बंद कमरे की रोशनी
गांव के मंदिर में रौनक लौट आयी थी। नित्य पौ फटते ही पक्षियों की चहचहाहट और मंदिर की घंटियों की आवाज के साथ पुजारी जी के मुँह से फूटते आरती के स्वरों से निर्मित मोहक संगीत भोर की पुरवाई में घुलकर पूरे गांव में छाने लगता। सूर्योदय के साथ ही रोजी -रोटीे के संघर्ष के लिए काम पर जाते लोगों का ताँता लग जाता मंदिर दर्शन को , और पुजारी से आशीर्वाद के लिए और पुजारी जी मनोकामना पूर्ती का आशीष देते , तो लोगों को लगता उनकी कामना पूरी हो गयी और इसी आशा भरे सुकून के साथ लोग पूरे आत्म विश्वास से अपनी दैनिक कामों में जुटते, जिससे रोटी के साथ दोनों वक्त तरकारी भी मिलने लगी । मंदिर के अहाते में एवं मंदिर के बगल में रास्ते के किनारे हरे-भरे लहलहाते पेड़ जिनकी छितराई हुई टेढ़ी-मेढ़ी छाया राहगीरों को पूरा सुकून देती । सब पुजारी जी की मेहनत और लगन का नतीजा था। इस मंदिर पर पुजारी जी को आये लगभग पाँच वर्ष हो गये और आए क्या, वे तो जैसे प्रकट हुए थे। कल ही की तो बात लगती है जब, यह मंदिर गांव वालों की स्मृतियों में खो चुका था। वर्षों से अंधकार में डूबा यह आस्था स्थल वीरान हो गया था। वैसे तो कभी-कभार कोई भूला बिसरा आदमी दिन के समय मंदिर में आ भी जाता था , मगर , जबसे यह बात फैली कि मंदिर में भूत-प्रेतों का निवास है , मंदिर की तरफ लोगों ने फटकना भी बन्द कर दिया और यह स्थल मकड़ी ,चमगादड़ों एवं चोर -उचक्कों का आश्रय बन गया।
उस दिन, बिहारी चाचा को शहर जाने के लिए अड्डे से पहली बस पकड़नी थी सो बिहारी चाचा चार बजे अंधेरे में ही घर से अड्डे की ओर निकल लिए । उन्हें पता था कि पहली बस पाँच बजे जाती है । ……‘‘मंदिर से होकर जाने वाले रास्ते से जल्दी पहुँच जाऊँगा |’’ , यह ही सोचकर बिहारी चाचा उसी रास्ते से चल पड़े जो मंदिर के करीब से गुजरता था, अतः मन में किंचित भय भी था, मगर, फिर सोचा -मुझ बुड्ढे आदमी का भूत-प्रेत क्या करेंगे। मंदिर के करीब पहुँचने पर बिहारी चाचा को झुटपुटे अंधेरे में एक भूरी आकृति मंदिर को बुहारती हुयी सी प्रतीत हुई । बस ,पसीने से नहा गये बिहारी चाचा और उल्टे पांव हाँफते हुए घर पहुँचे। बात आग की तरह गांव भर में फैल गई, कि बिहारी चाचा ने मंदिर में भूत को झाडू लगाते हुए देखा है। भोर की पहली किरण के साथ लोगों का एक हुजूम मंदिर पहुँच गया, मन की जिज्ञासा शांत करने। पुजारी जी अभी भी मंदिर की सफाई में लीन थे, जब लोगों का भ्रम काफूर हुआ, कि, यह भूत नहीं साधू महाराज हैं लोगों ने पुजारी जी को समझाया भी, हरिया ने कहा, ‘‘बाबा इस मंदिर में तो भूत-प्रेतों का साया है, आप यहाँ क्या कर रहें हैं ?’’ बाबा के होठ काँपे थे ‘‘शैतान इस घर में नहीं, मन में है ,उसे निकाल दो फिर यहाँ पूरी शांति मिलेगी ’’। पुजारी जी की बातों से भ्रामक अवधारणाओं का किला तो पूरी तरह नहीं टूट सका, फिर भी कुछ लोगों ने हिम्मत जुटाई और मंदिर में पुजारी जी का सहयोग करने लगे।
कौन जाने ? पुजारी जी ने कहाँ-कहाँ से लाकर छायादार व फलदार पेड़ मंदिर के आस-पास लगाए थे पुजारी जी सारा-सारा दिन बस इसी के लिए ही जीते रहे। हालांकि गांव के कुछ युवकों ने पुजारी जी का हाथ बटाने की पुरजोर कोशिश भी कई बार की , मगर, पुजारी जी उन्हें हमेशा मना करते रहे। एक दिन हरिया व श्यामू ने कहा था ,‘महाराज! हमें भी कुछ धर्म -कर्म का काम करने दो ’ तब पुजारी जी ने श्यामू के सिर पर हाथ रखते हुए कहा था, ‘भगवान तुम्हारे इस धर्म कार्य से खुश नहीं होंगे बल्कि, तुम्हारे बच्चों के चेहरे की खुशी उन्हें जरूर खुश करेगी, तुम उनकी क्षुधा शांति के लिए परिश्रम करो, यहां के लिए मैं ही काफी हूँ ’’। पुजारी जी की दो वर्ष की मेहनत से मंदिर को भुला चुके भक्तों की खासी भीड़ इकट्ठी होने लगी ,और मंदिर भी चढ़ावा भी आने लगा। पुजारी जी ने वर्ष भर का चढ़ावा इकट्ठा करके, मंदिर के दालान में सड़क किनारे एक प्याऊ बनवाया ,जहाँ बैठकर पुजारी जी सारा दिन राहगीरों की तृषा शांत करते और लोगों से आग्रह करते – गांव में बच्चों के लिए एक पाठशाला बनवाने का इसी चिंतन में उनके चेहरे की लकीरें गाढ़ी हो गई थी उनके दुख का अंत पिछले वर्ष तब हुआ जब , मंदिर में चढ़ावे व् लोगों के सहयोग से पाठशाला खुली , और वे खुद भी बच्चों को संस्कृत पढ़ाने लगे।
गांव की तरक्की से जुड़ी पुजारी जी की चर्चा दूर -दूर तक होने लगी । यह तो नहीं पता कि यह सब भगवान की मर्जी थी या पुजारी जी की मेहनत का प्रतिफल, मगर हाँ, गांव वालों की नजर में पुजारी जी के सम्मान का भाव असीमित हो चुका था । गांव का कोई भी अच्छा कार्य पुजारी के आशीर्वाद के बिना मानो सोचा ही नहीं जा सकता था। उस दिन हरी सिंह की लड़की की बारात आनी थी। मंदिर के पिछवाड़े वाले अहाते में, बारात को ठहराना था , जिससे पुजारी जी ने ऐसे ही कार्यों के लिए, उबड़-खाबड़ बंजर सी पड़ी जमीन को समतल कर खोद-गोढ कर चारों ओर छोटे-बडे़ पौधे लगाए तथा पानी डाल-डाल कर बीच में घास लगायी थी । उस दिन ,खुद प्रधान जी सारा मंदिर पर व्यवस्थाओं की देख-रेख में मौजूद रहे थे । क्यों न रहते, हरी सिंह उनका छोटा भाई जो था। इसी बहाने प्रधान जी पुजारी जी के साथ पूरा दिन रहने को अपना सौभाग्य समझ रहे थे। प्रधान जी ने पुजारी जी से कई बार आग्रह किया आप आराम कर लें, मैं प्याऊ पर बैठता हूँ | पुजारी जी की कृष काया तो जैसे प्याऊ पर जैम ही गई थी बोले , “लोगों की प्यास बुझा कर मुझे आराम करने से कहीं ज्यादा सुख मिलता है|” प्रधान जी बिना कुछ कहे और कार्यों में जुट गये। दोपहर को प्याऊ खाली था, पुजारी जी नहीं थे | लगभग आधा घंटा बाद पुजारी जी मंदिर में बने अपने छोटे से कमरे से बाहर आये। इस बीच प्रधान जी ने प्याऊ को जीवित रखा। पुजारी जी को देखते ही एक गुनहगार की तरह प्रधान जी ने उठते हुए कहा, प्याऊ खाली था सो मैंने सोचा ……. ‘‘ कोई बात नहीं, मैं तनिक भगवान से प्रार्थना करने गया था‘‘। और पुजारी जी ने प्रधान जी की पीठ थपथपा दी। दो घंटे बाद पुजारी जी ने फिर एक बालक को प्याऊ पर बिठाया, और पुनः अपने कमरे में चले गये। प्रधान जी समझ गये, ‘‘ अब थक कर आराम करने गये है‘‘। किसी ने आवाज लगाई, प्रधान जी! बारात आ गई। प्रधान जी, कुछ लोगों को ज़रूरी हिदायतें देते हुए थोड़ी देर को मंदिर से बाहर चले गये, मगर, जब लोटे, तो पुजारी जी को प्याऊ पर बैठे पाया। प्रधान जी ने अनुनय की ‘‘ महाराज ! कुछ देर और आराम कर लेते‘‘। पुजारी जी, प्रधान जी की मासूमियत पर हल्का सा मुस्कराए, ‘‘ मैं भगवान से ध्यान लगा रहा था‘‘। प्रधान जी को, आज पता चला कि, पुजारी जी दिन में कई बार ध्यान मग्न होते है। तभी यह खुशियाँ गाँव की और लौट रही है। शाम को देर तक मंदिर की घंटियों की आवाज वातावरण में गूँजती रही। उस दिन के बाद, लोग पुजारी जी से मिलने समय देखकर आने लगे थे। उन्हें पता था कि दिन में किस समय कितने बार पुजारी जी ध्यान मग्न होते है। आज-कल प्रधान जी, मंदिर पर कुछ ज्यादा ही समय देने लगे थे। चुनाव करीब था। सो आस-पास के गांव के लोगों से भी आसानी से मुलाकात हो जाती थी । जैसे ही मौका मिलता प्रधान जी, बड़ी चतुराई से लोगों को बताते’ गाँव में पाठशाला बनवा दी है, बच्चे को पढ़ने भेजो। मंदिर का काया-कल्प आप देख ही रहे हैं ’’। प्रधान जी के यह कातर शब्द कथित दंभ में डूबे प्रतीत होते, उनकी मंशा इसी के सहारे चुनाव जीतने की थी। मगर लोगों की नजर में इन शब्दों से इस सब के पीछे पुजारी जी का अथाह परिश्रम कहीं आच्छादित नहीं होता था। प्रधान जी ने, शहर से श्रीहरन को भी बुला भेजा था, जिसकी वजह से प्रधान जी पिछला चुनाव भी जीते थे , क्योंकि श्रीहरन को राजनीति के सभी गुण आते थे, छल, बल, दल सब कुछ , उसके पास भरपूर था ।
श्रीहरन गांव पहुँचा तब तक अंधेरा पूरी तरह गांव उतर चुका था। श्रीहरन मंदिर की काया-कल्प को देखने को उतावला था, जो उसने प्रधान जी से सुना था। वह भी पुजारी जी से अभी मिलकर आशीर्वाद लेना चाहता था, सो उसी समय प्रधान जी के साथ मंदिर चला गया। प्रधान जी ने मंदिर के बाहर से ही आवाज दी – पुजारी जी ! पुजारी जी एक हाथ में थमे दीपक की टिमटिमाती लौ को, दूसरे हाथ की आड़ से जीवित रखने का प्रयास करते हुए, बाहर निकले जिसकी बुझी सी रोशनी, उनके चेहरे पर दिखायी दे रही थी । प्रधान जी ने, पुजारी जी के हाथ से दीपक ले लिया , अब श्रीहरन का चेहरा भी रोशन था। प्रधान जी ने, श्रीहरन को पुजारी जी के चरण स्पर्श के लिए कहा , मगर श्रीहरन तो जैसे पुजारी जी को देखते ही जड़ हो गया था । प्रधान जी ने , श्रीहरन को चेताने की कोशिश करते हुए पुजारी की ओर दृष्टि डाली, जो, चुँधिआयी आँखो से श्रीहरन को अपलक निहार रहे थे । प्रधान जी के झकझोरने पर, श्रीहरन की तन्द्रा टूटी । वह एक झटके से पलटा और प्रधान का हाथ पकड़कर लगभग खींचते हुए बोला ,‘‘चलो प्रधान जी !’’ दीपक पुजारी जी को थमा कर प्रधान जी लगभग घिसटते हुए श्रीहरन के साथ वापस चल पड़े । लेकिन , बार-बार पीछे मुड़कर पुजारी जी को भी देख रहे थे । पुजारी जी के हाथ में टिमटिमाती ज्योति दूर तक दिखती रही । प्रधान जी सोच रहे थे ,‘‘पुजारी जी का अपमान किया है हमने , इसलिए नाराज होकर अभी तक वहीं खड़े हैं ।
घर पहुँचते ही श्रीहरन ने बड़ी गम्भीरता से पूछा, ‘‘यही पुजारी है ? ’’ , ‘‘हाँ तो’’? ‘‘ प्रधान जी की बेचैनी और बड़ गयी । ‘‘जी नहीं ! यह पुजारी नहीं है , इसे मैं अच्छी तरह जानता हूँ। यह मेरे शहर का मास्टर अल्लादीन है , जो कॉलेज में संस्कृत पढ़ाता था । ’’ श्रीहरन ने इस बात पर पूरा जोर दिया था , जैसे बम फटा हो , और सारा गांव इकट्ठा हो गया । पुजारी के विषय में जानने की पूरे गांव की जिज्ञासा, प्रधान जी के चेहरे पर उतर आयी थी।
‘‘तो फिर , यह वर्षों से इस मंदिर और गांव की सेवा में क्यों जुटे है ?’’ प्रधान जी के हलक से मुश्किल से इतने ही शब्द फूटे थे । श्री हरन गम्भीर मुद्रा में चारपाई पर बैठ गया । पल भर में गाँव भर की भीड़ में सन्नाटा पसर गया जैसे किसी बड़े अदालती फैसले का इन्तजार हो । श्रीहरन कहने लगा ‘‘पिछले दंगों में मास्टर अल्लादीन के भरे पूरे परिवार को नष्ट कर दिया गया, इनके दो जवान बेटे और बीबी को घर में बन्द करके जला दिया गया । ’’ श्रीहरन यह सब बताते हुए किसी ऐतिहासिक विद्वान की भांति आत्मविश्वासी दम्भ में डूबा हुआ प्रतीत हो रहा था। जैसे किसी ऐसी घटना को सुना रहा था जिसे केवल वही जानता है, कोई और नहीं। श्रीहरन की आवाज फिर गूंजी ‘‘और यह सब किसी और ने नहीं, इनकी जात वालों ने ही किया था , जो इनके संस्कृत पढ़ाने से खुश नहीं थे वे इन्हें काफिर कहते थे । मास्टर उस दिन दूसरे शहर किसी समारोह में गये थे, उस दिन के बाद इन्हें वहां कभी नहीं देखा गया। यह वही अल्लादीन है, जो यहां तुम्हारा पुजारी बना बैठा है। ’’ श्रीहरन के शांत होते ही प्रधान जी बोल पडे़ , सही कह रहा श्रीहरन, यह पुजारी दिन में कई बार प्रार्थना नहीं करता बल्कि नमाज पढ़ता है, अब समझ में आया कि यह पुजारी नहीं है, तो फिर रहना भी नहीं चाहिये, क्यों भाइयों ?’’ इस बार कोने से बिहारी चाचा बोले ‘‘अब अल्लादीन हो या रामदीन क्या फर्क पड़ता है जब भगवान को ही इससे कोई आपत्ति नहीं हुयी तो हम क्यों परेशान हों ?’’ पीछे से हरिया का स्वर उभरा ‘‘उन्होंने इतने वर्षों की मेहनत से मंदिर को आबाद किया गाँव की खुशी के लिए खुद अपनी मेहनत से पुजारी जी ने क्या-क्या नहीं किया । अब इस सब को एक पल में हम कैसे भूल जाएं ?’’ कुछ और स्वर मिलते कि , श्रीहरन फट पड़ा ‘‘ कुछ भी हो यह पुजारी नहीं हो सकता, और फिर तुम क्या जानो , धार्मिक मामलों में ख्वामखाह टाँग अड़ाते हो। चलो ! उस मास्टर को मंदिर से अभी खदेड़ते हैं । ’’ श्रीहरन चारपाई से खड़ा हो गया, प्रधान जी भी श्री हरन के साथ खड़े हो गये, और फिर कितने ही स्वर एक हो गए। पूरा गाँव मंदिर पर जमा हो गया। प्रधान जी ने आवाज लगाई ,‘‘पुजारी जी ! ’’ अब तक पुजारी जी के हाथों लगे पौधे, फूल फुलवाड़ी न जाने कितने ही पैरों के नीचे रूँध गये, और उन्हें रौंदते हुए मंदिर में पहुंँच गये। मंदिर में टिमटिमाते दीपक की मलिन हो चुकी ज्योति अन्धकार में कहीं विलीन हो गई । मंदिर में पुजारी जी नहीं थे , परंतु उनके कमरे से रोशनी अभी भी झांक रही थी। जोर की आवाज के साथ कमरे का दरवाजा खोल दिया गया। कमरे में पुजारी नहीं दो धर्म ग्रंथ एक साथ रखे थे। दीये की मध्यम रोशनी में भी ग्रंथों के बादामी आवरण के बीच दबे पन्नों की सफेदी ऐसी चमक रहीं थी जैसे वह भीड़ को देख कर हँस रहे हों ।
,e0 guhQ enkj
56/56 “kgtkniqj lksubZ VIik
;equkikj] eFkqjk& 281001 ¼;w0 ih0½
Qksu& 08439244335
bZesy& hanifmadar@gmail.com