कोना फटा पोस्टकार्ड
कौशलेंद्र प्रपन्न
हम न मरब उपन्यास में डॉ ज्ञान चतुर्वेदी बड़ी शिद्दत से जीवन मृत्यु के दर्शन और लोक संवाद,व्यवहार की चर्चा करते हैं। इसमें भाषायी स्वाद बेहद रोचक और परिवेशीय अस्मिता को बरकरार रखने वाली है। बब्बा के मरने के बाद घर में नाते रिश्तेदारों का आना जाना लगा हुआ है। तमाम रिश्तेदार जो बब्बा से कहीं न कहीं जुड़े हुए थे वे इस ख़बर को सुन और पढ़कर घर पर आते हैं। कोना फटा पोस्टकारड पढ़कर लोगों को अंदाजा लग गया कि किसी न किसी के जाने की ख़बर होगी। लेकिन इसका अनुमान नहीं था कि बब्बा चले गए। कोना फटा पोस्टकार्ड देखकर ही गांव-घर में एक सन्नाटा पसर जाता था। पोस्टकार्ड लेने वाला और देने वाला दोनों ही ग़मज़दा से होते थे कि पता नहीं किसके प्रयाण की ख़बर है। लोग कार्ड पढ़कर फाड़ कर फेंक दिया करते थे। घर में रोना कानी मच जाया करता था। तब गांव घर को पता चलता था कि फलां के घर कुछ अनहोनी की ख़बर आई है। उस वक्त की बात है जब पोस्टकार्ड का आना और लोगों को हरेक के रिश्तेदारों की भी ख़बर हुआ करती थी कि किसका कौन रिश्तेदार कहां रहता है, क्या करता है, कितने बाल बच्चे हैं आदि। इसलिए सब की उम्र और जाने आने की भी ख़बर रहती थी। जैसे जैसे हम तकनीकतौर पर जवान हुए वह कोना फटा पोस्टकार्ड शायद गुम हो गया।
किसी के गुजरने की ख़बर अब सोशल मीडिया में डाल दी जाती है। साथ ही मोबाइल पर विभिन्न एप्स पर लोग तमाम ख़बरों को प्रसारित कर देते हैं। शादी ब्याह,जीनी मरनी,सैर सपाटा सब तरह की ख़बरों का आदान प्रदान मोबाइल और सोशल मीडिया में धड़ल्ले से होने लगा है। सोशल मीडिया के दौर में पारंपरिक माध्यम चिट्ठी पतरी,मिलना जुलना कम होते होते तकरीबन चलन से ही बाहर होता जा रहा है। लेकिन हम बात कर रहे थे कोना फटा पोस्टकार्ड की कहानी का। मुझे अपना बचपन याद है जब दादी मरी तो हम घर के तमाम बच्चों को इससे कोई लेना देना नहीं था कि दादी मर गईं। हमने सबसे पहले दादी का संदूक खोला और उसमें रखे काजू, बादाम और मिठाइयां खाने लगे। देखने वाले कुछ बोल भी रहे थे कि देखों इन्हें कोई फर्क ही नहीं पड़ता। लेकिन हमारे लिए दादी से लगाव तो था ही साथ ही उनकी चीजें भी हमें लुभाती थीं। दादी के मरने बाद मैं काफी समय तक सोन किनारे गेमन पुल पर खड़े होकर आवाज देता था दादी आ जाओ। अब हम आपका संदूक नहीं खोलेंगे। लेकिन दादी को नहीं आना था नहीं आईं। आ भी कैसे सकती थीं यह बाद में समझ पाया। घर में तब किसी के विदा होने की ख़बर इन्हीं माध्यमों से हुआ करती थी। घर में एक अलगनी के कोने में तार में पोस्टकार्ड, चिट्ठियों को टांक दिया जाता था। कोना फटा पोस्टकार्ड को तो पढ़कर फेंक दिया जाता था लेकिन बाकी अंतरदेशीय पत्रों को उसी तार में टांक दिया जाता था।
जब घर में कोना फटा पोस्टकार्ड मिलता था उसके बाद पिताजी और मां तय करते थे कि कब उनके घर जाना है। अमूमन किसी के इंत्काल के बाद तब चिट्ठी मिलते कम से कम तीन से चार दिन तो लग ही जाते थे। क्रियाकर्म में लोग पहुंचते थे। पूरे तेरह दिन घर में मातम का माहौल ही छाया रहता था। बच्चे स्कूल से महरूम हो जाते थे। यदि बेहद जरूरी नहीं हो तो घर के बड़े काम पर भी नहीं जाते थे। घर में एक ही भाव होता था। घर का कोना कोना बयां करता था कि कुछ था जो अब नहीं है। कोई हंसी थी जो यहीं कहीं गूंजा करती थी। कोई तो था जो बात बात में टोका करता था लेकिन अब वो जबान नहीं रही। मिलने जुलने वाले बार बार रो रो कर या बातों बातों में एहसास दिलाते रहते हैं कि वो होते तो ऐसा नहीं होता। वो ऐसी ही तो बोला करते थे। छोटका एकदम उन्हीं की तरह चलता है। और लोग एक बार फिर उनकी याद में डूब जाया करते हैं। कई बार दुखद पल भूलना भी चाहें तो मिलने जुलने वाले ऐसा नहीं होने देते।
हम न मरब से शब्द उधार लूं तो विमान तैयारी से लेकर यात्रा की शुरुआत और अंत बेहद दारूण हुआ करता है। एक एक क्रिया, कार्य व्यापार उस गए हुए व्यक्ति की उपस्थिति और अनुपस्थिति को कुरेदता है। घर की देहारी पर खड़ी तमाम महिलाएं सिर्फ अश्रुविगलित आंखों से अपने प्रिये को जाते देख भर पाती हैं। चाह कर भी जाते हुए के साथ दो कदम नहीं चल पातीं। उसके जाने के बाद चलना सिर्फ उसकी यादों और स्मृतियों में ही हुआ करता है। कुछ परिवारों में महिलाएं मरघट पर भी जाती हैं। लेकिन कुछ परिवार की महिलाएं कितनी दुर्भागी हैं कि उन्हें जाते हुए के साथ अंतिम यात्रा में शामिल होने का संयोग नहीं मिल पाता। यह भी ऐसी चलनें हैं कि जिंदा रहते तो हर दम लड़ते-झगड़ते, हंसते रहे लेकिन जाने के बाद उसके अंतिम पहचान को देख भी नहीं पाते। जब विमान अंतिम पड़ाव पर रूकता है। चारों ओर आंसू ,सूनी आंखें, उतरे चेहरे,भावविहीन मेल- जोल देखकर सचमुच महसूस होता है कि जीवन के अंतिम क्षण में व्यक्ति कहां आता है। जहां सिर्फ सूनापन होता है। तमाम छल-प्रपंच ताख पर धरे रह जाते हैं।
यदि निगम बोध घट गए हों तो देखें होंगे कि एक साथ छह, आठ और बारह लोगों के जलने की व्यवस्था है। वहीं ओहदे और प्रतिष्ठित हुए तो अगल बने स्थान पर जलते हैं। यदि आमजन हुए तो यमुना किनारे जला करते हैं। एक दाह संस्कार में जितनी लकड़ी लगती है और पर्यावरण प्रदूषित होता है उसे ओर न्यायालय का सुझाव था कि क्यों न विकल्प तलाशा जाए। जब हमारे पास सीएनजी और विद्युत दाह संयंत्र मौजूद हैं तो उसका इस्ताल क्यों न किया जाए। लेकिन मसला यहां परंपरा और रिवाज पर अटक जाता है। बहुत कम लोग हैं जो अपने परिजन को विद्युत या सीएनजी के द्वारा अंतिम संस्कार के लिए तैयार होते हैं। जबकि इससे लकड़ियों की बचत तो होगी ही साथ ही वातावरण में फैलने वाले विषाक्त धुआं से भी निजात मिलेगा। कभी निगम बोध से उठने वाले धुएं की ओर नजर डालें तो वहां एक कृत्रित धुआंकाश तैरता नजर आता है। हम जितने की लकड़ी और अन्य सामग्री खरीदते हैं उसके अनुपात में सीएनजी और विद्युत दाह में एक हजार का खर्च आता है। लेकिन अभी हमारी मनोदशा उसके लिए तैयार नहीं है। जब तक सारी चीजें हमारी आंखों के सामने न घटे।
कौशलेंद्र प्रपन्न
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