व्रत और उपवास
सभी तरह के पर्व-त्योहार में व्रत और उपवास का विशेष महत्व है। सामान्य तौर पर इन्हें एक ही समझा जाता है, जबकि इनके अर्थ और महत्व में विभिन्नता है। दोनों के अर्थ में बहुत ही थोड़ा सा फर्क है। व्रत में भोजन की बाध्यता नहीं है, जबकि उपवास में निराहार रहना आवश्यक होता है। किसी भी तरह के उपवास के लिए संकल्प के साथ अन्न और जल का निर्धारित समय के लिए त्याग किया जाता है। यह समय पूरे दिन के लिए रात-दिन के लिए हो सकता है। इसके लिए हिंदू पंचांग अनुसार तय समय को अपनाया जाता है।
हिंदुओं में व्रत का विशेष महत्व दिया गया है। हालांकि यह विभिन्न धर्मों में अलग-अलग रूपों में मौजूद है। पौराणिक, धार्मिक और आध्यात्मिक मान्यता के अनुसार व्रत करने से व्यक्ति की आत्मा का शुद्धिकरण हो जाता है, बौद्धिकता, विचार और ज्ञान की वृृद्धि की होती है। संकल्प शक्ति में मजबूती आती है। मुख्य तथ्य यह है कि इससे मानसिक, वाचिक और शारीरिक पापों से मुक्ति मिलती है। व्रत करने वाला व्यक्ति अगर अपने भीतर की अंतर आत्मा में झांककर देखता है, तो वह ईश्वर के प्रति भक्ति, श्रद्धा और विश्वास को भी दर्शाता है। ऐसा करने वाला व्यक्ति अपने कर्म-कारोबार और कार्यक्षेत्र को सबल बनाता है, तो अपनी कौशलता और कार्य-क्षमता को सुदृृढ़ करता है। इस तरह से व्रत और उपवास को अपनाने वाला व्यक्ति नकारत्मकता को त्यागकर सकारात्मक आंतरिक ऊर्जा से भर जाता है और जीवन की अन्य कामनाओं की पूर्ति सहजता के साथ कर पाता है।
दूसरी तरफ उपवास से पाप, उपपाप या महापापों से मुक्ति मिलती है। क्योंकि उपवास से मानसिक, शारीरिक और आत्मिक शांति मिलती है। यह हमें तमाम तरह के रोगों से दूर रखने में मदद करता है और हम स्वस्थ रहकर ऊर्जावान बने रहते हैं। यही कारण है कि हमें सप्ताह में एक दिन उपवास रखने की सलाह दी गई है। इनसे मंगल कामनाओं की पूर्ति सहजता से हो जाती है।
संकल्प क्यों?
किसी भी तरह के व्रत और उपवास करने से पहले अराध्य देव या सर्वमान्य देवी-देवताओं के प्रति एक संकल्प लिया जाता है। एक तरह का यह अपने मनोवांछित फल की कामना के प्रति दृृढ़ निश्चय की तरह होता है। इसके साथ ही संकल्प में व्रत के मूल भाव निहित होते हंैं,जो व्यक्ति की महत्वकांक्षाओं और कर्मठता को दर्शाते हैं। इससे उसमें कार्य, कार्यक्षेत्र और कार्य-पद्धति के प्रति लगन एवं विश्वास में मजबूती आती है।
जब हम किसी काम को तनमयता के साथ एकाग्रचित्त होकर करते हैं तो उसके नतीजे अवश्य मिलते हैं, ठीक उसी तरह से किये जाने वाले व्रत के संबंध में है। अर्थात जिस किसी कार्य को दृढ़ निश्चय के साथ किया जाये वही संकल्प है। किसी भी तरह के धार्मिक अनुष्ठान के लिए विशेष विधि-विधान की आवश्यकता होती है। एक खास समय मे अनुष्ठा संपन्न होता है, जिन्हें संतुलित और संयमित होकर करना होता है। यह ठीक वैसा ही है जैसे हम किसी व्यावहारिक काम के लिए संकल्प लेते हैं और अपनी योजना के अनुसार कार्य करते हैं। आईए एक नजर डालते हैं उन संकल्पों पर जो व्रत या उपवास में करना जरूरी होता हैं।
व्रत के दिन प्रातःकाल उठें।
मानसिक और आत्मिक शांति की प्राप्ति का संकल्प लें। अर्थात उपवास या व्रत के दरम्यान शरीरिक और मानसिक आराम दें। झूठ, छल-प्रपंच और कुटिलता के व्यावहार से बचें।
देवी-देवताओं के प्रति ध्यान एकाग्र करें।
भोजन के विविध व्यंजनों की कल्पना मन में नहीं आने दें।
अनावश्यक वर्तालाप या बहस से बचें। संभव हो तो व्रत के दौरान मौन धारण करें।
केवल शारीरिक स्वस्थता और सकारत्मक भाव को ही अनुभव करें।
नकारत्मक स्वाभाव, जैसे, नाराजगी, आक्रामकता, पूर्वग्रंथी, दुश्मनी आदि के भाव मन में नहीं आने दें।
सभी तरह की वैचारिकता को मन में एकत्रित हाने दें और उनमें से मानव कल्याण के विचारों के दीप जलने दें।
उपवास से पहले मन को समझाएं कि कितने समय का उपवास किस उद्देश्य से रखा जा रहा है।
कैसे करें उपवास?
भारतीय हिंदू शस्त्रों में उपवास की महत्ता को बताया गया है। विभिन्न पर्वों और त्योहारों को उपवास के बिना अधूरा समझा जाता है। धार्मिक ग्रंथों में इसे न केवल देवी-देवताओं के पूजन की विधि का एक हिस्सा बताया गया है, बल्कि मानसिक शांति, सुख-समृद्धि और मनोकामनाओं की पूर्ति के लिए मान्य कहा गया है। स्वस्थ्य से सुख मिलता है और यह सतत बना रहता है। यह संयमित उपवास से संभव है। इसलिए उपवास को सिर्फ एक दिन या पूरे रात-दिन भोजन नहीं करने का संकल्प मात्र नहीं है। इसका गूढ़ अर्थ आंतरिक क्षमता को विकसित करना में छिपा हुआ है। आईए जानते हैं कि उपवास करने में किन-किन बातों का विशेष ध्यान रखना चाहिए।
उपवास के प्रयोजन अर्थात धार्मिक अनुष्ठान की संपूर्ण जानकारी होने के बाद ही इसके लिए संकल्प लेना चाहिए। और इसकी शुरुआत विधि-विधान के साथ किया जाना चाहिए। जैसे उपवास वाले दिन प्रातःकाल में उठना, पूजा करने से पहले नित्यक्रियाओं से निवृत होना आदि।
अन्य दिन की तरह अपने ईष्ट देव की पूजा करें। उसके बाद ही उपवास से संबंधित अन्य देवी-देवताओं के पूजन की तैयारी करें।
उपवास के दिन अपने शरीर का पूरी तरह से आराम दें। इसकी सहनशीलता को बढ़ाने के लिए सुबह-शाम प्राणायाम करना सही होता है।
उपवास के समय ज्यादा बोलने से बचें। संभव हो तो पूरी तरह से मौन धारण कर लें। यह मानसिक पापों से बचाता है।
उपवास के समय दिन में सोने से बचें। मान्यता है कि ऐसा करने से पुण्य में कमी आती है। असन करना, भ्रमण करना या ईश्वर की आराधना करना सही उपया है। कोई ऐसा काम नहीं करें जिससे किसी के मन को आहत पहुंचे।
लंबे समय तक निर्जला उपवास नहीं करें, क्योंकि यह शरीर में पानी की कमी से नुकसान पहुंचा सकता है।
उपवास का समय लंबा होने की स्थिति में एक-दो दिन पहले से ही अन्न खाने में कमी लाएं और फल व सब्जियों का सेवन ज्यादा करें।
उपवास को खत्म करने के समय ज्यादा मात्रा में एक साथ खाने से बचें।
विधिवत पूजा के दौरान अत्यधिक वस्त्र धारण नहीं करें। व्रत-पूजा या हवन आदि में केवल एक वस्त्र पहन कर अनुष्ठान करें।
किस माह में कौन से व्रत—त्योहार
हिंदू धर्म के अनुसार हिंदी माह के सभी दिन धार्मिक आस्था से जुड़े हैं, जिन्हें रीति—रिवाज और मान्यताओं के आधार पर याद किया जाता है। प्रत्येक माह में कुछ पर्व—त्योहार खास होते हैं,जिसमें उपवास, व्रत और पूजन आदि का विशेष महत्व होता है। आईए एक नजर डालते हैं उन पर्वों पर जो अलग—अलग माह में आते हैं।
चैत्र: इस मास का महत्वपूर्ण पर्व मर्यादा पुरुषोत्तम श्रीराम का जन्म महोत्सव के रूप में रामनवमी का त्योहार मनाया जाता है। इसे सामिजक और पारिवारिक स्तर पर व्रत, पूजन और उपवास के साथ मनाया जाता है। इसी मास में शुक्ल पक्ष प्रतिपदा से लेकर रामनवमी तक दुर्गा का पूजन किया जाता है। नौ दिनों का उपवास रखने और नौ देवियों के पूजन के साथ दुर्गा सप्तशती के पाठ की मान्यता है।
वैशाख: इस मास की पूर्णिमा को गंगा स्नान का लाभ मिलता है। इसे वैशाखी पूर्णीम के नाम से भी जाना जाता है। इसी मास में सोमवती अमावस्या स्त्रियों का प्रमुख व्रत है। इसमें पीपल के वृक्ष की 108 बार परिक्रमा की जाती औैर भगवान विष्णु की पूजा की जाती है।
ज्येष्ठ: इस मास का महत्वपूर्ण व्रत है वट—सावित्री पूजन, जो ज्येष्ठ कृष्ण अमावस्या को मनाया जाता है। इस दिन सत्यवान, सावित्री के साथ यमराज की पूजा की जाती है। यह व्रत विवाहित स्त्रियों के अचल सुहाग का प्रतीक है। इसी माह में गंगा गंगा दशहरा और निर्जला व्रत एकादशी का भी विशेष महत्व है।
आषाढ़:यह मास योगिनी एकादशी और गुरु पूर्णिमा के लिए प्रसिद्ध है। आषाढ़ मास के कृष्ण पक्ष को योगिनी एकादशी का व्रत पूरे दिन उपवास के साथ भगवान नारायण के पूजन के साथ संपन्न होता है। इसी मास के शुक्ल पक्ष की पूर्णिमा को गुरु पूर्णिमा मनाने की प्रथा प्राचीन काल से चली आ रही हे।
सावन: इसे श्रावण भी कहते हैं और इस मास में भगवान शिव का व्रत प्रत्योक सोमवार को किया जाता है। यह माह हिंदुओं के लिए काफी पवित्र माना गया है तथा प्रत्येक सोमवार को भगवान शिव के साथ गणेश, शिव—पार्वती और नंदी के पूजन का विशेष महत्व है। इसी माह नागपंचमी के रोज सर्पेां की पूजा का विशेष महत्व है और रक्षाबंधन का त्योहार भाई—बहन के बीच स्नेह के प्रतीक का पर्व है।
भादों: विवाहित स्त्रियों के लिए हरियाली तीज का खास महत्व है तो श्रीकृष्ण जन्म अष्टमी का उत्सव बड़े ही धूमधाम से मनाने की प्रथा है। इसी मास में गणेश चतुर्थी और अनंत चतुर्दशी का त्योहार गहरी आस्था के साथ मनाया जाता है।
आश्विन: मां दुर्गा के आवाहन के लिए यह माह अतिविशिष्ट है। इस माह में नौ देवियों की पूजा की जाती है। दुर्गाष्टमी के दिन व्रत रखने और विधान है। इस दिन पूजन, हवन आदि किया जाता है। शरद पूर्णिम भी इस मास का खास त्योहार है, जिसे कौमूदी व्रत भी कहा जाता है।
कार्तिक: यह माह करवा चौथा, अहोई अष्टमी, धनतेरस,नरक चर्तुदशी, दीपावली, गोवर्धन पूजा (अन्नकूट), भैया दूज और कार्तिक पूर्णमा के अतिरिक्त छठ पर्व मनाने का विशेष महत्व है।
अगहन: इस मास में भौरव जयंति और मार्गशीर्ष पूर्णिम व्रत का महत्व है। इस दिन रात्रि में चंद्रमा को अर्ध्य देकर पूजन किया जाता है।
पौष: इस मास में पूर्णिमा से गंगा स्नान का महत्व है। इसी मास में मकर संक्रांति मनाया जाता है। दक्षिण भारत में इसी दिन पांगल मनाया जाता है।
माघ: इस मास में बसंत पंचमी, माघ पूर्णिमा और सकट चौथ मनाने का महत्व है।
फाल्गुन: यह माह होली और महाशिवरात्री के लिए प्रसिद्ध है। फाल्गुन कृष्ण पक्ष को भगवान शिव की पर्व मनाया जाता है जबकि इस मास की पूर्णिमा को रंगों का त्योहार होली धूमधाम से मनाया जाता है।