भारत के स्वाधीनता आंदोलन में सशस्त्र क्रांति के अग्रदूत
चापेकर बंधु
बलराम अग्रवाल
यदा यदा हि धर्मस्य ग्लानिर्भवति भारत।
अभ्युत्थानमधर्मस्य तदात्मनं सृजाम्यहं॥
(श्रीमद्भगवद्गीता)
जब जब होय धरम की हानी। बाढ़हिं अधम असुर अभिमानी॥
तब तब प्रभु लै मनुज सरीरा। हरहिं सकल सज्जन कर पीरा॥
(रामचरितमानस)
प्रकृति के विधान को समझना सामान्य व्यक्ति के वश की बात तो है ही नहीं, असाधारण विद्वान के लिए भी उसे समझना आसान नहीं है। उसके विधान में काम कुछ और होता है तथा उस काम का उद्देश्य उससे एकदम अलग कुछ और। इसी तरह, काम कहीं और होता है तथा परिणाम कहीं और दिखाई देता है। उदाहरण के लिए, सन् 1897 में महाराष्ट्र के मुंबई और पुणे में फैली प्लेग जैसी महामारी ने भारतीयों से अंग्रेजों के खिलाफ सशस्त्र विद्रोह का सूत्रपात करा दिया। और इस कार्य को सम्पन्न करने वाले बने—चापेकर बंधु।
‘चापेकर बंधु’ कौन थे ? महामारी की त्रासदी के चलते ऐसा कौन-सा काम उन्होंने कर दिखाया जिसने भारतीय स्वाधीनता आंदोलन की शान्त धारा को अग्नि की लपटों में बदलकर रख दिया? दरअसल, देश की स्वाधीनता के लिए प्राणों का उत्सर्ग करने वाले समस्त क्रांतिकारियों में अनगिनत नाम ऐसे हैं, जिनके योगदान को कूटनीतिक तरीके से भुला दिया गया है। अदम्य साहस, राष्ट्र को स्वाधीन कराने की प्रतिबद्धता और दृढ़ निश्चय जिनमें कूट-कूटकर भरा था, उनके नाम की सतत अवहेलना की गई। उनके यशोगीत गाना तो दरकिनार, नाम तक कहीं पर ढंग से नहीं लिया गया। लिया भी गया तो दबी ज़ुबान से औपचारिकता निभाने भर को। प्रबल क्रांतिकारी चापेकर बंधुओं के अभूतपूर्व बलिदान का जिक्र भारतीय इतिहास के पन्नों पर सहज ही न मिल पाना वैसी कुत्सित राजनीति का ही परिचायक है।
भारतीय स्वाधीनता आंदोलन का इतिहास जिन्हें ‘चापेकर बंधु’ के नाम से याद करता है, वे तीन सगे भाई थे। सबसे बड़े भाई का नाम दामोदर हरि चापेकर था। मँझले का नाम बालकृष्ण हरि चापेकर और सबसे छोटे का वासुदेव हरि चापेकर था। इनमें दामोदर का जन्म 25 जून 1869 को हुआ था। बालकृष्ण का जन्म सन् 1873 में तथा सबसे छोटे वासुदेव का जन्म सन् 1879 में हुआ था।
चापेकर परिवार महाराष्ट्र प्रांत के पुणे नगर के अंतर्गत चिंचवाड़ के निकट एक छोटे-से गाँव चापा का रहने वाला था। उनके दादा का नाम विनायक चापेकर था। आजाद तबियत का होने के कारण विनायक ने कभी सरकारी नौकरी करने के बारे में नहीं सोचा। उन्होंने व्यापार करना पसंद किया और अच्छा धन कमाया। दामोदर के जन्म के समय परिवार सम्पन्न था और उसकी आमदनी लाखों रुपए सालाना थी। वह एक संयुक्त परिवार के कर्त्ता थे जिसमें कुल मिलाकर करीब 20 सदस्य थे। पिता के अलावा छ: चाचा-ताऊ, दो बुआ और दो दादियाँ थीं। दामोदर जब 18 साल के लगभग थे, पूरे परिवार को विनायक काशी की यात्रा पर भी ले गये थे। 25 लोगों के उस समूह में दो नौकर भी साथ थे। सारे लोग तीन गाड़ियों में सवार होकर गये थे। इस यात्रा के दौरान दामोदर की एक बड़ी बहन की मृत्यु ग्वालियर में हो गयी थी।
दामोदर उस यात्रा से बहुत रोमांचित थे। उन्होंने आत्मकथापरक अपनी डायरी में लिखा—
तीर्थ-यात्रा कराने के लिए मैं अपने दादा जी का सदा आभारी रहूँगा। उनकी कृपा से ही मैं गंगाजल का आचमन ले पाया, भगवान काशी विश्वनाथ के चरणों में मत्था टेक पाया और जितना बन पड़ा, अपनी सामर्थ्य भर जरूरतमंदों को कुछ दान-दक्षिणा भी दे पाया।
काशी की तीर्थ-यात्रा से लौट आने के बाद दुर्भाग्य से विनायक जी को व्यापार में जबर्दस्त घाटा झेलना पड़ा। पूरा परिवार भुखमरी के कगार पर जा खड़ा हुआ। दामोदर के पिता ने उस हालत में कीर्तनकार का व्यवसाय अपनाया। अपने आप को उन्होंने चिंचिवाड़ से पुणे में स्थापित कर लिया।
उनके पिता का नाम हरि विनायक चापेकर और माता का नाम द्वारका हरि चापेकर था। अपने तीनों बेटों को उन्होंने ‘पूना हाई स्कूल’ में दाखिल कराया जहाँ वे कक्षा 6 तक पढ़े। उसके बाद घर पर रहकर ही एक शास्त्री जी से संस्कृत सीखने लगे। साथ ही, अपने चाचा-ताउओं से उन्होंने ढोलक, मंजीरा और चिमटा आदि वाद्य बजाना सीखना शुरू कर दिया। इस तरह पिता द्वारा तीनों भाई ‘कीर्तनकार’ बनाने की राह पर डाल दिए गये। पिता के अनुसार, परिवार को भूखों मरने से बचाने के लिए उसके हर सदस्य का कमाऊ होना जरूरी था। लेकिन विनायक के सपरिवार ‘कीर्तनकार’ बन जाने को न तो बाकी परिवार ने अच्छा माना और न ही उनके दोस्तों या रिश्तेदारों ने। उनके भाइयों ने तो सपरिवार कीर्तनकार बन जाने के उनके कृत्य से खुद को अपमानित महसूस किया और यहाँ तक नाराज हुए कि घर छोड़कर कहीं और जा बसे। तीनों बेटों को भी कीर्तन के व्यवसाय में ला घसीटने के पीछे मजबूरी यह थी कि विनायक भाड़े के वादक नहीं रख सकते थे। उनकी आमदनी उतनी नहीं थी। कीर्तन करने के लिए विनायक ‘चातुर्मास’—वर्षा ॠतु के चार मास—मुंबई चले जाते थे क्योंकि चढ़ावा वहाँ पुणे की तुलना में कहीं अधिक आता था। इनमें दामोदर भजन लिखते थे; जबकि बालकृष्ण और वासुदेव ढोलक-मंजीरा बजाते और पिता के सुर में सुर मिलाकर गाते भी थे।
पिता और पुत्र कीर्तन करने वालों के रूप में खासे ख्यात हो गये थे। दामोदर चापेकर ने अपनी आत्मकथा में लिखा था—‘हम अधिक नहीं पढ़ सके थे, लेकिन कीर्तन सुनने को आए अच्छे लोगों के साथ रहने, यात्राएँ करते रहने, अनेक दरबारों में बड़े-बड़े राजकुमारों के साथ बैठने-बतियाने का अवसर मिलने और अति विशिष्ट लोगों की बातों को सुनने के अवसर ने हमारे ज्ञान को बहुत बढ़ा दिया। यह ज्ञान कुछ स्कूली परीक्षाएँ पास करके पाए ज्ञान की तुलना में कहीं ऊँचा था।’ उन्होंने यह भी दर्ज किया है कि ‘पिताजी ने स्कंदपुराण में उल्लिखित सत्यनारायण कथा को संस्कृत से अनुवाद करके लिखा था।’
कहा जाता है कि दुर्दिनों में स्वयं विनायक भी धार और इन्दौर के मराठा राजघरानों में लेखन कार्य करने के लिए घर से दूर चले गये थे। ‘बालबोध’ और ‘मोड़ी’ लिपियाँ उन्हें अच्छी तरह आती थीं। उन्होंने संस्कृत के अलावा अन्य भाषाओं को बोलना छोड़ दिया था। दूसरों से बात करना लगभग बंद कर दिया था। जैसा मिल जाता, वैसा कपड़ा पहन लेते और शहर की गलियों में भीख माँगकर जो मिलता उससे अपना पेट भर लेते। उधर, परिवार के दूसरे सदस्य भी मन्दिर आदि में जाकर प्रसाद स्वरूप जो मिल जाता वही खाकर जीने को विवश थे। पिता हरि विनायक चापेकर की मृत्यु इन्दौर से 16 मील दूर क्षिप्रा के किनारे हुई और वहीं उनका अंतिम संस्कार भी हुआ। शेष परिवार उन दिनों नागपुर में था लेकिन उनके पास इतनी रकम नहीं थी कि इन्दौर पहुँच सकें। इसे दुर्भाग्य ही कहा जाएगा कि मृत्यु के समय उनकी पत्नी द्वारका चापेकर भी अकेली ही थीं।
एक अध्ययन के अनुसार, ईसा के समय से सन् 1500 तक 109 बड़ी महामारियाँ हुईं, जिनमें 14वीं शताब्दी में फैला प्लेग ‘ब्लैक डेथ’ यानी ‘काली मौत’ के नाम से प्रसिद्ध हुआ। सन् 1894 में हांगकांग में इसने सिर उठाया और जापान, भारत, तुर्की होते हुए सन् 1896 में यह रोग रूस जा पहुँचा। सन् 1898 में अरब, फारस, ऑस्ट्रिया, अफ्रीका, दक्षिणी अमरीका और हवाई द्वीप में तथा सन् 1900 में इंग्लैंड, अमरीका और ऑस्ट्रेलिया में इसने तांडव किया। सन् 1897 से 1918 तक भारत में इसने एक करोड़ प्राणों की बलि ली। इन बीस वर्षों में इस महामारी ने महाराष्ट्र प्रांत के पुणे व बंबई और समूचे बंगाल प्रांत को जनधन से खाली कर डाला। पुणे में प्लेग का हमला 1896 के आखिरी महीनों में शुरू हुआ था। जनवरी 1897 आते-आते यह पूरा फैल गया। 8 फरवरी 1897 को जब गवर्नर ने शहर का दौरा किया तब बताया गया कि लोग प्लेग से मर रहे हैं लेकिन अस्पताल नहीं जा रहे। फरवरी के शुरुआती 26 दिनों में ही 657 लोग काल के गाल में समा चुके थे। एक अनुमान के अनुसार, कुल मिलाकर शहर की आधी आबादी खत्म हो चुकी थी। कहा जाने लगा था कि—
हैजा चेचक प्लेग मलेरिया जिस घर में घुस जाते हैं।
भरे हुए भी घरवालों को ये खाली कर जाते हैं।
प्लेग से फैली तबाही के कारणों की समीक्षा करने और उससे निबटने के उपाय सुझाने के लिए ब्रिटिश सरकार ने ‘विशेष प्लेग समिति’ का गठन किया। शासनादेश दिनांक 8 मार्च 1897 के अनुसार, भारतीय प्रशासनिक सेवा के डब्ल्यू सी रैंड को उस समिति का अध्यक्ष बनाकर भेजा गया। साथ ही, प्लेग की वजह से फैली अफरा-तफरी पर काबू पाने के लिए सेना के दस्ते पुणे भेज दिये गये।
यहाँ दो विशेष घटनाओं का जिक्र कर देना जरूरी है। पहली यह कि शासकीय सेवाओं की मेट्रीकुलेशन परीक्षा का एकमात्र केन्द्र उन दिनों मुंबई ही था। इस महानगर का बड़ा इलाका उन दिनों प्लेग की गिरफ्त में था। लोग इसीलिए उक्त परीक्षा को आगे खिसकवाना चाहते थे, लेकिन सरकार ने ऐसा करने से साफ इंकार कर दिया। पूरा पश्चिमी भारत अकाल से पहले ही त्रस्त था, उस पर प्लेग की मार। दूसरी यह कि संत्रास के ऐसे माहौल में भी ब्रिटिश प्रशासन महारानी विक्टोरिया के राज्याभिषेक की हीरक जयन्ती का समारोह मनाने जा रहा था। लोगों में जश्न मनाने के अंग्रेजों के इस फैसले के खिलाफ भी विद्रोह था। चापेकर बंधुओं ने ऐसे में प्रशासन को सबक सिखाने का मन बनाया। मुंबई के फोर्ट इलाके में लगी महारानी विक्टोरिया की मूर्ति के चेहरे पर कालिख पोतकर उन्होंने फटे जूतों की माला उसके गले में पहना दी। साथ ही, दूसरे समूहों के नाम से कुछ चिट्ठियाँ स्थानीय अखबारों के कार्यालय को भेज दीं कि इस कार्य को करने की जिम्मेदारी वे समूह ले रहे हैं। मुंबई में यह विस्फोट करके जून 1897 में चापेकर पुणे लौट आए। पुलिस लाख सिर मारती रही लेकिन महारानी के मुँह पर कालिख पोतकर उसके गले में जूतों का हार डालने वालों का उसे कोई सुराग न मिला।
उधर, चार्ज सम्भालकर रैंड ने अपने काम को बहुत ही भद्दे तरीके से अंजाम देना शुरू किया। अपने दुर्व्यवहार से वह सामाजिक और कानूनी सभी कायदों की धज्जियाँ उड़ा रहा था। कहा जाता था कि रैंड एक ऊर्जावान अफसर है; लेकिन उसमें एक वाहियात इंसान भी छिपा है, यह कोई नहीं कहता था। अच्छा और लोकप्रिय अधिकारी होने का कोई गुण उसमें नहीं था। जरूरी यह था कि वह आम घरों को छूत से लगने वाली महामारी ‘प्लेग’ के संक्रमण से मुक्त करने के उपाय करे। जरूरी यह था कि वह बीमार लोगों को स्वस्थ लोगों से अलग स्थान पर पहुँचाए और उनके इलाज की शुरुआत करे। आम जनता को अपने विश्वास में ले। लेकिन जिस भी घर में उसके सैनिक घुसते, उस पूरे के पूरे घर को वे तहस-नहस कर डालते…उसका कीमती सामान लूट ले जाते। घरों में रखी देवी-देवताओं की मूर्तियों को उठाकर वे बाहर फेंक देते थे। मंदिरों में घुसने के आचार तो वे जैसे जानते ही नहीं थे। वे जूतों समेत उनमें घुस जाते और पूजा की सारी सामग्री उलट-पुलट डालते थे। उनकी बदतमीजियों की शिकायतें स्थानीय निवासियों द्वारा अनेक बार रैंड तक पहुँचाई गईं; लेकिन रैंड ने अपने सैनिकों के खिलाफ किसी भी शिकायत पर कोई ध्यान नहीं दिया।
औरतों और मर्दों को रैंड करीब-करीब नग्न अवस्था में घर से बाहर सड़क पर खड़ा कर देता था। उसके बाद उनमें से बूढ़े और असहाय लोगों को जबरन, बीमार लोगों के साथ भेज चिकित्सा कैम्प में भेज देता था। स्वस्थ औरतों और मर्दों को जानवरों की तरह खदेड़कर राहत कैम्पों में जानवरों की तरह साथ-साथ रहने को मजबूर करता था। प्रशासन की इस जोर-जबर्दस्ती से लोगों में गुस्से की आग भड़क उठी। उन्होंने महसूस किया कि उनके जीवन में प्लेग से भी ज्यादा खतरनाक रैंड का दुर्व्यवहार है क्योंकि वह मौत के मुँह में जा रहे लोगों को अपमानित भी करता है। वे उससे छुटकारा चाहने लगे। उच्च अधिकारियों से उसकी शिकायतें की गयीं लेकिन जब उन्होंने भी उनकी याचना पर कोई ध्यान नहीं दिया तो उससे छुटकारे का एक ही उपाय वहाँ की जनता के पास बचा—उसको धरती से ही उठा लेने की प्रार्थना ईश्वर से करना।
इलाके के लोगों में विद्रोह की आग सुलग तो रही थी लेकिन आगे आने से हर कोई डर रहा था। दामोदर चापेकर के मनो-मस्तिष्क को इस आग ने तपाकर सुर्ख कर डाला। रैंड और उसके सिपाहियों की बदतमीजियाँ जब तब उनके कानों में भी पड़ ही रही थीं। वह गुस्से में तब और भी भर उठे और जब उन्हें यह पता चला कि रैंड अपने सिपाहियों के खिलाफ किसी भी तरह की शिकायत पर कोई ध्यान नहीं दे रहा है। यह सुनकर उन्होंने यही माना कि यह सब उसी की शह पर किया जा रहा है। बस, उन्होंने अपने छोटे भाई बालकृष्ण के साथ विचार-विमर्श किया और रैंड को ठिकाने लगा देने की योजना बना डाली।
दामोदर ब्रिटिश हुकूमत से नफरत करते थे क्योंकि उन्हें लगता था कि वह विदेशी जीवन मूल्यों को भारतीय जीवन मूल्यों पर थोपती है। वह अंग्रेजी शिक्षा के, ईसाई मिशनरीज़ के और उन हिन्दुओं के भी खिलाफ थे जिन्होंने ईसाई धर्म अपना लिया था। यह कहना कठिन है कि वे ब्रिटिश सरकार के अधिक विरुद्ध थे, उदारवादी कांग्रेस नेताओं के अधिक विरुद्ध थे, समाज सुधारकों के अधिक विरुद्ध थे या ईसाई मिशनरियों के। कहा जाता है कि उन्होंने ‘राष्ट्र हितेच्छु मंडल’ नाम से कुछ लड़कों का एक समूह भी बनाया था। उस मंडल के लड़कों को वे शिवाजी महाराज की तर्ज पर तलवार, लाठी और गुलेल चलाना सिखाते थे। उन्होंने कम दूरी तक मार करने वाले देशी कट्टों और तलवारों का भी जुगाड़ कर लिया था। उस समूह की चर्चा उस समय के अखबारों में अच्छी-खासी होने लगी थी; लेकिन शीघ्र ही उन्होंने महसूस किया कि लड़कों की भीड़ इकट्ठी करके वे राष्ट्र-सेवा के अपने बड़े उद्देश्य को पूरा नहीं कर पायेंगे। इसलिए उन्होंने उसे समाप्त कर दिया और कुछ विशेष, समर्पण की भावना से लबरेज साथियों को अपने साथ रोक लिया।
अपनी आत्मकथा में दामोदर ने लिखा—22 जून 1897 को महारानी विक्टोरिया के अभिषेक का हीरक जयन्ती समारोह होना था। हमें यकीन था कि उसमें शहर के सभी आला अफसर अवश्य शामिल होंगे। रैंड को ठिकाने लगाने का यह सुनहरा मौका हमारे सामने था। कई दिनों तक हमने रैंड की बग्घी का पीछा करके उसकी गतिविधियों को देखा-परखा। समूह का कौन सदस्य, कब क्या करेगा—सब तय हो गया। निश्चित हुआ कि हम में से एक लड़का ‘गवर्नमेंट हाउस’ से रैंड की बग्घी निकलने के समय संकेत वाक्य बोलेगा—‘गोंड्या आला रे !’ हम समझ जाएँगे और रैंड को मार डालेंगे। नियत तारीख को ‘गवर्नमेंट हाउस’ दुल्हन की तरह सजाया गया था। समारोह में होने वाली आतिशबाजी को देखने के लिए लोगों की भीड़ उमड़ी पड़ रही थी। हम वहाँ शाम सात—साढ़े सात बजे पहुंच गये थे। सूरज छिप चुका था और अँधेरा छाने लगा था। वहाँ पहुँचकर हम भीड़ में शामिल हो गये। हमले के लिए हमने गणेशखिंद मार्ग (अब, सेनापति बापट मार्ग) को चुना। योजना को बड़ी सतर्कता से अंजाम देना था। वहाँ पीले रंग वाली एक हवेली की आड़ को चुना और वहीं खड़े हो गये। सभी के पास देशी कट्टे और तलवारें थीं । बालकृष्ण के हाथ में इनके साथ-साथ कुल्हाड़ी भी थी। तभी हमें रैंड की बग्घी आती दिखाई दी, लेकिन उसे हमने जाने दिया। सोचा, जो करना है, समारोह की समाप्ति के बाद वापसी में करेंगे।
रात को साढ़े नौ—दस बजे के आसपास, हीरक जयन्ती समारोह को समाप्त कर अंग्रेज अफसर जब लौटने लगे तब रैंड भी अपनी बग्घी में बैठ गया। जैसे ही मेहमानों ने वापस निकलना शुरू किया, गेट पर खड़े लड़के चौकस हो गये। रैंड की बग्घी चली, एक लड़के ने इशारा कर दिया। दूसरा उसके पीछे-पीछे भागने लगा। जैसे ही वह बग्घी घटना स्थल के नजदीक पहुँचने को हुई, उसके पीछे दौड़ रहा लड़का जोर से चिल्लाया—‘गोंड्या आला रे!’ उसे सुनते ही बालकृष्ण चौकन्ने हो गये। वह उछलकर आगे वाली बग्घी पर जा चढ़े और अन्दर बैठे व्यक्ति पर गोली चला दी। लेकिन उस बग्घी में रैंड नहीं, एक अन्य अफसर लेफ्टिनेंट एर्स्ट था जो गोली लगते ही तुरंत मर गया। बालकृष्ण के हाथों हुई गलती अगले ही पल दामोदर की समझ में आ गयी। वह उछलकर पीछे वाली बग्घी पर जा चढ़े और उसमें बैठे रैंड की गरदन पर गोली चला दी। लेकिन उनकी गोली से रैंड मरा नहीं, गम्भीर रूप से घायल जरूर हो गया। उसे तुरन्त अस्पताल ले जाया गया जहाँ 3 जुलाई को उसने अपने जीवन की अन्तिम सांस ली।
कुल मिलाकर उद्देश्य की पूर्ति हो गयी थी। अपने काम को अंजाम देकर दोनों भाई और उनके सभी साथी घटना स्थल से रफू-चक्कर हो गये।
सरकार चौकन्नी हो गयी। उसे इस हमले के पीछे कोई बड़ी साजिश नजर आने लगी। निरीह जनता का दमन करने की उसने खुली छूट दे दी। तिलक ने अपने सम्पादकीय में सरकार के इस कृत्य की तुलना एक भारी-भरकम पागल हाथी से की। उन्होंने कहा कि शासक का काम जनता को बचाना है, उससे बदला लेना नहीं है। पुलिस के पास हत्यारे का कोई सुराग नहीं था। उसने सूचना देने वाले को 20,000 रुपये इनाम देने की घोषणा कर दी। जाँच की जिम्मेदारी हैरी ब्रेविन नाम के बहुत ही सक्षम एक एंग्लो-इंडियन अधिकारी को सौंपी गई। वह पुणे के इलाकों का जानकार था और मराठी बोल लेता था। उसने मुंबई की घटनाओं के समय चापेकर बंधुओं द्वारा अखबारों को भेजे गये पत्रों का अध्ययन किया और इस नतीजे पर पहुँचा कि हत्या करने वाला और ये पत्र लिखने वाला व्यक्ति एक ही है।
वह इस नतीजे पर पहुँचा कि सम्बन्धित व्यक्ति अधिक पढ़ा-लिखा नहीं है और आदर्शवादी प्रकृति का है। उसमें जातीय अभिमान कूट-कूटकर भरा है। लेकिन सवाल यह था कि यह है कौन/ ब्रेविन पुणे के नामी-गिरामी नेताओं से लेकर छुटभैये गुण्डे तक सब को जानता था। उसे गणेश शंकर द्रविड़ और रामचंद्र शंकर द्रविड़ नाम के दो भाइयों का ख्याल आया। वे पुलिस के लिए सिरदर्द थे और एक धोखाधड़ी के मामले में उन दिनों जेल में बंद थे। वह उनसे जाकर मिला और पुलिस की ओर से घोषित 20,000 रुपए का इनाम दिला देने का लालच दिया। वे उसकी चाल में फँस गए और चापेकर भाइयों की गतिविधि की जानकारी ब्रेविन को दे दी। इस तरह संदेह के आधार पर 30 सितम्बर 1897 को मुंबई में दामोदर को गिरफ्तार कर लिया गया। गिरफ्तारी का सदमा न झेल पाने के कारण उनकी माताजी का उन्हीं दिनों देहांत हो गया। दुर्भाग्य यह कि उनकी मृत्यु के समय परिवार की तीन बहुएँ ही घर में थीं, पुरुष कोई नहीं था।
लेकिन अकेले दामोदर की गिरफ्तारी पुलिस का काम आसान नहीं कर पा रही थी। ‘थर्ड डिग्री’ से भी वे नहीं टूटे। ब्रेविन ने तब दूसरी चाल खेली। वह समझ गया की दामोदर का स्वाभिमान ही उसकी ताकत है। घर की तलाशी में पुलिस को उसकी अधूरी आत्मकथा मिल गयी। उसमें उसने लिखा था कि बहुत जल्द वह कुछ विस्फोटक करने वाला है। ब्रेविन ने दामोदर को सभी सहूलियतें देकर मेहमान की तरह रखना शुरू कर दिया। यहाँ तक कि उसकी कोठरी में हनुमान जी की मूर्ति भी रखवा दी। ब्रेविन ने उसे विश्वास दिला दिया कि उसके कृत्य का कोई मोल नहीं अगर लोगों को यह पता ही नहीं चला कि वीरता का ऐसा काम किया किसने था। दामोदर इस चाल में फँस गया और मजिस्ट्रेट के आगे उसने अपना बयान लिखवाकर अपराध स्वीकर कर लिया।
अपराध स्वीकार करने के मामलों को पुष्ट करने के लिए भी एक चश्मदीद गवाह का होना आवश्यक होता है। वह गवाह बहुत कमजोर था। लेकिन ब्रिटिश सरकार ने तो दामोदर जी को जितनी जल्दी हो सके, फाँसी पर लटकाने का मन बना लिया था, उसने उन्हें फाँसी की सजा सुना दी। तिलक जी उन दिनों जेल में ही थे। उन्होंने गवाह कमजोर होने के आधार पर दामोदर की ओर से केस पर पुन; विचार की अर्जी लिखवाई। उसे रद्दी की टोकरी में फेंक दिया गया।
बालकृष्ण और वासुदेव फरार होकर निजाम के इलाके में चले गये थे। वहाँ डाकुओं के एक गिरोह ने उन्हें शरण दी। इधर, उनका परिवार गहरी मुसीबत में पड़ गया। परिवार की देखभाल का विचार करके बालकृष्ण ने वासुदेव को वापस घर भेजने की सोची क्योंकि उनके खिलाफ तो कोई चश्मदीद गवाह था ही नहीं। बड़े भाई का आदेश पाकर वासुदेव ब्रेविन से मिले। ब्रेविन ने उनकी इच्छा के अनुसार पूरे परिवार को सुरक्षा तथा उन्हें सरकारी नौकरी दिलाने का वचन दिया। फिर बातों_बातों में झाँसा देकर उनसे बालकृष्ण का पता जान लिया। यह हैरानी की बात रही कि सिर्फ 600 रुपये की मामूली रकम लेकर डाकू दल ने बालकृष्ण को पुलिस के हाथों में सौंप दिया।
इतना विश्वासघात करने के बाद भी ब्रेविन वासुदेव के साथ चूहे-बिल्ली का खेल खेल रहा था। वह चाहता था कि छोटा भाई बालकृष्ण के खिलाफ सरकारी गवाह बन जाए। उसे नहीं पता था कि मात्र 18 साल का वह किशोर उन द्रविड़ बंधुओं से बदला लेने का पक्का मन बना चुका था जिन्होंने उसके भाइयों के साथ गद्दारी की थी। वासुदेव को हैड कांस्टेबल रामजी पांडु से भी हिसाब बराबर करना था जिसने उनके बड़े भाई की ‘थर्ड डिग्री’ पिटाई की थी। वे ब्रेविन से भी हिसाब बराबर करने का मन बना चुके थे जिसने उन्हें तो उन्हें, उनके बड़े भाई दामोदर को अपराध स्वीकार कर लेने के जाल में फँसाकर धोखा दिया था।
वासुदेव चापेकर का गुस्सा सातवें आसमान पर पहुँच गया था। द्रविड़ बंधुओं द्वारा मुखबिरी करना उसकी नजर में राष्ट्र के साथ द्रोह करने के समान था। दूसरी ओर, द्रविड़ बंधु भी अंग्रेजों से नाराज थे क्योंकि वादे के अनुसार, उन्हें इनाम की पूरी रकम नहीं दी गई थी। उन्हें 20,000 से आधे, सिर्फ 10,000 रुपये देकर ही चलता कर दिया गया था। पुलिस का कहना था कि उसके हाथ उनके बताए दो में से केवल एक भाई आया है इसलिए रकम भी आधी ही मिलेगी। अगर बालकृष्ण हाथ नहीं आया तो उनकी क्या गलती है/--वे पूछते रहे। इनाम की रकम से आयकर काट लेने की नीचता पर तो अंग्रेज अधिकारियों को ‘केसरी’ ने खूब गरियाया था।
8 फरवरी 1899 की बात है। दो नौजवान पठान द्रविड़ भाइयों के घर पहुंचे। उन्होंने खबर दी कि बाकी के 10,000 रुपये लेने के लिए उन्हें तुरन्त पुलिस थाने बुलाया गया है। थाना उनके घर से ज्यादा दूर नहीं था इसलिए दोनों भाई तुरन्त पठान नौजवानों के साथ चल दिए। दरअसल, पठान के वेश में वासुदेव और उनका दोस्त महादेव रानाडे था। उन्होंने रास्ते में ही द्रविड़ भाइयों का काम तमाम कर दिया। उसके बाद वे पुलिस थाने गए और वहाँ उन्होंने ब्रेविन तथा रामजी पाण्डु को ठिकाने लगा देने की कोशिश की लेकिन सफल न हो सके। पकड़े जाने पर द्रविड़ बंधुओं की हत्या की बात उन्होंने बता दी।
उन दोनों को बस एक ही अफसोस था। वो यह कि वे ब्रेविन और रामजी पाण्डु की हत्या जैसा छोटा काम न कर सके। आप हैरान अवश्य होंगे यह जानकर कि समूचे हादसे से ब्रिटिश सरकार इस हद तक हिल गई कि इस घटना से सम्बन्धित मुकदमे पर उसने सारा ध्यान केन्द्रित कर दिया। प्रशासन ने तिलक को भी इन हत्याओं में नामजद करने की भरपूर कोशिश की जो तब तक ‘लोकमान्य’ के रूप में विख्यात नहीं हुए थे; लेकिन भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस में गरम दल के नेता के रूप में उभर चुके थे। लेकिन उनके खिलाफ कोई सुबूत नहीं जुटा सकी। फिर भी, ‘केसरी’ में लिखे उनके सम्पादकीयों को आधार बनाकर उन्हें गिरफ्तार कर लिया गया। मुकदमा चलाया और 18 माह सश्रम कारावास की सजा सुनाकर जेल भेज दिया। तिलक सरीखे प्रखर पत्रकार, वकील और प्रांतीय विधान मंडल के सदस्य—आज की भाषा में समझ लीजिए कि एम एल ए— से अंग्रेज अधिकारियों ने जूट कूटने, जेल की दीवारों पर पुताई करने और फर्नीचर को पेंट करने जैसे निम्न स्तरीय काम कराए गये।
मुकदमा चला और मात्र 13 माह की अवधि में ही तीनों भाइयों को फाँसी पर लटकाने का फैसला सुना दिया गया। दामोदर चापेकर, उनके दोनों भाई और दोस्त देश के नायक बन चुके थे। सिस्टर निवेदिता दामोदर चापेकर को मौत की सजा पर काफी बोल चुकी थीं। फाँसी पर लटकाए जाने से एक दिन पहले दामोदर ने अंग्रेज अधिकारियों से कहा था—
‘‘आप कल सुबह मेरे शरीर को फांसी पर लटकाने से ज्यादा कुछ नहीं कर सकोगे क्योंकि आत्मा तो तुरन्त दूसरा शरीर धारण कर लेगी; और याद रखना—ठीक 16 साल बाद मैं दोबारा अंग्रेजों से लड़ रहा होऊँगा।’’
आला अफसरों ने एक यह भी मन बनाया कि सामान्य जनता के मन में पुलिस प्रशासन का डर बैठाने के उद्देश्य से दामोदर को बीच चौराहे पर खुले में फाँसी पर लटकाया जाए; लेकिन उन्हें जल्द ही अक्ल आ गयी। उन्हें लगा कि ऐसा हुआ तो हमला करके भीड़ पुलिस के हाथों से दामोदर को जबरन छुड़ाकर भी लेजा सकती है। आखिरकार 18 अप्रैल 1898 को उन्हें यरवदा जेल में फाँसी दे दी गयी। वे श्रीमद्भगद्गीता की प्रति अपने हाथ में लेकर फाँसी के तख्ते पर चढ़े। स्वयं तिलक जी ने उन्हें अपनी प्रति दी थी। दामोदर के बाद, 8 मई 1899 में वासुदेव को फाँसी पर लटकाया गया। उसके दो दिन बाद 10 मई 1899 को महादेव रानाडे को और उनके दो दिन बाद 12 मई 1899 को बालकृष्ण जी को फाँसी पर लटका दिया गया। खांडेराव साठे को नाबालिग होने के नाते फाँसी की सजा नहीं सुनाई गयी। उन्हें 10 वर्ष कठोर कारावास की सजा सुनाई गयी। इस केस में बचाव पक्ष के वकील मुहम्मद अली जिन्ना थे।
उनकी आखिरी इच्छा थी कि मृत्यु के बाद उनका अंतिम संस्कार हिन्दू रीति से किया जाए तथा किसी भी अ-हिन्दू को उनके मृत शरीर को हाथ न लगाने दिया जाए। अधिकारियों ने उनकी अंतिम इच्छा को माना और मृत शरीर उनके परिवार को सौंप दिया। स्थानीय जनता की भावनाओं को भड़कने से हो सकने वाले दंगा आदि किसी भी अप्रिय हादसे को रोकने की दृष्टि से उनका अंतिम संस्कार गुप्त स्थान पर चुपचाप करा दिया गया। अपने तीनों ही जवान बेटों को फाँसी पर लटका दिए जाने के बाद चापेकर परिवार के दिन किन हालात में बीते होंगे, यह कल्पना से परे की बात है।
माँ तो दामोदर की गिरफ्तारी के बाद ही चल बसी थी, पिता बालकृष्ण और वासुदेव की फाँसी के बाद चले गये। परिवार में तीन जवान विधवाएँ बची थीं बस। बड़ी वाली दोनों बाल-बच्चेदार थीं लेकिन सबसे छोटी तो कुछ समय पहले ही ब्याह कर इस घर में आई थी। दामोदर जी की पत्नी काफी समय तक जिन्दा रहीं और उन्होंने अपनी आँखों से देश को आजाद होते देखा। वासुदेव की विधवा ने पढ़ाई की और एक स्कूल की मुख्य अध्यापिका बनी। दामोदर चापेकर ने जिस स्थान पर रैंड को मारा था, वहाँ उनकी मूर्ती लगाई गयी है। दूसरे भी कुछ स्थानों पर उनकी मूर्तियाँ लगाई गयी हैं। उनके पैतृक घर वाली जगह पर उनके नाम पर एक अखाड़ा और एक पुस्तकालय चल रहा है। रोजमर्रा की आपाधापी के इस दौर में किसे फुर्सत है कि एक नजर उस महान व्यक्ति की मूर्ति पर डालता चले जो देश की सशस्त्र क्रांति का ‘पिता’ है।
रैंड और एर्स्ट के कत्ल की खबरों को दुनियाभर के सभी प्रमुख अखबारों ने प्रमुखता से छापा। कत्ल के जुर्म में गिरफ्तार दामोदर चापेकर दक्कनी और 28 लोगों पर केन्द्रित एक लेख 4 अक्टूबर 1897 के ‘द न्यूयॉर्क टाइम्स’ में छपा था। उसमें कहा गया था कि दामोदर का उपनाम दक्कनी था। उसमें उन्हें एडवोकेट भी बताया गया था। 4 नवम्बर 1897 के अखबार में दामोदर चापेकर को ब्राह्मण वकील बताया गया। पहले वाले लेख में लिखा गया था कि दामोदर अंग्रेजों से नफरत करता था क्योंकि शिमला में उपस्थित सेना के अंग्रेज अधिकारियों ने उसे भर्ती करने से मना कर दिया था। अखबार के 2 फरवरी 1898 अंक में दामोदर को फाँसी की सजा का समाचार छपा। 13 फरवरी 1899 के ‘द सिडनी मॉर्निंग हेराल्ड’ दामोदर के एक भाई ने एक स्थानीय पुलिस अधिकारी पर गोली चलाई। समाचार में द्रविड़ बंधुओं की हत्या का भी जिक्र था और चापेकर व रानाडे की गिरफ्तारी का भी।
इस तरह भारतीय स्वाधीनता आंदोलन के इतिहास में चापेकर बंधु अंग्रेजों के खिलाफ सशस्त्र विद्रोह करने वाले पहले क्रांतिकारी कहे जाते हैं। इनके बलिदान ने अग्रेजों के खिलाफ सशस्त्र आंदोलन की एक लहर ही चला दी जो महाराष्ट्र से चलकर बड़ी तेजी से समूचे देश में फैल गयी। अकेले महाराष्ट्र में ही स्वाधीनता पाने के लिए लड़ने वाले अनेक क्रांतिकारी समूह बन गये। यह वाकई शर्म की बात है कि हमने अपने उन जुझारू पूर्वजों के नाम को लगभग पूरी तरह भुला दिया है। बहरहाल, चापेकर बंधुओं के जीवन को दर्शाती बहुत कम बजट की ही सही, एक फीचर फिल्म ’22 अगस्त 1897’ मराठी भाषा में सन् 1979 में बनी थी। इस फिल्म को अपने उन पूर्व नायकों के प्रति श्रद्धा-सुमन अर्पित करने के रूप में देखा जाना चाहिए और अन्य भूले-बिसरे क्रांतिकारियों को याद करते हुए आगे भी ऐसे कार्य किये जाते रहने चाहिए। 25 जून 2019 को दामोदर चाफेकर का 150वाँ जन्मदिन धूमधाम से मनाने की तैयारियाँ सरकारी, गैर सरकारी हर स्तर पर अभी से शुरू कर देनी चाहिए।
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