Part-7- Sinhasan Battisi in Hindi Children Stories by MB (Official) books and stories PDF | भाग-७ - सिंहासन बत्तीसी

Featured Books
Categories
Share

भाग-७ - सिंहासन बत्तीसी

सिंहासन बत्तीसी

कौन थीं 32 पुतलियां

भाग — 07


© COPYRIGHTS


This book is copyrighted content of the concerned author as well as NicheTech / Hindi Pride.


Hindi Pride / NicheTech has exclusive digital publishing rights of this book.


Any illegal copies in physical or digital format are strictly prohibited.


NicheTech / Hindi Pride can challenge such illegal distribution / copies / usage in court.

सिंहासन बत्तीसी

पच्चीसवीं पुतली त्रिनेत्री की कहानी

छब्बीसवीं पुतली मृगनयनी की कहानी

सत्ताइसवीं पुतली मलयवती की कहानी

अट्ठाईसवीं पुतली वैदेही की कहानी

कौन थीं 32 पुतलियां

प्राचीन समय की बात है। उज्जैन में राजा भोज राज्य करते थे। वह बड़े दानी और धर्मात्मा थे। उनके बारे में प्रसिद्ध था कि वह ऐसा न्याय करते कि दूध और पानी अलग—अलग हो जाए। नगरी में एक किसान का एक खेत था। जिसमें उसने कई साग—सब्जी लगा रखी थी।

एक बार की बात है कि खेत में बड़ी अच्छी फसल हुई। पूरी जमीन पर तो खूब तरकारियां आईं, लेकिन खेत के बीचों—बीच थोड़ी—सी जमीन खाली रह गई। हालांकि किसान ने उस जमीन पर भी बीज डाले थे। लेकिन वहां कुछ नहीं उगा।

किसान ने वहां खेत की रखवाली के लिए एक मचान बना लिया। जब भी किसान मचान पर चढ़ता अपने आप चिल्लाने लगता— श्कोई है? राजा भोज को पकड़ लाओ और सजा दो। मेरा राज्य उससे ले लो। जाओ, जल्दी जाओ।'

सारी नगरी में यह बात आग की तरह फैल गई और राजा भोज के कानों में पहुंची। राजा ने कहा, श्मुझे उस खेत पर ले चलो। मैं सारी बातें अपनी आंखों से देखना और कानों से सुनना चाहता हूं।'

राजा भोज जब उस जगह पहुंचे तो उन्होंने भी वही देखा कि किसान मचान पर खड़ा है और कह रहा है— श्राजा भोज को फौरन पकड़ लाओ और मेरा राज्य उससे ले लो।

यह सुनकर राजा चिंतित हो गए। चुपचाप महल में लौटा आए। उन्हें रातभर नींद नहीं आई। सवेरा होते ही उन्होंने राज्य के ज्योतिषियों और जानकार पंडितों को इकट्ठा किया। उन्होंने अ पनी गोपनीय विद्या से पता लगाया कि उस मचान के नीचे कुछ छिपा है। राजा ने उसी समय आज्ञा दी कि उस जगह को खुदवाया जाए।

खोदते—खोदते जब काफी मिट्टी निकल गई तो अचानक एक सिंहासन प्रकट हुआ। सिंहासन के चारों ओर आठ—आठ पुतलियां यानी कुल बत्तीस पुतलियां खड़ी थीं। सबके अचरज का ठिकाना न रहा। राजा को खबर मिली तो सिंहासन को बाहर निकालने को कहा, लेकिन कई मजदूरों के जोर लगाने पर भी वह सिंहासन टस—से मस न हुआ।

तब एक पंडित ने कहा कि यह सिंहासन देवताओं का बनाया हुआ है। अपनी जगह से तब तक नहीं हटेगा जब तक कि राजा स्वयं इसकी पूजा—अर्चना न करें।

राजा ने ऐसा ही किया। पूजा—अर्चना करते ही सिहांसन ऐसे ऊपर उठ आया, मानो फूलों का हो। राजा बड़े खुश हुए।

सिहांसन में कई तरह के रत्न जड़े थे जिनकी चमक अनूठी थी। सिंहासन के चारों ओर 32 पुतलियां बनी थी। उनके हाथ में कमल का एक—एक फूल था। राजा ने हुक्म दिया कि खजाने से रुपया लेकर सिहांसन दुरुस्त करवाएं।

सिंहासन सुंदर होने में पांच महीने लगे। अब सिंहासन दमक उठा था। जो भी देखता, देखता ही रह जाता। पुतलियां ऐसी लगती मानो अभी बोल उठेंगीं।

राजा ने पंडितों को बुलाया और कहा, श्आप लोग कोई अच्छा मुहूर्त निकालें। उस दिन मैं इस सिंहासन पर बैठूंगा।' दिन तय किया गया। दूर—दूर तक लोगों को निमंत्रण भेजे गए। तरह—तरह के बाजे बजने लगे, महल में खुशियां मनाई जाने लगी।

पूजा के बाद जैसे ही राजा ने अपना दाहिना पैर बढ़ाकर सिंहासन पर रखना चाहा कि सारी पुतलियां खिलखिला कर हंस पड़ी। लोगों को बड़ा अचंभा हुआ कि यह बेजान पुतलियां कैसे हंस पड़ी।

राजा ने अपना पैर खींच लिया और पुतलियों से पूछा , श्ओ सुंदर पुतलियों! सच—सच बताओं कि तुम क्यों हंसी?'

पहली पुतली का नाम था। रत्नमंजरी। राजा की बात सुनकर वह बोली, श्राजन! आप बड़े तेजस्वी हैं, धनी हैं, बलवान हैं, लेकिन इन सब बातों का आपको घमंड भी है। जिस राजा का यह सिहांसन है, वह दानी, वीर और धनी होते हुए भी विनम्र थे। परम दयालु थे।

राजा बड़े नाराज हुए।

पुतली ने समझाया, महाराज, यह सिंहासन परम प्रतापी और ज्ञानी राजा विक्रमादित्य का है।

राजा बोले, मैं कैसे मानूं कि राजा विक्रमादित्य मुझसे ज्यादा गुणी और पराक्रमी थे?

पुतली ने कहा, श्ठीक है, मैं तुम्हें राजा विक्रमादित्य की एक कहानी सुनाती हूं।' सिंहासन बत्तीसी की पहली पुतली रत्नमंजरी ने सुनाई एक कहानी —

अंबावती में एक राजा राज्य करता था। वह बड़ा दानी था। उसी राज्य में धर्मसेन नाम का एक और बड़ा राजा हुआ। उसकी चार रानियां थी। एक थी ब्राह्मण, दूसरी क्षत्रिय, तीसरी वैश्य और चौथी शूद्र। ब्राह्मणी से एक पुत्र हुआ, जिसका नाम ब्राह्मणीत रखा गया। क्षत्राणी से तीन बेटे हुए। एक का नाम शंख, दूसरे का नाम विक्रमादित्य और तीसरे का भर्तृहरि रखा गया। वैश्य से एक लड़का हुआ, जिसका नाम चंद्र रखा गया। शूद्राणी से धन्वन्तारि हुए।

पच्चीसवीं पुतली त्रिनेत्री की कहानी

त्रिनेत्री नामक पच्चीसवीं पुतली की कथा इस प्रकार है— राजा विक्रमादित्य अपनी प्रजा के सुख—दुख का पता लगाने के लिए कभी—कभी वेश बदलकर घूमा करते थे तथा खुद सारी समस्या का पता लगाकर निदान करते थे।

उनके राज्य में एक दरिद्र ब्राह्मण और भाट रहते थे। वे दोनों अपना कष्ट अपने तक ही सीमित रखते हुए जीवन—यापन कर रहे थे तथा कभी किसी के प्रति कोई शिकायत नहीं रखते थे। वे अपनी गरीबी को अपना प्रारब्ध समझकर सदा खुश रहते थे तथा सीमित आय से संतुष्ट थे।

सब कुछ ठीक चल रहा था, मगर जब भाट की बेटी विवाह योग्य हुई तो भाट की पत्नी को उसके विवाह की चिन्ता सताने लगी। उसने अपने पति से कहा कि वह पुश्तैनी पेशे से जो कमाकर लाता है उससे दैनिक खर्च तो आराम से चल जाता है, मगर बेटी के विवाह के लिए कुछ भी नहीं बच पाता है। बेटी के विवाह में बहुत खर्च आता है, अतरू उसे कोई और यत्न करना होगा।

भाट यह सुनकर हंस पड़ा और कहने लगा कि बेटी उसे भगवान की इच्छा से प्राप्त हुई है, इसलिए उसके विवाह के लिए भगवान कोई रास्ता निकाल ही देंगे। अगर ऐसा नहीं होता तो हर दंपति को केवल पुत्र की ही प्राप्ति होती या कोई दंपति संतानहीन न रहते। सब ईश्वर की इच्छा से ही होता है।

दिन बीतते गए, पर भाट को बेटी के विवाह में खर्च लायक धन नहीं मिल सका। उसकी पत्नी अब दुखी रहने लगी।

भाट से उसका दुख नहीं देखा गया तो वह एक दिन धन इकट्ठा करने की नीयत से निकल पड़ा। कई राज्यों का भ्रमण कर उसने सैकड़ों राज्याधिकारियों तथा बड़े—बड़े सेठों को हंसाकर उनका मनोरंजन किया तथा उनकी प्रशंसा में गीत गाए।

खुश होकर उन लोगों ने जो पुरस्कार दिए उससे बेटी के विवाह लायक धन हो गया। जब वह सारा धन लेकर लौट रहा था तो रास्ते में न जाने चोरों को कैसे उसके धन की भनक लग गई, उन्होंने सारा धन लूट लिया।

वह जब लौटकर घर आया तो उसकी पत्नी को आशा थी कि वह ब्याह के लिए उचित धन लाया होगा।

भाट ने पत्नी को बताया कि उसके बार—बार कहने पर वह विवाह के लिए धन अर्जित करने को कई प्रदेश गया और तरह—तरह को लोगों से मिला।

लोगों से पर्याप्त धन भी एकत्र कर लाया पर भगवान को उस धन से उसकी बेटी का विवाह होना मंजूर नहीं था। रास्ते में सारा धन लुटेरों ने लूट लिया और किसी तरह प्राण बचाकर वह वापस लौट आया है। भाट की पत्नी गहरी चिन्ता में डूब गई। उसने पति से पूछा कि अब बेटी का ब्याह कैसे होगा?

भाट ने फिर अपनी बात दोहराई कि जिसने बेटी दी है वही ईश्वर उसके विवाह की व्यवस्था भी कर देगा। इस पर उसकी पत्नी निराशाभरी खीझ के साथ बोली कि ईश्वर लगता है महाराजा विक्रम को विवाह की व्यवस्था करने भेजेंगे। जब यह वार्तालाप हो रहा था तभी महाराज उसके घर के पास से गुजर रहे थे। उन्हें भाट की पत्नी की टिप्पणी पर हंसी आ गई।

दूसरी तरफ ब्राह्मण अपनी आजीविका के लिए पुश्तैनी पेशा अपना कर जैसे—तैसे गुजर—बसर कर रहा था। वह पूजा—पाठ करवाकर जो कुछ भी दक्षिणा के रूप में प्राप्त करता उसी से आनन्दपूर्वक निर्वाह कर रहा था।

ब्राह्मणी को भी तब तक सब कुछ सामान्य दिख पड़ा जब तक कि उनकी बेटी विवाह योग्य नहीं हुई। बेटी के विवाह की चिन्ता जब सताने लगी तो उसने ब्राह्मण को कुछ धन जमा करने को कहा, मगर ब्राह्मण चाहकर भी नहीं कर पाया। पत्नी के बार—बार याद दिलाने पर उसने अपने यजमानों को घुमा—फिराकर कहा भी, मगर किसी यजमान ने उसकी बात को गंभीरतापूर्वक नहीं लिया।

एक दिन ब्राह्मणी तंग आकर बोली कि विवाह खर्च महाराजा विक्रमादित्य से मांगकर देखो, क्योंकि अब और कोई विकल्प नहीं है। कन्यादान तो करना ही है। ब्राह्मण ने कहा कि वह महाराज के पास जरूर जाएगा। महाराज धन दान करेंगे तो सारी व्यवस्था हो जाएगी। उसकी भी पत्नी के साथ पूरी बातचीत विक्रम ने सुन ली, क्योंकि उसी समय वे उसके घर के पास गुजर रहे थे।

सुबह में उन्होंने सिपाहियों को भेजा और भाट तथा ब्राह्मण दोनों को दरबार में बुलवाया। विक्रमादित्य ने अपने हाथों से भाट को दस लाख स्वर्ण मुद्राएं दान कीं। फिर ब्राह्मण को राजकोष से कुछ सौ मुद्राएं दिलवा दीं।

वे दोनों अति प्रसन्न हो वहां से विदा हो गए। जब वे चले गए तो एक दरबारी ने महाराज से कुछ कहने की अनुमति मांगी। उसने जिज्ञासा की कि भाट और ब्राह्मण दोनों कन्यादान के लिए धन चाहते थे तो महाराज ने पक्षपात क्यों किया?

भाट को दस लाख और ब्राह्मण को सिर्फ कुछ सौ स्वर्ण मुद्राएं क्यों दीं। विक्रम ने जवाब दिया कि भाट धन के लिए उनके आसरे पर नहीं बैठा था। वह ईश्वर से आस लगाए बैठा था।

ईश्वर लोगों को कुछ भी दे सकते हैं, इसलिए उन्होंने उसे ईश्वर का प्रतिनिधि बनकर अप्रत्याशित दान दिया, जबकि ब्राह्मण कुलीन व।'ा का होते हुए भी ईश्वर में पूरी आस्था नहीं रखता था। वह उनसे सहायता की अपेक्षा रखता था। राजा भी आम मनुष्य है, ईश्वर का स्थान नहीं ले सकता।

उन्होंने उसे उतना ही धन दिया जितने में विवाह अच्छी तरह संपन्न हो जाए। राजा का ऐसा गूढ़ उत्तर सुनकर दरबारी ने मन ही मन उनकी प्रशंसा की तथा चुप हो गया।

छब्बीसवीं पुतली मृगनयनी की कहानी

मृगनयनी नामक छब्बीसवीं पुतली ने जो कथा सुनाई वह इस प्रकार है— राजा विक्रमादित्य न सिर्फ अपना राजकाज पूरे मनोयोग से चलाते थे, बल्कि त्याग, दानवीरता, दया, वीरता इत्यादि अनेक श्रेष्ठ गुणों के धनी थे। वे किसी तपस्वी की भांति अन्न—जल का त्याग कर लम्बे समय तक तपस्या में लीन रह सकते थे। ऐसा कठोर तप कर सकते थे कि इन्द्रासन डोल जाए।

एक बार उनके दरबार में एक साधारण सी वेशभूषा वाले एक युवक को पकड़कर उनके सैनिक लाए। वह रात में बहुत सारे धन के साथ संदिग्ध अवस्था में कहीं जा रहा था।

उसकी वेशभूषा से नहीं लग रहा था कि इस धन का वह मालिक होगा, इसलिए सिपाहियों को लगा शायद वह चोर हो और चोरी के धन के साथ कहीं चंपत होने की फिराक में हो।

राजा ने जब उस युवक से उसका परिचय पूछा और जानना चाहा कि यह धन उसके पास कैसे आया तो उस युवक ने बताया कि वह एक धनाढ्य स्त्री के यहां नौकर है और सारा धन उसी स्त्री का दिया हुआ है।

अब राजा की जिज्ञासा बढ़ गई और उन्होंने जानना चाहा कि उस स्त्री ने उसे यह धन क्यों दिया और वह धन लेकर कहां जा रहा था?

इस पर वह युवक बोला कि अमुक जगह रुककर स्त्री ने प्रतीक्षा करने को कहा था। दरअसल उस स्त्री के उससे अनैतिक सम्बन्ध हैं और वह उससे पति की हत्या करके आकर मिलने वाली थी।

दोनों सारा धन लेकर कहीं दूर चले जाते और आराम से जीवन व्यतीत करते।

विक्रम ने उसकी बातों की सत्यता की जांच करने के लिए तुरन्त उसके बताए पते पर अपने सिपाहियों को भेजा। सिपाहियों ने आकर खबर दी कि उस स्त्री को अपने नौकर के गिरफ्तार होने की सूचना मिल चुकी है। अब वह विलाप करके कह रही है कि लुटेरों ने सारा धन लूट लिया और उसके पति की हत्या करके भाग गए।

उसने पति की चिता सजवाई है और खुद को पतिव्रता साबित करने के लिए सती होने की योजना बना रही है।

सुबह युवक को साथ लेकर सिपाहियों के साथ विक्रम उस स्त्री के घर पहुंचे तो दृश्य देखकर सचमुच चौंक गए।

स्त्री अपने पति की चिता पर बैठ चुकी थी और चिता को अग्नि लगने वाली थी। राजा ने चिता को अग्नि देने वाले को रोक दिया तथा उस स्त्री से चिता से उतरने को कहा।

उन्होंने सारा धन उसे दिखाया तथा नौकर को आगे लाकर बोले कि सारी सच्चाई का पता उन्हें चल गया है। उन्होंने उस स्त्री को त्रिया चरित्र का त्याग करने को कहा तथा राजदण्ड भुगतने को तैयार हो जाने की आज्ञा दी।

स्त्री कुछ क्षणों के लिए तो भयभीत हुई, मगर दूसरे ही पल बोली कि राजा को उसके चरित्र पर अंगुली उठाने के पहले अपनी छोटी रानी के चरित्र की जांच करनी चाहिए। इतना कहकर वह बिजली सी फुर्ती से चिता पर कूदी और उसमें आग लगाकर सती हो गई। कोई कुछ करता वह स्त्री जलकर राख हो गई।

राजा सिपाहियों सहित अपने महल वापस लौट गए। उन्हें उस स्त्री के अंतिम शब्द अभी तक जला रहे थे। उन्होंने छोटी रानी पर निगाह रखनी शुरू कर दी।

एक रात उन्हें सोता समझकर छोटी रानी उठी और पिछले दरवाजे से महल से बाहर निकल गई। राजा भी दबे पांव उसका पीछा करने लगे। चलकर वह कुछ दूर पर धूनी रमाए एक साधु के पास गई।

साधु ने उसे देखा तो उठ गया और उसे लेकर पास बनी एक कुटिया के अन्दर दोनों चले गए। विक्रम ने कुटिया में जो देखा वह उनके लिए असहनीय था। रानी निर्वस्त्र होकर उस साधु का आलिंगन करने लगी तथा दोनों पति—पत्नी की तरह बेझिझक संभोगरत हो गए।

राजा ने सोचा कि छोटी रानी को वे इतना प्यार करते हैं फिर भी वह विश्वासघात कर रही है। उनका क्रोध सीमा पार कर गया और उन्होंने कुटिया में घुसकर उस साधु तथा छोटी रानी को मौत के घाट उतार दिया।

जब वे महल लौटे तो उनकी मानसिक शांति जा चुकी थी। वे हमेशा बेचौन तथा खिन्न रहने लगे। सांसारिक सुखों से उनका मन उचाट हो गया तथा मन में वैराग्य की भावना ने जन्म ले लिया। उन्हें लगता था कि उनके धर्म—कर्म में जरुर कोई कमी थी जिसके कारण भगवान ने उन्हें छोटी रानी के विश्वासघात का दृश्य दिखाकर दण्डित किया।

यही सब सोचकर उन्होंने राज—पाट का भार अपने मंत्रियों को सौंप दिया और खुद समुद्र तट पर तपस्या करने चल पड़े।

समुद्र तट पर पहुंचकर उन्होंने सबसे पहले एक पैर पर खड़े होकर समुद्र देवता का आह्वान किया। उनकी साधना से प्रसन्न होकर जब समुद्र देवता ने उन्हें दर्शन दिए तो उन्होंने समुद्र देवता से एक छोटी सी मांग पूरी करने की विनती की।

उन्होंने कहा कि उनके तट पर वे एक कुटिया बनाकर अखण्ड साधना करना चाहते हैं और अपनी साधना निर्विघ्न पूरा करने का उनसे आशीर्वाद चाहते हैं।

समुद्र देवता ने उन्हें अपना आशीर्वाद दिया तथा उन्हें एक शंख प्रदान किया। समुद्र देवता ने कहा कि जब भी कोई दैवीय विपत्ति आएगी, इस शंख की ध्वनि से दूर हो जाएगी। समुद्र देव से उपहार लेकर विक्रम ने उन्हें धन्यवाद दिया तथा प्रणाम कर समुद्र तट पर लौट आए।

उन्होंने समुद्र तट पर एक कुटिया बनाई और साधना करने लगे। उन्होंने लम्बे समय तक इतनी कठिन साधना की कि देवलोक में हड़कंप सच गया। सारे देवता बात करने लगे कि अगर विक्रम इसी प्रकार साधना में लीन रहे तो इन्द्र के सिंहासन पर अधिकार कर लेंगे।

इन्द्र को अपना सिंहासन खतरे में दिखाई देने लगा। उन्होंने अपने सहयोगियों को साधना स्थल के पास इतनी अधिक वृष्टि करने का आदेश दिया कि पूरा स्थान जलमग्न हो जाए और विक्रम कुटिया सहित पानी में बह जाएं। बस, आदेश की देर थी। बहुत भयानक वृष्टि शुरू हो गई। कुछ ही घण्टों में सचमुच सारा स्थान जलमग्न हो जाता और विक्रम कुटिया सहित जल में समा गए होते।

लेकिन समुद्र देव ने उन्हें आशीर्वाद जो दिया था। उस वर्षा का सारा पानी उन्होंने पी लिया तथा साधना स्थल पहले की भांति सूखा ही रहा।

इन्द्र ने जब यह अद्‌भुत चमत्कार देखा तो उनकी चिन्ता और बढ़ गई, उन्होंने अपने सेवकों को बुलाकर आंधी—तूफान का सहारा लेने का आदेश दिया। इतने भयानक वेग से आंधी चली कि कुटिया तिनके—तिनके होकर बिखर गई। सब कुछ हवा में रुई की भांति उड़ने लगा। बड़े—बड़े वृक्ष उखड़कर गिरने लगे।

विक्रम के पांव भी उखड़ते हुए मालूम पड़े। लगा कि आंधी उन्हें उड़ाकर साधना स्थल से बहुत दूर फेंक देगी। विक्रम को समुद्र देव द्वारा दिया गया शंख याद आया और उन्होंने शंख को जोर से फूंका। शंख से बड़ी तीव्र ध्वनि निकली। शंख ध्वनि के साथ आंधी—तूफान का पता नहीं रहा। वहां ऐसी शान्ति छा गई मानो कभी आंधी आई ही न हो। अब तो इन्द्रदेव की चिन्ता और अधिक बढ़ गई।

उन्हें सूझ नहीं रहा था कि विक्रम की साधना कैसे भंग की जाए। अब विक्रम की साधना को केवल अप्सराओं का आकर्षण ही भंग कर सकता था। उन्होंने तिलोत्तमा नामक अप्सरा को बुलाया तथा उसे जाकर विक्रम की साधना भंग करने को कहा।

तिलोत्तमा अनुपम सुन्दर थी और उसका रूप देखकर कोई भी कामदेव के वाणों से घायल हुए बिना नहीं रह सकता था। तिलोत्तमा साधना स्थल पर उतरी तथा मनमोहक गायन—वादन और नृत्य द्वारा विक्रम की साधना में विघ्न डालने की चेष्टा करने लगी। मगर वैरागी विक्रम का क्या बिगाड़ पाती।

विक्रम ने शंख को फूंक मारी और तिलोत्तमा को ऐसा लगा जैसे किसी ने उसे आग की ज्वाला में ला पटका हो। भयानक ताप से वह उद्विग्न हो उठी तथा वहां से उसी क्षण अदृश्य हो गई। जब यह युक्ति भी कारगर नहीं हुई तो इन्द्र का आत्मविश्वास पूरी तरह डोल गया। उन्होंने खुद ब्राह्मण का वेश धरा और साधना स्थल आए।

वे जानते थे कि विक्रम याचकों को कभी निराश नहीं करते हैं तथा सामर्थ्‌यानुसार दान देते हैं। जब इन्द्र विक्रम के पास पहुंचे तो विक्रम ने उनके आने का प्रयोजन पूछा।

उन्होंने विक्रम से भिक्षा देने को कहा तथा भिक्षा के रूप में उनकी कठिन साधना का सारा फल मांग लिया। विक्रम ने अपनी साधना का सारा फल उन्हें सहर्ष दान कर दिया।

साधना फल दान क्या दिया कि इन्द्र को अभयदान मिल गया। उन्होंने प्रकट होकर विक्रम की महानता का गुणगान किया और आशीर्वाद दिया।

उन्होंने कहा कि विक्रम के राज्य में अतिवृष्टि और अनावृष्टि नहीं होगी। कभी अकाल या सूखा नहीं पड़ेगा सारी फसलें समय पर और भरपूर होंगी। इतना कहकर इन्द्र अंतर्ध्‌यान हो गए।

सत्ताइसवीं पुतली मलयवती की कहानी

मलयवती नाम की सत्ताइसवीं पुतली ने जो कथा सुनाई वह इस प्रकार है— विक्रमादित्य बड़े यशस्वी और प्रतापी राजा थे और राज—काज चलाने में उनका कोई सानी नहीं था। वीरता और विद्वता का अद्‌भुत संगम थे। उनके शस्त्र ज्ञान और शास्त्र ज्ञान की कोई सीमा नहीं थी।

वे राज—काज से बचा समय अक्सर शास्त्रों के अध्ययन में लगाते थे और इसी ध्येय से उन्होंने राजमहल के एक हिस्से में विशाल पुस्तकालय बनवा रखा था। वे एक दिन एक धार्मिक ग्रन्थ पढ़ रहे थे तो उन्हें एक जगह राजा बली का प्रसंग मिला। उन्होंने राजा बली वाला सारा प्रसंग पढ़ा तो पता चला कि राजा बली बड़े दानवीर और वचन के पक्के थे। वे इतने पराक्रमी और महान राजा थे कि इन्द्र उनकी शक्ति से डर गए।

देवताओं ने भगवान विष्णु से प्रार्थना की कि वे बली का कुछ उपाय करें तो विष्णु ने वामन रूप धरा। वामन रूप धरकर उनसे सब कुछ दान में प्राप्त कर लिया और उन्हें पाताललोक जाने को विवश कर दिया।

जब उनकी कथा विक्रम ने पढ़ी तो सोचा कि इतने बड़े दानवीर के दर्शन जरूर करने चाहिए। उन्होंने विचार किया कि भगवान विष्णु की आराधना करके उन्हें प्रसन्न किया जाए तथा उनसे दैत्यराज बली से मिलने का मार्ग पूछा जाए।

ऐसा विचार मन में आते ही उन्होंने राज—पाट और मोह—माया से अपने आपको अलग कर लिया तथा महामंत्री को राजभार सौंपकर जंगल की ओर प्रस्थान कर गए। जंगल में उन्होंने घोर तपस्या शुरू की और भगवान विष्णु की स्तुति करने लगे।

उनकी तपस्या बहुत लम्बी थी। शुरू में वे केवल एक समय का भोजन करते थे। कुछ दिनों बाद उन्होंने वह भी त्याग दिया तथा फल और कन्द—मूल आदि खाकर रहने लगे। कुछ दिनों बाद सब कुछ त्याग दिया और केवल पानी पीकर तपस्या करते रहे। इतनी कठोर तपस्या से वे बहुत कमजोर हो गए और साधारण रूप से उठने—बैठने में भी उन्हें काफी मुश्किल होने लगी। धीरे—धीरे उनके तपस्या स्थल के पास और भी बहुत सारे तपस्वी आ गए।

कोई एक पैर पर खड़ा होकर तपस्या करने लगा तो कोई एक हाथ उठाकर, कोई कांटों पर लेटकर तपस्या में लीन हो गया तो कोई गर्दन तक बालू में धंसकर। चारों ओर सिर्फ ईश्वर के नाम की चर्चा होने लगी और पवित्र वातावरण तैयार हो गया।

विक्रम ने कुछ समय बाद जल भी लेना छोड़ दिया और बिल्कुल निराहार तपस्या करने लगे। अब उनका शरीर और भी कमजोर हो गया और सिर्फ हड्डियों का ढांचा नजर आने लगा। कोई देखता तो दया आ जाती, मगर राजा विक्रमादित्य को कोई चिन्ता नहीं थी।

विष्णु की आराधना करते—करते यदि उनके प्राण निकल जाते तो सीधे स्वर्ग जाते और यदि विष्णु के दर्शन हो जाते तो दैत्यराज बली से मिलने का मार्ग प्रशस्त होता। वे पूरी लगन से अपने अभीष्ट की प्राप्ति के लिए तपस्यारत रहे। जीवन और शरीर का उन्हें कोई मोह नहीं रहा। राजा विक्रमादित्य का हुलिया ऐसा हो गया था कि कोई भी देखकर नहीं कह सकता था कि वे महाप्रतापी और सर्वश्रेष्ठ हैं।

राजा के समीप ही तपस्या करने वाले एक योगी ने उनसे पूछा कि वे इतनी घोर तपस्या क्यों कर रहे हैं? विक्रम का जवाब था— श्इहलोक से मुक्ति और परलोक सुधार के लिए।' तपस्वी ने उन्हें कहा कि तपस्या राजाओं का काम नहीं है। राजा को राजकाज के लिए ईश्वर द्वारा जन्म दिया जाता है और यही उसका कर्म है। अगर वह राज—काज से मुंह मोड़ता है तो अपने कर्म से मुंह मोड़ता है।

शास्त्रों में कहा गया है कि मनुष्य को अपने कर्म से मुंह नहीं मोड़ना चाहिए। विक्रम ने बड़े ही गंभीर स्वर में उससे कहा कि कर्म करते हुए भी धर्म से कभी मुंह नहीं मोड़ना चाहिए। उन्होंने जब उससे पूछा कि क्या शास्त्रों में किसी भी स्थिति में धर्म से विमुख होने को कहा गया है तो तपस्वी एकदम चुप हो गया। उनके तर्कपूर्ण उत्तर ने उसे आगे कुछ पूछने लायक नहीं छोड़ा।

राजा ने अपनी तपस्या जारी रखी। अत्यधिक निर्बलता के कारण एक दिन राजा बेहोश हो गए और काफी देर के बाद होश में आए। वह तपस्वी एक बार फिर उनके पास आया और उनसे तपस्या छोड़ देने को बोला। उसने कहा कि चूंकि राजा गृहस्थ हैं, इसलिए तपस्वियों की भांति उन्हें तप नहीं करना चाहिए। गृहस्थ को एक सीमा के भीतर ही रहकर तपस्या करनी चाहिए।

जब उसने राजा को बार—बार गृहस्थ धर्म की याद दिलाई और गृहस्थ कर्म के लिए प्रेरित किया तो राजा ने कहा कि वे मन की शान्ति के लिए तपस्या कर रहे हैं। तपस्वी कुछ नहीं बोला और वे फिर तपस्या करने लगे। कमजोरी तो थी ही— एक बार फिर वे अचेत हो गए।

जब कई घण्टों बाद वे होश में आए तो उन्होंने पाया कि उनका सर भगवान विष्णु की गोद में है। उन्हें भगवान विष्णु को देखकर पता चल गया कि तपस्या से रोकने वाला तपस्वी और कोई नहीं स्वयं भगवान विष्णु थे।

विक्रम ने उठकर उन्हें साष्टांग प्रणाम किया तो भगवान ने पूछा वे क्यों इतना कठोर तप कर रहे हैं?

विक्रम ने कहा कि उन्हें राजा बली से भेंट का रास्ता पता करना है। भगवान विष्णु ने उन्हें एक शंख देकर कहा कि समुद्र के बीचोंबीच पाताललोक जाने का रास्ता है। इस शंख को समुद्र तट पर फूंकने के बाद उन्हें समुद्र देव के दर्शन होंगे और वही उन्हें राजा बली तक पहुंचने का मार्ग बतलाएंगे।

शंख देकर विष्णु अंतर्ध्‌यान हो गए। विष्णु के दर्शन के बाद विक्रम ने फिर से तपस्या के पहले वाला स्वास्थ्य प्राप्त कर लिया और वैसी ही असीम शक्ति प्राप्त कर ली।

शंख लेकर वे समुद्र के पास आए और पूरी शक्ति से शंख फूंकने लगे। समुद्र देव उपस्थित हुए और समुद्र का पानी दो भागों में विभक्त हो गया। समुद्र के बीचोंबीच अब भूमि मार्ग दिखाई देने लगा। उस मार्ग पर राजा आगे बढ़ते रहे। काफी चलने के बाद वे पाताललोक पहुंच गए।

जब वे राजा बली के महल के द्वार पर पहुंचे तो द्वारपालों ने उनसे आने का प्रयोजन पूछा। विक्रम ने उन्हें बताया कि राजा बली के दर्शन के लिए मृत्युलोक आए हैं। एक सैनिक उनका संदेश लेकर गया और काफी देर बाद उनसे आकर बोला कि राजा बली अभी उनसे नहीं मिल सकते हैं। उन्होंने बार—बार राजा से मिलने का अनुरोध किया पर राजा बली तैयार नहीं हुए।

राजा ने खिन्न और हताश होकर अपनी तलवार से अपना सिर काट लिया। जब प्रहरियों ने यह खबर राजा बली को दी तो उन्होंने अमृत डलवाकर विक्रम को जीवित करवा दिया। जीवित होते ही विक्रम ने फिर राजा बली के दर्शन की इच्छा जताई। इस बार प्रहरी संदेश लेकर लौटा कि राजा बली उनसे महाशिवरात्रि के दिन मिलेंगे।

विक्रम को लगा कि बली ने सिर्फ टालने के लिए यह संदेश भिजवाया है। उनके दिल पर चोट लगी और उन्होंने फिर तलवार से अपनी गर्दन काट ली। प्रहरियों में खलबली सच गई और उन्होंने राजा बली तक विक्रम के बलिदान की खबर पहुंचाई।

राजा बली समझ गए कि वह व्यक्ति दृढ़ निश्चयी है और बिना भेंट किए जाने वाला नहीं है। उन्होंने फिर नौकरों द्वारा अमृत भिजवाया और उनके लिए संदेश भिजवाया कि भेंट करने को वे राजी हैं।

नौकरों ने अमृत छिड़ककर उन्हें जीवित किया तथा महल में चलकर बली से भेंट करने को कहा। जब वे राजा बली से मिले तो राजा बली ने उनसे इतना कष्ट उठाकर आने का कारण पूछा।

विक्रम ने कहा कि धार्मिक ग्रन्थों में उनके बारे में बहुत कुछ वर्णित है तथा उनकी दानवीरता और त्याग की चर्चा सर्वत्र होती है, इसलिए वे उनसे मिलने को उत्सुक थे। राजा बली उनसे बहुत प्रसन्न हुए तथा विक्रम को एक लाल मूंगा उपहार में दिया और बोले कि वह मूंगा मांगने पर हर वस्तु दे सकता है। मूंगे के बल पर असंभव कार्य भी संभव हो सकते हैं।

विक्रम राजा बली से विदा लेकर प्रसन्नचित्त होकर मृत्युलोक की ओर लौट चले। पाताललोक के प्रवेश द्वार के बाहर फिर वही अनन्त गहराई वाला समुद्र बह रहा था।

उन्होंने भगवान विष्णु का दिया हुआ शंख फूंका तो समुद्र फिर से दो भागों में बंट गया और उसके बीचोंबीच वही भूमि वाला मार्ग प्रकट हो गया। उस भूमि मार्ग पर चलकर वे समुद्र तट तक पहुंच गए। वह मार्ग गायब हो गया तथा समुद्र फिर पूर्ववत होकर बहने लगा।

वे अपने राज्य की ओर चल पड़े। रास्ते में उन्हें एक स्त्री विलाप करती मिली। उसके बाल बिखरे हुए थे और चेहरे पर गहरे विषाद के भाव थे। पास आने पर पता चला कि उसके पति की मृत्यु हो गई है और अब वह बिलकुल बेसहारा है।

विक्रम का दिल उसके दुख को देखकर पसीज गया तथा उन्होंने उसे सांत्वना दी। बली वाले मूंगे से उसके लिए जीवन दान मांगा। उनका बोलना था कि उस विधवा का मृत पति ऐसे उठकर बैठ गया, मानो गहरी नींद से जागा हो। स्त्री के आनन्द की सीमा नहीं रही।

अट्ठाईसवीं पुतली वैदेही की कहानी

अट्ठाईसवीं पुतली का नाम वैदेही था और उसने अपनी कथा इस प्रकार कही— एक बार राजा विक्रमादित्य अपने शयन कक्ष में गहरी निद्रा में लीन थे। उन्होंने एक सपना देखा।

एक स्वर्ण महल है जिसमें रत्न, माणिक इत्यादि जड़े हैं। महल में बड़े—बड़े कमरे हैं जिनमें सजावट की अलौकिक चीजे हैं। महल के चारों ओर उद्यान हैं और उद्यान में हजारों तरह के सुन्दर—सुन्दर फूलों से लदे पौधे हैं। उन फूलों पर तरह—तरह की तितलियां मंडरा रही और भंवरों का गुंजन पूरे उद्यान में व्याप्त है। फूलों की सुगन्ध चारों ओर फैली हुई है और सारा दृश्य बड़ा ही मनोरम है।

स्वच्छ और शीतल हवा बह रही है और महल से कुछ दूरी पर एक योगी साधनारत है। योगी का चेहरा गौर से देखने पर विक्रम को वह अपना हमशक्ल मालूम पड़ा। यह सब देखते—देखते ही विक्रम की आंखें खुल गईं। वे समझ गए कि उन्होंने कोई अच्छा सपना देखा है।

जगने के बाद भी सपने में दिखी हर चीज उन्हें स्पष्ट याद थी। उन्हें अपने सपने का मतलब समझ में नहीं आया। सारा दृश्य अलौकिक अवश्य था, मगर मन की उपज नहीं माना जा सकता था।

राजा ने बहुत सोचा पर उन्हें याद नहीं आया कि कभी अपने जीवन में उन्होंने ऐसा कोई महल देखा हो चाहे इस तरह के किसी महल की कल्पना की हो।

उन्होंने पण्डितों और ज्योतिषियों से अपने सपने की चर्चा की और उन्हें इसकी व्याख्या करने को कहा। सारे विद्वान और पण्डित इस नतीजे पर पहुंचे कि महाराजाधिराज ने सपने में स्वर्ग का दर्शन किया है तथा सपने का अलौकिक महल स्वर्ग के राजा इन्द्र का महल है।

देवता शायद उन्हें वह महल दिखाकर उन्हें सशरीर स्वर्ग आने का निमन्त्रण दे चुके हैं।

विक्रम यह सुनकर बड़े आश्चर्य में पड़ गए। उन्होंने कभी भी न सोचा था कि उन्हें स्वर्ग आने का इस तरह निमंत्रण मिलेगा। वे पण्डितों से पूछने लगे कि स्वर्ग जाने का कौनसा मार्ग होगा तथा स्वर्ग यात्रा के लिए क्या—क्या आवश्यकता हो सकती है?

काफी मंथन के बाद सारे विद्वानों ने उन्हें वह दिशा बताई जिधर से स्वर्गरोहण हो सकता था तथा उन्हें बतलाया कि कोई पुण्यात्मा जो सतत्‌ भगवान का स्मरण करता है तथा धर्म के पथ से विचलित नहीं होता है वही स्वर्ग जाने का अधिकारी है।

राजा ने कहा कि राजपाट चलाने के लिए जानबूझकर नहीं तो भूल से ही अवश्य कोई धर्म विरुद्ध आचरण उनसे हुआ होगा। इसके अलावा कभी—कभी राज्य की समस्या में इतने उलझ जाते हैं कि उन्हें भगवान का स्मरण नहीं रहता है।

इस पर सभी ने एक स्वर से कहा कि यदि वे इस योग्य नहीं होते तो उन्हें स्वर्ग का दर्शन ही नहीं हुआ होता। सबकी सलाह पर उन्होंने राजपुरोहित को अपने साथ लिया और स्वर्ग की यात्रा पर निकल पड़े।

पण्डितों के कथन अनुसार उन्हें यात्रा के दौरान दो पुण्यकर्म भी करने थे। यह यात्रा लम्बी और कठिन थी। विक्रम ने अपना राजसी भेष त्याग दिया था और अत्यन्त साधारण कपड़ों में यात्रा कर रहे थे।

रास्ते में एक नगर में रात में विश्राम के लिए रुक गए। जहां रुके थे वहां उन्हें एक बूढी औरत रोती हुई मिली। उसके माथे पर चिन्ता की लकीरें उभरी हुई थीं तथा गला रोते—रोते रुंधा जा रहा था।

विक्रम ने द्रवित होकर उससे उसकी चिन्ता का कारण पूछा तो उसने बताया कि उसका एकमात्र जवान बेटा सुबह ही जंगल गया, लेकिन अभी तक नहीं लौटा है। विक्रम ने जानना चाहा कि वह जंगल किस प्रयोजन से गया?

बूढ़ी औरत ने बताया कि उसका बेटा रोज सुबह जंगल से सूखी लकड़ियां लाने जाता है और लकड़ियां लाकर नगर में बेचता है। लकड़ियां बेचकर जो पैसा मिलता है उसी से उनका गुजारा होता है।

विक्रम ने कहा कि अब तक वह नहीं आया है तो आ जाएगा। बूढ़ी औरत ने कहा कि जंगल बहुत घना है और नरभक्षी जानवरों से भरा पड़ा है। उसे शंका है कि कहीं किसी हिंसक जानवर ने उसे अपना ग्रास न बना लिया हो। उसने यह भी बताया कि शाम से वह बहुत सारे लोगों से विनती कर चुकी है कि उसके बेटे का पता लगाए, लेकिन कोई भी जंगल जाने को तैयार नहीं हुआ।

उसने अपनी विवशता दिखाई कि वह बूढ़ी और निर्बल है, इसलिए खुद जाकर पता नहीं कर सकती है। विक्रम ने उसे आश्वासन दिया कि वे जाकर उसे ढूंढेंगे।

उन्होंने विश्राम का विचार त्याग दिया और तुरन्त जंगल की ओर चल पड़े। थोड़ी देर बाद उन्होंने जंगल में प्रवेश किया तो देखा कि जंगल सचमुच बहुत घना है। वे चौकन्ने होकर थोड़ी दूर आए तो उन्होंने देखा कि एक नौजवान कुल्हाड़ी लेकर पेड़ पर दुबका बैठा है और नीचे एक शेर घात लगाए बैठा है।

विक्रम ने कोई उपाय ढूंढकर शेर को वहां से भगा दिया और उस युवक को लेकर नगर लौट आए। बुढ़िया ने बेटे को देखकर विलाप करना छोड़ दिया और विक्रम को ढेरों आशीर्वाद दिए। इस तरह बुढ़िया को चिन्तामुक्त करके उन्होंने एक पुण्य का काम किया।

रातभर विश्राम करने के बाद उन्होंने सुबह फिर से अपनी यात्रा शुरू कर दी। चलते—चलते वे समुद्र तट पर आए तो उन्होंने एक स्त्री को रोते हुए देखा।

स्त्री को रोते देख वे उसके पास आए तो देखा कि एक मालवाहक जहाज खड़ा है और कुछ लोग उस जहाज पर सामान लाद रहे हैं।

उन्होंने उस स्त्री से उसके रोने का कारण पूछा तो उसने बताया कि बस तीन महीने पहले उसका विवाह हुआ और वह गर्भवती है। उसका पति इसी जहाज पर कर्मचारी है तथा जहाज का माल लेकर दूर देश जा रहा है।

विक्रम ने जब उसे कहा कि इसमें परेशानी की कोई बात नहीं है और कुछ ही समय बाद उसका पति लौट आएगा तो उसने अपनी चिन्ता का कारण कुछ और ही बताया। उसने बताया कि उसने कल सपने में देखा कि एक मालवाहक जहाज समुद्र के बीच में ही और भयानक तूफान में घिर जाता है।

तूफान इतना तेज है कि जहाज के टुकड़े—टुकड़े हो जाते हैं और उस पर सारे सवार समुद्र में डूब जाते हैं। वह सोच रही है कि अगर वह सपना सच निकला तो उसका क्या होगा? खुद तो किसी प्रकार जी भी लेगी मगर उसके होने वाले बच्चे की परवरिश कैसे होगी?

विक्रम को उस पर तरस आया और उन्होंने समुद्र देवता द्वारा प्रदत्त शंख उसे देते हुए कहा— श्यह अपने पति को दे दो। जब भी तूफान या अन्य कोई प्राकृतिक विपदा आए तो इसे फूंक देगा। उसके फूंक मारते ही सारी विपत्ति हल हो जाएगी।'

स्त्री को उन पर विश्वास नहीं हुआ और वह शंकालु दृष्टि से उन्हें देखने लगी। विक्रम ने उसके चेहरे का भाव पढ़कर शंख में फूंक मारी। शंख की ध्वनि हुई और समुद्र का पानी कोसों दूर चला गया।

उस पानी के साथ वह जहाज और उस पर सवार सारे कर्मचारी भी कोसों दूर चले गए। अब दूर—दूर तक सिर्फ समुद्र तट फैला न आता था। वह स्त्री और कुछ अन्य लोग जो वहां थे हैरान रह गए। उनकी आंखें फटी रह गईं।

जब विक्रम ने दुबारा शंख फूंका तो समुद्र का पानी फिर से वहां हिलोरे मारने लगा। समुद्र के पानी के साथ वह जहाज भी कर्मचारियों सहित वापस आ गया। अब युवती को उस शंख की चमत्कारिक शक्ति के प्रति कोई शंका नहीं रही। उसने विक्रम से वह शंख लेकर अपनी कृतज्ञता जाहिर की।

विक्रम उस स्त्री को शंख देकर अपनी यात्रा पर निकल पड़े। कुछ दूर चलने के बाद उन्हें एक स्थान पर रुकना पड़ा। आकाश में काली घटाएं छा गईं थीं। बिजलियां चमकने लगी थीं। बादल के गर्जन से समूचा वातावरण हिलता प्रतीत होता था।

उन बिजलियों की चमक के बीच विक्रम को एक सफेद घोड़ा जमीन की ओर उतरता दिखा। विक्रम ने ध्यान से उसकी ओर देखा, तभी आकाशवाणी हुई—

महाराजा विक्रमादित्य तुम्हारे जैसा पुण्यात्मा शायद ही कोई हो। तुमने रास्ते में दो पुण्य किए।

एक बूढ़ी औरत को चिन्तामुक्त किया और एक स्त्री को सिर्फ शंका दूर करने के लिए वह अनमोल शंख दे दिया जो समुद्र देव ने तुम्हें तुम्हारी साधना से प्रसन्न होकर उपहार दिया था। तुम्हें लेने के लिए एक घोड़ा भेजा जा रहा है जो तुम्हें इन्द्र के महल तक पहुंचा देगा।'

विक्रम ने कहा— श्मैं अकेला नहीं हूं। मेरे साथ राजपुरोहित भी हैं। उनके लिए भी कोई व्यवस्था हो।'

इतना सुनना था कि राजपुरोहित ने कहा— श्राजन, मुझे क्षमा करें। सशरीर स्वर्ग जाने से मैं डरता हूं। आपका सान्निध्य रहा तो मरने पर स्वर्ग जाऊंगा और अपने को धन्य समझूंगा।'

घोड़ा उनके पास उतरा तो सवारी के लिए सब कुछ से सज्जित था। राजपुरोहित से विदा लेकर विक्रम उस पर बैठ गए। एड़ लगाते ही घोड़ा तेजी से भागा और घने जंगल में पहुंच गया।

जंगल में पहुंचकर उसने धरती छोड़ दी और हवा में दौड़ने लगा। यह घुड़सवारी अप्राकृतिक थी, इसलिए काफी कठिन थी, मगर विक्रम पूरी दृढ़ता से उस पर बैठे रहे। हवा में कुछ देर उड़ने के बाद वह घोड़ा आकाश में दौड़ने लगा। दौड़ते—दौड़ते वह इन्द्रपुरी आया।

इन्द्रपुरी पहुंचते ही विक्रम को वही सपनों वाला सोने का महल दिख पड़ा। जैसा उन्होंने सपने में देखा था, ठीक वैसा ही सब कुछ था। चलते—चलते वे इन्द्रसभा पहुंचे। इन्द्रसभा में सारे देवता विराजमान थे। अप्सराएं नृत्य कर रही थीं। इन्द्रदेव पत्नी के साथ अपने सिंहासन पर विराजमान थे।

देवताओं की सभा में विक्रम को देखकर खलबली मच गई। वे सभी एक मानव के सशरीर स्वर्ग आने पर आश्चर्यचकित थे। विक्रम को देखकर इन्द्र खुद उनकी अगवानी करने आ गए और उन्हें अपने आसन पर बैठने को कहा।

विक्रम ने यह कहते हुए मना कर दिया कि इस आसन के योग्य वे नहीं हैं। इन्द्र उनकी नम्रता और सरलता से प्रसन्न हो गए। उन्होंने कहा कि विक्रम ने सपने में अवश्य एक योगी को इस महल में देखा होगा।

उनका वह हमशक्ल और कोई नहीं बल्कि वे खुद हैं। उन्होंने इतना पुण्य अर्जित कर लिया है कि इन्द्र के महल में उन्हें स्थाई स्थान मिल चुका है। इन्द्र ने उन्हें एक मुकुट उपहार में दिया।

इन्द्रलोक में कुछ दिन बिताकर मुकुट लेकर विक्रम अपने राज्य वापस आ गए।