Trutiypanthi yani kinnaro ki shiksha in Hindi Magazine by kaushlendra prapanna books and stories PDF | तृतीयपंथी यानी किन्नरों की शिक्षा

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तृतीयपंथी यानी किन्नरों की शिक्षा

तृतीयपंथी यानी किन्नरों की शिक्षा

कौशलेद्र प्रपन्न

मध्य प्रदेश में चल रहे महाकुंभ में नागा,साधुओं के महास्नान और मठों के तर्ज पर किन्नरों के मठ का भी निर्माण हुआ। इस किन्नर समाज के मठ के मुखिया के तौर पर श्री लक्ष्मी नारायण त्रिपाठी को चुना गया है। गौरतलब हो कि लक्ष्मी नारायण त्रिपाठी ने पूर्व में यूएन के जेनरल एसेम्बली में तृतीय लिंगी समाज की व्यथा कथा के लिए वकालत कर चुकी हैं। यह एक ऐतिहासिक कदम ही माना जाएगा। क्योंकि अभी तक विभिन्न मठों के मुखिया ही महास्नान किया करते थे। लेकिन इस बार तृतीयपंथी की भी सहभागिता हुई। इससे एक संदेश मुख्यधारा के समाज और नागर समाज को जाता है कि अब तक हाशिए पर जीवन बसर करने वाले तृतीयपंथी भी इसी समजा के हिस्सा हैं और इस लिहाज से समाज के तमाम स्वीकृत कर्मां में उनकी भी सहभागिता तय की जानी चाहिए। प्रकारांतर से तृतीयपंथी समाज को शिक्षा,विकास,स्वास्थ्य आदि स्तरों पर मुख्यधारा में जुड़ने की आवश्यकता है। वास्तव में शिक्षा भी सामाजिक को ताकत और क्षमता प्रदान करती है इससे किसी को भी गुरेज नहीं होना चाहिए। यदि तृतीयपंथी समाज को भी शिक्षा का औजार मिल जाए तो उन्हें और उनके समाज को रोशनी में नहाने से कोई नहीं रोक सकता। यह अलग विमर्श का मुद्दा है कि अब के शैक्षिक दस्तावेजों और नीतियों में उनके लिए कोई खास कदम नहीं उठाए गए। लेकिन इसका अर्थ यह नहीं कि कभी न उठाए जाएं। इस आलेख में प्रमुखता से तृतीयपंथी समाज को कैसे और किन स्तरों पर शिक्षा की मुख्यधारा से विलगा कर रखा गया उस पर तो विमर्श किया ही जाएगा साथ ही समाजो सांस्कृतिक स्तर भी कैसे इन्हें छिनगाया गया है उस ओर भी झांकना और वहां से एक मार्गदर्शिका लेकर वर्तमान को दुरुस्त करना मकसद है।

तृतीयपंथी,उभयलिंगी,हिजड़ा,यूनक,किन्नर,खोजवा,मौगा,छक्का, पावैया, खुस्रा, जनखा, शिरूरनान गाई, अनरावनी आदि नामों से समाज में प्रचलित इस वर्ग को हमने भय,डर, उपेक्षा की दृष्टि से ही देखा है। हिजड़ा शब्द उर्दू के हिजर से बना है। वह भी अरबी ये आया हुआ इसका अर्थ ही होता है समाज से बेदख़ल किया गया। समाज से बहार निकाला हुआ। यह अलग बात है कि वे हमारे इसी समाज के मुख्यधारा के सहयात्री हैं। बस फर्क उनके लिंगानुसार व्यवहार और भावनाओं में अंतर का है। प्रकृति से ही उन्हें समाज ने एक अलग हिस्से के तौर पर जाना पहचाना है। यह अगल बात है कि उनकी चर्चा महाभारत,रामायण, कामसूत्र आदि में होती है। लेकिन कितनी अफसोसनाक बात है कि हमारी शिक्षा और शैक्षिक नीतियों में इनके लिए कोई प्रावधान नहीं है। यूं तो न्यायपालिका ने समय समय पर हस्तक्षेप किए हैं। तमिलनाडू राज्य में केर्ट ने इन्हें राशन कार्ड,वोटर कार्ड में नामाकन के आदेश 1998 में दिए थे जिसका परिणाम यह हुआ कि इस राज्य में हिजड़ों की स्थिति काननन तौर पर अन्य राज्यों से बेहतर है। वहीं दिल्ली उच्च न्यायालय ने अप्रैल 2014 में आदेश दिया था कि सरकारी फार्म में स्त्री पुरुष के साथ ही तृतीय लिंग व अन्य नाम से कॉलम बनाएं। इन्हें शिक्षा,रोजगार आदि में स्थान दिए जाएं। याद हो कि यह वही वर्ष है जब मध्य प्रदेश में शबनम मौसी ने चुनाव जीता था। आगे चल कर कमला जान और उत्तर प्रदेश के गोरखपुर में भी हिजडे ने अपनी उपस्थिति दर्ज की थी, लेकिन क्योंकि जिस सीट पर जीत हुई थी वह सीट महिलाओं के लिए आरक्षित होने कही वजह से हिजड़ों को वह सीट छोड़नी पड़ी। आज की तारीख में लोकतंत्र के चारों स्तम्भों में से पत्रकारिता, न्यायपालिका आदि में तो काफी सक्रियता से इनकी आवाज को स्थान दी जा रही हैं। लेकिन कार्यपालिका में अभी संतोषजनक प्रयास नहीं हुए हैं। हालांकि महाराष्ट, बिहार, मध्य प्रदेश, तमिलनाडू आदि राज्यों में इन्हें वोट देने से लेकर इनकी पहचान सुनिश्चित करने के कई कदम उठाए गए हैं।

आज यह तृतीयपंथी यानी किन्नरों की शिक्षा को लेकर देश की तमाम समितियां, सिफारिशें, नीतियां मौन हैं। यदि आजादी के बाद के आयोगों, समितियों और राष्टीय शिक्षा नीति पर नजर डालें तो इन दस्तावेजों और सिफारिशों में किन्नरों व ऐसे बच्चों की शिक्षा के विशेष प्रावधान,परामर्श एवं मार्गदर्शन की कोई बात नहीं की गई है। संभव है आयोगों और नीति के स्तर पर मान लिया गया हो कि उनकी नजर में तृतीयपंथी बच्चे कोई अलग व विशेष नहीं हैं। इन्हें भी सामान्य बच्चों के साथ शिक्षा हासिल करने का पूर्ण अधिकार है। यह एक मूल्यपरक जवाब तो हो सकते हैं। लेंकिन हकीकत है कि यदि ख़ास रूचि और लिंगीय बरताव वाले बच्चों को सामान्य बच्चों के साथ स्कूलों में पढ़ना कितना मुश्किल होता है। बच्चे चिढ़ाते हैं। उनके साथ सामान्य व्यवहार नहीं करते। समाज उन्हें छेड़ता है। समाज में वे खुल कर नहीं खेल पाते। मां-बाप ऐसे विशेष बच्चों के साथ खेलने से रोकते हैं। और यह अलगाव के बरताव उनकी सामाजिक पहचान और अस्मिता को आकार देने लगती हैं। अंतरराष्टीय स्तर पर संपन्न संयुक्त राष्ट बाल अधिकार सम्मेलन 1989 में दर्ज बाल अधिकारों में इन्हें कोई स्थान नहीं दिया गया है। यूं तो शिक्षा, जीवन आदि का अधिकार सभी बच्चों को है, लेकिन समाज में उपेक्षापूर्ण जीवन जी रहे ऐसे बच्चों के लिए कोई विशेष प्रावधान इस यूएनसीआरसी 89 में भी नहीं है। इसका एक सरल जवाब यही दिया जा सकता है कि इन्हें हम अलग व विशेष नहीं मानते। इसलिए अलग से व्यवस्था की जरूरत नहीं है। लेकिन हकीकतन ऐसा नहीं है। समाज और घर में उन्हें असमान ही बरताव सहना पड़ता है। किन्नरों में कुछ की कहानी अगल है जिसमें लक्षमी नारायण त्रिपाठी आती हैं जिन्हें आज भी परिवार का प्यार,मान सम्मान मिलता है। ऐसे किन्नरां की संख्या बेहद कम है जिन्हें हिजड़ा बनने के बाद भी परिवार में वही इज्जत और प्यार मिलता रहा हो। अव्वल तो उन्हें उपेक्षित अपने हाल पर ही छोड़ दिया जाता है। और देखते ही देखते वे भीख मांगने पर मजबूर हो जाती हैं। हमारे ही आस पास कितने ऐसे किन्नर नजर आते हैं जिनकी स्थिति बेहतर है। गुरुओं की बात छोड़ दी जाए तो सड़क पर भीख मांगते या फिर बच्चों के जन्म और शादी ब्याह के अवसर पर तालियां बजा कर अपना जीवन काटती हैं।

कई बार शिक्षा की ओर बहुत उम्मीद से ताकता हूं कि क्या कहीं किसी नीति व समिति या फिर पाठ्यक्रम,पाठ्यपुस्तक में इनके भूगोल,इतिहास,संस्कृति,समाज के बारे में कोई मुकम्मल परिचय दिया जाता है। लेकिन बेहद निराशा ही मिलती है। कोई भी पाठ्यपुस्तक कोई भी पाठ्यक्रम इनके भूगोल और मानचित्र से हमारी पहचान नहीं कराते। यही वजह है कि बच्चे समाज के तमाम वर्गों के लेगों, हमारे मददगार नाई, मोची, डाक्टर, मास्टर आदि के बारे में प्राथमिक कक्षाओं में परिचित हो जाते हैं, लेकिन हमारे ही समाज में जीने वाले किन्नरों के बारे में न तो कोई बात बताई जाती है और न ही जानकारी के तौर पर एक दो वाक्य खर्च किए जाते हैं। यह किस मानसिकता की ओर इशारा करता है इसे भी समझने की आवश्यकता है। दरअसल हमारा पूरा सामाजिकरण लड़का और लड़की, स्त्री और पुरुष के तौर पर ही होता है। यहां किन्नरों यानी तृतीयपंथी के लिए कोई स्थान नहीं दिया गया। समाज में विभिन्न नामों से इन्हें पुकारते जरूर हैं छक्का, मौगा, हिजड़ा, खोजवा आदि। लेकिन इनकी प्रकृति और समाज हमारे मुख्य समाज से कैसे अलग पहचान रखने लगा इसके बारे में हमारा इतिहास, भूगोल, शिक्षा शास्त्र सब के सब ख़ामोश ही रहते हैं।

साहित्य की बात करें तो इस विषय पर बहुत ही कम शोध मिलते हैं। कहानी उपन्यास, आत्मसंस्मरण, रेखाचित्रादि भी न के बराबर है। यदि कुछ मिलता है तो वह दंतकथाएं, कही सुनी बातें जिसपर हम धारणाएं बना लेते हैं। हम दरअसल एक पूर्वग्रह के शिकार हो जाते हैं। हम वैसी ही स्थितियां मान भी लेते हैं कि हिजड़ों में मरने बाद रात में लाश को नंगा कर ले जाया जाता है। इनके लिंगछेद हुए होते हैं। वे बच्चों को उठाकर उन्हें जबरन लिंग काट कर हिजड़ा समुदाय में शामिल कर लेते हैं आदि। किन्तु यह पूरा सच नहीं है। जहां तक साहित्य के मौन की बात है तो वास्तव में हिन्दी में अबतक शायद पांच छह से ज्यादा कहानी,उपन्यास व अन्य पुस्तक लिखी गई हैं जिन्हें पढ़कर किन्नर समुदाय को समझा जा सके। साहित्य और समाज के हाशिए पर जीवन बसर करने वाली लक्ष्मी नारायण त्रिपाठी की आत्मकथा मैं हिजड़ा मैं लक्ष्मी किताब इसी वर्ष छप कर आई है। यह किताब बड़ी ही शिद्दत से हिजड़ा समुदाय के भूगोल को तथ्यपरक और साक्ष्य सहित जानकारियां भर ही नहीं देती, बल्कि एक किन्नर को किस किस तरह के सामाजिक, मानसिक और शारीरिक भेद-शोषण के दौर से गुजरना पड़ता है इसकी भी झलक इस किताब में मिलती है। इस किताब से पूर्व अंग्रेजी में लिखी किताब निदर मैंन नौर विमेन इन इंडिया। यह किताब जिस गंभीरता से किन्नरां के समाज, भूगोल और मनोविज्ञान की ओर पाठकों का ध्यान खींचती है वैसी किताब हिन्दी में अब तक कोई नहीं है। यह जिस ओर संकेत करती है वह निराशाजनक है। साहित्य आदि भी इन्हें अपना विषय नहीं बनाना चाहते। या कह लें इनके पास भी पर्याप्त जानकारी नहीं है कि इनकी दुनिया आखिर है कैसी और कैसे चलती है। दिलचस्पी का न होना और रूचि भी न लेना दोनों में ख़ासा अंतर है। वास्तव में न तो हमारी रूचि होती है और न हम जानना ही चाहते हैं। यही कारण है कि ये हमारे आस पास होते हुए भी हमसे कोसों दूर होते हैं।

हिजड़ों को लेकर फिल्मों में कई भूमिकाएं निभाई गईं। फिल्मों में दो तरह की किन्नरों की कथा गाथा मिलती है। पहला वे जो महज साड़ी पहन कर नाच गाने करती हैं। जिनकी आवाज स्त्रैण होती है। दूसरी वैसी फिल्में हैं जिसमें किन्नरों को मुख्य भूमिका में रखते हुए उनकी दुनिया की कुछ जानकारियां और संवेदनाओं को समाज के सामने लाया गया है। सदाशिव आम्रपुरकर ने सड़क में, आशुतोष राणा ने संघर्ष में सशक्त भूमिका निभाई है। वहीं परेश रावल ने भी किन्नरों की भावनात्मक पक्ष को उभारने की तमन्ना फिल्म में कोशिश की है। सबसे दिलचस्प और सामाजिक राजनीतिक हस्तक्षेप करने वाली शबनम मौसी की कहानी से मिलती जुलती हु ब हु समान तो नहीं किनतु वेलकम टू सज्जनपुर फिल्म है। इसमें एक हिजड़ा चुनाव में खड़ा होता है। काफी जद्दो जहद के बाद चुनाव जीत भी जाती है किन्तु उस गांव के वर्चस्वशाली परिवार को यह जीत नागवार गुजरी। एक दिन सुबह उस हिजड़े की लाश नहर किनारे मिलती है। यह फिल्म वास्तव में समाज और समाज के नीति निर्माताओं के लिए एक आईना है।

मैं हिजड़ा मैं लक्ष्मी किताब में लक्ष्मी नारायण बड़ी ही साफगोई से अपनी आपबीती कहानी, व्यथा-कथा कहती हैं। कहती हैं कि हम हिजड़ों को समाज के मुख्य अंग बन कर ही जीना चाहिए। हम क्यों समाज से विमुख रहें। हम तभी समाज का हिस्सा बन सकते हैं जब हम ज्यादा से ज्यादा दिखाई देंगे यानी विजबल हांगे। लक्ष्मी जी ने न केवल भारत में बल्कि यूएन के जनरल एसेम्बली में हिजड़ों की आवाज उठा चुकी हैं। इतना ही नहीं विश्व भर में टांस्जेंडर के मसले की वकालत कर रही हैं। आज की तारीख में एक लक्ष्मी नहीं हैं जो किन्नरों की स्थिति सुधरे। बल्कि कई सारी संस्थाएं जिसे किन्नर समाज ने स्थापित किया इन्हें जागरूक करने का काम कर रही हैं। स्वास्थ्य, शिक्षा, वोट आदि अधिकार मिले इसके लिए लगातार देश भर में विभिन्न संस्थाएं काम कर रही हैं। दरअसल इसी समाज में उन्हें दोयमदर्जे की जिंदगी इसलिए बसर करनी पड़ रही है क्योंकि हमारी नीतियां स्पष्ट नहीं है। शिक्षा की मुख्यधारा में उन्हें समावेशित करने की ताकत कमजोर हो चुकी है। हालांकि लक्ष्मी ने अपनी पढ़ाई बी काम तक कैसे और किन मानसिक,सामाजिक और सांस्कृतिक दबाओं के तहत पूरी की इसकी बानगी हमें मैं हिजड़ा मैं लक्ष्मी में मिलती है। ऐसे ही बारहवीं और बी ए तक पढ़े किन्नर मिलते हैं लेकिन स्कूल से कॉलेज तक के सफर में कितना और किस स्तर तक इन्हें छीला गया, खखोरा गया यह वे ही बेहतर जानते और बताते हैं। हालांकि लक्ष्मी को अच्छे गुरु मिले जिन्होंने स्कूली स्तर पर इनकी डांस कौशल को काफी सराहा और प्रोत्साहित किया। उसी तरह से इन्हें अपने घर में भी मां-पिता और भाई,बहनों से भी भरपूर प्यार मिला। लेकिन समाज ने इन्हें बचपन में ही तृतीयपंथी के कुछ लक्षण देखते हुए बड़े लड़कों ने इनका शारीरिक शोषण भी किया। आमतौर पर किन्नरां में एच आई बी होने की आशंका बनी रहती है ख़ासकर जो उस काम में लगे हैं। लक्ष्मी स्वयं स्वीकारती हैं कि उनके समुदाय में इस किस्म की मौत बहुत होती हैं। इसे रोकने के लिए इनकी संस्था अस्तित्व ने ठाणे में काफी काम किया। देश भर में जागरूकता अभियान भी चलाया। एच आई बी न हो इसके लिए सेक्स बिना कंडोम के न करें आदि जानकारियां देने का काम अस्तित्व करती है। यदि पुलिस व प्रशासन की ओर से हिजड़ों को बेवजह परेशान किया जाता है तब भी विभिन्न संस्थाएं उनके बचाव में खड़ी हो जाती हैं।

शिक्षा और संवेदनशीलता इन दो औजारों से तृतीयपंथी समाज को विकास की मुख्यधारा से जोड़ने में मदद मिलेगी। हमें लोकतंत्र के दो कार्यपालिका और न्यायपालिका से भी काफी उम्मीद है। साथ ही साथ पत्रकारिता तो समय समय पर इस समाज को उठाने और इनकी दुनिया पर स्टोरी कर आम लोगों के बीच जागरूकता पैदा करने की कोशिश करती है। हाल ही में एक मीडिया घराने से निकलने वाली डेली अंग्रेजी अख्.ाबार के संडे मैग्जीन में टांस्जेंडर किन्नरों की बदलती भूमिका और उनकी म्यूजिक बैंड पर स्टोरी छापी। इसे देख पढ़कर लगता है कि मीडिया भी इन्हें समाज की मुख्यधारा से जोड़ने और करीब लाने में बड़ी भूमिका निभा सकती है। इसी किस्म का काम लक्ष्मी ने कुछ साल पहले हिजड़ों में ब्यूटी क्वीन कांटेस्ट करा कर समाज और मीडिया का ध्यान इस समाज की ओर खींचने की कोशिश की थी।

कौशलेंद्र प्रपन्न

भाषा एवं शिक्षा विशेषज्ञ

टेक महिन्द्रा फाउंउेशन

डी 11/25 सेकेंड फ्लोर रोहिणी सेक्टर 8

दिल्ली 110085

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