देह के दायरे
भाग - नौ
“हैलो पूजा, पढाई कैसी चल रही है?” पास आते हुए पंकज ने पूछा |
“कोई विशेष तो...पर लगता है पास हो जाऊँगी |” पूजा ने कॉलिज की द्वार में प्रवेश करते हुए कहा | उस समय उसे पंकज का टोकना अच्छा न लगा था क्योंकि वह देव बाबू से मिलने की उत्सुकता लिए कैन्टीन की ओर जा रही थी | उसे पता था कि प्रायः प्रातःकाल कॉलिज लगने से कुछ देर पूर्व देव बाबू चाय के एक प्याले के लिए कैन्टीन अवश्य आता है |
“आओ कुछ देर बैठते है | कॉलिज लगने में तो अभी कुछ देर है |” पंकज पूजा के स्वर की उपेक्षा को न पहचान सका था |
“सिर में हल्का-सा दर्द है, मैं एक प्याला चाय पीने के बाद क्लास में आऊँगी |” पूजा ने उसे टालना चाहा |
“चाय पीने की इच्छा तो मेरी भी है | अगर आपको कोई एतराज न हो तो...|” पंकज ने अपनी बात अधूरी छोड़ दी |
“मुझे क्या एतराज हो सकता है | आइए |” शिष्टाचार के कारण ही पूजा ने कहा था अन्यथा वह तो चाहती थी कि किसी तरह उससे पीछा छुट जाए |
विवश हो पूजा को उसके साथ कैन्टीन की तरफ जाना पड़ा | अभी तक देव बाबू कैन्टीन में नहीं आया था | क्योंकि आने के पश्चात् घंटी लगने पर ही वह वहाँ से उठकर जाता था |
पंकज पूजा के पड़ोस में ही रहता था | आज से चार वर्ष पूर्व वह इस शहर में आया था | अपना कहने के नाम पर एक चाचा के सिवा उसका इस संसार में कोई न था | चाचा ने ही उसे अब तक शिक्षा प्रदान करवायी थी और अब वह कुछ तो अपनी चित्रकारी से और कुछ ट्यूशनें करके अपनी पढाई के खर्चे का काफी हिस्सा जुटा लेता था |
पंकज और पूजा के पिताजी की आयु में काफी अन्तर होने पर भी उनमें मित्रता का सम्बन्ध बन गया था | पूजा के पिताजी को शतरंज का बहुत शौक था और पंकज भी काफी अच्छी शतरंज खेल लेता था | प्रायः उस दोनों की शतरंज रविवार की सुबह जो जमती तो फिर शाम तक समाप्त होने का नाम न लेती | कभी-कभी अपने पिताजी की अनुपस्थिति में पूजा भी पंकज के साथ शतरंज पर बैठ जाया करती थी |
पूजा ने बी. एड. में प्रवेश लिया था तो उसके पिताजी ने पंकज को उसकी देखभाल का उतरदायित्व भी सौंप दिया था | इससे पूर्व पूजा लड़कियों के कॉलिज में ही पढ़ती रही थी | सहशिक्षा का उसका यह प्रथम अवसर ही था और पंकज को उसके पिताजी किसी सीमा तक घर का ही व्यक्ति समझने लगे थे |
पंकज और रेणुका का परस्पर काफी हास-परिहास चलता रहता था और पूजा रेणुका को अक्सर पंकज का नाम लेकर चिढ़ाती भी रहती थी | रेणुका जितने खुले विचारों की लड़की थी उससे पूजा के लिए यह अनुमान लगाना कठिन था कि वह पंकज को चाहती है या फिर बात सिर्फ हासपरिहास तक ही सीमित है |
कैन्टीन का लड़का दो प्याले चाय उनके सामने रख गया था | तभी सामने से देव बाबू ने कैन्टीन में प्रवेश किया |
“आज तो पंकज भाई भी चाय पी रहे हैं |” वह सीधा उनकी मेज के पास ही आ गया |
“आप भी आइए देव बाबू |” पंकज ने कहा तो देव बाबू वहीं पड़ी कुर्सी पर बैठ गया |
paपंकज ने लड़के से तीसरा कप मँगवाया और दो प्यालों की चाय को तीन में करने लगा |
“और मँगा लेते हैं पंकज...आप अपने हिस्से में से क्यों दे रहे हैं?”
“नहीं देव बाबू, आज आप हमारे हिस्से की ही चाय पीकर देखिए | यह तो पीने की चीज है...एक प्याले में दो भी पी सकते हैं |” कहते हुए पंकज ने तीसरा प्याला देव बाबू की तरफ बढ़ा दिया |
“मेरे कारण आप लोगों की चाय भी ठण्डी हो गयी |” कहकर देव बाबू ने अपना प्याला उठा लिया |
“कोई बात नहीं देव बाबू, वैसे भी मुझे अधिक गर्म वस्तु पसन्द नहीं है |” पंकज ने कहा |
“इस उम्र में भी?” देव बाबू ने परिहास किया |
“अपना-अपना शौक है देव बाबू |” कहते हुए पंकज ने चाय का प्याला उठाकर होंठों से लगा लिया |
“आपकी पेंटिंग्स पूरी हो गयी पूजा जी?” देव बाबू ने पूछा |
“हाँ, पंकज ने मेरी सारी फाइल पूरी कर दी है | बहुत अच्छी चित्रकारी करते हैं ये...तुम भी देखो |” पूजा ने कहने से साथ ही अपनी पेंटिंग्स की फाइल देव बाबू की तरफ बढ़ा दी |
देव बाबू कुछ देर पुष्ठ पलटते रहे |
“आप तो बहुत बड़े चित्रकार हैं पंकज भाई |”
“धन्यवाद |”
“कैसे बना लेते हैं आप इतने सुन्दर चित्र?”
“जैसे आप गजल के शेर बना लेते हैं |”
“आपको किसने बताया कि मैं...|”
“पूजा आपके विषय में अक्सर जिक्र करती है कि आप कितनी सुन्दर गजल लिखते हैं | कई गजल तो इन्होंने हमें दिखायी भी हैं |” पंकज ने देव बाबू की बात पूरी होने से पहले ही कह दिया |
“हूँ...तो पूजा ने आपको भी बता दिया |”
“कला छुपाई नहीं जाती देव बाबू |”
“हाँ, यह भी ठीक है |” देव बाबू ने मुसकराते हुए कहा |
“अवकाश हो तो हमारे भी कुछ चित्र बना देना |” कुछ सोचते हुए देव बाबू ने कहा |
“और बदले में इनसे गजल बनवा लेना |” पूजा बीच में ही बोल उठी |
“हम दोनों के मध्य तो कला का रिश्ता है देव बाबू | आपके चित्र तो मैं अवश्य बनाऊँगा |”
“धन्यवाद |”
“इसकी आवश्यकता अपरिचितों को होती है | अब हम तो अपरिचित नहीं हैं |” पंकज ने कहा |
चाय समाप्त हो चुकी थी | पंकज ने कलाई पर बंधी घड़ी की ओर देखा-घंटी लगने का समय हो गया था | तीनों उठकर काउंटर पर आ गए | तीनों ही चाय के पैसे देना चाहते थे परन्तु देव बाबू उन सबसे आगे आ गया |
“आप दोनों मुझसे छोटे हैं इसलिए इस पहली चाय का बिल मुझे चुकाने दो |” अधिकारपूर्वक देव बाबू ने कहा |
“अवश्य ही मैं आपसे छोटा हूँ परन्तु आप फिर भी मुझे ‘आप’ का सम्बोधन दे रहे हैं |” पंकज ने जेब में से हाथ निकाल लिया |
“ठीक है, भविष्य में मैं इस बात का ध्यान रखूँगा |” देव बाबू ने बिल चुका दिया और तीनों कैन्टीन से कक्षा की तरफ बढ़ गए |
तीसरी घंटी खली थी | प्राध्यापक महोदय आज अवकाश पर थे | पूजा रेणुका के साथ कॉलिज के लॉन में आ बैठी थी |
“रेणुका, मैं तो पढ़ ही नहीं पाती, न जाने पास भी हो पाऊँगी या नहीं |”
“ऐसा ही होता है |”
“कैसा?”
“जब प्यार हो जाता है! अब तो तू प्रेमशास्त्र ही पढ़ा कर | क्या करेगी कॉलिज की पढाई करके |
“तू...ला दे, निश्चय ही पढ़ लूँगी |” पूजा ने हँसकर कहा |
“लाऊँ?”
“देवशास्त्र?”
“मजाक मत कर रेणुका | कोई काम की बात कर |” हँसती हुई पूजा एकाएक गम्भीर हो गयी |
“तूने मम्मी से इस विषय में बात की थी?”
“प्रयास तो किया था मगर कर नहीं पायी |”
“आज दो अप्रैल हो गयी पूजा, इस दिन बाद कॉलिज में परीक्षाओं की तैयारी के लिए अवकाश हो जाएगा | इसके पश्चात् परीक्षा आरम्भ हो जाएगी...देव बाबू उसके बाद अपने गाँव लौट जाएगा...तू उसकी याद में बैठकर आँसू बहाती रहना |”
“नहीं रेणुका, नहीं...|” वास्तविकता को पूजा सहन न कर सकी |
“मैं जाती हूँ...तू यहाँ बैठकर सोचती रह कि तुझे क्या करना है |” कहते हुए रेणुका उठकर जाने लगी तो पूजा ने उसका आँचल पकड़कर उसे रोक लिया |
“रेणुका...मेरी बहन! तू तो मेरे बारे में सब कुछ जानती है | मैं प्रेम-भँवर में फँस गयी हूँ मेरी बहन...किसी तरह मुझे किनारे लगा दे, नहीं तो मैं जी नहीं सकूँगी |”
“तो एक काम कर |”
“क्या?” पूजा के अधीर मन को कुछ आशा बंधी |
“आज छुट्टी के बाद देव बाबू को अपने घर चलने का निमन्त्रण दे दे | इस बहाने तेरी माताजी भी उसे देख लेंगी |”
“पर मैं देव बाबू से कहूँगी क्या?”
कुछ देर तो सोचती रही रेणुका फिर तेजी से बोली, “पंकज ने उसकी फाइल तैयार कर दी है क्या?”
“नहीं तो...|”
“मगर यह बहाना तो हो सकता है कि पंकज ने उसकी फाइल पूरी कर दी है और वह तुम्हारे घर पर है |”
“मेरी अच्छी रेणुका |” पूजा चहक उठी |
“देख अब घंटी बज रही है | जल्दी से क्लास में चल, नहीं तो वह चार आँखों वाला सहगल साहब चार आने जुर्माना कर देगा |” रेणुका के हँसते हुए उसकी पीठ पर चपत लगाई और दोनों उठकर कक्षा में चली गयीं |
पाँचवीं घंटी समाप्त होकर छठी और अन्तिम घंटी प्रारम्भ हो गयी थी | पूजा रेणुका का हाथ पकड़कर कक्षा से बाहर खींच लायी |
“घंटी क्यों छोड़ रही हो पूजा?” रेणुका ने आश्चर्य से पूछा |
“मन नहीं लग रहा, आओ बाहर लॉन में बैठते हैं |” पूजा को समय काटना बड़ा कठिन लग रहा था |
“लेकिन तेरा ब्रह्मचारी तो घंटी छोड़ेगा नहीं, इसलिए प्रतीक्षा तो करनी ही पड़ेगी...लेकिन तू घबरा मत, डॉक्टर बाबू के आते ही मैं उसे मरीज का सारा हाल बताऊँगी |”
“जो तेरी इच्छा हो कह ले रेणुका |”
“जलेगी तो नहीं?”
“अधिक तंग करेगी तो तेरा सिर तोड़ दूँगी |”
“बहुत प्यार आता है तेरे गुस्से पर; देव बाबू होते तो यही कहते |” हँसते हुए रेणुका ने कहा और दोनों के पाँव अनजाने ही कैन्टीन की तरफ बढ़ गए |
इसी समय पूजा की दृष्टि सामने से आते पंकज पर पड़ी | शायद उसने भी घंटी छोड़ दी थी | पूजा को उसका इस समय आना अच्छा न लगा |
“रेणुका, सामने देख!”
“क्यों, पंकज है |”
“तू समझती नहीं | पूरा जोंक है, देख लिया तो पीछा नहीं छोड़ेगा |”
“तो क्या हुआ?” समझते हुए भी रेणुका ने अपनी आदत के अनुसार पूजा को तंग किया |
“रेणुका...|” क्रोध भी था परन्तु दबी-सी आवाज में पूजा ने कहा |
“समझी! तो बाई-पास कर दूँ?”
“हाँ |”
“अच्छा, तू कैन्टीन में जाकर बैठ, मैं उसकी छुट्टी करके आती हूँ |”
पूजा तेजी से कैन्टीन में प्रवेश कर एक कोने की तरफ बढ़ गयी | कुछ देर की प्रतीक्षा के उपरान्त जब वह बोर होने लगी तो एक प्याला चाय का मँगा लिया |
घड़ी की सुइयाँ धीरे-धीरे आगे खिसकती जा रही थीं | पूजा चाय के घूँट भरती रेणुका की प्रतीक्षा कर रही थी | आखिर चाय का अन्तिम घूँट भर उसने प्याला मेज पर रख दिया | रेणुका अभी तक नहीं लौटी थी |
तभी घंटी बजी | पूजा का ह्रदय धड़क उठा | वह सोच रही थी कि सम्भवतः वह आज देव बाबू को अपने घर नहीं ले जा सकेगी |
उसकी आशा के विपरीत देव बाबू ने कैन्टीन में प्रवेश किया | द्वार में घुसकर उसने इधर-उधर दृष्टि दौड़ाई तो एक कोंने में खामोश बैठी पूजा उसकी नजर से छिप न सकी |
“पूजा, तुम यहाँ कोने में दुबकी बैठी हो?”
“तुम्हारी प्रतीक्षा कर रही थी |”
“लेकिन...?”
“पंकज ने तुम्हारी फाइल पूरी कर दी है |” देव बाबू को बिना अधिक कुछ कहने का अवसर दिए पूजा ने कह दिया |
“कहाँ पर है फाइल?”
“मेरे घर पर |”
“कल ले आना |”
“आज ही चलकर ले लीजिए |”
“तुम्हारे घर चलकर?” आश्चर्य से देव बाबू ने पूछा |
“मेरा घर इतना बुरा है क्या?”
“यह बात नहीं है पूजा! शायद तुम्हारे घरवाले मुझे देखकर कुछ और न समझने लगें |”
“एक दिन तो उसको समझाना ही है देव बाबू | फिर मेरे घरवाले इतने पुराने विचारों के नहीं हैं कि एक सहपाठी का मेरे साथ घर आना उन्हें बुरा लगे | तुम्हें घर ले जाकर मुझे खुशी होगी देव |”
“तुम्हें इससे खुशी मिलती है तो फिर मैं अवश्य ही चलूँगा |”
देव बाबू कह ही रहा था कि तभी रेणुका वहाँ आ गयी |
“कह रहा था कि कहीं आपने पूजा को देखा है? मैंने तो कह दिया कि वह अभी-अभी घर की ओर गयी है | वह तो फिर नाक की सीध में घर की ओर हो लिया | पहले तो वह पीछा ही नहीं छोड़ता था | कुछ देर तो मैंने उससे इधर-उधर की बातें कीं और फिर अपने दो-तीन चार्ट उसके जिम्मे लगा आयी |” रेणुका कह रही थी |
“कौन था?” देव बाबू ने पूछा |
“बेचारा चित्रसेन पंकज |” हँसते हुए रेणुका ने कहा |
“चलो रेणुका, घर चलते हैं |” पूजा ने उठते हुए कहा |
“हाँ भई, अब चाय की कहाँ पूछोगी !”
“वह घर पल पिला दूँगी |” पूजा के कहने के साथ ही तीनों उठकर कैन्टीन से बाहर आ गए |
कॉलिज के द्वार से निकलकर तीनों चुपचाप कोलतार की सड़क पर बढ़े चले जा रहे थे |
“पढाई कैसी चल रही है पूजा?” देव बाबू ने मौन तोड़ा |
“मन नहीं लगता पढ़ने में |” पूजा के कुछ कहने से पूर्व ही रेणुका बीच में बोल पड़ी |
“क्यों?”
“आजकल कुछ मानसिक उलझनों में फँसी है बेचारी | पढ़ना तो चाहती है परन्तु पढ़ नहीं पाती | रात को सो नहीं पाती और किसी तरह आँख लग भी जाती है तो सपनों में किसी का नाम ले-लेकर बडबड़ाने लगती है |”
“रेणुका!” पूजा ने बनावटी क्रोध प्रदर्शित करते हुए कहा |
“पूजा जी, परीक्षा निकट है-पढाई में मन लगाना चाहिए |” देव बाबू ने सुझाव दिया |
‘काश! यह मेरे वश में होता |’ मन ही मन पूजा ने सोचा मगर मुख से कुछ न कह सकी |
पूजा का मकान आ गया था | देव बाबू अन्दर प्रवेश करते हुए कुछ संकोच कर रहा था | मगर पूजा उन्हें सीधे अपने कमरे में ले गयी |
“बहुत सुन्दर चित्र लगाए हैं पूजा |” कमरे की दीवारों पर टँगी पेंटिंग्स को एक दृष्टि से देखते हुए देव बाबू ने कहा |
“अधिकतर चित्र पंकज के बनाए हुए ही हैं |” पूजा ने कहा |
“आप बैठिए तो | बेचारी पूजा तो आपके आने की खुशी में इतनी पागल हो गयी है कि इसे आपको बैठाने की सुध भी नहीं है |” रेणुका ने कहा |
“अपने घर में अपनों को बैठाने की आवश्यकता नहीं होती |” कहकर देव बाबू बैठ गए | पूजा को देव बाबू का यह कहना बहुत अच्छा लगा |
“मैं आपके लिए चाय लेकर आती हूँ |” पूजा ने कहा |
“औपचारिकता में न पड़िए |”
“औपचारिकता कैसी देव बाबू? एक प्याला चाय तो चलेगी ही |” कहते हुए पूजा तेजी से कमरे से बाहर निकल गयी | कुछ ही देर में वह एक प्लेट में कुछ नमकीन तथा दूसरी प्लेट में बर्फी लेकर लौटी | साथ ही रसोई में स्टोव के जलने की आवाज सुनाई दे रही थी-वह चाय बनने को रख आयी थी |
“तुम बैठो पूजा, मैं चलती हूँ |” रेणुका ने उठकर चलते हुए कहा |
“चाय नहीं पिओगी?”
“नहीं |”
“क्यों?”
“तुम देव बाबू को पिलाओ...मेरी इच्छा नहीं है |”
“परन्तु ठहरो तो |”
“मैं अभी पुस्तकें रखकर आती हूँ |” कहती हुई वह तेजी से बाहर निकल गयी |
पूजा भी चाय लाने के बहाने उठकर रसोई में चली गयी | पूजा ट्रे में चाय की केतली और प्याले रखकर लौटी तो देव बाबू सामने रखी पत्रिका के पुष्ठ पलट रहा था | पूजा ने चाय की ट्रे मेज पर रख दी और साथ वाली कुर्सी पर बैठ गयी |
कुछ देर को वातावरण जैसे बोझिल-सा हो गया | पूजा के हृदय की धडकनें तीव्र हो गयी थीं | चाय को केतली से प्यालों में डालते हुए उसके हाथ काँप रहे थे |
“रेणुका कह रही थी कि तुम...|”
“वह सच कह रही थी देव बाबू!” पूजा बिच में ही कह उठी |
“शिमला में इस विषय पर बात हुई थी | मैंने हाँ कहते हुए भी तुम्हें सोचने के लिए कहा था |”
“मैंने बहुत सोच लिया है देव बाबू |”
“प्यार शब्द प्रत्येक मनुष्य आसानी से कह तो देता है लेकिन इसकी मर्यादा को कायम रखना बहुत कठिन होता है |”
“तुम्हें पाने को मैं हर कठिनाई को पार कर गुजरूँगी | मुझे केवल आपका सहारा चाहिए |”
“हमारी जाती भी एक नहीं है |”
“कोई फर्क नहीं पड़ता |”
“बूढी माँ के सिवा मेरा इस संसार में कोई और नहीं है |”
“मैं सबकी पूर्ति कर दूँगी |”
“पूजा |”
“हाँ देव!”
“तुमने आज मेरे मन का बोझ हल्का कर दिया है | जो बात मैं कहने का साहस नहीं कर पा रहा था उसे तुमने स्वीकार कर लिया है | मैंने तुम्हें शमा पर उड़ते पतंगे की तरह चाहा है...रात को जाग-जागकर तुम्हारे सपने संजोए हैं | अब मैं आराम से सो तो सकूँगा |” देव बाबू भावुकता में कह रहा था |
“अरे! आप लोग अभी तक यूँ ही बैठी है? चाय तो ठण्डी भी हो गयी होगी |” रेणुका ने कमरे में आते हुए कहा |
“तू पी ले |” पूजा ने कहा |
“क्यों, तेरी इच्छा समाप्त हो गयी है?” रेणुका ने आँखें मटकाते हुए कहा |
“कौन है बेटी?” पूजा की माँ ने कमरे में आते हुए कहा |
“देव बाबू हैं माँ, मेरे साथ पढ़ते हैं |” पूजा ने कहा |
देव बाबू के हाथ माँ को प्रणाम करने के लिए जुड़ गए | माँ उसे आशीर्वाद देकर बाहर चली गयी |
पूजा ने अन्दर से एक प्याला और लाकर चाय केतली से प्यालों में डाली और तीनों चाय पीने लगे |
“अब मैं चलूँगा पूजा, समय बहुत हो गया है |” देव बाबू ने कहा |
‘समय कैसे बीत गया, कुछ पता ही न चला | मुझे तो अब होश आया है जब तुमने जाने के लिए पूछा है | मैं तो भूल ही गयी थी कि आने वाला जाता भी है |’ कहना चाहा पूजा ने परन्तु मुख से कुछ न कहकर मन ही मन उदास हो गयी वह |
“देव बाबू, आपने बर्फी तो खाई ही नहीं | आज इस खुशी के मौके पर बर्फी तो अवश्य खानी ही चाहिए |” रेणुका के कहा तो देव बाबू ने प्लेट से बर्फी का एक टुकड़ा उठाकर मुँह में डाल लिया |
पूजा को तो सुध ही नहीं थी | देव बाबू चलने लगा तो यंत्रवत् उसके हाथ जुड़ गए | खामोश-सी वह वहीँ खड़ी रही | रेणुका ही उसे द्वार तक छोड़कर आयी |
पेंटिंग्स की फाइल न बनी थी और न देव बाबू को उसे माँगने का ही होश रहा था |
“बोल, दुल्हा तैयार हो गया शादी की लिए?” रेणुका ने लौटते हुए पूजा की पीठ पर मुक्का जमाते हुए कहा |
“हाँ |” गर्दन झुकाए पूजा इतना ही कह सकी |
“कल रविवार है, मैं आंटी से बात कर लूँगी | अब चलती हूँ |” कहती हुई वह तेजी से निकल गयी और पूजा वहीँ बैठी जीवन की आशाओं में उलझी रही |