समय का पहिया
भाग . ६
अनुक्रम
१.मकान घर नहीं होता
२.मजहब
३.मसालेदार भोजन की तीखी सुगन्ध
४.महल में तो राजा रहता है
५.महानगर का प्रेम7संवाद
६.मुआवजा
७.मुक्ति
८.मेड इन चाइना
९.मेरा बयान
१० राजनीति
मकान घर नहीं होता
वह उनके पुरखों की हवेली थी। थी, या फिर उसमें रहने वालों की शान7शौकत ने उसे हवेली बना दिया था। ढाई मंजिल में दस कमरे और उन कमरों में रहनेवाले बाइस प्राणी। दादा.दादी, ताउ.ताई, चाचा.चाची, भतीजा.भतीजी....हर रिश्ता वहाँ मौजूद था। अलसुबह वह हवेली जो अँगड़ाई लेकर जागती तो रात के डेढ़.दो प्रहर बीतने पर ही सुस्ता पाती।
हवेली की एक ईंट क्या दरकी कि ढ़ाई मंजिले भरभराकर गिरने लगीं। दस कमरे कम पड़ने लगे और उनके बाशिंदे फ्लैटों में समाने के लिए इधर.उधर दौड़ने लगे। हाथ की पाँचों उँगलियाँ बराबर नहीं होती....और यहाँ तो छह थे। बड़े भाई ने पिता के व्यापार में लाखों कमाए और दबाए थे। नामचीन कॉलोनी में पाँच बेडरूम का शानदार फ्लैट, गर्दन तो ऊँची उठनी ही थी। सबसे छोटा....वह तो छोटा ही था...माँ के साथ दो कमरों के छोटे से घर का ही जुगाड़ कर पाया था। बाकी चार के विषय में विस्तार से लिखना लघुकथा को बेवजह बढ़ाना ही माना जाएगा।
बहरहाल, बात आगे बढ़ाई जाए। रक्षा7बन्धन का पावन पर्व और हमारी पत्नी छह भाईयों की इकलौती बहन। सभी भाई अपने.अपने मकान पर ही राखी बँधवाना चाहते थे।
4यह पहला त्योहार है, सबसे पहले पाँव मेरे मकान में ही पड़ने चाहिएँ।3 बडे़ का गर्वीला आग्रह था।
सुबह के ग्यारह बज चुके हैं। मेरी मोटरसाइकिल अब घर से निकलकर सड़क पर आ गई है।
4अरे! हम तो छोटे के घर जा रहे हैं!3 एक मोड़ पर मोटर साइकिल के मुड़ते ही पत्नी चहक उठी है।
मजहब
यह ९ सितम्बर, २०१४ की एक त्रासद सुबह थी।
लोग बाग तीन दिनों से घर की छतों पर टँगे थे।
लोगों की निगाहें खाली खाली आसमान पर टिकीं थीं। लोगों की निगाहें घरों सड़कों पर हरहराते पानी पर टिकीं थीं।
धरती की जन्नत सदी के सबसे बड़े सैलाब की गिरफ्त में आ चुकी थी।
आसमान से फरिश्ते कुछ देर पहले ही हेलिकॉप्टर से खाने के पैकेट तथा पानी की बोतलें गिराकर गए थे। जमीन के फरिश्ते कुछ देर पहले ही छत पर टँगे लोगों को बोट से महफूज किनारों पर लेकर गए थे।
सोजुद्दीन उन अभागों में से एक था जिनकी आँखें इन दोनों के इंतजार में पथराने लगी थीं। तभी अपने घर की तरफ तेजी से आ रही एक बोट को देखकर उसकी आँखों में चमक लौट आई।
जमीन के फरिश्तों ने उसे तथा दूसरे अभागों बड़ी होशियारी से छत से उतारकर बोट में बैठाया।
बोट अब महफूज किनारे की ओर लौट रही थी। सोजुद्दीन की निगाहें बड़ी शिद्दत से एक फरिश्ते के चेहरे पर टिकीं थीं।
4तुम सुभाष कौल के बेटे हो ना?3
4हाँ बाबा।3
4तुम मुझे पहचानते हो?3
4हाँ बाबा, आप सोजुद्दीन हैं।3
4तुम्हें कुछ याद है?3
4हाँ बाबा! पन्द्रह साल पहले दहशतगर्दों ने मुझे और मेरे परिवार को इस जन्नत से बेदखल कर दिया था।3
4तुम्हें यह भी पता होगा कि उन दहशतगदोर्ं का सरगना कौन था?3
4उस चेहरे को मैं कैसे भूल सकता हूँ बाबा!4 आँखों में अंगारे दहके मगर अनुशासन ने उन्हें भड़कने नहीं दिया।
4क्या तुम्हारे मजहब में दुश्मन की जान बचाना जायज है?4
4बाबा एक फौजी का मजहब उसका फर्ज होता है उसके तहत आपकी जान बचाना मेरे लिए बिल्कुल जायज है।3
महफूज किनारा आ चुका था। सोजुद्दीन बोट से उतरते हुए इस मजहब को पुरजोर सलाम कर रहा था।
मसालेदार भोजन की तीखी सुगन्ध
निगम सेवा में उसकी नियुक्ति दो बाई ढ़ाई की मेज पर हुई थी जो कि सेवा निवृति तक पहुँचते.पहुँचते तीन बाई पाँच की हो गई थी। चालीस साल की बेदाग नौकरी का आज अन्तिम दिन और उस अन्तिम दिन की उतरती शाम। निगम के क्षेत्रीय कार्यालय का सभागृह खचाखच भरा हुआ है। उपायुक्त और सहायक आयुक्त के साथ देवप्रकाश नवीनजी अपनी पत्नी सहित मंच पर विराजमान हैं।
4नवीनजी की जिन्दगी एक खुली किताब है....शीशे सी पारदर्शिता...कुछ छिपाने को नहीं....चालीस साल की कर्मठ सेवा....हमारी आज की पीढ़ी इनसे बहुत कुछ सीख सकती है....3 सहायक आयुक्त का औपचारिक भाषण जारी है।
1सब बकबास है। इनको फॉलो करो तो घर पर बैठना पड़ेगा...ईमानदारी की दुम...न खाता था, न ढ़ंग से खाने देता था....खाली तनख्वा में कहीं गुजारा होता है...!1 पीछे की लाइन में बैठा अवर लिपिक भुनभुना रहा है।
बीच की लाइन में मुख्य लिपिक शर्माजी बैठे हैं। उनकी गर्दन चिन्ता में झुकी हुई है, 1नवीनजी तो अपना हिस्सा लेते नहीं थे...उनका हिस्सा भी हम सबमें ही बँटता था। अब ना जाने कौन अधिकारी आए....हमारी इनकम घटनी तो निश्चित है....।1
1नाक में दम कर रखा था इन्होंने! किसी भी फाइल में फेवरेवल कमेण्ट्स लिखकर भेज दो तो इनके नथुने फूल जाते थे और गर्दन अकड जाती थी। अच्छा हुआ, इनसे पीछा छूट रहा है....!1 आगे की पंक्ति में बैठे अधीक्षक महोदय की दृष्टि मंच पर टिकी है।
मंच से अब उपायुक्त महोदय का भावुक भाषण श्रोताओं तक निर्बाध पहुँच रहा है. 4मैं नहीं जानता के अब नवीनजी का स्थान कौन लेगा मगर इतना निश्चित है कि इन जैसा योग्य व्यक्ति अब शायद ही हमारे विभाग को मिल पाए......।3
सभागृह में उपस्थित भीड़ अब उबने लगी है। बाहर लगे टेण्ट से आ रही मसालेदार भोजन की तीखी सुगन्ध ने उनकी भूख को बढ़ना शुरू कर दिया है।
महल में तो राजा रहता है
पिछले दस दिनों जैसे पंख लगाकर उड़ गए। राजस्थान की यह यात्रा मेरे पाँच साल के बेटे सुमित के लिए किसी स्वप्नलोक की सैर जैसी रही। राजमहल, किले और रजवाड़े....वह अब तक उस माहौल से बाहर नहीं आ पाया है।
हमारी टैक्सी इण्डिया गेट के पास जनपथ से गुजर रही है। सुमित कौतूहल से दोनों तरफ देख रहा है। लाल बत्ती पर टैक्सी ठहर गई है।
4वह सामने किसका महल है पापा!4 राष्ट्रपति भवन की ओर इशारा कर सुमित पूछ रहा है।
4वह हमारे राष्ट्रपति का महल है बेटा!3 मैं उसे सहजता से बताता हूँ।
4पर महल में तो राजा रहता है पापा!3 उसका कौतूहल उभरता है।
4हाँ बेटा, महल में तो राजा रहता है! यह तो भवन है ना....राष्ट्रपति भवन....।3 मेरी बुदबुदाहट के बीच ही हरी बत्ती हो गई है। टैक्सी जनपथ पर आगे बढ़ रही है, राष्ट्रपति भवन पीछे छूट रहा है।
महानगर का प्रेम7संवाद
4हलो अर्ची.....!3
4हाय विभु! कैसे हो.....!3
4ठीक हूँ, कल तुम आईं नहीं.... आई वेट यू लॉट....3
4हाँ यार! मैं विक्की के साथ मूवी देखने चली गई थी...3
4हूँ.....3
4क्या सोच रहे हो, बोर हुए तुम.....?3
4ऑफकोर्स नो! सिम्मी मिल गई थी, मैं उसके साथ आउटिंग पर निकल गया.....3
4व्हाट..... तुम ऐसा कैसे कर सकते हो....!3
4क्यों....3
4कुछ नहीं....चलो छोड़ो......3
4चलो छोड़ दिया.....3
4कभी तो सीरियस हुआ करो.....3
4हो गया अब बोलो....3
4मुझसे शादी करोगे.....?3
4शिट! क्या हम बूढ़े हो रहे हैं....?3
मुआवजा
प्रेमपाल दस वर्ष बाद अपने मित्र महासिंह से मिलने गाँव आया है। इन दस वर्षों में गाँव कस्बे में बदल चुका है। हाईवे और गाँव के बीच पहले जहाँ हरे भरे खेत पसरे रहते थे वहाँ अब धुआँ उगलती चिमनियोंवाले कारखाने खड़े हैं।
गाँव का बाजार भी अब कस्बे का बाजार बन गया है। चौधरी न्यादरसिंह का विशाल तीन मंजिला हवेलीनुमा मकान बाजार के नुक्कड़ से ही दिखाई देता है। इसकी अपनी अलग ही शान रही है। अब यह तो सोचने और समझने की बात है कि इस हवेली से चौधरी न्यादरसिंह का रुतबा है या फिर चौधरी न्यादरसिंह से इस हवेली की ऐंठ है।
मगर यह हवेली इतनी बदरंग क्यों दिखाई दे रही है। महासिंह तो अपनी हवेली, अपने गाँव और उसकी समृद्धि की बड़ी.बड़ी बातें खतों में लिखता रहा है, फोन पर बताता रहा है।
सामने तख्त पर एक बुर्जुग बैठे हुक्का गुड़गुड़ा रहे हैं।
4ताऊ राम.राम....!3 प्रेमपाल आगे बढ़कर उनके पाँव छूता है।
4कौन....? अरे, प्रेमपाल बेटा तू! कब आया रे!4 अपनी अनुभवी आँखेें जल्दी ही प्रेमपाल को पहचान गईं हैं।
4बस, सीधा आ रहा हूँ, ताऊ! महासिंह कहाँ है....?4
4अब के बताऊँ बेटा....।3
4क्यों ताऊ, सब ठीक तो है!3 वह थोड़ा शंकित हो उठता है।
4अब के ठीक और के गलत!4 चौधरी साहब शायद बहुत कुछ कहना चाहते हैं मगर कह नहीं पा रहे हैं।
अन्दर से ठहाकों की आवाजें आ रही हैं। प्रेमपाल की निगाहें उधर उठ गई हैं....प्रश्न भरी निगाहें।
4हाँ बेटा! वो अन्दर बैठक में लफगें दोस्तों के साथ बैठा जुआ खेले है....इंग्लिश की बोतल भी हैगी....3 वे विक्षोभ से कहते हैं तो प्रेमपाल चौंकता है।
4क्या कहो हो ताऊ! महासिंह तो ऐसा....4 प्रेमपाल अपनी बात पूरी नहीं कर पाता।
4कसूर महासिंह का ना है बेटे!4
4तो....?3
4गोरमिंट ने म्हारी जमीन ले ली....हम बर्बाद हो गए बेटे!4
4मुआवजा तो तगड़ा.....3
4वो मुआवजा ही तो नाश की जड़ बन ग्या बेटा! पहले किसी ने इतना पईसा देख्या ना था! करने को कुछ बचा ना था और दौलत बेशुमार, यह तो होना ही था...और फिर धरती बिके का पईसा आज तक किसी को फला है.....?3
ताऊ न्यादरसिंह हाँफने लगे हैं। एक प्रश्न वहाँ टँग गया है। अन्दर बैठक से ठहाकों की तेज आवाजें आ रहीं हैं। प्रेमपाल के पाँव अन्दर बैठक की तरफ आने को उठ नहीं पा रहें हैं।
मुक्ति
रामबाबू के घर के सामने दरियाँ बिछीं हैं। वे एक कोने में निढाल से बैठे हैं। कुछ नाते रिश्तेदार भी उनके पास ही मुँह लटकाए बैठे हैं। घर के आँगन में लगे बूढ़े नीम के पेड़ से झरकर ढ़ेर सी पत्तियाँ दरियों पर फैल रहीं हैं। आज चालीस दिन बाद इस घर के दरवाजे का ताला खुला है।
रामबाबू की पत्नी पिछले चालीस दिन से हस्पताल के बेड पर पड़ी कैंसर से लड़ते हुए जिन्दगी और मौत से जूझ रही थी। कभी वार्ड, तो कभी आई.सी.यू.। रामबाबू ने इन चालीस दिनों में अपनी पत्नी को कभी अकेला नहीं छोड़ा। वार्ड में तो पत्नी के बेड़ के साथ लगी छोटी सी 1सेटी1 उनका पता ठिकाना थी ही, आई.सी.यू. में भी गार्ड और सिस्टर के सामने हाथ जोड़कर वे हर घण्टे पत्नी की अधमुँदी आँखों के सामने हाजिर होते रहे थे।
पत्नी के साथ अलग मकान में रहनेवाला उनका इकलौता बेटा, मित्र रिश्तेदार और पास पड़ोस वाले बार.बार हस्पताल आते.जाते अब थकन मानने लगे थे मगर वे सभी रामबाबू के जीवट पर हैरान भी थे। इस सत्तर साल के बूढ़े को क्या कोई दैविक शक्ति मिल गई है? वे सब सोचने को विवश हो उठे थे।
हाँ, अब वह सत्तर साल का दैविक शक्ति प्राप्त बुर्जुग रामबाबू अपने घर के सामने बिछी दरी पर निढाल सा बैठा है। वह अभी अभी अपनी पत्नी का अन्तिम संस्कार करकेे लौटा है।
4भाई रामबाबू, दुःखी मत होओ! भाभी मरी नहीं है, उसे तो मुक्ति मिली है।3 रामदयाल उठते हुए हाथ जोड़कर विदा ले रहे हैं।
4हाँ भाई, यह तो पता नही कि उसे मुक्ति मिली है या नहीं, मगर हम सबको तो अब मुक्ति मिल ही गई है।3 रामबाबू के हाथ जोड़ने के साथ ही अब बचे लोग भी उठने लगे हैं।
मेड इन चायना
भारतीय लोक मण्डल की रंगशाला से कठपुतलियों का नाच देखकर वे रोमांचित से बाहर निकले तो उदयपुर की सड़कों पर साँझ पाँव पसारने लगी थी।
उनके पाँव सड़क पार खड़ी टैक्सी की ओर तेजी से बढ़ने ही लगे थे कि पीछे से आई पत्नी की आवाज ने ब्रेक लगा दिया।
4सुनो....4 वे पीछे मुडे़...4आज तुम अपने लाड़ले पोते को तो भूल ही गए!4
पत्नी कह रहीं थी।
4क्या....!3 वे चौंककर पलटे।
4बहू के लिए बँधेज की साड़ी और बेटे के लिए राजस्थानी जूती तो हमने दिन में खरीद ली थीं मगर पोते के लिए....4
4ओह! वाकई....तुमने बचा लिया, नहीं तो घर में घुसते ही हमारा कोर्ट मार्शल हो जाता।3
पास ही रेहड़ी पर काठ के रंग बिरंगे खिलौने सजे थे। उनकी निगाहें कठपुतली तलाश कर रहीं थीं।
4क्या चाहिए बाबूजी....?4 रेहड़ीवाले ने पूछा।
4कठपुतलियाँ नहीं बेचते क्या....?3
4रखता तो हूँ बाबूजी, मगर सब बिक गईं।3
4ओह!3 उनके मुहँ से निकला और हाथ काठ की चमचमाती कार की तरफ बढ़ गए। वह कार उनकी पत्नी को भी लुभा रही थी। ऐसी कार वे दोनों अपनी पहाड़ी तथा अन्य यात्राओं में बच्चों के लिए पहले भी कई बार खरीद चुके थे।
डिब्बी में बन्द कार की कीमत देखने के लिए उन्होंने उसे हाथ में लेकर ऊपर उठाया....कि...1मेड इन चायना1 लिखे शब्द उन्हें सन्न कर गए और उनका हाथ भारतीय अर्थव्यवस्था के गिरते ग्राफ की तरह नीचे झुकता चला गया।
मेरा बयान
वह कहता है कि मैं मर चुकी हूँ मगर मुझे पूरा विश्वास है कि मै जिन्दा हूँ और पूरे होशो हवास में यह सब बयान कर रहीं हूँ। इस बात को लेकर हम दोनों के बीच रात ही अबोला खिंच गया था।
अगर मैं मर चुकी होती तो इस समय आपसे रूबरू कैसे होती? क्या मरा हुआ व्यक्ति किसी से संवाद कर सकता है? अगर मैं कहूँ कि मैं नहीं, वह मर चुका है, तो क्या वह इसे स्वीकार कर लेगा?
यह सच है कि गहराती रात में उन चार भेड़ियों ने मेरी देह नोंची है मगर इससे मैं यह कैसे मान लूँ कि मैं मर चुकी हूँ! मैं जिन्दा हूँ, यह सौ प्रतिशत सच है और इसका प्रमाण है कि मैं इस घटना को पूरी रपट थाने में लिखवाकर आई हूँ और सुबह फिर इस सन्दर्भ में मुझे पुलिस थाने जाना है।
4तुम्हें क्या जरूरत थी पुलिस थाने जाने की और इस सबकी रिपोर्ट लिखवाने की!4 रात को सब कुछ जानने के बाद उसकी यही प्रतिक्रिया थी।
4तो क्या मुझे इसके बाद चुप बैठ जाना चाहिए था?3 मुझे लग रहा था कि मेरी पीठ पर एक कीड़ा रेंग रहा है। मैं हाथ पीछे कर उसे हटाना चाह रही थी मगर मेरा हाथ वहाँ तक पहुँच ही नहीं पा रहा था।
4अब इससे कुछ हासिल होगा?3 एक प्रश्न उछला था उस ओर से।
4क्यों नहीं.....?3
4इस घटना के बाद तुम मर चुकी हो और मुर्दों को कुछ हासिल नहीं हुआ करता।3
4यह झूठ है, सरासर झूठ। मैं जिन्दा हूँ....सौ प्रतिशत! और जिन्दा लोग लड़ाई से नहीं भागा करते।3
उसके पास इसका शायद कोई जवाब नहीं था। वह मुहँ फिराकर पसर गया था।
मैं कुर्सी में धँसी अपने जिन्दा होने का प्रमाण ढूँढ रही हूँ क्योंकि कल उस प्रमाण के साथ मुझे सुबह होते हीे पुलिस थाने जाना है।
राजनीति
किसी भी फ्रेम पर क्यों न क्लिक किया जाए, चेहरा वही खुलेगा जो चौधरी प्रेमसिंह चाहें। अपने खेल के बहुत ही पक्के खिलाड़ी हैं वे। उन्होंने बाल धूप में सफेद नहीं किए, खूब अनुभव रखते हैं कि कौन सी गोटी कहाँ फिट करनी है। घर परिवार में ही नहीं, पूरे गाँव में उनकी तूती बोलती है।
घर में पत्नी सहित तीन बेटे, दो बहुएँ तथा पोते पोतियाँ हैं। घर परिवार पर उनका एकछत्र राज है। किसी की क्या मजाल कि कोई उनसे ऊँची आवाज में बात कर जाए। लेकिन पिछले कुछ दिनों से उन्हें लगने लगा कि उनकी मुट्ठी की पकड़ ढ़ीली पड़ती जा रही है।
दोपहर को चौधरी निहालसिंह से शतरंज की बाजी हारकर लौटे तो उन पर झुँझलाहट बुरी तरह सवार थी। आखिर ऐसा हो कैसे गया! उन्होंने तो अपने जीवन में पूरी होशियारी से गोटियाँ सजाईं थीं।
4क्या बात है चौधरी, दस दिन बाद तो सरपंची के चुनाव हैं और तेरे छोटे लड़के ने तेरे हलवाहे की बेटी के साथ बखेड़ा कर दिया। पंचायत में कल क्या जवाब दोगे?3 उनका दिमाग निहालसिंह की शतरंजी चाल में उलझकर रह गया था।
1इस मकड़जाल से उन्हें बाहर निकलना ही होगा!1 वे बार बार सोच रहे थे। अगले दिन जुड़ी पंचायत में चौधरी प्रेमसिंह ने घोषणा की, 4या तो मेरा बेटा सुमेर अगले मुहूर्त में कमली से ब्याह रचाएगा या फिर उसे मेरा घर छोड़ना होगा।4 घोषणा से एक पल को सकते में आया सन्नाटा तालियों की गड़गड़ाहट से गूँज उठा।
4चौधरी प्रेमसिंह की जय....4 इस जयकार के बीच प्रेमसिंह मन ही मन मुस्कुरा रहे थे, 1शादी के मुहूर्त तो अभी तीन महीने बाद शुरू होंगे, चुनाव तो दस दिन बाद ही हैं।1