परती जमीन
रौशन पाठक
नमन
सर्वप्रथम मैं नमन करता हूँ बाबा (दादाजी) और दाई (दादी) को फिर नमन करता हूँ पापा (पिता) और मां (माता) को| जिनके संघर्ष से मेरा अस्तित्व रहा है और आशीष से जीवन|
मैं नमन करता हूँ स्वर्गीय मुंशी प्रेमचंद जी को जिनकी रचनाये प्रेरणा भी रहीं और मार्गदर्शक भी|
धन्यवाद
मैं धन्यवाद करता हूँ आनंद पाठक (भाई) का जिसने मुझे उत्साहित किया इस कहानी को लिखने के लिए और उससे कहीं अधिक इसलिए की उसने मुझे प्रोत्साहित किया हिंदी में लिखने के लिए|
मैं धन्यवाद करता हूँ राव्या पाठक (बेटी) का जिसकी खिलखिलाती हंसी ने मुझे व्यस्तता के बावजूद तनाव मुक्त रखा और मैं यह कहानी लिख पाया|
मैं धन्यवाद करता हूँ और राखी पाठक (बहन) का जिसने इस किताब के आवरण पृष्ठ को अंकित किया|
मैं धन्यवाद करता हूँ रूपा पाठक (पत्नी), रूबी पाठक (बहन) और मेरे समस्त परिवार का उनके प्रेम और स्नेह के लिए|
प्रेरणा स्त्रोत
त्रिविधं नरकस्येदं द्वारं नाशनमात्मनः ।
कामः क्रोधस्तथा लोभस्तस्मादेतत्त्रयं त्यजेत्|
- गीता
अथार्त,
जीवात्मा का विनाश करने वाले "काम, क्रोध और लोभ" यह तीन प्रकार के द्वार मनुष्य को नरक में ले जाने वाले हैं|
संतोषं परम सुखं
इंसान के समस्त दुखों का कारण उसकी अपनी इच्छाएँ है|
लालच बुरी बला है|
लालच इंसान का चरित्र बदल देती है|
भाग
स्थानांतरण
लोभ
शपथ
निर्वासन
साझेदारी
अनावरण
***
(४)
निर्वासन
गॉंव में धरमु के घर के आगे उसके बड़े खलिहान के चारो ओर लोगो क जमावड़ा लगा था औरतेँ माथे पर घूँघट लिए एक तरफ खड़ी थी, आपस में काना-फूसी चल रही थी, एक तरफ बच्चे दौड़ भाग रहे थे, एक दुसरो से लड़ रहे थे| उन्हें इससे कोई मतलब ना था की वहां क्या होने वाला था| वो तो इसे कोई मेला ही समझ रहे थे जहाँ लोग जमा हुए है| जो जवान लड़के थे उनका ध्यान महिलयों की एक झुण्ड पे था जहाँ गाँव की लड़कियाँ खड़ी थी| व्यसक और बुजुर्ग इस चर्च में लगे थे की क्या होना चाहिए और क्या नहीं|
धरमु के घर के सामने खाट पर बलेश्वर लाल, धरमु और बलराम विराजमान हुए और सामने गाँव के लोग और औरतेँ भी बैठ गयीं, बच्चे कोलाहल मचाते रहे, हुड़दंग चलता रहा, दो चार बार डांट झड़प पड़ी, दो चार की काने ऐंठी गयी तब कहीं बच्चे शांत हुए|
सभा का संचार हुआ, सर्वप्रथम धरमु ने अपने चिर परिचित मधुर स्वर में बोलना शुरू किया - हम सब लोगो ने इस पंचायत का गठन किया है लेकिन यह फैसला सर्वसम्मति से होना चाहिए इसलिए अगर किसी को भी इससे कोई शिकायत हो तो वह आवाज़ उठा सकता है|
एक व्यक्ति ने उठकर कहा - गाँव के भले के लिए उठाये गए इस कदम का हम स्वागत करते है| इतना कहना था की सभा में “हाँ-हाँ मंजूर है का शोर उठ गया|
धरमु के बैठते ही बलराम उठ खडा हुआ वो करीब साढ़े छह फुट का हट्टा-कट्टा व्यक्ति था उसने अपनी भारी आवाज़ में कहा - आज हम सब यहाँ इसलिए इकट्ठा हुए है क्योंकि हमारे गाँव में कई अप्रिय घटनायें घटी है, जो की निंदनीय है, हम यहाँ आज गुनेहगारों को सजा देकर गाँव में शांति बहाल करना चाहते है और यह सुनिश्चित करना चाहते है की आगे से इस गाँव में ऐसी कोई अप्रिय घटना ना हो|
बलराम इतना कहकर बैठ गया, फिर बलेश्वर लाल बोला - कल रात एक बेहद शर्मनाक घटना घटी, मनहर के अबोध बालक की हत्या कर दी गयी इतना कहना था की मनहर दहाड़े मारकर रोने लगा, लोगो ने उसे ढाढस बंधाया| बलेश्वर लाल फिर कहने लगे - हम सब जानते है ये पूरा विवाद जमीन को लेकर हुआ है, हम जानते है की ये कुकर्म किसने किया है और हम उस गुनेहगार को सजा देकर गाँव में ऐसी घटनायें होने से रोकेंगे|
लोग स्तब्ध होकर सुन रहे थे|
बलेश्वर लाल ने बोलना जारी रखा - जैसा की हम जानते है की मनहर के जमीन पर रामचरण की बुरी नज़र थी, और इसलिए रामचरण और उसके परिवार ने मनहर पर हमला किया और फलस्वरूप रामचरण की हत्या हुई, और रामचरण के परिवार ने ये मान लिया की मनहर और उसके परिवार ने रामचरण की हत्या की, और इसी संदेह में रहकर रामचरण के बेटे रामबाबू ने मनहर के बेटे सुन्दर की हत्या कर दी|
इतना कहते ही लोगो ने आपस में बात चीत शुरू कर दी, मनहर की घरवाली जो लगातार रो रही थी, वह रामबाबू को गालियां और बद्दुआयें देने लगी और तभी दूसरे किनारे पर बैठी रगनिया ने अश्रु राग छेड़ दिया और उसने भी रोते-रोते मनहर और पंचों को कोसना शुरू कर दिया| फुलसिन को बलेश्वर की स्त्री ने चुप कराया और रगनिया को गणेशिया की घरवाली ने|
सभी के चुप होने पर पंचायत की कार्यवाही पनुः शुरू की गयी|
धरमु ने कहा की हमें इस गुनाह के बदले उचित दंड देना चाहिए |
इससे पहले की रामबाबू कुछ कहने को हुआ गणेशिया खड़ा हुआ और बोला- यदि संदेह के आधार पर फैसला होना है तो पहले मनहर के बेटे शम्भु को, रामचरण की हत्या के लिए सजा दी जाये|
रामबाबू खड़ा हुआ और स्थिर भाव से बोला - मैंने सुन्दर की हत्या नहीं की उसकी बात को बीच में काटते हुए धरमु बोला - संदेह के आधार पर नहीं, हमारे पास गवाह है जिसके आधार पर हमनें यह फैसला लिया है| इतना कहकर उसने भीड़ से दूर हटकर अकेले में बैठे कैलाशी चमार की तरफ देखा| कैलाशी चमार सर झुकाये हुए उठा और बोला- कल रात मैं नदी पर इष्ट देव को अर्ग देने गया था वहां से लौटते हुए मैंने रामबाबू को कुलहरी लेकर मनहर के खेतों से अपने घर की तरफ भागते देखा|
धरमु ने कैलाशी को बैठने का इशारा किया और कैलाशी सर झुकाये ही बैठ गया फिर धरमु बोला और किसी सबूत की जरुरत है| सभी लोग एक स्वर में बोलने लगे मार दो मार दो|
गणेशिया फिर उठ खड़ा हुआ और बोला - अगर कह देने से गवाही होती है तो मैं कहता हूँ की मनहर के बेटे शम्भू ने रामचरण की हत्या की और वो भी उतने ही सजा का अधिकार है जितना रामबाबू| सभा में सन्नाटा छ गया, कुछ क्षण के पश्चात बलेश्वर लाल खड़ा हुआ और बोला - अगर पंचों को मंजूर हो तो मैं अपना फैसला सुनाना चाहता हूँ|
धरमु और बलराम ने सर हिलाकर सहमति दी|
इसमें कोई दो मत नहीं की रामबाबू ने मनहर के छोटे बेटे की हत्या की| यह भी स्वीकार करने की बात है की रामचरण को मारने का शम्भू के अलावा और किसी के पास कोई कारण नहीं था इसलिए रामचरण के बेटे रामबाबू और मनहर के बेटे शम्भू को अनिश्चित काल के लिए गाँव से निर्वासित किया जाये, कल सुबह सूरज उगने के पहले दोनों गाँव की सीमा के बाहर होने चाहिए|
धरमु और बलराम ने एक स्वर में कहा- मंजूर है| भीड़ में कोलाहल मच गयी, कुछ लोग तालियां बजाने लगे, कुछ आवाज़े लगाने लगे औरतों के बीच से जोर-जोर से रोने की आवाज़े आने लगी| गणेशिया स्तब्ध खड़ा था, धरमु ने उसे देखा और धरमु के चेहरे पर सन्तुष्टता की मुस्कान झलक उठी|
उस रात रामचरण और मनहर के घर में रोने की आवाज़ थमती ही नहीं थी| मनहर चीख चीख कर रोता था, एक बेटे को मार दिया एक को गाँव से निकाल देंगे तो हम किसके लिए जीयेंगे और क्यों जीयेंगे इससे बेहतर होता की हमें ही मृत्युदंड दे देते, अरे शम्भू की माई अब क्या देखती है थोड़ा माहुर ले आ, खाकर मर जायेंगे| शम्भू सहमा हुआ बैठा रो रहा था| शम्भू भले गरम दिमाग का था लेकिन था अभी बस १७ वर्ष का और अभी बाल्यपन ख़त्म भी नहीं हुआ था, माँ बाप से दूर गाँव से दूर की कल्पना भी उसके लिए किसी बड़ी बिमारी को पालने से कुछ कम नहीं था| मनहर की घरवाली मुँह में आँचल दबाये खूंटे से माथा लगाए बेसुध बैठी थी|उसकी ममता पर गहरा आघात हुआ था, एक बालक दुनिया से चला गया और दूसरा निर्वासित हो गया| कभी कभी तो वो सोच बैठती की वह भी अपने पति को लेकर गाँव छोड़कर क्यों ना चली जाये, लेकिन अभी तो मनहर चलने लायक भी नहीं हुआ|
रामचरण के घर में भी करीब स्थिति वही थी, रामबाबू एक किनारे चुपचाप बैठा था, नवजीवन और जीवछ बैठे सिसकियाँ भर के रो रहे थे, सुर्खी अपनी माँ का आँचल पकडे बैठा था और रगनियां घर के किवार से लगे बैठी थी, खाट पर गणेशिया और उसकी स्त्री बैठी थी| रगनियां बड़े क्रोध से बोली - ये कौन सा न्याय है, की जिस परिवार का निर्वाह करने वाला मर जाये उसके बड़े लड़के को सदा के लिए परिवार और गाँव से दूर कर दो, जिससे उसका परिवार विरह की व्यथा से मर जाए, ऐसा न्याय तो मैंने नहीं सुना| गणेशिया सुन कर चुप रहा, और उसके पास कोई जवाब होता भी तो वह देना मुनासिब नहीं था|
गणेशिया ने धैर्य रखते हुए बोला - अभी कुछ दिन के लिए रामबाबू बाहर चले जाए, कुछ दिनों में जब यहाँ माहौल शांत हो जाये तो वापस आ जाये, लेकिन अभी माहौल गर्म है और अगर अभी पंचायत का फैसला नहीं माना गया तो जाने क्या से क्या हो जायेगा|
गणेशिया की स्त्री उठ कर रगनिया के पास आयी और बोली - ये दुःख भरे दिन है बहिन, काटना मुश्किल है लेकिन हम जानती हैं की तुम इस समय को जरूर झेल लोगी और हम देखेंगी की अच्छे दिन भी आएंगे|
गणेशिया ने रामबाबू की तरफ देखा, रामबाबू ने गंभीर भाव से सहमति जताई|
मनहर ने भी बड़े ग्लानि भरे स्वर में शम्भू को समझाया- अधिक दूर नहीं चले जाना, यहीं आस-पास कहीं मजूरी करना और गुजारा चलाना, बीच-बीच में कभी रात में चुपचाप आकर मिल जाया करना और अपना पता दे देना| फिर जब मैं चलने फिरने लायक हो जाऊं तो फिर कोई रास्ता निकालेंगे| मनहर अपने बेटे को तो ढाढस बंधा रहा था लेकिन खुद अंदर से टूटा हुआ था|
तड़के सुबह रामबाबू ने अपना गठरा उठाया, माँ के पैर छुए, गणेशिया भी उसे विदा करने आया था, उसके भी पैर छुए और नदी के किनारे रस्ते पर चल पड़ा|
शम्भू घर में ही बैठा था, शायद वह घर से निकलने का साहस नहीं जूटा पा रहा था, और कोई भी आहट सुनता तो उसे लगता की लोग उसे निकालने आ रहे होंगे और वो सहम जाता| सहसा उसे यह ख्याल आया की अगर वह नहीं गया तो उसके परिवार को गाँव से अलग कर दिया जायेगा, और कोई जरुरत की सामान भी नहीं देगा यहाँ तक की उसके पिता का उपचार भी रुक जायेगा और ये सोचकर वो उठ खड़ा हुआ की चाहे कुछ हो जाये वो अपने परिवार को संकट में नहीं डालेगा| यह सोच उसने अपनी गठरी लाठी में टांगी और माँ बाप का आशीर्वाद लेकर नदी के रास्ते विदा हुआ|
शाम होने को आया था, रामबाबू गाँव से काफी दुर आ चुका था, अब रामबाबू को करीब २ कोष और चलना था की अगले गाँव में उसका प्रवेश हो जायेगा| उसने दूर लहलहाती खेतों को देखते ही भांप लिया की सामने कोई गाँव है| उसे मन ही मन ख़ुशी का एहसास हुआ, की एक दिन की दुरी पर ही गाँव है, और शायद इस तरफ कोई देखने आया ही नहीं| उसने मन ही मन योजना बनायी, यहीं मजूरी करेगा जब चाहे अपने परिवार से मिल आएगा, और अगर कहीं कोई बात जम गयी, थोड़ी बहुत जमीन हाथ लग जाये तो परिवार को भी साथ ले आएगा| लेकिन अब उसमे और चलने की साहस नहीं थी| उसने थोड़ी देर विश्राम करने का मन बनाया और वहीँ पीपल के पेड़ के नीचे बैठ गया, थके होने के कारण उसकी आँख लग गयी और वो वहीँ बैठे-बैठे सो गया|
इधर मनहर का लड़का शम्भू उसी रास्ते चला आ रह था, उसने रामबाबू को पेड़ के नीचे सोते देखा और उसका खून खौलने लगा| उसके आँखों के सामने उसके छोटे भाई का चेहरा घूमने लगा उसने ना आव देखा ना ताव और अपनी लाठी से गठरी हटाई और पुरे जोर से लाठी का प्रहार रामबाबू पे किया, उसकी लाठी लम्बी थी और वो पीपल के शाख से जा टकराई, इतने जोर की आवाज़ से रामबाबू की नींद खुल गयी, उसने ज्यों ही शम्भू को देखा और उसके हाथ में लाठी देखी उसे ये भांपते हुए देर ना लगी की शम्भू क्या करने वाला है,| इससे पहले की शम्भू लाठी को दुबारा से रामबाबू पर प्रहार करता, रामबाबू चीते की फुर्ती से उठा और उसने पुरे जोर से अपने शरीर को शम्भू पे झोंक दिया और अपने कंधे से शम्भू के पाँजर पे जोरदार प्रहार किया| रामबाबू के विशाल शरीर के एक वार से दुबला-पतला शम्भू दस कदम दूर जा गिरा, उसकी पस्लियाँ टूट गयी, वो मारे दर्द के कराहने लगा, और रोने लगा| रामबाबू ने उस पर और वार नहीं करना मुनासिब समझा| शम्भू रामबाबू को आगे बढ़ता देख गिरगिराने लगा शायद उसे प्राणो क भय होने लगा|
रामबाबु उसके पास पहुंचा और बोला - तुमने मेरे पिता की हत्या की और अब तूँ अपने जीवन की भीख मांगता है|
शम्भू रोते हुए बोल पड़ा - नहीं रामबाबू मैंने तुम्हारे पिता की हत्या नहीं की, मैं उस दिन क्रोध में घर से निकला जरूर था लेकिन दोस्तों के साथ भांग खाकर मैं सो गया था और रात भर दोस्त के घर पर ही रहा, मैं सच कहता हूँ|
रामबाबू ने उसकी आँखों में देखा, उसकी आँखों में सिर्फ भय था|
रामबाबू का कलेजा पिघल आया - चल मेरे साथ - रामबाबू ने उसे कहा और कंधे का सहारा देकर उठाया|
रात हो चुकी थी, अँधेरे में रास्ता टटोलते और दूर में दीखते गाँव के शुरुआत में जलते हुए बाती को देखकर वो उस घर तक पहुचें जहाँ से गाँव की शुरुआत होती थी|
रामबाबू ने दरवाज़ा खटखटाया अंदर से एक बुज़ुर्ग व्यक्ति, लम्बी दाढ़ी और लम्बे से कुर्ते में बहार आये, रामबाबू ने उनसे पनाह मांगी और शम्भू की दशा बताई| संजोग वश वह गाँव के वैद्य का घर था, उन्होंने शम्भू का उपचार किया, दोनों को उस रात पनाह दी |
रातभर रामबाबू ये सोचता रहा की अगर शम्भू ने उसके पिता की हत्या नहीं की, मनहर इस लायक था नहीं की वो किसी की हत्या कर सके तो फिर किसने उसके पिता की हत्या कर दी, और किसने शम्भु के छोटे भाई को मारा, किसीने गुरूजी की हत्या क्यों की, ये सब सोचकर उसे नींद नहीं आती थी| वह इन सब प्रश्नों का जवाब चाहता था और अपने पिता की हत्या का प्रतिशोध लेना चाहता था|
सुबह शम्भू से उसने ये कहा - मैंने तुम्हारे भाई की हत्या नहीं की मैं तुम्हे मारने गया था और वहीँ मैंने किसी को उस झोपड़े से भागते हुए देखा| किसी को मुझपर शक ना हो इसलिए मैं वहां से घर भाग रहा था और तभी मुझे कैलाशी ने देख लिया होगा| दोनों एक दूसरे को देखने लगे, जैसे दोनों ने मुक्ति पा ली हो| कुछ देर रुककर रामबाबू ने शम्भू को हिदायत दी की वो वहीँ रहकर वैद्य के साथ रहकर काम करे|
और तुम क्या करोगे - शम्भू ने चिंतित भाव से पूछा| रामबाबू ने उसकी जान बचायी थी और इसलिए वो अब उसका कृतघ्न हो गया था|
रामबाबू ने गंभीर स्वर में कहा - मुझे बहुत कुछ पता लगाना है| इतना कहकर रामबाबू अपना सामान लेकर विदा हो गया|
आगे पढ़े भाग ५ – साझेदारी