Kavita Verma
हैंडब्रेक
आज फिर सयाली को ऑफिस से निकलने में देर हो गई। उसने जल्दी से कंप्यूटर बंद किया टेबल पर रखी फाइलें और जरूरी कागजात ड्रावर में रख कर लॉक किया पेन पेंसिल स्टैंड में रखे और एक सरसरी नज़र टेबल पर डाली। ऑफिस छोड़ने से पहले वह सब व्यवस्थित कर लेती है फिर नीचे वाली ड्राअर से अपना पर्स निकाला। गीला टिशू पेपर निकाल कर चेहरा पोंछा छोटा आईना और कंघा निकाल कर बाल सँवारे लिपिस्टिक का एक कोट लगा कर उसे तरोताज़ा किया। फिर उसके हाथों ने बड़ी व्यग्रता से काजल पेंसिल को टटोला लेकिन वह नहीं मिली। ' बिना काजल के तुम्हारी आँखें रोई रोई सी लगती हैं ' दिमाग में कहीं कोई फुसफुसाया उसके हाथ तेज़ी से काजल पेंसिल ढूंढने लगे फिर उसने पूरा पर्स ही टेबल पर उलट दिया। पेंसिल लुढक कर नीचे गिरने ही वाली थी की उसने लपक कर उसे पकड़ लिया। काजल लगा कर उसने पलकें झपकाईं और मुस्कुरा के खुद से ही कहा अब ठीक है ना ?कभी ऑफिस से घर जाते हुए पहले स्वप्निल से मिलती थी तभी से ये आदत डाली थी ऑफिस से निकलने से पहले अपना मेकअप ठीक करने की। स्वप्निल के सामने वह खूब सजधज कर जाना चाहती थी जबकि जानती थी स्वप्निल शायद ही कभी इस पर ध्यान देता हो पर उसे अच्छा लगता था। उसने ये आदत अभी भी बरक़रार रखी है स्वप्निल से मिले दो साल हो गए उसके बाद भी। उसने सारा सामान जल्दी से पर्स में डाला कार की चाबी हाथ में ली और लगभग दौड़ाते हुए बाहर निकली।
अपने कलीग्स को हाय बाय करते उसने कार निकाली और जल्दी ही भागते दौड़ते शहर का हिस्सा बन गई। अचानक उसे महसूस हुआ कि उसे भूख लगी है पर कहीं रुक कर कॉफ़ी पीना मतलब और पंद्रह बीस मिनिट लेट होना। ठीक आठ बजे से माँ के फ़ोन आने शुरू हो जायेंगे और जब तक वह घर नहीं पहुँचेगी वे घर में अंदर बाहर चक्कर लगाती रहेंगी दसियों बार गेट खोल कर बाहर देखेंगी। नहीं अब और देर नहीं कर सकती। उसने कार के डेश बोर्ड से बिस्किट का टिन निकाला और उसे एक हाथ से खोलने की कोशिश करने लगी। नमी और चीटियों से बचाने के लिए उसी ने तो उसे कस कर बंद किया था उसी तरह जैसे उसने खुद को काम और महत्वाकांक्षा के घेरे में बंद कर रखा है जहाँ रिश्तों की नमी पहुँच नहीं पाती। ट्रेफिक सिग्नल पर गाड़ी रोकना पड़ी तब सयाली ने टिन खोला पहला टुकड़ा कुतरते ही उसे लगा उसे जोर से भूख लगी है।
हर शनिवार सयाली इंदौर से उज्जैन जाती थी मम्मी पापा के पास। इंदौर में वह अपनी जॉब की वजह से रहती थी। प्रायवेट जॉब के लंबे थकाऊ घंटों के बाद रोज रोज उज्जैन जाना संभव नहीं था और मम्मी पापा को उज्जैन में रहते अरसा बीत गया था इसलिए उनका मन वहीँ लगता था। वैसे भी वह सारा दिन बिज़ी रहती है। वैसे सिर्फ यही एक कारण नहीं है इंदौर में रहने का। उज्जैन से वे मधुर यादें भी जुडी हैं जो अब उसे भीतर तक चीर देती हैं। छुट्टी के दिन वहाँ जाकर भी वह खुद को घर में कैद कर लेती है थकान तो होती ही है उससे ज्यादा होता है खुद को उन जगहों पर जाने से बचाना जहाँ के चप्पे चप्पे में उसके और स्वप्निल के मधुर पल बिखरे हुए हैं।
वैसे यादें तो इंदौर के अपने फ्लैट में अकेले होते भी घेर लेती हैं पर वहाँ वह उन यादों से बतिया लेती है कभी कभी खिलखिला लेती है तो कभी गुस्सा होकर या दो आँसू बहा कर अपनी भावनाओं का इज़हार कर पाती है। ऐसे समय में अपने कमरे की चुप खड़ी दीवारें उसे बहुत अच्छी लगती हैं जो उससे कुछ पूछती नहीं बस चुपचाप उसके दुःख में शामिल रहती हैं। कई बार वह खुद ही उनसे पूछती है कुछ ऐसे सवाल जिनके जवाब वह जानती है या कुछ ऐसे सवाल जिनके सही जवाब वह सुनना नहीं चाहती और ऐसे में वे मौन दीवारें उसे सच्ची साथी ही लगती हैं।
गाडी की गति के साथ उसके विचार भी चल रहे थे लेकिन नज़र सड़क पर थी वैसे ही जैसे उसने अपने जीवन की बागडोर थामे रखी है। अभी दो साल ही तो हुए हैं कहने को बहुत लंबा समय है बीता भी बड़ी मुश्किल से है पर लगता है जैसे कल की ही बात हो। इन दो सालों में कोई संपर्क भी तो नहीं रहा उनके बीच उसने खुद को एक दायरे में समेट लिया लेकिन दिल से हमेशा स्वप्निल के आसपास ही रही। स्वप्निल ने भी तो कभी उससे कोई संपर्क नहीं किया अगर करता तो क्या वह जवाब देती ? इस प्रश्न का उत्तर वह कभी नहीं बूझ सकी। क्या पता वह भावावेश में रो पड़ती या शायद इतने समय का आक्रोश फूट पड़ता। वह अलबत्ता कभी कभी किसी से स्वप्निल के बारे में सुन लेती थी। वह अभी तक सिंगल है किसी से दोस्ती तक नहीं है। बहुत खामोश हो गया है।
जाने क्यों उसे लगता था स्वप्निल को उसकी बिलकुल भी परवाह नहीं थी। जब बारिश में वे दोनों चोरल के घाट पर बाइक से जाते थे रास्ते में रुक कर भुट्टे खाते थे स्वप्निल पहले खुद भुट्टा खाना शुरू कर देता था उसे बड़ा अजीब लगता था। उसके बाद नरम मुलायम भुट्टा छांट कर सिंकवाता और उसे देता। एक बार जब वे पहाड़ी रास्ते से नदी किनारे उतर रहे थे वह बेफिक्री से आगे चलता जा रहा था। तब फिल्मो में देखे कई दृश्य उसकी आँखों में उतर आये थे जहाँ हीरो हीरोइन का हाथ थाम कर रास्ते के पत्थरों से बचाते हुए ले जाता है। स्वप्निल रास्ते में पड़े पत्थरों को पाँव से साइड में सरका देता। अगर कभी दो चार दिन मुलाकात नहीं होती तो फोन ही नहीं करता था जब वह उलाहना देती तो कहता तुम ऑफिस में होती हो काम के समय क्या डिस्टर्ब करना कोई बच्ची तो हो नहीं। लेकिन फिर कहता यार इतने दिन बिना मिले मत रहा करो अच्छा नहीं लगता है। फिर वे दोनों घंटों हाथों में हाथ लिए एक दूसरे के कांधे पर सिर टिकाये बैठे रहते। जितना वह स्वप्निल के करीब होती जा रही थी उतना ही ये एहसास बढ़ता जा रहा था कि वह उसकी परवाह नहीं करता। उसकी छोटी छोटी बातों को तवज्जो नहीं देता वे बातें जो उसके लिए महत्पूर्ण थीं वे बातें जो वह चाहती थी स्वप्निल देखे महसूस करे और उन पर प्रतिक्रिया दे। सयाली की आस ख़ामोशी में विलीन हो जाती थी और सयाली का असंतोष उभर कर सामने आ जाता था।
अलग होने का फैसला दोनों ने ही लिया था। दोनों ने कहाँ सयाली ने कहा था तुम्हे मेरी जरा भी परवाह नहीं है तुम्हे मेरा बर्थडे याद नहीं रहता मेरी पसंद का रंग नहीं पता मेरी इच्छा अनिच्छा कभी नहीं समझते तुम मुझसे प्यार ही नहीं करते। अब हमें अलग हो जाना चाहिए अब हम कभी नहीं मिलेंगे कभी भी नहीं। स्वप्निल ने सिर्फ इतना ही कहा ये सच नहीं है सयाली और वह वहाँ से चली आई।
गाड़ी अब शहर के बाहर आ गई थी उसे जोरो से भूख लग आई थी। सड़क किनारे अमरुद वाले बैठे थे।उसने गाड़ी धीमी की सहसा उसे विश्वास नहीं हुआ अमरुद की दुकान पर स्वप्निल खड़ा था। पूरे दो साल बाद उसने उसे देखा था। थोड़ा दुबला हो गया है दाढ़ी हलकी बढ़ी हुई है आँखें कहीं खोई सी। उसने लिफ्ट के लिए हाथ बढ़ाया था और उसे देख कर अचकचा गया। घाटी में बहती कलकल छलछल करती बहती नदी को उसने अपने भीतर महसूस किया। ये बरसाती नदी अब तक सूखी नहीं थी बस बहाव थम सा गया था। लेकिन कहीं कोई झिर कोई धारा अभी भी प्रवाहमान थी जो उसे भिगो गई।
सयाली को चुप देख स्वप्निल ने ही कहा "उज्जैन जा रहा हूँ यहीं पास में काम था लिफ्ट लेने के लिए खड़ा हूँ।"
मैं भी उज्जैन ही जा रही हूँ सयाली ने कहा एतराज़ न हो तो बैठ जाओ। वह भाग रही थी उस धारा से भीगने से लेकिन कोई लहर उसे भिगो ही गई और अब वह उस एहसास से भागने की कोशिश भी नहीं कर रही है बस उसकी शीतलता को महसूस कर रही है। स्वप्निल ने पीछे का दरवाजा खोल कर अपना बेग रखा। आगे का दरवाजा खोल कर बैठने को हुआ कि अचानक उसे ध्यान आया सयाली ने गाड़ी खुद धीमी की थी। "अमरुद खाओगी ?"
ओह हाँ उसे तो जोर से भूख लगी है । उसने हाँ में सिर हिला दिया। स्वप्निल अमरुद लेने लगा। ये कैसा एहसास है सयाली को समझ नहीं आ रहा था वह तो जैसे हवा में उड़ रही थी। स्वप्निल को दो साल बाद देखने की ख़ुशी ही काफी थी उसके बारे में बहुत कुछ जानना सुनना चाहिए था लेकिन वह उसे देख कर ही खुश थी। स्वप्निल तेज़ी से पलटा गाड़ी का दरवाजा खोल कर हैंडब्रेक खींच कर उसे डांटते हुए से बोला "तुम्हे हैंडब्रेक लगाने की आदत नहीं हुई अब तक। "
सयाली बस उसे देखती रह गई स्वप्निल उसकी परवाह करता है उसका ख्याल है उसे प्यार हाँ प्यार भी करता है तभी तो अभी तक अकेला है। गाड़ी उज्जैन की तरफ बढ़ चली स्वप्निल अपने हाथ से सयाली को अमरुद खिला रहा है सयाली चाह रही है इस हमसफ़र के साथ ये सफर कभी ख़त्म ना हो।