Deh ke Dayre - 4 in Hindi Fiction Stories by Madhudeep books and stories PDF | देह के दायरे - 4

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देह के दायरे - 4

देह के दायरे

भाग - चार

सितम्बर में परीक्षाओं के उपरान्त कॉलिज में खेल-प्रतियोगिताएँ प्रारम्भ हो गयी थीं | अपने बी. ए. तक के कॉलिज-जीवन में पूजा ने बहुत अच्छा बैडमिन्टन खेला था | इस बार भी अपनी विजय का दृढ़ विश्वास लिए उसने अपना नाम प्रतियोगिता में दे दिया था |

छात्र एवं छात्राओं की अलग-अलग वर्ग में प्रतियोगिता हो रही थी | अपने वर्ग में सभी लड़कियों में पूजा प्रथम स्थान प्राप्त कर चुकी थी | अब उसका मुकाबला छात्र वर्ग में प्रथम विजेता देव बाबू से होना था |

प्रतियोगिता के मध्य वह देव बाबू का तेज-तर्रार एवं कलात्मक बैडमिन्टन देख चुकी थी | उसे प्रारम्भ से ही इस बात की आशंका थी, उसकी फाइनल में अन्तिम भिड़न्त देव बाबू से ही होगी |

पूजा ने हाथ में रैकट लिए जब हॉल में प्रवेश किया तो देव बाबू जाल के पास खड़ा अपने किसी साथी से बातें कर रहा था | निर्णायक महोदय एक तरफ खड़े उसके आने की प्रतीक्षा कर रहे थे |

एक पल को पूजा की दृष्टि देव बाबू पर जमकर रह गयी | सफेद कपड़ो में वे बड़े स्मार्ट लग रहे थे | देव बाबू का ध्यान भी सामने कोर्ट में खड़ी पूजा पर गया तो हँसी उसके अधरों पर बिखर गयी | लुभा गयी पूजा को वह हँसी और एक पल को तो वह भूल ही गयी कि वह वहाँ देव बाबू से बैडमिन्टन के मुकाबले के लिए आयी है |

“आइए पूजा जी |” नेट के बीच आते हुए देव बाबू ने उसे पुकारा | धीरे-धीरे चलती हुई पूजा जब उसके पास पहुँची तो देव बाबू ने मिलाने के लिए हाथ आगे बढ़ा दिया |

“विजय तो आपकी ही होगी |” कहते हुए पूजा ने भी उस बढ़े हुए हाथ पर हौले से अपना हाथ रख दिया |

“नहीं पूजा जी, इसकी भविष्यवाणी हम नहीं कर सकते |” मुसकराते हुए देव बाबू ने कहा |

निर्णायक ने सिटी बजाकर खेल प्रारम्भ करने का संकेत किया | सभी लड़कियाँ पूजा की तरफ खड़ी थीं | सामने देव बाबू की तरफ खड़े सभी छात्र दबी आवाज में उनपर व्यंग्य कस रहे थे |

पूजा ने सर्विस की और खेल प्रारम्भ हो गया | सारा हॉल तालियों की गडगडाहट और कहकहों से गूँजने लगा |

खेल तेजी की ओर बढ़ता जा रहा था | धीरे-धीरे पूजा भूलती जा रही थी कि उसका मुकाबला देव बाबू से है | खेल में विजयी होने की प्रबल भावना उसके खेल में चुस्ती ला रही थी | देव बाबू भी अपने मँजे हुए खेल तक पहुँचने में लगा था परन्तु फिर भी उसके खेल में पहले जैसे तेजी नहीं आ पायी थी |

कभी पूजा अंकों में आगे तो कभी देव बाबू आगे | इसीके साथ कभी लड़कियों का स्वर तेज तो कभी लड़कों के समूह से उठती आवाज में तेजी | दोनों ही पक्षों के समर्थक अपनी बुलन्द आवाज से खिलाड़ियों में जोश भर रहे थे |

अन्तिम अंक के लिए संधर्ष चल रहा था | दोनों के समान अंक थे | दोनों ही तरफ से इस अंक हेतु जी-तोड़ प्रयास किया हा रहा था | कभी सर्विस इस हाथ में तो कभी दूसरे हाथ में | सभी छात्र और छात्राएँ साँस रोके अन्तिम अंक की प्रतीक्षा कर रहे थे | अन्त में यह अंक पूजा को मिला तो लड़कियों का स्वर लड़कों पर भारी हो गया |

जूस पीने के उपरान्त दूसरी पारी का खेल आरम्भ हुआ | दोनों के कोर्ट बदल गए थे और इसीके साथ ही लड़के और लड़कियों ने भी अपना स्थान-परिवर्तन कर लिया था |

देव बाबू के खेल की कला धीरे-धीरे निखरती जा रही थी | उसकी चुस्ती और तेजी के सामने पूजा का उत्साह मन्द पड़ता जा रहा था | उसके एक-एक तेज शॉट को सम्भालना उसके लिए कठिन होता जा रहा था | एक-एक कर अंक पूजा के हाथों से फिसलते जा रहे थे | पूजा को लग रहा था जैसे वह इस बार एक भी अंक न बना पाएगी | वह तो पहली पारी जीतकर विजय की आशा कर बैठी थी परन्तु अब उसे लग रहा था कि उसने व्यर्थ ही विजय का भ्रम बना लिया था |

दूसरी पारी में पूजा सिर्फ पाँच अंक ही बना पायी | बड़ी बुरी तरह मुँह की खानी पड़ी थी उसे इस पारी में | सारा उत्साह मन्द पड़ गया था | विजयी होने की तो सोचना ही दूर, वह तो तीसरी पारी खेलने का साहस भी नहीं जुटा पा रही थी |

अन्तिम पारी तो खेली जानी ही थी | पूजा चाहकर भी उससे मना नहीं कर सकती थी | देव बाबू मन्द-मन्द हँसता, रैकट को एक हाथ से दुसरे हाथ में उछालता, धीरे-धीरे अपने कोर्ट में टहल रहा था | सभी छात्रों को देव बाबू की विजय का विश्वास हो गया था | छात्राओं के समूह में ख़ामोशी-सी छा गयी थी |

पूजा तीसरी पारी खेलने के लिए स्वयं को तैयार कर ही रही थी की निर्णायक की सिटी ने खेल आरम्भ किए जाने का संकेत किया |

एक बार फिर पूजा में किसी तरह खेल में विजयी होने की भावना ने जोर पकड़ा तो वह तेजी से जुट गयी | परन्तु देव बाबू के सामने उसकी एक नहीं चल पा रही थी | प्रथम छः अंकों में वह सिर्फ दो ही अंक जुटा पायी | कोर्ट से बाहर खड़े लड़के पूजा पर और उसके पक्ष में खड़ी लड़कियों पर हँसते हुए व्यंग्य करने लगे | उनके व्यंग्यो से उसका शेष बचा साहस भी टूट रहा था | वह सोच रही थी कि किसी तरह शीध्रता से खेल समाप्त हो और वह वहाँ से कहीं भाग जाए |

एकाएक ही खेल बदलने लगा | पूजा के अंकों की संख्या तेजी से बढ़ने लगी | न जान क्या हो गया था देव बाबू को | उसका खेल स्थिर-सा हो गया था | उसकी वह तेजी न जाने कहाँ लुप्त हो गयी थी | वह खेल में तेजी से पिछड़ने लगा था | लड़कियों का दबा हुआ जोश-शोर पुनः उभरने लगा |

पूजा के बारह अंक बनने तक देव बाबू अपने छः अंकों में सिर्फ एक अंक ही और जोड़ पाया था | पूजा चकित थी | खेल देखने वाले सोच रहे थे कि यह खेल एकाएक पलट कैसे गया है |

सहसा पूजा को लगा जैसे देव बाबू स्वेच्छा से ही खेल में पिछड़ता जा रहा है | न जाने किस भावना से वह पूजा को विजयी कराने का प्रयास करने लगा था |

प्रतियोगिता की भावना समाप्त होकर पूजा के हृदय में भी समर्पण की भावना उभर आयी | कोई यदि जान-बूझकर हारे तो जितने की कोई खुशी नहीं रह जाती | विजय की इच्छा समाप्त हो गयी और वह भी हारने का प्रयास करने लगी |

खेल जैसे बच्चों का खेल बनकर रह गया | साधारण से तेज शॉट को दोनों में से कोई खेलने का प्रयास नहीं कर रहा था | दर्शक खेल की नीरसता पर झुँझला रहे थे |

दोनों ने ही हारना चाहा परन्तु पूजा हार न सकी | वह विजयी घोषित कर दी गयी थी परन्तु उसे अनुभव हो रहा था कि देव बाबू ने उसे हरा दिया है |

“स्साला चिड़िया फँसाने के चक्कर में जान-बूझकर हर गया |” देव बाबू पर उसके एक साथी द्वारा कसा गया व्यंग्य पूजा से भी अनसुना नहीं रह गया था |

लड़कियों के मध्य घिरी पूजा बधाइयाँ स्वीकार कर रही थी परन्तु उसे लग रहा था जैसे यह सब कुछ सिर्फ औपचारिकता-मात्र हो अन्यथा तो वह हार गयी थी | वह खुश नहीं थी इस विजय से, परन्तु बधाई देने वाले उसकी मनःस्थिति कहाँ देख सकते थे |

कॉलिज का अवकाश हुआ | बैडमिन्टन की फाइनल प्रतियोगिता में पूजा विजयी हो चुकी थी | छात्र-छात्राएँ घर लौटने लगे | रेणुका ने पूजा से भी घर चलने के लिए कहा परन्तु पूजा के हृदय में देव बाबू से मिलने की बलवती इच्छा ने इसे स्वीकार न किया तो रेणुका अकेली ही घर की तरफ चली गयी |

छात्र-छात्राओं से छुपती-सी पूजा किसी तरह स्वंय को देव बाबू के समीप लाना चाह रही थी | देव बाबू अकेला न था | पूजा को बड़ी झुंझलाहट-सी हो रही थी देव बाबू के उन साथियों पर जो उसका पीछा ही नहीं छोड़ रहे थे |

धीरे-धीरे पाँव बढ़ाती हुई वह देव बाबू के समीप से निकल गयी | कुछ आगे निकल उसने पीछे मुड़कर देखा तो देव बाबू अपने साथियों से बातें करते हुए भी बार-बार उसीकी ओर देख रहा था | उसके पाँव तेजी से कॉलिज के पीछे वाले बाग की तरफ बढ़ गए |

आम के भारी तने से अपनी पीठ टिकाए वह देव बाबू की प्रतीक्षा कर रही थी |

“बधाई हो पूजा जी |” पास आते हुए देव बाबू ने कहा तो पूजा की दृष्टि उस ओर घूमी |

“किस बात की?”

“आज के खेल में विजयी होने की |” मुसकराते हुए देव बाबू ने कहा |

“लेकिन मुझे तो कोई खुशी नहीं है |”

“क्यों?”

“में जानती हूँ देव बाबू! आप जान-बूझकर हारे हैं |” दृष्टि झुकाते हुए पूजा ने कहा |

“जान-बूझकर भी कोई हारता है?”

“हाँ, देव बाबू हारता है | मैंने भी हारना चाहा था मगर असफल रही | जब मैंने जितना चाहा तो आपने जितने नहीं दिया | और हारने की इच्छा करने पर हारने भी नहीं दिया |”

“पूजा जी...|”

“हाँ देव बाबू आपको अपनी हार पर जितनी खुशी है उतनी मुझे अपनी जित पर भी नहीं है | आपने तो एक खेल में ही मुझे दो बार हराया है-वास्तव में बधाई के पात्र तो आप हैं |”

“आप ऐसा न सोचें पूजा जी | हार-जित से क्या अन्तर पड़ता है? कल हमारा डिग्री कॉलिज के छात्रों से क्रिकेट का मैच है, आप देखने आइए |”

“आज की भाँती तो नहीं खेलोगे?” मुसकराकर पूजा ने व्यंग्य किया |

“विपक्ष में आप होतीं तो शायद!” प्रत्युतर में देव बाबू भी मुसकरा दिया |

“कहीं कल भी मुझे मैदान में देखकर...”

“प्रेरणा और उत्साह मिलेगा | आप आवश्य आएँ |” बिच में ही देव बाबू ने कहा और पूजा इस आग्रह को टाल न सकी | गर्दन हिलाकर उसने स्वीकृति दे दी |

पूजा जिस आम के वृक्ष से पीठ टिकाए थी देव बाबू भी उसीका हाथ से सहारा लिए खड़ा अब तक उससे बातें कर रहा था | अनजाने ही पूजा का आँचल उसकी हथेली के निचे दब गया था |

“अब मुझे जाने दो देव बाबू |” पूजा ने कहा |

“रोकता कौन है |” देव बाबू की दृष्टि अपनी उस हथेली पर केन्द्रित हो गयी जिसके नीचे पूजा का आँचल दबा हुआ था |

दो कदम पूजा ने आगे बढ़ाने चाहे मगर खिंचकर फिर वहीँ आ गयी |

“ऐसे भी कोई जा सकता है!” होंठ बन्द थे उसके मगर आँखें जैसे बोल रही थीं | दृष्टि घुमाकर चारों ओर देखा...बाग में दूर तक कोई न था | हृदय तेजी से धड़कने लगा | अपने दोनों हाथों को वक्ष पर दबाए; वृक्ष का सहारा ले, वह अपनी धडकनों पर नियन्त्रण पाने का प्रयास कर रही थी |

“जाने दो देव बाबू!” दबे शब्दों में पूजा ने जाने की स्वीकृति अवश्य माँगी थी लेकिन वहाँ से हिलने की उसकी भी इच्छा नहीं हो रही थी | जड़ हो गई थी जैसे वह वहीँ |

“मन नहीं चाहता पूजा जी | कुछ देर इसी तरह खड़े बातें करते रहें...यही दिल करता है |” आँखें आँखों में झाँकने लगीं |

पता ही न चल सका पूजा को कि कब वृक्ष से फिसलकर उसकी उँगलियाँ देव बाबू के हाथ में उलझ गयीं | धडकनें जैसे रुकने को ही हो गयीं | दृष्टि मिलना कठिन हो रहा था | ऐसा प्रतीत हो रहा था जैसे तूफान आने वाला हो | साँसों की तेज आवाज बढ़ती ही जा रही थी |

“पूजा जी...”

“.......”

“जाइए...”

पूजा कुछ न बोल सकी और खामोशी से दृष्टि वहाँ से चल दी | ख्यालों में खोई किस तरह वह घर पहुँची, इसका उसे ध्यान न था |