Aadhunik soch ki vashubhut ek prem kahani in Hindi Love Stories by Pranjali Awasthi books and stories PDF | आधुनिक सोच की वशीभूत एक प्रेम कहानी

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आधुनिक सोच की वशीभूत एक प्रेम कहानी

Pranjali Awasthi

आधुनिक सोच की वशीभूत एक प्रेम कहानी ऐसी भी ......नायिका अभिव्यक्ति की प्रेम पाती अपने नायक वक्तव्य के नाम ....

सुनो वक्तव्य ...कोई जरूरी तो नहीं कि प्रेम कहानियाँ महज फिल्मी ही हों प्रेम कहीं और कभी भी हो सकता है कई बार कहा सुना सा तो कभी दबा हुआ सा.. .मुझे लगता है कि एक मीठी गुदगुदाते अहसास की छुअन है यह प्यार ; इसको महसूस करने के लिए दिल और दिमाग को भी ढील देनी पड़ती है वरना यह अहसास भी पास से गुजरती हवा की तरह छूकर गुजर जाता है और जिन्दगी को इसका अहसास भी नहीं होने पाता । तुम्हें मुझसे प्यार है और मुझे भी तुमसे बहुत प्यार है । पर पता नहीं क्यूँ तुम भी अकेले हो और मैं भी ।दोनों अपनी अपनी जिम्मेदारियाँ उठाने में इतना व्यस्त हैं कि एक दूसरे की ओर ध्यान ही नहीं जाता प्यार को भी समय समय पर यह अहसास दिलाना पड़ता है कि वो अभी भी वजूद में है ...याद है तुम्हें कब आखिरी बार तुमने मुझसे मेरी इच्छाओं के बारे में पूछा हमेशा तुम्हारी हर राय में मेरी सहमति रही, तुमने कब मुझसे कहा कि तुम भी तो दिन भर और हमेशा के इस रूटीन वर्क से ऊब जाती होगी चलो तुम भी कुछ अपने लिए समय निकाल कर कुछ करो या कब बेवज़ह तुम मुझे यूँ ही लेकर घूमने निकल पड़े। मैं खुद में घुटती हूँ क्यूँ कि मुझे लगता है कि मुझमें काबिलिय़त थी कि मैं भी एक मुक़ाम पा सकती थी ज्यादा कुछ नहीं तो अपनी आत्म खुशी के लिए ही। अपने को औरों से कमतऱ देखती हूँ तो कुछ चुभन सी होती है तुम पति ही बन कर रहे हमेशा कभी दोस्त नहीं बन पाए पता है क्यूँ ? तुम हमेशा पुरूष दम्भ में रहे ।पत्नी को कोई देखे ना, वो तुम्हारी ही नजर में रहे, इस सोच को तुमने अपने प्यार का हवाला देकर मेरे प्रेम और समर्पण को अपने अंकुश में किया और मैं भी तुम्हारी सोच से ओतप्रोत सी अपने आपको भूल ही गई। तुम्हारी रोक टोक पाबन्दियाँ इन सभी ने दिल में कब प्यार को भय में बदल दिया पता ही नहीं चला। मैं शादी के पहले स्वतंत्र और आधुनिक विचारों की युवती थी अकेले आना जाना, रहना ,खुल कर बातचीत करना कभी गलत नहीं लगा । ना हीं कभी गलत हुआ और कच्ची उम्र के प्यार में भी कभी एकान्त में भी मेरे कदम लड़खड़ाए नहीं पर कहीं ना कहीं औरत होने की मूल प्रवृत्ति सामाजिक दबाब के चलते और तुम्हारे प्रेम और व्यक्तित्व के पाश में होने से मेरे हृदय ने दिल से तुम्हारे हर रोक टोक को स्वीकार किया । कहीं कोई जबरदस्ती या तानाशाही नहीं थी तुम्हें शब्दों का खेल खूब आता है ..जानते हो ना ..और तुम अपने शब्दों से ही मुझ पर कड़ाई करते कभी भी तुमने मुझे तंग या परेशान नहीं किया पर तुम्हारे शब्दों में ही इतना भार होता कि मेरा प्रेम भय के तले दबता जाता। सात साल तक तुमने मुझे बाजार जाने की भी इजाजत नहीं दी । तुमने मुझे जैसे सात तालों में रखा। कितना कुछ है कहने को पर छोड़ो , फिर पता नहीं कब हमारा प्यार सुप्तावस्था में चला गया । और मैं तुम्हारे साथ होते हुए भी बाहरी आकर्षणों के लिए छटपटाने लगी।लगता था कैसे मैं इस कैदी विचारों से आजाद होऊँ और इसी मृगतृष्णा में मुझसे कितनी बड़ी गलती हुई ....उफ्फ् मेरे जीवन के दस सालों में अर्जित कमाई तुम्हारा विश्वास ..मैंने क्षण भंगुर खुशी के लिए दाँव पर लगा दिया । यह नेटवर्क की दुनियाँ कितनी हसीन दिखती है जिनको हम जानते नहीं पहचानते नहीं , ना जाने कब उनकी बातों से हम प्रभावित हो जाते हैं और एक अनदेखे आकर्षण की गिरफ्त में आ जाना तब और भी आसान होता है जब आपके आपसी रिश्तों में कहीं दूरी महसूस होने लगी हो जो कि हमारे दरम्याँ आ चुकी थी । नेट की दुनियाँ की सहानुभूति ने जैसे आग में घी का काम किया जिन्दगी के ऊबाऊपन को खत्म करने की चाह में दिल पर एक जूनून हावी था जो कि एक अन्धे कुऐं की ओर घसीटे ले जा रहा था और मैं भी मंत्र मुग्ध सी एक कमी पूरी करने की चाह लिए चारदीवारी में भी बहकी जा रही थी यही शुरूआत थी जहाँ से मैं तुमसे एक दम अलग महसूस करती थी और साथ रहकर सारे कर्तव्यों को मशीन की तरह निभा कर भी तुम्हारे हृदय के सामीप्य से कोंसो दूर थी मेरा अभिलाषी मन जिसकी थाह तुमने कभी लेने की कोशिश नहीं की । कहीं घूमना गिफ्ट देना प्यार जताना यह सिर्फ शौक नहीं एक जरूरत भी है धीमें और मंद पड़ रहे अहसासों को गति देने के लिए जो कि तुम्हें कभी जरूरी नहीं लगा और मेरा अति साधारण व्यक्तित्व और मन दूसरी सखियों के जीवन से हमेशा प्रभावित रहा और शिकायत यही कि मेरा ही जीवन यंत्रचलित सा क्यूँ है ? खैर , मैं भटक गई थी दिमाग ने दिल की सही गलत की परिभाषा को बदल दिया था कभी लगता है कि सच ही कहा गया है कि आप बाॅल को जितना दबाऐंगे वो उतना ही उछाल मारेगी और शायद यही था जो मेरे साथ घटित हुआ । और गल्तिया भला कब छुपाए छिपीं हैं । तुम्हें पता लग ही गया और जो सपने में नहीं सोचा था वो हुआ हमारी जिन्दगी में एक तूफान आ चुका था जो दिख कर भी नहीं दिख रहा था जो होकर भी कहीं नहीं था हम दोनों इस आग में झुलस चुके थे और तुम्हारा गुस्सा ..मैं सहम चुकी थी तुमने मुझे शारीरिक रूप से सजा देकर अपने क्रोध को बाहर निकाला और ..कितना मानसिक तनाव तुमने झेला और मैं ..एक पत्नी से अब बद़चलन औरत बन कर तुम्हारे सामने खड़ी थी । अब तुम्हारे धैर्य की परीक्षा थी और जो कभी हमें महसूस नहीं हुआ था वो प्यार उमड़ कर तुम्हारी आँखों में उतर चुका था बहुत विशाल हृदय हो तुम ।तुम सबसे अलग सबसे जुदा हो तुम जैसे भी थे सिर्फ मेरे थे पर मैं बहक गई थी अपने अस्तित्व की चादर को तुम्हारे हाथों से घसीटते घसीटते मैं खुद मुँह के बल गिर पड़ी थी और वो तुम ही थे जो अपना अपमान अपना क्रोध अपना दम्भ सब भूल कर मुझे अपने अंक में समेट कर एक विशाल समुद्र से गहरे व्यक्तित्व के स्वामी बन कर सामने खड़े थे और मैं शर्म से जमीन में गढ़ी जा रही थी और तुम्हारे सीने में छुपकर खुद पर लज्जित सी ईश्वर से कामना कर रही थी कि बस अगली सुबह मेरे लिए ना हो पर ऐसे भी कहीं होता है क्या ? सुबह भी हुई और जिन्दगी भी आगे बढ़ी तुम्हारे साथ । मैं जानती हूँ तुम ही मेरी जिन्दगी के वास्तविक प्रेम हो और तुम्हारे बिना मैं रीती नदी हूँ तुम ही हो जो मुझे चाहिए और तुम ही हो जिसके बिना मैं स्वयं को सोच नहीं सकती। यह जिन्दगी बहुत लम्बी है वक्तव्य , और मैं आधुनिक ख्यालात की एक झलक । जिन्दगी को आगे खुशनुमा और प्यार के महकते अहसास की खुश्बू बनाए रखने के लिए जरूरी है कि हम दोस्त बनें जहाँ एक खुलापन हो विचारों का , एक लचीलापन एक तालमेल हो हमारे आपसी व्यवहार में ।अब तक जिन्दगी के हर उतार चढ़ाव को झेल कर साथ चले हैं हम। आगे भी साथ ही रहेंगे । हो सके तो कभी एकाकी ना होने देना मुझे । शब्दों के जादूगर हो तुम ..पता है ना तुम्हें ..निकाल लेना मुझे अलग थलग सी पड़ती जिन्दगी से । बस थाम कर चलना ;मेरे मन ,मेरे हृदय ,और मेरे हाथ को । इस मीठे अहसास को सहलाते रहना हमेशा...यह वो कहानी है जो धड़कनों पर उभर कर आती है ..हर अहसास के साथ ..

प्यार को गहरे में दफ़न नहीं जम़ीनी ज़ज्बातों में शामिल करो।

सिर्फ तुम्हारी ......

अपनी अभिव्यक्ति