Digital india me bachcho ki duniya in Hindi Children Stories by kaushlendra prapanna books and stories PDF | डिजिटल इंडिया में बच्चों की दुनिया

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डिजिटल इंडिया में बच्चों की दुनिया

डिजिटल इंडिया में बच्चों की दुनिया

कौशलेंद्र प्रपन्न

यदि डिजिटल इंडिया में कक्षायी चरित्र को देखें तो एक व्यापक परिवर्तन दिखाई देता है। पुराने पड़ चुके ब्लैक बोर्ड के स्थान पर डिजिटल बोर्ड लग चुके हैं। ई पेन, ई बोर्ड, ई चार्ट के शोभायमान कक्षा में बच्चे भी ई लनिर्ंग कर रह हैं। लेकिन कुछ हजार निजी स्कूली कक्षाओं के अवलोकन पर यह धारणा बनाना गलत होगा कि हमारे सरकारी स्कूलों में पढ़ने वाले बच्चों को भी इसी किस्म की सुविधा मिल रही है। क्योंकि तमाम सरकारी और गैर सरकारी अध्ययन रिपोर्ट इस ओर इशारा करते हैं कि अभी भी देश में एकल शिक्षकीय विद्‌यालय चल रही हैं। इन एकलीय स्कूलाें में किस किस्म की तकनीक और शैक्षिक माहौल होगा इसका अनुमान लगाना कठिन नहीं है। यहां तक कि दिल्ली के पूर्वी दिल्ली नगर निगम के तहत चलने वाले प्राथमिक स्कूलाें में अगस्त माह तक किताबें, कॉपियां, पेंसिल आदि तक नहीं मिल पाई हैं। यह हालात दिल्ली भर की ही नहीं है बल्कि देश के विभिन्न राज्यों में भी झांके तो कमोबेश स्थितियां एक सी मिलेंगी।

यह तो एक उदाहरण है यदि हम सरकारी स्कूलों की कक्षायी हालत को देखें तो केंद्रीय विद्‌यालयों, सैनिक स्कूलों, नवोदय विद्‌यालयों, सर्वोदय विद्‌यालयों आदि को छोड़ दें तो राजकीय विद्‌यालयों की कक्षाएं घोर उपेक्षा की शिकार नजर आएंगी। यह तो स्थिति है कक्षा की। इसके एत्तर यदि शिक्षण कालांशों, पठन सामग्रियों आदि पर नजर डालें तो एकबारगी महसूस होगा कि क्या एक ही राज्य में किस प्रकार से समान स्कूल प्रणाली के साथ मजाक चल रहा है। आरटीई लागू होने के छह साल बाद भी राज्य स्तरीय शिक्षकों की कमी तकरीबन चार से पांच लाख है। दुख तो तब होता है जब अभी भी अद्‌र्ध प्रशिक्षित शिक्षकों के कंधे पर प्राथमिक शिक्षा को ढोने का काम चल रहा है।

आज बच्चे जितना पुस्तकों से नहीं सीखते उससे कहीं ज्यादा डिजिटल दुनिया में रहते हुए सीख रहे हैं। वह चाहे गेम्स हाें, या फिर सोशल मीडिया। सरकारी स्कूल के बच्चे हों या फिर निजी स्कूल के। दो ही बच्चे अपनी अपनी सुविधा और संसाधनों के मार्फत लगातार सीख रहे हैं और अपनी जिंदगी में इस्तमाल भी कर रहे हैं। बच्चे अपने मां—बाप के फोन से ही सही किन्तु सूचनाएं और अपने शिक्षक/शिक्षिकाओं के बारे में फेसबुक पर जानकारियां हासिल कर रहे हैं। और तो और बच्चे शिक्षकों द्वारा पढ़ाए गए पाठों और जानकारियों का कई बार विभिनन ई स्रोतों पर सत्यापित भी करने लगे हैं। बच्चों की कक्षायी और काहर की दुनिया बहुत तेजी से बदल रही है। इसके साथ हमारा बरताव कैसा हो इसपर विमर्श करने की आवश्यकता है। हमारे शिक्षक वर्ग भी इस तकनीक और डिजिटल दुनिया से वाकिफ हो रहे हैं ताकि बच्चों को इससे महरूम न रहना पड़े।

डिजिटल इंडिया में जितनी तेजी से सूचनाएं विस्तारित और दुनिया भर में फैलती हैं यदि इसकी अहमियत को बच्चे समझें अपनी जानकारी और अनुभवों को वैश्विक कर सकते हैं। लेकिन अफ्‌सोसनाक बात यह भी है कि बच्चे सामान्यतौर पर बिना समुचित मार्गदर्शन के इस माध्यम का इस्तमाल गलत सूचनाओं और जानकारियों के लिए भी कर रहे हैं। यानी बच्चे क्या देख—पढ़ रहे हैं इसपर हमारी नजर होनी निहायत ही जरूरी है। वरना ऐसी भी घटनाएं देखने और सुनने को मिल रही हैं कि बच्चे ने अपनी मैडम की निजी पलों के विडियों को इंटरनेट पर डाल दिया। यह विवेक और अपनी समझ का सही इस्तमाल न करने का परिणाम है। हमें अपने बच्चों को डिजिटल वर्ल्ड की पहुंच और उसकी खामियों को भी बताना होगा। क्याेंकि पूर्व कथित वाक्य है विज्ञान दो धारी तलवार है। ठीक उसी तर्ज पर हम इसे भी समझने की कोशिश करें कि इंटरनेट व डिजिटल दुनिया बच्चों को जहां एक ओर व्यापक दुनिया से जोड़ता है वहीं दूसरी और एक कुंठा निराशा से भी भर देता है।

हमें डिजिटल वर्ल्ड में रहने और बच्चों को वाकिफ कराने से एतराज नहीं है बल्कि हमें सचेत रहने में कोई हानि नहीं है। आज की तारीख में ज्ञान और शिक्षा की दुनिया डिजिटल दुनिया में ज्यादा वैश्विक होने की संभावनाएं लिए हुए है। वैयक्तिक अनुभव शोध को पलक झपकते ही वैश्विक फलक पर भेजने की सुविधा आज ही हमारे पास आई है तो क्या वजह है कि हम उस अवसर का प्रयोग सकारात्मक न करें। यही वजह है कि हमारे शिक्षक भी अब गृहकार्य, एसाइंमेंट आदि तकनीक आधारित सूचना संसाधनों के इस्तमाल करने पर जोर दे रहे हैं। प्रकारांतर से बच्चों को आज की बदलती डिजिटल दुनिया से रू ब रू कराना गलत नहीं है बशर्ते हम उन्हें बेहतर तरीके से मार्गदर्शन भी प्रदान करें।

बच्चों की किताबें, कॉपियां, पेन पेंसिल आदि भी बहुत तेजी से बदल चुकी हैं। हमारे समय में नटराज की पेंसिलें आया करती थीं। लाल रंग वाली। अब पेंसिलें और पेन आदि के रंग—रूप, देह ढांचा आदि बदल चुके हैं। देखने,इस्तमाल करने में भी रोचक होते हैं। किताबें की जहां तक बात है कि तो जितनी रंगीन और टाइपिंग फांट्‌स आदि भी मनमोहक की जा चुकी हैं। यह अलग बात है कि एनसीइआरटी द्वारा तैयार पाठ्‌यपुस्तकों में छपे चित्र कई बार बच्चों में तो अरूचि पैदा करता ही है साथ ही बड़ों को भी कम ही लुभाता है। यदि हम 3 री कक्षा से 5 वीें कक्षा तक चलने समाज विज्ञान वाली किताब—आस—पास, मेरी दिल्ली व हमारा भारत पर नजर डालें तो लाल किला, कुतुब मीनार आदि की छपी तस्वीर बदरंग और बेरोनक सी ही लगती हैं। जब बड़ों को ये किताबें अपनी ओर आकर्षित नहीं कर पातीं तो बच्चों को इन किताबों में कितना मन लगता होगा। वहीं निजी प्रकाशकों की ओर प्रकाशित पाठ्‌यपुस्तकों को देखें तो जी करता है एक बार नहीं कई बार पन्ने पलट कर कम से कम चित्र ही देख लें। वैसे भी बाल मनोविज्ञान और प्रकाशकीय दर्शन मानता है कि बच्चों की किताबों में टेक्स्ट सामग्री से ज्यादा चित्रित सामग्री होनी चाहिए। बच्चों की किताबें जितनी चटक रंगों, फॉन्ट्‌य बड़े होंगे बच्चे उतना ही किताबें की ओर आकर्षित होते हैं।

बच्चों की किताबी दुनिया को डिजिटल दुनिया और विज्ञापनाें ने भी खूब प्रभावित किया है। बच्चों की पसंदीदा धारावाहिकों के मात्र उनकी कॉपियों,किताबों,पेंसिलों, बैग,कपड़ों तक पर धावा बोल चुके हैं। हमारे बच्चे इस डिजिटल दुनिया में एक उत्पाद की तरह भी पेश किए जा रहे हैं। इसे इस तरह समझा जा सकता है कि बाजार प्रायेाजित विभिन्न तरह की प्रतियोगिताओं में बच्चों को बड़ों की तरह व्यवहार करने, गाने,नाचने, स्टंट करने के लिए प्रेरित किया जाता है। हमारे बच्चे सेलेक्ट न होने, हार जाने, पिछड़ जाने पर स्वभाविक बालसुलभ व्यवहार छोड़ कर बड़ों की तरह अवसाद, निराशा आदि जैसी भावदशाओं से गुजरने लगते हैं। कई बार ऐसा भी महसूस होता है कि हमने अपने बच्चों से उनका बचपन समय से पहले झपट चुके हैं या फिर बाजार छीन ले इसके लिए उतावले नजर आते हैं। जो किसी भी स्तर पर उचित नहीं है।

कौशलेंद्र प्रपन्न