Part - 2 - Sinhasan Battisi in Hindi Children Stories by MB (Official) books and stories PDF | भाग - २ - सिंहासन बत्तीसी

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भाग - २ - सिंहासन बत्तीसी

सिंहासन बत्तीसी

कौन थीं 32 पुतलियां

भाग — 02


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सिंहासन बत्तीसी

पांचवीं पुतली लीलावती की कहानी

छठी पुतली रविभामा की कहानी

सातवीं पुतली कौमुदी की कथा

आठवीं पुतली पुष्पवती की कथा

कौन थीं 32 पुतलियां

प्राचीन समय की बात है। उज्जैन में राजा भोज राज्य करते थे। वह बड़े दानी और धर्मात्मा थे। उनके बारे में प्रसिद्ध था कि वह ऐसा न्याय करते कि दूध और पानी अलग—अलग हो जाए। नगरी में एक किसान का एक खेत था। जिसमें उसने कई साग—सब्जी लगा रखी थी।

एक बार की बात है कि खेत में बड़ी अच्छी फसल हुई। पूरी जमीन पर तो खूब तरकारियां आईं, लेकिन खेत के बीचों—बीच थोड़ी—सी जमीन खाली रह गई। हालांकि किसान ने उस जमीन पर भी बीज डाले थे। लेकिन वहां कुछ नहीं उगा।

किसान ने वहां खेत की रखवाली के लिए एक मचान बना लिया। जब भी किसान मचान पर चढ़ता अपने आप चिल्लाने लगता— श्कोई है? राजा भोज को पकड़ लाओ और सजा दो। मेरा राज्य उससे ले लो। जाओ, जल्दी जाओ।'

सारी नगरी में यह बात आग की तरह फैल गई और राजा भोज के कानों में पहुंची। राजा ने कहा, श्मुझे उस खेत पर ले चलो। मैं सारी बातें अपनी आंखों से देखना और कानों से सुनना चाहता हूं।'

राजा भोज जब उस जगह पहुंचे तो उन्होंने भी वही देखा कि किसान मचान पर खड़ा है और कह रहा है— श्राजा भोज को फौरन पकड़ लाओ और मेरा राज्य उससे ले लो।

यह सुनकर राजा चिंतित हो गए। चुपचाप महल में लौटा आए। उन्हें रातभर नींद नहीं आई। सवेरा होते ही उन्होंने राज्य के ज्योतिषियों और जानकार पंडितों को इकट्ठा किया। उन्होंने अ पनी गोपनीय विद्या से पता लगाया कि उस मचान के नीचे कुछ छिपा है। राजा ने उसी समय आज्ञा दी कि उस जगह को खुदवाया जाए।

खोदते—खोदते जब काफी मिट्टी निकल गई तो अचानक एक सिंहासन प्रकट हुआ। सिंहासन के चारों ओर आठ—आठ पुतलियां यानी कुल बत्तीस पुतलियां खड़ी थीं। सबके अचरज का ठिकाना न रहा। राजा को खबर मिली तो सिंहासन को बाहर निकालने को कहा, लेकिन कई मजदूरों के जोर लगाने पर भी वह सिंहासन टस—से मस न हुआ।

तब एक पंडित ने कहा कि यह सिंहासन देवताओं का बनाया हुआ है। अपनी जगह से तब तक नहीं हटेगा जब तक कि राजा स्वयं इसकी पूजा—अर्चना न करें।

राजा ने ऐसा ही किया। पूजा—अर्चना करते ही सिहांसन ऐसे ऊपर उठ आया, मानो फूलों का हो। राजा बड़े खुश हुए।

सिहांसन में कई तरह के रत्न जड़े थे जिनकी चमक अनूठी थी। सिंहासन के चारों ओर 32 पुतलियां बनी थी। उनके हाथ में कमल का एक—एक फूल था। राजा ने हुक्म दिया कि खजाने से रुपया लेकर सिहांसन दुरुस्त करवाएं।

सिंहासन सुंदर होने में पांच महीने लगे। अब सिंहासन दमक उठा था। जो भी देखता, देखता ही रह जाता। पुतलियां ऐसी लगती मानो अभी बोल उठेंगीं।

राजा ने पंडितों को बुलाया और कहा, श्आप लोग कोई अच्छा मुहूर्त निकालें। उस दिन मैं इस सिंहासन पर बैठूंगा।' दिन तय किया गया। दूर—दूर तक लोगों को निमंत्रण भेजे गए। तरह—तरह के बाजे बजने लगे, महल में खुशियां मनाई जाने लगी।

पूजा के बाद जैसे ही राजा ने अपना दाहिना पैर बढ़ाकर सिंहासन पर रखना चाहा कि सारी पुतलियां खिलखिला कर हंस पड़ी। लोगों को बड़ा अचंभा हुआ कि यह बेजान पुतलियां कैसे हंस पड़ी।

राजा ने अपना पैर खींच लिया और पुतलियों से पूछा , श्ओ सुंदर पुतलियों! सच—सच बताओं कि तुम क्यों हंसी?'

पहली पुतली का नाम था। रत्नमंजरी। राजा की बात सुनकर वह बोली, श्राजन! आप बड़े तेजस्वी हैं, धनी हैं, बलवान हैं, लेकिन इन सब बातों का आपको घमंड भी है। जिस राजा का यह सिहांसन है, वह दानी, वीर और धनी होते हुए भी विनम्र थे। परम दयालु थे।

राजा बड़े नाराज हुए।

पुतली ने समझाया, महाराज, यह सिंहासन परम प्रतापी और ज्ञानी राजा विक्रमादित्य का है।

राजा बोले, मैं कैसे मानूं कि राजा विक्रमादित्य मुझसे ज्यादा गुणी और पराक्रमी थे?

पुतली ने कहा, श्ठीक है, मैं तुम्हें राजा विक्रमादित्य की एक कहानी सुनाती हूं।' सिंहासन बत्तीसी की पहली पुतली रत्नमंजरी ने सुनाई एक कहानी —

अंबावती में एक राजा राज्य करता था। वह बड़ा दानी था। उसी राज्य में धर्मसेन नाम का एक और बड़ा राजा हुआ। उसकी चार रानियां थी। एक थी ब्राह्मण, दूसरी क्षत्रिय, तीसरी वैश्य और चौथी शूद्र। ब्राह्मणी से एक पुत्र हुआ, जिसका नाम ब्राह्मणीत रखा गया। क्षत्राणी से तीन बेटे हुए। एक का नाम शंख, दूसरे का नाम विक्रमादित्य और तीसरे का भर्तृहरि रखा गया। वैश्य से एक लड़का हुआ, जिसका नाम चंद्र रखा गया। शूद्राणी से धन्वन्तारि हुए।

पांचवीं पुतली लीलावती की कहानी

पांचवे दिन राजा भोज सिंहासन पर बैठने की तैयारी कर ही रहे थे कि पांचवीं पुतली लीलावती ने उन्हें रोक दिया। लीलावती बोली, राजन, क्या आप विक्रमादित्य की तरह दानवीर और शूरवीर हैं? अगर हां, तब ही इस सिंहासन पर बैठने के अधिकारी होंगे। मैं आपको कथा सुनाती हूं परम दानवीर विक्रमादित्य की।

एक दिन विक्रमादित्य दरबार में राजकाज निबटा रहे थे तभी एक विद्वान ब्राह्मण दरबार में आकर उनसे मिला। उसने कहा कि अगर वे तुला लग्न में अपने लिए कोई महल बनवाएं तो राज्य की जनता खुशहाल हो जाएगी और उनकी भी कीर्ति चारों तरफ फैल जाएगी।

विक्रम को उसकी बात जंच गई और उन्होंने एक बड़े ही भव्य महल का निर्माण करवाया। कारीगरों ने उसे राजा के निर्देश पर सोने—चांदी, हीरे—जवाहरात और मणि—मोतियों से पूरी तरह सजा दिया।

महल जब बनकर तैयार हुआ तो उसकी भव्यता देखते बनती थी। विक्रम अपने सगे—सम्बन्धियों तथा नौकर—चाकरों के साथ उसे देखने गए। उनके साथ वह विद्वान ब्राह्मण भी था। विक्रम मंत्रमुग्ध हुए साथ ही वह ब्राह्मण मुंह खोले देखता रह गया। बिना सोचे उसके मुंह से निकला—श्काश, इस महल का मालिक मैं होता!श् राजा विक्रमादित्य ने यह सुनते ही झट वह भव्य महल उसे दान में दे दिया।

ब्राह्मण के तो मानो पांव ही जमीन पर नहीं पड़ रहे थे। वह भागता हुआ अपनी पत्नी को यह समाचार सुनाने पहुंचा। इधर ब्राह्मणी उसे खाली हाथ आते देख कुछ बोलती उससे पहले ही उसने उसे हीरे—जवाहरात और मणि—मुक्ताओं से जड़े हुए महल को दान में प्राप्त करने की बात बता दी।

ब्राह्मण की पत्नी की तो खुशी की सीमा न रही। उसे एकबारगी लगा मानो उसका पति पागल हो गया और यों ही अनाप—शनाप बक रहा हों, मगर उसके बार—बार कहने पर वह उसके साथ महल देखने के लिए चलने को तैयार हो गई। महल की शोभा देखकर उसकी आंखे खुली रह गईं।

महल का कोना—कोना देखते—देखते कब शाम हो गई उन्हें पता ही नहीं चला। थके—मांदे वे एक शयन—कक्ष में जाकर निढाल हो गए। अर्द्‌ध रात्रि में उनकी आंखें किसी आवाज से खुल गई।

सारे महल में महक फैली थी और सारा महल प्रकाशमान था। उन्होंने ध्यान से सुना तो लक्ष्मी बोल रही थी। वह कह रही थी कि उनके भाग्य से वह यहां आई है और उनकी कोई भी इच्छा पूरी करने को तैयार है।

ब्राह्मण दम्पति का डर के मारे बुरा हाल हो गया। ब्राह्मणी तो बेहोश ही हो गई। लक्ष्मी ने तीन बार अपनी बात दुहराई। लेकिन ब्राह्मण ने कुछ नहीं मांगा तो क्रुद्ध होकर चली गई। उसके जाते ही प्रकाश तथा महक— दोनों गायब।

काफी देर बाद ब्राह्मणी को होश आया तो उसने कहा— श्यह महल जरूर भुतहा है, इसलिए दान में मिला। इससे अच्छा तो हमारा टूटा—फूटा घर है जहां चौन की नींद सो सकते हैं।' ब्राह्मण को पत्नी की बात जंच गई।

सहमे—सहमे बाकी रात काटकर तड़के ही उन्होंने अपना सामान समेटा और पुरानी कुटिया को लौट आए। ब्राह्मण अपने घर से सीधा राजभवन आया और विक्रमादित्य से अनुरोध करने लगा कि वे अपना महल वापस ले लें। पर दान दी गई वस्तु को वे कैसे ग्रहण कर लेते।

काफी सोचने के बाद उन्होंने महल का उचित मूल्य लगाकर उसे खरीद लिया। ब्राह्मण खुशी—खुशी अपने घर लौट गया।

ब्राह्मण से महल खरीदने के बाद राजा विक्रमादित्य उसमें आकर रहने लगे। वहीं अब दरबार भी लगता था। एक दिन वे सोए हुए थे तो लक्ष्मी फिर आई।

जब लक्ष्मी ने उनसे कुछ भी मांगने को कहा तो वे बोले— श्आपकी कृपा से मेरे पास सब कुछ है। फिर भी आप अगर देना ही चाहती हैं तो मेरे पूरे राज्य में धन की वर्षा कर दें और मेरी प्रजा को किसी चीज की कमी न रहने दें।'

सुबह उठकर उन्हें पता चला कि सारे राज्य में धन वर्षा हुई है और लोग वर्षा वाला धन राजा को सौंप देना चाहते हैं। विक्रमादित्य ने आदेश किया कि कोई भी किसी अन्य के हिस्से का धन नहीं समेटेगा और अपने हिस्से का धन अपनी सम्पत्ति मानेगा। जनता जय—जयकार कर उठी।

इतना कहते ही पुतली लीलावती बोली, बोलो राजन, क्या इस कथा के बाद तुम इस सिंहासन के योग्य अपने आपको पाते हो? राजा भोज निराश हो गए और अपने कक्ष में लौट गए। अगले दिन राजा को रोका छठी पुतली रविभामा ने।

पढ़ें अगले अंक में।

छठी पुतली रविभामा की कहानी

राजा भोज किसी भी सूरत में सिंहासन पर बैठने का मोह छोड़ नहीं पा रहे थे। छठे दिन फिर वे राजसी वैभव के साथ तैयार थे बैठने के लिए। तभी छठी पुतली रविभामा ने उन्हें रोक दिया— सुनो राजन यह सिंहासन परम प्रतापी राजा विक्रमादित्य का है। क्या तुम उनकी दानवीरता और शौर्य का मुकाबला कर सकते हो? आओ, मैं तुम्हें उनकी महानता की कथा सुनाती हूं—

एक दिन विक्रमादित्य क्षिप्रा नदी के तट पर बने हुए अपने महल से प्राकृतिक सौन्दर्य को निहार रहे थे। बरसात का महीना था। नदी उफन रही थी और अत्यंत तेजी से बह रही थी। इतने में उनकी नजर एक पुरुष, एक स्त्री और एक बच्चे पर पड़ी। उनके वस्त्र तार—तार थे और चेहरे पीले। राजा देखते ही समझ गए कि वे बहुत ही निर्धन हैं।

सहसा वे तीनों उस नदी में छलांग लगा गए। अगले ही पल प्राणों की रक्षा के लिए चिल्लाने लगे। विक्रम ने बिना एक पल गंवाए नदी में उनकी रक्षा के लिए छलांग लगा दी। अकेले तीनों को बचाना संभव नहीं था, इसलिए उन्होंने दोनों बेतालों का स्मरण किया। दोनों बेतालों ने स्त्री और बच्चे को तथा विक्रम ने उस पुरुष को डूबने से बचा लिया।

तट पर पहुं चकर उन्होंने जानना चाहा वे आत्महत्या क्यों कर रहे थे। पुरुष ने बताया कि वह उन्हीं के राज्य का एक अत्यंत निर्धन ब्राह्मण है जो अपनी दरिद्रता से तंग आकर जान देना चाहता है। वह अपनी बीवी तथा बच्चे को भूख से मरता हुआ नहीं देख सकता और आत्महत्या के सिवा उन्हें अपनी समस्या का कोई अंत नहीं नजर आता।

इस राज्य के लोग इतने आत्मनिर्भर है कि सारा काम खुद ही करते हैं, इसलिए उसे कोई रोजगार भी नहीं देता। राजा विक्रम ने ब्राह्मण से कहा कि वह उनके अतिथिशाला में जब तक चाहे अपने परिवार के साथ रह सकता है, उसकी हर जरुरत पूरी की जाएगी।

ब्राह्मण ने कहा कि रहने में तो कोई हर्ज नहीं है, लेकिन उसे डर है कि कुछ समय बाद आतिथ्य में कमी आ जाएगी और उसे अपमानित होकर जाना पड़ेगा।

राजा विक्रम ने उसे विश्वास दिलाया कि ऐसी कोई बात नहीं होगी और उसे भगवान समझकर उसके साथ हमेशा अच्छा बर्ताव किया जाएगा। विक्रम के इस तरह विश्वास दिलाने पर ब्राह्मण परिवार अतिथिशाला में आकर रहने लगा।

उसकी देख—रेख के लिए नौकर—चाकर नियुक्त कर दिए गए। वे मौज से रहते, अपनी मर्जी से खाते—पीते और आरामदेह पलंग पर सोते। किसी चीज की उन्हें कमी नहीं थी। लेकिन वे सफाई पर बिल्कुल ध्यान नहीं देते। जो कपड़े पहनते थे उन्हें कई दिनों तक नहीं बदलते। जहां सोते वहीं थूकते और मल—मूत्र त्याग भी कर देते। चारों तरफ गंदगी—ही गंदगी फैल गई।

दुर्गन्ध के मारे उनका स्थान एक पल भी ठहरने लायक नहीं रहा। नौकर—चाकर कुछ दिनों तक तो धीरज से सब कुछ सहते रहे लेकिन कब तक ऐसा चलता? राजा के कोप की भी उन्होंने पहवाह नहीं की और भाग खड़े हुए।

राजा ने कई अन्य नौकर भेजे, पर सब के सब एक ही जैसे निकले। सबके लिए यह काम असंभव साबित हुआ। तब विक्रम ने खुद ही उनकी सेवा का बीड़ा उठाया। उठते—बैठते, सोते—जगते वे ब्राह्मण परिवार की हर इच्छा पूरी करते। दुर्गन्ध के मारे माथा फटा जाता, फिर भी कभी अपशब्द का व्यवहार नहीं करते। उनके कहने पर विक्रम उनके पांव भी दबाते।

ब्राह्मण परिवार ने हर सम्भव प्रयत्न किया कि विक्रम उनके आतित्थ से तंग आकर अतिथि—सत्कार भूल जाएं और अभद्रता से पेश आएं, मगर उनकी कोशिश असफल रही। बड़े सब्र से विक्रम उनकी सेवा में लगे रहे। कभी उन्हें शिकायत का कोई मौका नहीं दिया।

एक दिन ब्राह्मण ने जैसे उनकी परीक्षा लेने की ठान ली। उसने राजा को कहा कि वे उसके शरीर पर लगी विष्ठा साफ करें तथा उसे अच्छी तरह नहला—धोकर साफ वस्त्र पहनाएं।

विक्रम तुरन्त उसकी आज्ञा मानकर अपने हाथों से विष्ठा साफ करने को बढ़े। अचानक चमत्कार हुआ। ब्राह्मण के सारे गंदे वस्त्र गायब हो गए। उसके शरीर पर देवताओं द्वारा पहने जाने वाले वस्त्र आ गए। उसका मुखमण्डल तेज से प्रदीप्त हो गया। सारे शरीर से सुगन्ध निकलने लगी।

विक्रम आश्चर्य चकित थे। तभी वह ब्राह्मण बोला कि दरअसल वह वरुण है। वरुण देव ने उनकी परीक्षा लेने के लिए यह रूप धरा था। विक्रम के अतिथि—सत्कार की प्रशंसा सुनकर वे सपरिवार यहां आए थे।

जैसा उन्होंने सुना था वैसा ही उन्होंने पाया, इसलिए विक्रम को उन्होंने वरदान दिया कि उसके राज्य में कभी भी अनावृष्टि नहीं होगी तथा वहां की जमीन से तीन—तीन फसलें निकलेंगी। विक्रम को वरदान देकर वे सपरिवार अंतर्ध्‌यान हो गए।

इतना कहकर रविभामा बोली, बताओ राजन क्या तुम में इतना धैर्य है कि इस तरह से किसी का आतिथ्य सत्कार कर सको? राजा भोज असमंजस में पड़ गए और बिना कुछ कहे अपने कक्ष में लौट गए। अगले दिन सातवीं पुतली कौमुदी ने रोका राजा भोज का रास्ता। पढ़ें अगले अंक में।

सातवीं पुतली कौमुदी की कथा

सातवें दिन जैसे ही राजा भोज दरबार में पहुंचे और सिंहासन की तरफ बढ़े सातवीं पुतली कौमुदी जाग्रत हो गई और राजा से बोली, श्हे राजन, इस सिंहासन पर बैठने की जिद त्याग दो। इस सिंहासन पर वही बैठ सकता है जो राजा विक्रमादित्य की तरह गुणवान हो। अगर तुम में उनकी तरह एक गुण भी हो तो अवश्य इस सिंहासन पर बैठना।

सुनो मैं तुम्हें परम प्रतापी वीर विक्रमादित्य की कथा सुनाती हूं—

एक दिन राजा विक्रमादित्य अपने शयन—कक्ष में सो रहे थे। अचानक उनकी नींद करुण—क्रंदन सुनकर टूट गई। उन्होंने ध्यान लगाकर सुना तो रोने की आवाज नदी की तरफ से आ रही थी और कोई स्त्री रोए जा रही थी। विक्रम की समझ में नहीं आया कि कौन—सा दुख उनके राज्य में किसी स्त्री को इतनी रात गए बिलख—बिलख कर रोने को विवश कर रहा है। उन्होंने तुरंत राजपरिधान पहना और कमर में तलवार लटका कर आवाज की दिशा में चल पड़े।

क्षिप्रा के तट पर आकर उन्हें पता चला कि वह आवाज नदी के दूसरे किनारे पर बसे जंगल से आ रही है। उन्होंने तुरंत नदी में छलांग लगा दी तथा तैरकर दूसरे किनारे पर पहुंचे। फिर चलते—चलते उस जगह पहुंचे जहां से रोने की आवाज आ रही थी। उन्होंने देखा कि झाड़ियों में बैठी एक स्त्री रो रही है।

उन्होंने उस स्त्री से रोने का कारण पूछा। स्त्री ने कहा कि वह कई लोगों को अपनी व्यथा सुना चुकी है, मगर कोई फायदा नहीं हुआ। राजा ने उसे विश्वास दिलाया कि वे उसकी मदद करने का हर संभव प्रयत्न करेंगे।

तब स्त्री ने बताया कि वह एक चोर की पत्नी है और पकड़े जाने पर नगर कोतवाल ने उसे वृक्ष पर उलटा टंगवा दिया है। राजा ने पूछा क्या वह इस फैसले से खुश नहीं है। इस पर औरत ने कहा कि उसे फैसले पर कोई आपत्ति नहीं है, लेकिन वह अपने पति को भूखा—प्यासा लटकता नहीं देख सकती। चूंकि न्याय में इस बात की चर्चा नहीं कि वह भूखा—प्यासा रहे, इसलिए वह उसे भोजन तथा पानी देना चाहती है।

विक्रम ने पूछा कि अब तक उसने ऐसा किया क्यों नहीं। इस पर औरत बोली कि उसका पति इतनी ऊंचाई पर टंगा हुआ है कि वह बगैर किसी की सहायता के उस तक नहीं पहुंच सकती और राजा के डर से कोई भी दण्डित व्यक्ति की मदद को तैयार नहीं होता। तब विक्रम ने कहा कि वह उनके साथ चल सकती है।

दरअसल वह औरत पिशाचिनी थी। वह लटकने वाला व्यक्ति उसका पति नहीं था। वह उसे राजा के कन्धे पर चढ़कर खाना चाहती थी। जब विक्रम उस पेड़ के पास आए तो वह उस व्यक्ति को चट कर गई। तृप्त होकर विक्रम को उसने मनचाही चीज मांगने को कहा।

विक्रम ने कहा वह अन्नपूर्णा का पात्र प्रदान करें जिससे उनकी प्रजा कभी भूखी नहीं रहे। इस पर वह पिशाचिनी बोली कि अन्नपूर्णा पात्र देना उसके बस में नहीं, लेकिन उसकी बहन प्रदान कर सकती है। विक्रम उसके साथ चलकर नदी किनारे आए जहां एक झोपड़ी थी।

पिशाचिनी के आवाज देने पर उसकी बहन बाहर निकली। बहन को उसने राजा का परिचय दिया और कहा कि विक्रमादित्य अन्नपूर्णा पात्र के सच्चे अधिकारी है, अतरू वह उन्हें अन्नपूर्णा प्रदान करें। उसकी बहन ने सहर्ष अन्नपूर्णा पात्र उन्हें दे दिया। अन्नपूर्णा लेकर विक्रम अपने महल की ओर रवाना हुए। तब तक भोर हो चुकी थी। रास्ते में एक ब्राह्मण मिला। उसने राजा से भिक्षा में भोजन मांगा।

विक्रम ने अन्नपूर्णा पात्र से कहा कि ब्राह्मण को पेट भर भोजन कराए। सचमुच तरह—तरह के व्यंजन ब्राह्मण कि सामने आ गए। जब ब्राह्मण ने पेट भर खाना खा लिया तो राजा ने उसे दक्षिणा देना चाहा।

ब्राह्मण अपनी आंखों से अन्नपूर्णा पात्र का चमत्कार देख चुका था, इसलिए उसने कहा— श्अगर आप दक्षिणा देना ही चाहते है तो मुझे दक्षिणास्वरूप यह पात्र दे दें, ताकि मुझे किसी के सामने भोजन के लिए हाथ नहीं फैलाना पड़े।'

विक्रम ने बेहिचक उसी क्षण उसे वह पात्र दे दिया। ब्राह्मण राजा को आशीर्वाद देकर चला गया और वे अपने महल लौट गए।

कौमुदी बोली, बताओ राजन, क्या तुम ऐसा कर पाते अगर राजा विक्रम की जगह होते?

इतना कह कर कौमुदी पुनरू सिंहासन में जाकर जड़वत हो गई। राजा भोज विचारों में खो गए और सिंहासन पर बैठने का अन्य उपाय खोजने लगे। अगले दिन आठवीं पुतली पुष्पवती ने रोका राजा भोज का रास्ता। पढ़ें अगले अंक में।

आठवीं पुतली पुष्पवती की कथा

आठवें दिन राजा भोज पुनरू राजदरबार में सिंहासन पर बैठने के लिए पहुंचे। तभी 32 पुतलियों में से एक आठवीं पुतली पुष्पवती जाग्रत हो गई और बोली, श्ठहरो राजन, अभी तुम इस सिंहासन पर बैठने के योग्य नहीं हुए हो।

अगर तुम मानते हो कि तुम भी राजा विक्रमादित्य की तरह महान हो तो अवश्य बैठ सकते हो पर पहले अपना आत्ममूल्यांकन करो। सुनो, मैं तुम्हें राजा विक्रम की कथा सुनाती हूं—

एक दिन राजा विक्रमादित्य के दरबार में एक बढ़ई आया। उसने राजा को काठ का एक घोड़ा दिखाया और कहा कि यह न कुछ खाता है, न पीता है और जहां चाहो वहां ले जाता है। राजा ने उसी समय दीवान को बुलाकर एक लाख रुपया उसे देने को कहा।,

दीवान बोला,श् श्यह तो काठ का है और इतने दाम का नहीं है।'

राजा ने गुस्से से कहा, श्दो लाख रुपए दो।'

दीवान चुप रह गया। रुपए दे दिए। रुपए लेकर बढ़ई चलता बना, पर चलते चलते कह गया कि इस घोड़े में ऐड़ लगाना कोड़ा मत मारना।

एक दिन राजा ने उस पर सवारी की। पर वह बढ़ई की बात भूल गए और घोड़े पर कोड़ा जमा दिया। कोड़ा लगना था कि घोड़ा हवा से बातें करने लगा और समुद्र पार ले जाकर उसे जंगल में एक पेड़ पर गिरा दिया। लुढ़कते हुए राजा नीचे गिरे।

संभलने पर उठे और चलते—चलते एक ऐसे बीहड़ वन में पहुंचे कि निकलना मुश्किल हो गया। जैसे—तैसे वह वहां से निकले। दस दिन में सात कोस चलकर वह ऐसे घने जंगल में पहुंचे, जहां हाथ तक नहीं सूझता था। चारों तरफ शेर—चीते दहाड़ते थे। राजा घबराए। रास्ता नहीं सूझता था।

आखिर पंद्रह दिन भटकने के बाद एक ऐसी जगह पहुंचे जहां एक मकान था। उसके बाहर एक ऊंचा पेड़ और दो कुएं थे। पेड़ पर एक बंदरियां थी। वह कभी नीचे आती तो कभी ऊपर चढ़ती।

राजा पेड़ पर चढ़ गए और छिपकर सब हाल देखने लगे। दोपहर होने पर एक यती वहां आया। उसने बाई तरफ के कुएं से एक चुल्लू पानी लिया और उस बंदरिया पर छिड़क दिया। वह तुरन्त एक बड़ी ही सुन्दर स्त्री बन गई। यती पहरभर उसके साथ रहा, फिर दूसरे कुएं से पानी खींचकर उस पर डाला कि वह फिर बंदरिया बन गई। वह पेड़ पर जा चढ़ी और यती गुफा में चला गया।

राजा को यह देखकर बड़ा अचंभा हुआ। यती के जाने पर उसने भी ऐसा ही किया। पानी पड़ते ही बंदरियां सुन्दर स्त्री बन गई। राजा ने जब प्रेम से उसकी ओर देखा तो वह बोली, श्हमारी तरफ ऐसे मत देखो। हम तपस्वी है। शाप दे देंगे तो तुम भस्म हो जाओगे।'

राजा बोला, श् मेरा नाम विक्रमादित्य है। मेरा कोई कुछ नहीं बिगाड़ सकता है।'

राजा का नाम सुनते वह उनके चरणों में गिर पड़ी बोली, श्हे महाराज! तुम अभी यहां से चले जाओ, नहीं तो यती आएगा और हम दोनों को शाप देकर भस्म कर देगा।'

राजा ने पूछा, श्तुम कौन हो और इस यती के हाथ कैसे पड़ीं?'

वह बोली, श्मेरे पिता कामदेव और मां पुष्पावती हैं। जब मैं बारह बरस की हुई तो मेरे मां—बाप ने मुझे एक काम करने को कहा। मैंने उसे नहीं किया। इसपर उन्होंने गुस्सा होकर मुझे इस यती को दे डाला। वह मुझे यहां ले आया। और बंदरिया बनाकर रखा है। सच है, भाग्य के लिखे को कोई नहीं मिटा सकता।'

राजा ने कहा, श्मैं तुम्हें साथ ले चलूंगा।' इतना कहकर उसने दूसरे कुएं का, पानी छिड़ककर उसे फिर बंदरिया बना दिया।

अगले दिन वह यती आया। जब उसने बंदरिया को स्त्री बना लिया तो वह बोली, श्मुझे कुछ प्रसाद दो।'

यती ने एक कमल का फूल दिया और कहा, श्यह कभी कुम्हलाएगा नहीं और रोज एक लाल रत्न देगा। इसे संभालकर रखना।'

यती के जाने पर राजा ने बंदरिया को स्त्री बना लिया। फिर अपने वीर बेतालों को बुलाया। वे आए और तख्त पर बिठाकर उन दोनों को ले चले। रास्ते में यती का दिया लाल रत्न उगलने वाला फूल राजा ने एक सुंदर खेलते हुए बालक को दे दिया। बालक फूल लेकर घर चला गया।

राजा स्त्री को साथ लेकर अपने महल में आ गए।

अगले दिन कमल में एक लाल रत्न निकला। इस तरह हर दिन निकलते—निकलते बहुत से लाल रत्न इकट्ठे हो गए। एक दिन उस बालक का पिता उन्हें बाजार में बेचने गया। कोतवाल ने उसे पकड़ लिया। राजा के पास ले गया।

लड़के के बाप ने राजा को सब हाल ठीक—ठीक कह सुनाया और बताया कि उसे नहीं पता यह फूल बालक के पास कहां से आया लेकिन हर दिन इसमें से रत्न निकलता है। सुनकर राजा को सब याद आ गया। कोतवाल को उन्होंने हुक्म दिया कि वह उसे बेकसूर आदमी को एक लाख रुपया दें।

इ़तना कहकर पुतली पुष्पवती बोली, श्हे राजन्! जो विक्रमादित्य जैसा दानी और न्यायी हो, वही इस सिंहासन पर बैठ सकता है।'

राजा झुंझलाकर चुप रह गया। अगले दिन वह सिंहासन की तरफ बढ़ा तो मधुमालती नाम की नौवीं पुतली ने उसका रास्ता रोक लिया। पढ़ें अगले अंक में।