chuninda kavitaaen in Hindi Poems by Sourabh Vashishtha books and stories PDF | chuninda kavitaaen

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chuninda kavitaaen

पहाड़

यह पहाड़ सा पहाड़

वहीं का वहीं सदियों से

बैठा समाधिस्थ

कोई मेनका न तोड़ पाई इसकी साधना,

जाने कब प्रसन्न होंगे प्रभु इस पर

कहेंगे, ‘वर मांगो‘

पहाड़ तब शायद थोड़ा हिलेगा।

बाल्टी

एक

गहरे कुएं में बैठा मेंढक, टर्रा रहा है

जानता है वह केवल कुएं को ही

कुआं ही उसका सारा संसार

वह नहीं जानता ऊपर से आ रही बाल्टी

निकाल देगी उसे कुएंंंं से

करवाएगी दर्शन अन्नंत का।

दो

गहरे कुएं में बैठा मेंढक, टर्रा रहा है,

जानता है वह, कि है संसार, इस कुएं से बाहर

सुन रखा है उसने बुजुगोर्ं से

वह पूरी श्रद्धा से आस लगाए है

कि आएगी इक बाल्टी

उसे खींच ले जाएगी।

पानी

पानी भी क्या चीज बनाई

तरल, सरल, पी भी लो, नहा भी लो

गन्दगी हो तो साफ कर लो

चाहो तो भगवान को चढ़ा लो

मन्दिर से मिले तो चरणमृत हो जाए

बीयर बार में मदिरा

ज्यादा बरसे तो बाढ, कम तो सूखा

जब तक नदी में रहे तो मीठा

समुद्र में मिले तो खारा

पानी एक, रंग हजार

जैसे, आत्मा एक मनुष्य हजार।

किताबें

कोने में पड़ी किताबें

धूल चाटतीं

अच्छी नहीं लगतीं

धूल भरे चेहरे सा लेखक का नाम

अच्छा नहीं लगता

अंतिम सांसें लेता लेखक का नाम

अच्छा नहीं लगता

अच्छी लगती हैं टेबिल पर

सलीके सी सजी,

अच्छी लगती हैं सदा ही

टेबल लैंप की रोशनी में किताबें

इन किताबों में लेखक का नाम

अच्छा लगता सदा

चमकता, चमकाता,

न कि धूल झांकता।

धूल

धूल से भर जाता है घर

अगर सफाई न करो

कहां से आ बैठ जाती है

कभी दिखती तो नहीं

धूल उड़ाता जाता है वी.आई.पी का काफिला

कभी गरीब की फटी चप्पल नहीं उड़ाती धूल

युद्ध में अक्सर कहते हैं धूल में मिला दिए जाओगे

धूल में मिल जाते हैं बेचारे सैनिक, जनता भी

जब कभी धूल में मिला दिया जाता है कोई राज्य

धूल का फूल भी बनता है कोई

धूल बेचारी रहती हेै धूल ही

वह नहीं जानती उसका उड़ना उसका छा जाना

बनाता है इतिहास।

समय

अभी तो बचपन था

जैसे कल की बात हो

घूमता था बेफ्रिक

मस्त था कॉलेज में

जैसे कल की ही बात हो

सुनहरे थे सपने

जोश था जवानी थी

पूरा उफान था

जैसे कल की बात हो

नाना के संग सैर को जाता था

दादा संग गप्प लडाता था

जैसे कल ही बात हो

बीत गए जीवन के 40 वर्ष

जैसे कल की ही बात हो।

नींद

सौरभ

एक

लो फिर आने लगी प्यारी नींद

रात जब चढ़ने लगी

गाने लगी मीठी लोरी

आने लगी हौले से दस्तक देती

मेरी पलकों के दरवाजे पे

मीठी नींद।

रात के गीत पर

नींद का मधुर संगीत

छाती है मदहोशी

मेरे मानस पर

आती है तब मीठी नींद ।

मेरे मन पे तन पे

रात का चैन

देता है शीतलता

नींद देती विश्राम।

दो

नींद न ढूंढे ओढण बिछौना

भूख न ढूंढे सब्जी भाजी......

सच्च कहा है

आ जाती यकदम

चाहे हो पत्थर का सिरहाना

न आए तो न आए

मख़मली हो बिस्तर।

तीन

रचे जा रहे न जाने कितने षडयन्त्र

मैं सोया

पैनी की जा रही कटार

लटकी है तलवार

मैं सोया

लूटा जा रहा गहना गठड़ी

जान पहचान मान सम्मान

मैं सोया

हां, कभी बनते बनते रहता सेठ

या सुल्तान

कहते लोग महान ही महान

मैं सोया

अरे! सोया और मरा

एक समान।

चार

कब तक नींद में रहोगे

कहते संत

जागो, अब तो जागो

यह उपदेश जागे हुओं के लिए

जागे सो पाये

सोये सो खोये।

पांच

गहरी नींद करती तरोताज़ा

जागा हुआ आदमी कर जाता कई कुछ

अलसाया, रहता उन्माद में खोया

अच्छी नींद कब आए

सोचते सोचते सोता आज आदमी

नींद में जागता

जाग जाग कर सोता

जागा हुआ भी रहता

खोया खोया

सोया सोया।

छः

कच्ची नींद

बच्चे की, चाहे बड़े की

बनती आंखों की किरकिरी

रोता बच्चा, घुटता बड़ा

बच्चा कभी हंसता भी, कुढ़ता रहता बड़ा

पक्की नींद आए, गहरी

सब को नसीब नहीं

सोने नहीं देता सोने का व्यापार

घोड़े बिकते नहीं

नींद आती नहीं।

सात

नींद नहीं आती

ड्‌योढ़ी के भीतर

नहीं आती फाइव स्टार में

आ जाए तो आ जाए

फुटपाथ में

क्या कर लोगे!

आठ

थका है, परेशान है

बीमार है

श.....

नींद आई है

श.....

सोने दो....सोने दो....सोने दो....।

सौरभ

हिमाचल कला संस्कृति भाषा अकादमी शिमला—171009

(094180—40859)

पहाड़

सौरभ

यह पहाड़ सा पहाड़

वहीं का वहीं सदियों से

बैठा समाधिस्थ

कोई मेनका न तोड़ पाई इसकी साधना,

जाने कब प्रसन्न होंगे प्रभु इस पर

कहेंगे, ‘वर मांगो‘

यह पहाड़ तब शायद थोड़ा हिलेगा।

हिमाचल कला संस्कृति भाषा अकादमी शिमला—171009

(094180—40859)

किताबें

सौरभ

कोने में पड़ी किताबें

धूल चाटतीं

अच्छी नहीं लगतीं

धूल भरे चेहरे सा लेखक का नाम

अच्छा नहीं लगता

अंतिम सांसें लेता लेखक का नाम

अच्छा नहीं लगता

अच्छी लगती हैं टेबिल पर

सलीके सी सजी,

अच्छी लगती हैं सदा ही

टेबल लैंप की रोशनी में किताबें

इन किताबों में लेखक का नाम

अच्छा लगता सदा

चमकता, चमकाता,

न कि धूल झांकता।

हिमाचल कला संस्कृति भाषा अकादमी शिमला—2

(094180—40859)

बाल्टी

सौरभ

एक

गहरे कुएं में बैठा मेंढक, टर्रा रहा है

जानता है वह केवल कुएं को ही

कुआं ही उसका सारा संसार

वह नहीं जानता ऊपर से आ रही बाल्टी

निकाल देगी उसे कुएंंंं से

करवाएगी दर्शन अन्नंत का।

दो

गहरे कुएं में बैठा मेंढक, टर्रा रहा है,

जानता है वह, कि है संसार, इस कुएं से बाहर

सुन रखा है उसने बुजुगोर्ं से

वह पूरी श्रद्धा से आस लगाए है

कि आएगी इक बाल्टी

उसे खींच ले जाएगी।

हिमाचल कला संस्कृति भाषा अकादमी शिमला—171009

(094180—40859)

पेड़

सौरभ

एक

पक्षी की टेर सुनता

कभी बहती हवा को सुनता

कभी सुनता गुजरते राहगीर को

सुनता ऊपर चढती चींटी को भी

सब कुछ सुनता सहता रहता

कभी भी यह कुछ न कहता

बढ़ता रहता स्थिर गति से

क्या साधु है यह पेड़!

दो

ऊंचा ओैर ऊंचा

बढना चाहता बादलों से भी ऊपर

छूना चाहता नीला आकाश

चाहे उठे कितना ही ऊंचा

नहीं छोड़ता अपना आधार

पेड जड़ों से ही तो है।

तीन

कभी कुछ नहीं कहते

पेड, धरती, हवा कभी कुछ नहीं कहते

देते सदा ही दोनों हाथों से

कभी कुछ नहीं लेते

शायद इसलिए, कुछ नहीं कहते।

हिमाचल कला संस्कृति भाषा अकादमी शिमला—171009

(94180—40859)

पानी

सौरभ

पानी भी क्या चीज बनाई

तरल, सरल, पी भी लो, नहा भी लो

गन्दगी हो तो साफ कर लो

चाहो तो भगवान को चढ़ा लो

मन्दिर से मिले तो चरणमृत हो जाए

बीयर बार में मदिरा

ज्यादा बरसे तो बाढ, कम तो सूखा

जब तक नदी में रहे तो मीठा

समुद्र में मिले तो खारा

पानी एक, रंग हजार

वैसे ही, आत्मा एक मनुष्य हजार।

हिमाचल कला संस्कृति भाषा अकादमी शिमला—171009

(094180—40859)

मानो, न मानो

सौरभ

मानो तो है सब

भगवान, आत्मा, चमत्कार

न मानो तो न मानो

मानो तो हैं हम भी तुम भी, यहां इस पल

न मानो तो न मानो

मानो, तो उठता है दर्द सीने में

अख़्ाबार में जब पढ़ते हैं अनाचार दुराचार

न मानो तो न मानो

मानो, तो हम भी इन्सान हैं इक अच्छे

न मानो तो न मानो

मानो तो अब भी तुम्हारी पुकार पे दौड़े चले आएं हम

न मानो तो न मानो

मानो तो हमारे सीने में भी धड़कता है इक दिल

न मानो तो न मानो

मानो तो अब भी चांद पे रहती हैं परियां

न मानो तो न मानो

मानो तो अब भी सुनता है वह सबकी

न मानो तो न मानो।

जीवन

सौरभ

एक

उजालों की आस में

अंधेरे

सुबह की आस में

शाम

सृष्टि की आस में

प्रलय

जीवन की आस में

मृत्यु

जिए जा रही है।

दो

उस शाम

थी हल्की बारिश

उस सुबह

शर्माई थी सी धूप

उस दोपहर

सुस्ती सी थी छाई

उस दिन

मस्त सा था माहौल

उस क्षण

स्तब्ध था मैं

जीवन

यूं ही बीता जा रहा।

तीन

कभी लड़ता

कभी झगड़ता

कभी यूं ही यायावर सा

बीता जा रहा

जीवन।

चार

कभी चाह में

कभी आस में

कभी पाने में

कभी खोने में

खतम हो रहा

हर क्षण

प्रतिक्षण

जीवन।

पांच

खतम नहीं होती चाह

खतम नहीं होता भविष्य

सदा रहता हरा

खतम जो होता है

वह है

जीवन

छः

अमरता की तलाश में

योगी

मृत्यु को भूला

मस्ताना राही

वक्त सदा चलता रहता

जीवन को काटता

निश्चित ही।

सात

संसार नाम है

चलने का

कुछ कहते हैं

जीवन भी

मैं कहता हूं

जीवन का नाम

मृत्यु है।

आठ

अठखेलियां

बच्चे की

नौजवान के

सपने

बुढ़ापे की कहानियां

पाती हैं विश्राम

एक दिन।

नौ

आते हैं

जाते हैं

जीवन पाते हैं

तो मृत्यु भी

ज्ञानी कहते हैं

द्वैत है

इक सपना।

दस

पल पल जीते हैं कभी

कभी मरते पल पल

इक दिन विराम को प्राप्त हो

नष्ट।

ग्यारह

मैं, मेरा

मृत्यु की नज़र में

सब एक।

बारह

महल भी गिर गए

नहीं रहे उन्हें बनाने वाले

बदल गया ज़माना

अगर कुछ नहीं बदला

मृत्यु।

तेरह

चल पड़े बाराती

जीवन बढ़ गया

प्रतीत होता।

चौदह

सदा के लिए तो कुछ भी नहीं है

जीवन है तो मृत्यु भी है

तो क्या

जीवन

जीवन है।

पंद्रह

आते हुए कुछ नहीं थे

जाते हुए कुछ नहीं होंगे

हैं जब तक, तब तक

जीवन, खेल—तमाशा।

सोलह

मृत्यु तू जीवन संगीनी है

कुछ पाते ऐसा जीवन

जो मुनि हैं जो जति हैं।

जीवन के रंग

सौरभ

एक

खिलती धूप

गुनगुनाते पक्षियों की चहक

महकते फूलों की खुशबू

शांत सांझ

सुबह की ताज़ा हवा

घुमड़ते बादलों की मस्ती

रिमझिम बरसात का गुनगुना पानी

नाचते बच्चे

जीवन।

दो

निश्चित्‌ गति से

अपनी मंजिल की ओर

नाचता—गाता

अपने में मस्त

निश्िचिंत।

तीन

एक ही समय में

खिली हुई धूप

टपकती बारिश की नन्हीं बूंदे

लहराती नृत्यमय हवा

लहलहाते खेत

प्रकृति खेल रत

सब मस्त, मग्न।

चार

खिलौनों की चाह लिए

नन्हीं परी

चाहत में खोई

नन्हीं चाहत।

पांच

मुस्कुराता

तृप्त

बुढ़ापा

संतुष्ट

छः

पूरे उफान पर

बहता पानी

तोड़ दे सारे बन्धन

जवानी।

सात

पौधे

बूटे

पेड़

चरते पशु

चहचहाते पंछी

गांव का गीत

आठ

महकते फूल

खिले चेहरे

खुशी

नौ

गुनगुनाते होंठ

बजते वाद्य

मग्न

दस

मौन

प्रफुल्लित

खुशबू लिए

ग्यारह

तितली की उड़ान

फूलों की महक

सूर्य की पहली किरण

नवजात की किलकारी

प्रिय की नज़र

जिंदगी।

बारह

पहली पगार

पहली प्रोमोशन

कॉलेज का पहला दिन

पहला प्यार

परिचय

जिंदगी।

तेरह

बस के पीछे भागना

इम्तिहान के उत्तर का अचानक याद आ जाना

पहली मुलाकात का झिझकना

कॉलेज से बंक

हॉस्टल में देरी से वापिस आना

इक रोमांच

जिंदगी

चौदह

वह पहली कविता का छपना

खोए हुए दोस्त का मिलना

मीठी बातों का याद आना

याद

जिंदगी

पंद्रह

सीधे—सीधे

चलते जाना

टेढ़े मेढ़े

गिरना पड़ना

उठना

जिंदगी।

सोलह

प्यार है

भक्ति है

घर—संसार

नाती—पोते

सब है जिंदगी

तभी तो अति प्यारी है

जिंदगी।

सत्रह

प्यारी है

तभी तो

सभी की दुलारी है

जिंदगी

शायर की गज़ल है

कवि का ख्वाब है

जिंदगी

कभी सूर्य की रोशनी है

कभी बादलों का छांव है

जिंदगी।

अठारह

जान—पहचान

गप—शप

दोस्त—मित्र

ज़िंदगानी है

जिंदगी।

सौरभ

हिमाचल कला संस्कृति भाषा अकादमी

शिमला—171001

(094180—40859)