Aaina Sach Nahi Bolta - 5 in Hindi Fiction Stories by Neelima Sharma books and stories PDF | आइना सच नहीं बोलता( हिंदी कथाकड़ी)

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आइना सच नहीं बोलता( हिंदी कथाकड़ी)

आइना सच नही बोलता

शब्दावकाश

हिंदी कथाकड़ी भाग-- 5

सूत्रधार _नीलिमा शर्मा निविया

कड़ी लेखिका परिचय---

नाम -- उपासना सियाग

जन्म -- 26 सितम्बर, अबोहर।

शिक्षा : बी.एस.सी. ( गृहविज्ञान ), ज्योतिष-रत्न।

लेखन विधा -- स्वतन्त्र

प्रकाशन -- 10 साँझा काव्य संग्रह , एक साँझा लघु कथा संग्रह।

रुचि -- लिखना।

सम्मान/पुरस्कार -- शोभना संस्था द्वारा ' ब्लॉग रत्न सम्मान '

ईमेल --upasnasiag@gmail.con

मोबाइल -- 8054238498

ब्लॉग -- नई दुनिया , नई उड़ान।




















आइना सच नही बोलता

शब्दावकाश

हिंदी कथाकड़ी भाग—5

यह तो सच ही है कि कोई लड़की मायके से तो सुघड़ बहू बन कर आती नहीं है, लेकिन समाज का नियम भी तो यही है कि लड़की का विवाह होते ही, बहू बनते ही जैसे वह सयानी हो जाती है ! उस से कोई गलती नहीं हो सकती और कुछ गलत हो भी जाये तो सीधा मायके वालों को दोष !यह भी सोचने वाली बात है कि हर घर में बेटी होती है तो बहू भी होती है, फिर भी कोई समझने को तैयार नहीं होता ...

ऐसे ही विचारों को लिए वह अपनी भाभी और कभी माँ से मायके में उलझ पड़ती थी। भाभी और माँ के पास क्या जवाब था भला ! वह कोई समाज से परे थोड़ी थी कोई ! नंदिनी यूँ ही ख्यालों में गुम सोच रही थी कि मीतू की आवाज़ सुनाई दी।

" भाभी ! "

बेशक पंद्रह दिन से ऊपर हो चले थे शादी को पर अभी भी रिश्तों के गड्डमगड्ड में उलझ जाती। बुआ,मौसी और दीदी ही सुना था अब तक, तो यह भाभी शब्द नया था उसके लिए जो अब बार बार उसे सुनाई देगा ! वह चुप रही !

" भाभी ! कहाँ खोई हो ? "

" ओह ! मैं भाभी भी तो हूँ ! " मन ही मन हंसी रोकते हुए चेहरे पर मुस्कान आ ही गई।

" ओहो तो भैया के ख्यालों में गुम थी आप ! "

नंदिनी ने सिर्फ मुस्कुरा कर देखा। यह मुस्कान भी दोहरा अर्थ रखती है ! कभी हां में तो कभी ना में भी !

" आपके पिता जी और भाई आये हैं ! "

" भैया और पिता जी ! "

दोनों हाथों से साड़ी थोड़ा ऊपर उठा कर दौड़ने को हुई ही थी कि पायल बज उठी , और कदम थम गए ! पैरों में बंधन बंध चुके थे ! अब वह बेटी से बहू बन चुकी थी ! और यह आँगन उसके बाबुल का नहीं था बल्कि ससुराल था।

सास को यह देख कर हंसी आ गई। वह समझ गई।

" अरी बिटिया ! ये घर भी तेरा ही है अपनी पायल की झंकार को मत रोको, बजने दो ! जाओ अपने पिताजी से मिलो ! "

" अब तो पायल ही नहीं बल्कि मन का सितार भी बज उठा। वह जल्दी -जल्दी कदम रखते हुए बैठक की तरफ गई। सामने पिता जी थे , कदम ठिठक गए नंदिनी के। ऐसे लगा जैसे कितने ही दिन हो गए मिले हुए। कमजोर भी लग रहे थे। गले लग कर रो पड़ी वह। पिता जी की भी आँखे भर आई थी।

भाई ने कन्धा थपथपा कर दोनों को सहारा दिया। दोनों देख रहे थे कि अचानक से ही उनकी छोटी सी नंदिनी कितनी बड़ी हो गई है !

"पिताजी , माँ और भाभी कैसी है ? "

" तेरे बिन जैसी हो सकती है वैसी ही !"

नंदिनी हैरान तो थी कि इतने सख्त स्वभाव वाले पिताजी कितने भावुक हो रहे हैं, नहीं तो वह आवाज़ से ही सहम जाती थी ! पिताजी को सिनेमा देखने, रेडियो सुनने में कितनी चिढ़ थी। मजाल है कभी वह सिनेमा देख आए। उसने तो ननिहाल जाने पर एक-आध बार ही सिनेमा देखा था। उसको याद आया कि एक बार घर के पास वाले खाली प्लाट में जब कोई धार्मिक नाटक मण्डली आई तो उससे रहा नहीं गया। वह और उसकी चचेरी बहन छत से ही झांक कर नाटक देखने लगी। और नीचे पिताजी बैठक में बड़बड़ा रहे थे कि ये कैसा शोर है ! कितना वाहियात है ! वगैरह -वगैरह .....

" चौधरी साहब ! आप तो नाहक भला बुरा कह रहे हैं, आपके घर की लड़कियां तो छत से देख रही है ! " किसी ने कह ही दिया।

यह सुनते ही वह एकदम खड़े हुए और आँगन में गए।

" नंदिनी ! ओ नंदिनी !! अमिता sss "

और नंदिनी ! वह तो वहीँ जम कर रह गई ! चला नहीं गया उससे ! लड़खड़ाते हुए सीढ़ियों से उतरी तो आखिरी की तीन सीढ़ियों से पाँव फिसल ही गया । पैर में मोच आ गई ! डाँट से तो बच गई पर कई दिन बिस्तर पर रहना पड़ा था।

" तुझे लिवाने आये हैं नंदिनी ! " भाई ने उसकी तन्द्रा भंग की तो वह ख़ुशी से झूम उठी।

" लेकिन अभी नंदिनी नहीं जा सकती, क्यूंकि अभी दीपक की छुट्टियां बाकी है. जब वह चला जायेगा तब आप ले जाइएगा ! " ससुर जी का फरमान था।

“लेकिन पहला पग्फेरा होना था |” भाई ने चिहुंक कर कहा

“ भाईसाहेब इसिलिय जनवासे से हमने मंदिर लेजाकर फिर आपके घर आकर एक फेरा लगवा लिया था | अपना ही घर हैं कभी भी आया जाया करेगी आपकी बिटिया “

ससुर जी ने हँसते हुए कहा

यह बात भी सही ही थी लेकिन नंदिनी को उदास कर दिया। उसके पिताजी भी ससुराल वालों की इच्छा से सहमत थे। दोनों मायूस से हो चले गए। नंदिनी ने देखा कि पिताजी की आंखे सजल थी।

सास की इच्छा थी कि दीपक और नंदिनी कुछ दिनों के लिए बाहर घूम कर भी आये।

" यह काम -नौकरी तो चलता ही रहेगा, शुरूआत के दिन ही होते हैं एक दूसरे को समझने में , आप इनको किसी पहाड़ी इलाके में घूमने के लिए भेज दीजिये ! "

" मतलब कि हनीमून ! "

" आप सही समझे, मैं अगर बहू की जगह खुद को रख कर देखूं तो मुझे मेरे बीते दिन याद आ जाते हैं कि मुझे भी आपके साथ कहीं अकेले घूमने का बहुत मन था पर घर वालों की बेरुखी और आपका संकोच ! मेरे मन की मन में ही रह गई। सारा जीवन चूल्हा झोंकने में ही बीत गया ! " गला भर आया सासू माँ का।

" ज्यादा भावुक होने की जरूरत नहीं है अमिता, बहुत घूमें है रिश्तेदारी में हम ! " सुधीर जी ने बात काटी।

" बेशक ! लेकिन शादी के बाद का समय एक अलग ही अनुभव देता है। एक दूसरे को जानने का मौका मिलता है । बहुत सारी अच्छी और सुहानी यादें भी होती हैं ! आपने क्या किया था ! जब बस नहीं चला था तो आपने हमारे बेड रूम की चारों दीवारों को इंगित कर के सारे पहाड़ दिखा दिए थे कि ये शिमला है , कश्मीर है आदि -आदि ! " फिर गला भर आया अमिता जी का।

" अच्छा भई ! मैं दीपक को बोलता हूँ कि वह थोड़ी छुट्टियां और लेकर बहू को घुमा लाए ! "

" नहीं पिता जी मेरी छुट्टियाँ और आगे नहीं बढ़ सकती हैं ! मुझे तो दो दिन में निकलना ही होगा ! " दीपक ने कमरे में प्रवेश करते हुए कहा।

" तो तू बहू को साथ ही लेजा ! "

" लेकिन माँ अभी नहीं ! अभी साथ जाएगी तो आप सब को कैसे समझेगी वह ! आपसे, परिवार से दूर हो जाएगी। अभी उसको रिश्ते -नाते समझने दो ! "

" नहीं बेटा ! मैं चाहती हूँ कि वह तुम्हारे द्वारा ही हमें समझे, जाने ! किसी भी लड़की के लिए उसका पति ही सबसे करीब होता है। जब वह नौकरी की वजह से या परिवार की देखभाल की वजह से दूर हो जाये तो वह जुबान से तो कुछ नहीं बोलती पर दिल टूट सा जाता है। उसे सभी लोग खलनायक से दिखते हैं। इसी वजह से वह रिश्तों को दिल से नहीं स्वीकारती और ना ही निभाती ! इसलिए मेरे विचार से तू अभी बहू को साथ ले जा ! "

मीतू ने जब नंदिनी को खुशखबरी दी तो उसके गालों के गुलाब खिल उठे।

दोनों ही बहुत खुश थे। उत्साह से तैयारी की जाने लगी। जाने के एक दिन पहले जब सभी रात के खाने के लिए एकत्र हुए तो दीपक बोल उठा ," माँ तुम भी साथ चलो ! "

माँ हंस कर बोली , " क्यों ? "

" माँ ! भैया को भाभी से डर लगता है ! "

" तू चुप रह ! मैं माँ से बोल रहा हूँ ! डरूंगा क्यों ? " खीझ गया दीपक।

" अब तेरी शादी हो गई है दीपक , इस तरह खीझना अच्छा नहीं है ! मज़ाक समझना सीखो ! " सुधीर जी समझाते हुए बीच में बोल पड़े।

" मेरा मतलब यह था कि माँ साथ चलती तो ठीक होता ! नंदिनी को क्या पता कैसे घर सम्भालना होता है। पता नहीं कैसा खाना बनाएगी !माँ सब सिखा देती ! "

घर सम्भालना , खाना बनाना, यह लड़कियों को सिखाना नहीं पड़ता है। यह प्रकृति प्रद्दत गुण होता है लड़कियों में। नंदिनी को सुन कर बुरा लगा। अभी चार दिन में ही वह मुझ से क्या उम्मीद रखता है। क्या वह अच्छा पति साबित होगा ? उसे कौन सिखाएगा अच्छे पति होने की कला ? आंसू तो आने को हुए पर रोक लिए गए। उसका मुहं जरूर उतर गया था।

" ये भी क्या बात हुई बेटा ! इसकी उम्र ही कितनी है अभी ! पढाई करते -करते आई है, आज कल बेटियों से काम कौन करवाता है ? और फिर , इसका घर है , इसकी गृहस्थी है यह जैसे चाहे सम्भाले ! तुझे क्या पसंद है, क्या न पसंद है वो तू बता इसे , मैं क्यों बीच में आऊं ? "

नंदिनी को सास की बातें जैसे दिल पर नरम रुई रख देने जैसा अहसाह हुआ। बाबुल के घर से मन रूपी उखड़े पौधे को सवालों से भरी आंधियां , तेज़ धूप से ताने और भी ना जाने क्या-क्या सहन करना पड़ता है। जड़ पकड़ने में बरस बीत जाते हैं और कभी-कभी तो गहराई तक भी नहीं जा पाते, थोड़ी से तेज़ हवा के झोंके से एक दिन उखड़ भी जाते हैं।

" अमिता, एक दिन तुम तो आदर्श सास साबित होगी ! बहू को बेटी की तरह व्यवहार है तुम्हारा !" थोड़े से हैरान, कुछ चकित लेकिन खुश होते हुए सुधीर जी बोले।

" कल दिल्ली जाना है , बच्चों की फ्लाईट है। सो जाते हैं। " अमिता जी ने बात अनसुनी करते हुए सुधीर जी को कहा।

" सच में , मैं बहुत खुश हूँ ! तुम्हारा व्यवहार देख कर। "

" बेटी नहीं जी ! बहू ! सिर्फ बहू !! हम बेटी बना कर ही क्यों प्यार करें ! बहू भी प्यारी होती है ! जब से बहू आई है मुझे लगता है कि मेरा जीवन एक बार वहीँ पहुँच गया है, जब मैं ब्याह कर आई थी। मुझे किस बात की झिझक थी , मैं क्या चाहती थी ? कमोबेश हर लड़की जो पराये घर जाती है वह कितनी आशंकाएं , डर और झिझक साथ लाती है। ऐसे मैं एक सास को ही आगे बढ़ कर उसका मन समझना होता है। जो कि मेरी सास ने नहीं किया और मेरी सास की सास ने भी नहीं किया यानि आपकी दादी ने ! तो मैं यह परम्परा नहीं निभाऊंगी कि जो परायापन मुझे विरासत में मिला है वह मैं अपनी बहू को दूँ ! मैं उसे सिर्फ प्यार और इज़्ज़त ही दूंगी जो कि समय आने पास वह मुझे लौटा सके। जैसे मैं आपकी माता जी की दिल से कभी इज़्ज़त नहीं कर पाई। हाँ ! निभा गई कि वह आपकी माँ थी और मुझे आपसे बहुत ज्यादा प्यार है ! "

" वाह ! पत्नी जी ! आपकी बात में दम है ! अब मेरी स्वर्गवासी माँ को मत जगाओ आधी रात को ! "

" हा हा ! आप भी ना ! "

नंदिनी सच में बहुत खुश थी। बात तो ख़ुशी की थी ही, पिया का संग किसे भला ना लगेगा ? लेकिन पहली बार हवाईजहाज में चढ़ने की भी तो ख़ुशी थी। यह किसे बताती ? थोड़ी शर्म भी तो होनी चाहिए ना ! ये लड़कियां भी ना बहुत बड़ी कलाकार होती हैं ! शादी हुई नहीं कि ख़ुशी - गम सब कुछ छुपाना सीख जाती है !

सुबह एक नयी सुबह बन कर आई कब कार मे बैठ दिल्ली पहुंचकर दिल्ली पहुंची कब एअरपोर्ट पर कुछ नही सुझा |

हवाईजहाज में बैठ कर उसको लगा कि बच्चों की तरह ख़ुशी जाहिर करे , दोनों हाथों को पंख बना कर उड़ने की अदाकारी करे। लेकिन ऐसा कुछ नहीं किया उसने। वह कोई बच्ची थोड़ी है !गर्दन घुमा कर देखा तो यात्री लगभग बैठ चुके थे। जहाज उड़ान भरने की तैयारी में था।

" क्या देख रही हो ? " दीपक ने उसे इधर-उधर देखते हुए देखा तो पूछ लिया।

" नहीं कुछ नहीं ! "

" तुम तो पहली बार हवाईजहाज में बैठ रही हो ना ?"

" हां ! अब तक तो इसे सिर्फ आसमान में उड़ते हुए ही देखा था ! " किलक पड़ी नंदिनी।

" हाँ ! तुम्हारे बाप ने भी तो नहीं सोचा होगा कि तुम एक दिन हवाईजहाज में बैठोगी !"

उफ़ !बोलने से ही तो इंसान की पहचान होती है ! इतना पढ़ा लिखा इंसान और ये बोलने का तरीका ! नंदिनी की ख़ुशी तो कहीं उड़ ही गई अब तो सिर्फ जहाज ही उड़ रहा था। तीन घंटे के सफर में ज्यादा बात चीत नहीं हुई दोनों की।

एक झिझक सी थी नंदिनी के मन में जो उसे खुलने नहीं दे रही थी। इसकी वजह दीपक के अधिक पढ़े लिखे होने की भी थी। पंद्रह दिनों के साथ ने नंदिनी को कुछ अहसास हो गया था कि उनका मानसिक स्तर एक जैसा नहीं है या यूँ भी कहा जा सकता है कि दीपक ही उसे अपने स्तर का नहीं समझता था। वह खुद को उच्च शिक्षित समझता था और उसे गंवार ! जिसे अच्छा पहनने-ओढ़ने में ही दिलचस्पी है। कभी पूछा भी तो नहीं कि उसे क्या पसंद है ? हां , रात के अँधेरे में बिस्तर पर यह स्तर वाली बात क्यों गौण हो जाती थी, यह नंदिनी अभी समझ नहीं पा रही थी।

हरे भरे खेतों खलिहानों से दूर कंक्रीटों के जंगल में नंदिनी का नया जीवन अब शुरू होना था। बैंगलोर, एक सुन्दर शहर है। सुना था ! पर देखा अभी ! घर कब आया पता ही नहीं चला। सब कुछ सपना सा लग रहा था।

" आओ नंदिनी जी ! आपके घर में आपका स्वागत है ! "

" मेरा घर ! " खुश हो कर उसने दीपक की आँखों में झाँका। उसकी आँखों में भी प्यार और भविष्य के सुन्दर सपने झिलमिला रहे थे। नंदिनी हँस पड़ी। यह हल्कापन लिए हंसी पता नहीं कितने दिन बाद आई थी पर मन को हल्का गई।

घर तो उतना बड़ा नहीं था जितना उसका ससुराल और मायके का घर था। लेकिन जैसा कि दीपक ने कहा कि ' उसका घर ' ,वह बहुत रोमांचित थी।

घर का कोना -कोना देखा। हर एक कोने से आवाज़ आई ' मेरा घर '........ उसे ऐसा देखते हुए दीपक भी अभिभूत हुआ जा रहा था। नंदिनी को मायका भूलता सा नज़र आया।

उसे सुबह जल्दी उठने की आदत थी।अगली सुबह दीपक को सोता हुआ छोड़ कर बालकनी में खड़ी गई। उगता सूरज बहुत पसंद था। अपने घर का सूरज और यहाँ का सूरज एक जैसा ही था।सुन्दर -सुनहरी सा। इस बृह्मांड में हर चीज़ स्थाई है। अगर स्थाई नहीं है तो सिर्फ स्त्री का जीवन !

सूरज की सुनहरी किरणे नंदिनी के मुख की सुंदरता बढ़ा रही थी। सोच में गुम देख उसने धीरे से कंधे पर हाथ रखा।

"सूरज से मुकाबला हो रहा है !"

" कैसे ? "

" कि कौन सुन्दर -सुनहरा है ! "

" सूरज से मेरा क्या मुकाबला ? यह तो कुछ देर में अपनी रश्मियों का ताप बढ़ा लेगा ! "

" वैसे मेरे सूरज तो आप ही हैं और मैं सूरजमुखी की भांति ! कहते हुए नंदिनी ने बहुत नेह से दीपक को देखा।

" अच्छा !! मैंने यह नोटिस किया है कि तुम शायरों और लेखकों की सी बातें करती हो ! "

" तुम लिखती हो क्या ? वैसे तुम्हारी उम्र ही क्या है जो तुम लिखो !और क्या तुम्हारा माहौल है ! गाँव के लोग क्या जाने किताब क्या होती है ? उनको तो दैनिक-दिहाड़ी से ही मतलब ! "

नंदिनी चुप हो गई कुछ कहते - कहते। ' लेखक सी बातें ' सुन कर वह उत्साह में आ गई थी कि चाहे वह लिख ना पाती हो पर पढ़ने का तो बहुत शौक है उसे ! पर दीपक की बातें सुन कर उत्साह मर गया। वो बालकोनी से नीचे झांकते दीपक को देख सोचती रही ………. यह पुरुष मेरा हैं ? पल में तोला पल में माशा

उपासना सियाग।

सूत्रधार _ नीलिमा शर्मा निविया