आइना सच नही बोलता
शब्दावकाश
हिंदी कथाकड़ी भाग दो
कविता वर्मा
जन्म स्थान टीकमगढ़
वर्तमान निवास इंदौर
शिक्षा बी एड , एम् एस सी
पंद्रह वर्ष गणित शिक्षण
लेखन कहानी कविता लेख लघुकथा
प्रकाशन कहानी संग्रह 'परछाइयों के उजाले ' को अखिल भारतीय साहित्य परिषद् राजस्थान से सरोजिनी कुलश्रेष्ठ कहानी संग्रह का प्रथम पुरुस्कार मिला।
नईदुनिया दैनिक भास्कर पत्रिका डेली न्यूज़ में कई लेख लघुकथा और कहानियों का प्रकाशन।
कादम्बिनी वनिता गृहशोभा में कहानियों का प्रकाशन।
स्त्री होकर सवाल करती है , अरुणिमा साझा कविता संग्रह में कविताये शामिल।
“आइना सच नही बोलता “
शब्दावकाश
हिंदी कथाकड़ी भाग दो
नंदिनी को सुनकर चक्कर ही आ गया उसने खिड़की का पर्दा थाम लिया और धम्म से वहीँ बैठ गई। भाभी को अभी उसकी चिंता कहाँ थी ? फर्स्ट एड बॉक्स लेकर वह तेज़ी से बाहर निकल गई। डूबती दृष्टी और चेतना से नंदिनी ने भाभी को जाते और "नंदिनी को देखो " कहते सुना। फिर पता नहीं कमरे में कौन आया किसने उसे उठा कर पलंग पर लिटाया किसने पंखा तेज़ कर मुंह पर पानी के छींटे मारे । धीरे धीरे उसकी चेतना मुंदी आँखों में आकर ठहर गई उसने खुद को खुद की स्थिति को और आसपास को समझने की कोशिश की। उसे अपने आसपास धीमी धीमी आवाज़ें सुनाई दीं तो दूर कहीं से बहुत सारे लोगों के चीखने चिल्लाने की भी आवाज़ें आईं जिसने मुंदी आँखों को खोलने पर मजबूर कर दिया। कुछ पल पहले का लुप्त चेतना का सुकून अलुप्त हो गया वह घबराकर उठ बैठी। उसने पलंग से उतरना चाहा पर दो हाथों ने उसे पकड़ पानी का गिलास मुँह से लगा दिया। पानी का स्वाद बहुत मीठा मीठा था शायद गलूकोज़ था पर वह उसके डूबते मन को ताकत देने में असमर्थ था। उसकी दो ममेरी फुफेरी बहने उसकी देखभाल में लगी थीं।
बाहर के तेज़ शोर के कारण लड़कियों औरतों की हँसी बतकही मायूसी की ओट में हो गई थी। घर के अंदर सन्नाटा पसरा था। उसकी सारी श्रवण शक्ति खिड़की के पास केंद्रित हो गई उसी खिड़की के पास जिसके परदे थामे कुछ देर पहले उसका मन अपने भावी जीवन के दृश्य देख रहा था और अब उसी खिड़की से आती आवाज़ें तपती बयार सी उसके सपनों को झुलसा रही थीं।
नंदिनी ने एक बार अपनी ममेरी बहन संजना की ओर कातर नज़रों से देखा। संजना और नंदिनी बहनों से ज्यादा सहेलियाँ थीं उनकी उम्र में मुश्किल से तीन चार माह का फासला था। दीपक से सगाई के बाद जब नंदिनी को उससे प्यार जैसा कुछ हो गया था तो उसने यह बात सबसे पहले संजना को ही बताई थी। संजना उसकी पक्की हमराज़ थी यूँ वह उसे चिढ़ाने खिजाने का कोई मौका छोड़ती न थी पर उसके हर राज़ को दिल की अतल गहराइयों में छुपा कर रखती थी। दीपक से उसकी सगाई की ख़ुशी संजना ने ही देखी थी तो दीपक को देखने के पहले पढाई अधूरी छूट जाने का दुःख भी उसी ने जाना था। आज अब जब नंदिनी को जोर से रुलाई आ गई आँसुओं का सैलाब बह निकला जिसे संजना के सीने पर पड़े दुपट्टे ने अपने में जज्ब कर लिया पर इस अनहोनी की आशंका को जज्ब करना उतना आसान नहीं था।
विभा नंदिनी की बड़ी बुआ की बेटी पंजो के बल उचक कर खिड़की से बाहर का नज़ारा देख रही थी। कुछ आक्रोशित और कुछ नरम समझाइश वाली आवाज़ों के साथ एक तीखी तेज़ आवाज़ फरफराते परदे को परे धकेल कर कमरे से होते हुए कानों में और फिर तेज़ी से मस्तिष्क में प्रवेश कर उन तीनों को झनझना गई। "बारात वापस ले चलो " इन चार शब्दों ने उन्हें हिलाकर रख दिया। पूरे माहौल में सन्नाटा खिंच गया ऐसा लगा जैसे उन चार शब्दों ने सारी आवाज़ों फुसफुसाहटों और विलाप को अपने में कैद कर लिया हो एक कसमसाहट सी हवा में तारी हो गई और उससे औरतों का रुदन ही सबसे पहले छूट कर बाहर आ पाया और पलों में वह विलाप वातावरण में कुछ देर पहले छाई शादी की उमंगो और उसके बाद की मायूसी को कुचलता हुआ चहुँ ओर फ़ैल गया।
हवेली के अंदर से ये आवाज़ें नंदिनी के कमरे की ओर बढ़ती सी प्रतीत होते ही विभा ने दौड़कर कमरे का दरवाजा बंद कर दिया। बाहर की घटना का ब्यौरा नंदिनी तक ना पहुंचना ही ठीक था। दरवाजे पर दो तीन हाथों की थाप हुई भी जिसे संजना ने समझदारी से टरका दिया।
"अब क्या होगा संजू ?"
"सब ठीक ही होगा तू चिंता मत कर गाँव के चौधरी की हवेली से यूँ ही बारात वापस थोड़ी चली जाएगी फूफाजी दादाजी गाँव के सब बड़े बूढ़े पंच हैं न वे कोई ना कोई रास्ता निकालेंगे। "
"हाँ गाँव की बेटी और वो भी चौधरी की बेटी की बारात वापस लौटा ले जाना आसान नहीं है नंदिनी मामाजी के एक इशारे पर खून की नदियाँ बह जाएँगी " विभा ने उसे तसल्ली देते हुए कहा। पर ये तसल्ली उमंगों भरे दिलों को भयभीत कर गई और कमरे में बोझिल ख़ामोशी पसर गई।
कमरे के दरवाजे पर हलकी थाप के साथ भाभी की आवाज़ आई विभा ने दरवाजा खोल दिया। बेटे को लेकर भाभी तेजी से अंदर आई और पलंग पर बैठते ही सिर का पल्लू सरका कर उससे हवा करने लगी। बाहर होने वाले हंगामे की साक्षी बनने की घबराहट से उनका पूरा ब्लॉउस पसीने में भीगा था वो बार बार अपने सूखे होंठों पर जीभ फेर रही थीं। संजना ने पानी का गिलास उन्हें थमा दिया जिसे उन्होंने एक ही साँस में खाली कर दिया।
"भाभी बाहर क्या हो रहा है ? सब मामला सुलझ गया ना आवाज़ें तो नहीं आ रही हैं फिर रस्मे क्यों नहीं शुरू हो रही हैं ?" विभा ने पूछा।
"मामला तो सुलझ ही जायेगा दूल्हे के जीजाजी को गोली छू कर निकल गई थी मरहम पट्टी हो गई है। "
"बंदूक चलाई किसने थी भाभी ?"
"बंदूक तो लड़के वाले ही चला रहे थे किसी को धक्का लग गया जिससे निशाना बिगड़ गया गोली जीजाजी की बांह को छू कर निकल गई। वो तो शुक्र मनाओ कोई बड़ा हादसा नहीं हुआ। "
"फिर"
"फिर क्या लडके वालों का कहना था हमारे यहाँ से गोली चली जिससे वे घायल हो गए फिर उन्हें समझाया बाराती ही बंदूक चला रहे थे जिस की बन्दूक से गोली लगी है वह अपने गाँव का है पर उन लोगो दामाद है उसने भी कह दिया उसे धक्का लगा था जिससे उसका निशाना बिगड़ गया। अब बातचीत से मामला सुलझाया जा रहा है। "
"अब और क्या बातचीत करना है ?" संजना ने आश्चर्य से पूछा।
"अरे इतना बड़ा काण्ड हो गया तो वो लोग दहेज़ की राशि बढ़वाएंगे ना भाभी ने कुनमुनाते बेटे के मुँह में टेबल पर रखी दूध की बॉटल लगा दी।
नंदिनी का मन ये सुनकर मुरझा गया हालाँकि दहेज़ का लेनदेन कोई अनोखी बात नहीं है पर एक ऐसी घटना के बदले दहेज़ की राशि बढ़ाना जिसमे उनकी कोई गलती ही नहीं है उसके मन में विद्रोह की लहर उठी तो पर अंदर ही दफ़न हो गई। ये मौका ऐसी किसी प्रतिक्रिया देने का नहीं था।
"ठीक है दहेज़ में और रूपया ले लें पर शादी नहीं रुकनी चाहिए " विभा ने कहा जिसे सुनकर संजना नंदिनी और भाभी के चेहरे उतर गए।
"शादी तो हो ही जाएगी दीदी पर ये तो सोचो नंदिनी दीदी को ऐसे लोगों के साथ अकेले विदा करना होगा वहाँ जा कर उन्हें पता नहीं क्या क्या सुनना पड़े ?"
भाभी की इस बात ने नंदिनी के रुके आँसुओं का बाँध एक बार फिर तोड़ दिया वाकई विकट परिस्थिति थी। उसे दीपक का ख्याल आया उसका जीवन साथी उसका हमसफ़र जिसे एक झलक देखते ही उसने अपने सारे सपनों को पोटली में बाँध छुपा दिया था और उसके साथ की कामना में इस लाल जोड़े में सज संवर कर बैठी थी क्या वह उसका साथ देगा ? जब इस घटना के बारे में उसकी ससुराल में बातें होंगी उससे सवाल जवाब होंगे तब क्या वह उनके जवाब देने उसके आगे आकर खड़े होगा ? जब वह अपने सपने अपना परिवार छोड़ वहाँ अजनबियों के बीच असहाय होगी तब क्या वह मजबूती से उसका हाथ थाम कर उसे सबसे बचा कर अपनी बाँहों में छुपा लेगा ? प्रश्न तो बहुत थे पर उनका जवाब समय के गर्भ में छुपा था जिसके लिए इंतज़ार के सिवाय कोई और रास्ता न था।
मुन्ना सो गया था उसे पलंग पर लिटा कर भाभी चली गईं पर उनकी आशंका ने उन तीनों को गहरे सोच में डाल दिया। लगभग आधे घंटे बाद बाहर औरतों की फुसफुसाहटें बातों में तब्दील होती सी प्रतीत हुईं हलचल बढ़ गई चाय पानी के लिए नौकरों को आवाज़ लगाई जाने लगी ऐसा लगा जैसे गहरे काले बादल ने अपने साये से धूप को मुक्त कर दिया हो और वह धीरे धीरे अपने पैर पसर रही हो।
दरवाजे पर आहट हुई माँ के साथ नौकरानी चाय नाश्ते की ट्रे लिए कमरे में दाखिल हुई। माँ ने नंदिनी को गले लगा लिया फिर उसके सिर पर प्यार से चुम्बन अंकित कर उसके ऊपर से सौ का नोट निछावर कर नौकरानी को पकड़ा दिया। नंदिनी ने ध्यान से माँ को देखा इस हंगामे के तनाव से उनका चेहरा कुम्हला गया था। बेटी के भविष्य की आशंका उनकी आँखों में तैर रही थी वे अचानक ही बहुत बूढी सी दिखने लगी थीं।
"बेटा कुछ खा लो फिर तैयार हो जाओ रस्मे कुछ ही देर में शुरू होने वाली हैं। अरे ब्यूटीशियन चली गई क्या संजू किसी को बोल कर बुलवाओ उसे नंदिनी को जल्दी तैयार करना है किसी भी समय बाहर से बुलावा आ जायेगा अब और कोई देर नहीं करना है।"
"बुआ क्या तय हुआ ?"संजना ने पूछा
"ये सब तुम्हारे चिंता करने की बातें नहीं हैं घर के बुजुर्ग सब समझ लेंगे तुम तो नंदिनी को तैयार करो। "
कहते हुए उन्होंने अपने हाथ से मिठाई का एक टुकड़ा उसे खिला दिया नंदिनी ने आधा टुकड़ा माँ के मुँह में डाल दिया दोनों की आँखें भर आईं लेकिन ये समय भावुक होने का नहीं था बहुत सी बिगड़ी संवारनी थी आँचल में आँसू समेटते माँ उठ कर बाहर चली गई।
बाहर बैंड बाजे शहनाई की आवाज़ गूंजने लगी अब ब्यूटीशियन को बुलाने का समय नहीं रह गया था ना ही नंदिनी के मन में थोड़ी देर पहले जैसी शादी की उमंग ही बची थी। उसने संजना से कहा तुम ही थोड़ा मेकअप ठीक कर देना अब किसी को मत बुलाओ। जल्दी जल्दी थोड़ा बहुत खा कर वे तीनों तैयार होने लगीं।
जब नंदिनी को बाहर लाया गया उसका मन हो रहा था वह एक बार दीपक को भरपूर नज़र से देखे उसके चेहरे उसकी आँखों में इस हंगामे के असर को देखे उसकी कोई परछाई शायद उसके आशंकित मन को सांत्वना दे सके। उसने कनखियों से कई बार दीपक को देखा पर सीधे देखने की हिम्मत नहीं जुटा पाई। ऊपर से तो वह शांत ही नज़र आया।
नंदिनी एक के बाद एक शादी की रस्मे पूरी करती गई फेरे सात वचन सप्तपदी एक के बाद एक होते गए। उसके जीवन की डोर दीपक के साथ बंध गई दीपक के साथ ही उस परिवार के साथ भी जो थोड़ी देर पहले बिना किसी कारण बिना किसी गलती के बारात वापस ले जाने पर आमादा था और फिर समझौते के रूप में दहेज़ की रकम बढ़ा कर शादी के लिए तैयार हुआ। दीपक इन सब का साक्षी था पता नहीं वह कुछ बोला या नहीं पता नहीं वह कभी उसके लिए भी कुछ बोलेगा या नहीं क्या पता ये डोर सिर्फ उसने बाँधी है या दीपक भी उसी डोर से उसके साथ जुड़ चुका है ?
विदाई में अब थोड़ा ही समय शेष था। नंदिनी रिश्तेदार औरतों से घिरी बैठी थी। दीपक रस्मे करते करते उकता चुका था इसलिए दोस्तों के साथ बाहर बैठा था। औरतों की चर्चा का विषय अभी भी दिन में हुआ हंगामा ही था। कुछ ऐसी भी थीं जिनको अहलावत परिवार के दूसरे रिश्तेदारों की कुछ जानकारियाँ थीं वे उन्हें बाँट कर अपना महत्व सिद्ध कर रही थीं। नंदिनी का मन इन सब से दूर अपने सपनों की गठरी लिए बैठा था। एक एक सपना अपने मन से सहलाते हुए वह सोच रही थी अगर वह थोड़ी जिद थोड़ा संघर्ष करती तो क्या पता पापा उसकी पढाई पूरी करवाने के लिए मान जाते। हाँ उसकी इच्छा का विरोध तो होता पर हो सकता है उसे सफलता मिल जाती और फिर सब कुछ सरल हो जाता। आज जब कल की अनिश्चितता उसके सामने थी दीपक पहली बार देखने से भी ज्यादा अजनबी लग रहा था उसका दिल जोर जोर से धड़कने लगा था उसे घबराहट होने लगी थी वह पसीना पसीना हो गई। उसने पास बैठी विभा का हाथ कस कर दबाया। उसकी हालत देख विभा उसे औरतों के घेरे से निकाल कमरे में ले आई। आते ही सिर से दुपट्टा उतार वह विभा से लिपट कर जोर जोर से रोने लगी बहुत कुछ छूट जाने का एहसास उस पर हावी हो गया था। बहुत कुछ उसके माँ पिता भाई भाभी बचपन मायके की गलियाँ घर का आँगन सखियों का संग और अब तक की जीवन के प्रति बेफिक्री। आगे जो कुछ भी था घने कुहासे के साये में था अनिश्चित और अजनबी।
दीपक की दीदी बुआ और दूसरी औरतें विदा करवाने आ पहुंची। दीदी को देख कर उसकी जान में जान आई। एक जाना पहचाना चेहरा और दो प्यार और संवेदना भरी आँखें। दीदी ने उसके सिर पर अपना हाथ रख उसे सांत्वना दी। एक एक कर सबसे मिलकर सबके गले लग रोती हुई नंदिनी घर के दरवाजे पर आ गई जहाँ भाई को रोते देख वह उससे लिपट कर देर तक रोती रही। बचपन की वो लड़ाई मार पीट एक दूसरे को चिढ़ाना खिजाना प्यार का ही रूप तो थे जो अब अपने असली स्वरुप में दोनों की आँखों से छलक रहे थे। पापा ने उसके सिर पर हाथ रख कर उसे आशीर्वाद दिया पर वह कुछ और भी सुनने का इंतज़ार करती दीपक के साथ गाड़ी में बैठ गई।
गाड़ी चलने पर उसने घूँघट की ओट से उस हवेली को एक बार निहारा जिसकी मिटटी में खेलते वह बड़ी हुई थी और जो अब उसके लिए पराई हो गई थी। अब वह जीवन की एक नई और अनजान डगर पर चलने जा रही थी। ना जाने कैसा संसार कर होगा उसका इंतज़ार …..
कविता वर्मा
सूत्रधार - नीलिमा शर्मा निविया