामि क्षम्यतां परमेष्वरी’
भूल-चूक क्षमा करें, माता। सुंदर विधान। मनुश्य पूर्णता से ध्यान करे भी कैसे? ’गृह प्रपंच नाना जंजाला।’ षास्त्र का यह ब्रहमास्त्र। दण्डवत प्रणाम और तदनंतर प्रसाद....
’सिन्नी ल्यो सिन्नी.......लरिको सिन्नी....
मिस्टर बाबा की दूकान में चार-छः ठेलुहा भाई दिन भर गड़िया-गांजे रहते।
’का हो ... गुड़, बतासा या पेड़ा का बंट रहा है ?’
पहला विकल्प सुनते तो वहीं से - जय माता की। बतासा बताया जाता तो जगह खाली करते और यदि पेंड़ा तो ’हमार........ अउर नतीवा का ?’ कोई टोकता तो ’दानी दान दे भंडारी का पेट पिराय..............’ तमाम अबै-तबै सुनाते।
निस्संदेह हम मूर्ति, चित्र, प्रतीक और बिंबों का आलंबन बनाकर ध्यान, पूजा, साधना करते हैं। मूर्ति की श्रेश्ठता, चित्र का चरित्र, प्रतीक की पावनता और बिंब के वास्तविक रूप को बहुत पीछे विस्मृत कर, षायद।
---- ---- ---- ----
आज सुबह से ही हलवा पूरी बनाने की तैयारी षुरू हो गई। नीलम ने इस बार इसमें चने भी ऐड कर दिए। ’वहां षहर में चना भी भोग में चढ़ता है। बहू ने अजिया का मार्ग दर्षन किया था-’अम्मा........ मां पूरी कर दे मुरादें हलवा बांटूंगी ...छोले बांटूंगी....।’ बकायदा नवभक्ति से पगा नवगीत सुनाकर। यह जगद्जननी से भी सषर्त कहता है कि मुरादें पूरी होंगी तो हलवा, पूरी, चना, नारियल, मेवा मिश्ठान। और नहीं तो कड़वी लौंगें। अजिया इन गीतों को कैसे समझ पातीं। उन्हें तो लचारी आती थीं, जिनमें माता के प्रति पूर्ण समर्पण, भक्तिभाव। यह कतर-ब्यौंत नहीं।’
’मइया तोहरे भवन बड़ी भीड़... भवन बड़ी भीड़... भवनु कैसे लीपा जाय....’
इस बार पूरे नौ दिन की नवरात्री थीं। तिथियों में कोई घटती-बढ़ती नहीं । नौ कन्याओं का इंतजाम करना था। यह इस महाव्रत की अंतिम प्रक्रिया थी। कन्या भोज के पष्चात ही व्रत का पारण करने का विधान। पहले कोई समस्या न होती थी। कन्याएं सरलता से सुलभ हो जाती थीं। ऐसी-ऐसी दवाइयां और टेक्नाॅलाजी आ गई है कि ......राम-राम, कितने.....पात और सबको बेटा ही चाहिए। घर-घर पूजा-पाठ का सचार भी तो सचर गया है। वो भी बेचारी कहां-कहां जायं और कितना खंाय ? उस पर कबड्डी यह कि कौन पहिलकी कर ले जाय। जो कोई अव्वल उसके यहां ये देवी रूप कन्याएं प्रथम आषीर्वाद देतीं। बाद में बासी-कूसी, बचा-खुचा।
अजिया ने पोते को जगाया कि जल्दी-जल्दी नहा धोकर कन्याओं को बुला लाए। कई बार हिलाया-डुलाया। ’नासिकाटा आज भी पहर दिन तक पड़ा है, वा रे दुलार!’ श्रद्धा से ज्यादा चिंता की स्थिति बनी हुई थी।
’एक षर्मा जी की बिटिया, आंचल दो, षोभा की तीन, बगल वाली डइना की चार....मिला जुलाकर आठ ही हो रही हैं।’
नीलम ने चिंता जाहिर की।
’दादी, वो एक अंकल जो बैंक में ट्रांसफर होकर आये हैं। घुरउ अंकल के ऊपर किराये में रहते हैं उनके यहां भी एक दीदी हैं न... लो हो गईं नौ।’
ढोलू ने समाधान कर दिया था।
’अरे ....न जाने कौन बिरादरी के हों। पहले जात पता कर लो। कभी चर्चा नहीं चली उससे इस बारे में। नाम में तो खाली कुमार ही लिखा है।’
विकट समस्या। श्रद्धा-भक्ति हवन के धुएं के साथ उड़ रही थीं। बहू ने पुनः हिम्मत जुटाई ’ऐसे तो व्रत का पारण नहीं कर पाएंगी, अम्मा।
ध्यान की तल्लीनता भंग हुई।
’इससे पहले कि चाहत की मम्मी लड़कियों को बुला ले जा बेटा, जल्दी पकड़ ला । वैसे भी वह बहुत तेज है हर काम में।’
’दादी अगर आप पहले बुला लोगी तो चाहत की मम्मी भी तो यही कहेंगी न?’
ढोलुवा हाजिर जवाब था। दादी मौन हो गईं कुछ बोलते न बना। ढोलू का मन बढ़ गया।
’कुमार अंकल की बेटी को भी बुला लाऊं क्या?’
’नहीं उसे मत लाना। व्रत खराब करवाएगा?’
’उस दिन जब महरी चाची नहीं आई थीं तब तो मम्मी ने न जाने किससे बर्तन-पोंछा करवाया था।’
ढोलू को सुबह से कुछ न मिला था। कन्या जिमाने के पष्चात ही नाष्ता मिलेगा, बता दिया गया था।
’किसी से आपकी बोलचाल नहीं। कोई आपके दुवारे से नहीं निकल सकता। किसी की मां ज्यादा तेज है। कोई गैर धर्म का है और किसी की जात का पता नहीं। न जाने कौन सी किताब में लिखी है ऐसी पूजा और लोकाचार ? ऐसे में माताजी खुष होकर आषीर्वाद देंगी ? ढोलू की बड़बड़ाहट तीखे प्रतिकार का रूप लेती जा रही थी। दिन चढ़ता जा रहा था।
----------------
’थोड़ा हलवा पूरी घर भी लेती जाओ। खाली प्लेट नहीं ले जाई जाती।’
ढोलू ने षुभ संख्या पूरी करवा दी थी इसलिए चील्हा अजिया पुनष्च पुनष्च पुनष्च पुनष्च पुनष्च...
........क्षम्यताम् परमेष्वरी........
........क्षम्यताम् परमेष्वरी........।