Samay ka Pahiya - 4 in Hindi Short Stories by Madhudeep books and stories PDF | समय का पहिया भाग - 4

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समय का पहिया भाग - 4

समय का पहिया

भाग . ४

अनुक्रम

१.अबाउट टर्न

२.अवाक्

३.आधी सदी के बाद

४.ऑल आउट

५.इज्जत का मोल

६.उनकी अपनी जिन्दगी

७.उसके बाद....

८.एकतन्त्र

९.कल की ही बात है

१० किस्सा इतना ही है कि

अबाउट टर्न

अक्टूबर का अन्त है। शहर पर गुलाबी ठण्ड पसरने लगी है। सुबह के नौ बज चुके हैं। पार्क में सुबह घूमने आने वालों की भीड़ छँट चुकी है।

रामप्रसादजी एक बैंच पर गुमसुम बैठे हैं। उनके सभी साथी जा चुके हैं मगर उनका मन घर जाने का नहीं है। घर पर कौन उनकी प्रतीक्षा कर रहा है। दो वर्ष पहले जब वे सेवामुक्त हुए तो कैंसर पीड़ित उनकी पत्नी भी साथ छोड़ गई। बेटा है, बहू है, मगर वे दोनों नौकरी पर चले जाते हैं। वे सारा दिन अपनी 1स्टडी1 मेंं किताबों में गुम बैठे रहते हैं।

1ढम....ढम....1 सामने मिलिट्री ग्राउण्ड में हो रही सैनिकों की परेड में बज रही ड्रम की आवाज उनके सिर पर हथौडे़ की तरह बज उठती है।

4बात मदद करने की नहीं है। बल्कि यह सच है कि आप हमारा अधिकार उस महरी को देना चाहते हैं...3 बेटा यहीं पर नहीं रूका था, 4आप महरी से जुडते जा रहे हैं...3

आगे कुछ नहीं सुन सके थे वे, सन्न रह गए थे।

बात कुछ भी नहीं थी मगर तूल पकड़ती चली गई थी। वे घर की महरी की लड़की की शादी में कुछ आर्थिक मदद करना चाह रहे थे मगर बेटे की नजर में उन्हें इसका कोई अधिकार नहीं था। वे समझ नहीं पाए थे कि उनका बेटा उन पर ऐसा घटिया लांछन क्यों और कैसे लगा गया! क्या उन्हें खुद की कमाई इस दौलत में से अपनी मर्जी से कुछ भी खर्च करने का अधिकार नहीं है?

सूरज थोड़ा और ऊपर आ गया है। तपिश भी बढ़ने लगी है।

1अबाउट टर्न...1 सामने मिलिट्री ग्राउण्ड में सेनानायक की तेज आवाज गूँज उठी है।

वे उठे और उनके पाँव पार्क से निकलकर 1अनुभव घर1 वृद्धाश्रम की ओर मुड़ गए।

अवाक्

अपने झोंपडे़ के सामने झिलंगी.सी चारपाई में बैठा सुखिया गहरी उधेड़.बुन में उलझा हुआ था। दिवाली पर साहूकार से पाँच रुपये सैकड़ा ब्याज पर लिए दो हजार रुपये दशहरा आते.आते चार हजार कैसे हो गए! वह ठहरा निपट अनपढ़, कैसे हिसाब लगाए!

हाथ की बीड़ी बुझने को थी, उसने सुट्ठा लगाकर उसे सुलगाया। सामने से उसका बेटा पीठ पर भारी स्कूल.बैग लटकाए आ रहा था।

4बेटे सुन! तुझे ब्याज के सवाल आते हैं?3 प्रश्न सुन बेटा उनका मुँह ताकने लगा।

4अरे चुप क्यों है, बता न।3

बेटे ने न में सिर हिला दिया।

4पढ़ता तो तू सातवीं में है पर ब्याज के सवाल भी ना आते।3 सुखिया ने माथा पकड़ लिया। बेटा चुपके से अन्दर जाने लगा।

4सुन बस्ता अन्दर रख और मेरे साथ चल।3

3कहाँ?3 बेटा आश्चर्य से ताकने लगा।

4मास्टर जी के पास, पूछता हूँ कि वे तुझे कुछ पढ़ाते भी हैं या नहीं।4

4पर बापू! मैं स्कूल में पढ़ने के लिए थोड़े ही जाता हूँ।3

4तो....?3

4बापू मैं तो स्कूल में इसलिए जाता हूँ कि वहाँ दोपहर में भरपेट खाना मिले है। और देख बापू, मैं छोटे के लिए भी लाया हूँ।3 बेटे ने बस्ते से पोलीथीन निकालकर बाप को दे दी।

सुन कर सुखिया सन्न रह गया।

4पर मास्टरों को तनखा पढ़ाने को मिले है, उन्हें तो बच्चों को पढ़ना चाहिए।3

3पर बापू! मास्टर जी तो खाना बनाने में और बाँटने में लगे रहते है, वे पढ़ावें कब!3

अब सुखिया अवाक् खड़ा था।

आधी सदी के बाद भी

4अब तुम मुझसे शादी कर लो....।3

4क्यों....?3

4अब हम बूढ़े हो रहे है...।3

4व्हाट नानसेंस! किसने कहा कि हम बूढ़े हो रहे हैं....?4

4हाँ, पचास की उम्र में हम खुद को जवान कह भी सकते हैं....!3

4सरकार भी साठ की उम्र में रिटायर करती है...।3

4रिटायर करती है ना....!3

4तो...?3

4मैं रिटायर होना नहीं चाहती.....।3

4तुम्हारी प्रॉब्लम क्या है? क्या हम साथ नहीं रहते....?3

4मैं तुम्हारी पत्नी बनकर रहना चाहती हूँ.....।3

4दो हजार चालीस में तुम दो हजार दस की बात कर रही हो....!3

4क्या मैं दो हजार पचास की प्रतीक्षा करूँ....?3

4बट...व्हाट.....लेकिन....।3

4हाँ, मैं तब तक भी प्रतीक्षा कर सकती हूँ......।3

ऑल आउट

आठ बजने को हैं। बन्द फ्लैटों के दरवाजे बाहर से खुलकर अब अन्दर से बन्द हो गए हैं। राकेश और अनिता अभी अपने7अपने कार्यालयों से लौटे हैं। राकेश टी.वी. खोलकर सोफे पर अधलेटा.सा पड़ गया है। अनिता दोनों हाथों से सिर दबाए पलंग पर जा बैठी है। भारत और इंग्लैण्ड का टी7२० क्रिकेट मैच रोमांचक दौर में पहुँच चुका है।

4डार्लिंग, एक कप गर्म चाय हो जाए!4 धोनी ने हेलिकॉप्टर शॉट से गेंद को छक्के के लिए उड़ा दिया है।

4चाय तो मुझे भी चाहिए थी डियर।4 गेंद सिर्फ एक रन के लिए मिड ऑफ पर गई है।

4हाँ, हाँ....दोनों पिएगें, तुम बनाकर तो लाओ।4 राकेश की निगाहें टी.वी. स्क्रीन पर जमी हैं। अगं्रेंज बॉलर आग का गोला उँगलियों में फंसाए भागा चला आ रहा है। सामने सुरेश रैना है।

4मेरी तबीयत ठीक नहीं है डियर, चाय आप बना लाएँ, प्लीज।4 रैना के बल्ले से टकराकर गेंद ऊँची उछल गई है।

4क्या...?4 गेंद सीधी फील्डर के हाथों में और रैना कैच आउट हो गया है।

राकेश निगाहों में प्रश्न लिए पत्नी की ओर देख उठा है।

4यदि आपका मूड चाय बनाने का न हो तो 1रमन टी स्टाल1 पर फोन करके वहाँ से मँगवा लो।4 रैना के बाद अगली ही गेंद पर धोनी भी क्लीन बोल्ड होकर पवेलियन की ओर लौट रहा है।

4और हाँ, आप उठ कर सब्जी बना लें, मैं थोड़ी देर में आटा गूँथकर रोटी बना दूँगी।3 एक के बाद दूसरा बल्लेबाज 1आयाराम.गयाराम1 हो रहा है। आखिरी जोड़ी क्रीज पर है।

4यदि सब्जी बनाने का मन न हो तो 1राम भोजनालय1 का नम्बर घुमा दो...3 आखिरी बल्लेबाज आउट, ऑल आउट।

राकेश अब अपने ही अन्दर बन्द होने लगा है।

इज्जत का मोल

मल्टीनेशनल कम्पनी में छह दिन दिमागतोड़ काम करने के बाद रविवार घनश्याम के लिए पाँव फैलाकर घर पर आराम करने का दिन होता है। मगर इस दिन की शाम पर उसका कोई अधिकार नहीं होता। यह शाम होती है पत्नी और दोनों बच्चों की। कभी मल्टीप्लेक्स, कभी मॉल तो कभी इण्डिया गेट और बोटिंग क्लब।

आज वे सब 1स्ट्रीट फूड कार्निवाल1 में चाट7पकौड़ी का चटखारा लेने आए हैं। वो कहावत है ना, 1कन्धे से कन्धा छिलना1, उसे महसूसते हुए बच्चे और पत्नी यहाँ रोशनी की चकाचौंध में खोए हुए हैं। तरह7तरह के खाने.व्यंजन, चाट.पकौड़ी, रबड़ी.फलूदा, दूध.जलेबी, पावभाजी.चाउमिन, मक्खन के पॉपकार्न7 जैसे दिल्ली के सभी नामी केटरर्स ने दुकानें यहाँ सजा ली हैं।

पत्नी और बच्चे एक स्टाल पर रूके तो घनश्याम के कदम भी वहीं ठहर गए। 1अग्रवाल चाट भण्डार1, नाम बहुत सुना था कि इसके पाँच तरह के गोल.गप्पे, कलमी बड़े और गुँजिया.पकौड़ी ने शहर भर को दीवाना बना रखा है।

दो नौकर चाट.पकौड़ी के पत्ते बना रहे हैं तो दो नौकर लोगों को गोल.गप्पे खिला रहे हैं। भीड़ इतनी कि जैसे सब कुछ मुफ्त में मिल रहा हो, हालाँकि हर चीज के दाम लगभग दुगने हैं। घनश्याम बच्चों और पत्नी की फरमाइश पूछकर टोकन लेने के लिए लाइन में लग गया है।

काउण्टर तक पहुँचने पर सामने गल्ले पर सफेद कुर्ता7धोती पहने बैठे व्यक्ति को देखकर वह यकायक चौंक उठा। 1अरे, यह तो घासीराम है जो गाँव में पाँचवी तक उसके साथ पढ़ता था और जिसका बाप गाँव के छोटे से बाजार में एक दुकान के सामने चबूतरे पर खोमचा लगाता था।1

4अरे घासीराम तुम....!4 उसने उसे पहचाना है।

4अरे वाह! घनश्याम भाई आप!3 उधर से आई आवाज ने पहचान पक्की कर दी है।

4यह अग्रवाल चाट भण्डार.....?4

4अपना ही है।3

4मगर तुम तो.....?3 वह प्रश्न को रोक नहीं पाता।

4सब चलता है घनश्याम भाई।3 वह लापरवाही से उत्तर देता है।

4क्यों बच्चों का नुकसान कर रहे हो! कुछ पढ़7लिख जाएँगे तो 1कोटे1 से अफसर बन जाएँगे।4 वह अपनी बात को कहे बिना नहीं रह पाता।

4उसकी फिक्र क्यों करें भाई, अपना धन्धा है ना! और फिर समाज में इज्जत का भी तो कुछ मोल होता है ना।3

पीछे से लाइन का दबाब उसे वहाँ से हटा देता है। पत्नी और बच्चे उसकी प्रतीक्षा कर रहे हैं।

4अरे श्यामू! साब जो कहें, उन्हें स्पेशल से खिलाना, अपने लंगोटिया हैं।3

घासीराम अपने नौकर को आदेश दे रहा है। घनश्याम के कदम पत्नी और बच्चों की तरफ बढ़ रहे हैं।

उनकी अपनी जिन्दगी

बंगले की हरी7हरी लॉन में बैंत की दो कुर्सियाँ रखी हैं। दोनों के बीच में बैंत की ही छोटी सी मेज लगी हुई है। विनयप्रसाद जी पत्नी के साथ सुबह की सैर से लौटे हैं। पत्नी अन्दर चली गई है और वे सुबह की गुनगुनी धूप में बाहर ही कुर्सी पर बैठ गए हैं।

तीन वर्ष पहले जब वे उपसचिव पद से सेवामुक्त हुए तो पत्नी ने भी अपनी सेवा के चार वर्ष शेष रहते हुए सेवा7निवृति ले ली थी। उनका दृढ़ मत था, 1जीवन भर दूसरों के लिए बहुत खट लिए, अब हम दोनों एक7दूसरे के लिए जिएँगे।1

विनयप्रसाद जी गेट से बाहर देख रहे हैं। पूर्व डी.सी.पी. दुर्गादास जी एक हाथ में भारी बस्ता लटकाए और दूसरे हाथ से पोते की उँगली पकड़े उसे स्कूल बस तक छोड़ने जा रहे हैं। उन्हें देख कल शाम खाने की मेज पर पत्नी और बहू के बीच हुई छोटी सी बात विनयप्रसाद जी की आँखों के सामने आ गई।

4बहू! शादी को तीन साल हो गए, आगे क्या विचार है?4 पत्नी ने सकेंत में पूछा था।

4माँजी, आप तो जानती ही हैं, हम दोनों नौकरी करते हैं, ऐसे में बच्चा! आप सँभाल ले तो...3 बहू ने अपनी बात अधूरी छोड़ दी थी।

सुनकर एक पल को पत्नी सकते में आ गई थी। दाल में जैसे कंकड़ आ गया हो।

4बहू, हमने अपने बच्चों को पाला पोसा, अच्छी शिक्षा दी और उनका शादी7ब्याह भी कर दिया। अब हम अपने दायित्व से मुक्त हो चुके हैं। तुम्हारी संतान तुम्हारा ही दायित्व होगा। यही विचारकर कोई निर्णय लेना।3 पत्नी ने दृढ़ स्वर से कहा था और खाने की मेज से उठ गई थी।

पत्नी ने शहद और नींबू पानी के दो गिलास लाकर मेज पर रखे तो वे वर्तमान में लौटे।

4सुनो! तैयारी कर लो.... हम कल एक महीने के लिए 1मनहर आश्रम1 जा रहे हैं।4 विनयप्रसाद जी ने कहा तो पत्नी ने अपना हाथ उनके हाथ पर रख दिया।

उसके बाद.....

पेट्रोल पम्प पर वाहनों की लम्बी कतार लगी थी। टी.वी. के सभी व्यावसायिक न्यूज चैनलों पर दो घण्टे से एक ही 1बे्रकिंग न्यूज1 चल रही थी7 इराक में खूनी संघर्ष के कारण विश्व में पेट्रोलियम पदाथोर्ं की कमी की आशंका, देश में आज आधी रात से कीमतें बढ़ने से राशनिंग की सम्भावना।

टी.वी. का एक संवाददाता हाथ में माइक थामे 1बाइट1 लेने की कोशिश में है। उसका सहयोगी कैमरामैन इसकी 1लाइव कवरेज1 कर रहा है।

वह एक चमचमाती होण्डा सिटी कार की खिड़की पर ठक....ठक...करता है।

4आपकी कार की टंकी में कितना पेट्रोल आ जाता है?3

4चालीस7पैंतालीस लीटर में फुल होती है....।3

4तो आप टंकी फुल करवाएँगे...?3

4बिल्कुल!3

4फुल टंकी कितने दिन चल जाती है....?3

4छह7सात दिन तो काम चल ही जाएगा।3

4उसके बाद....?3

कारवाला असमंजस मे संवाददाता के चेहरे पर उसके प्रश्न को समझने का प्रयास कर रहा है।

सवांददाता एक और गाड़ी के शीशे पर ठक...ठक...कर रहा है।

एकतन्त्र

राजपथ के चौराहे पर अपार भीड़ जमा है। सभी के हाथ मे अपने.अपने डण्डे हैं और उन पर अपने अपने झण्डे हैं। लाल रंग, हरा रंग, नीला रंग, भगवा रंग और कुछ तो दो.दो, तीन.तीन तथा चार.चार रंग के झण्डे भी हैं। भीड़ में सभी अपने झण्डे को सबसे ऊपर लहराना चाह रहे हैं।

पिछले एक महीने से ये सभी झण्डे शहर की प्रमुख सड़कों पर मार्च पास्ट करते हुए देखे जाते रहे थे। अजीब सा कोलाहल और छटपटाहट शहर की हवाओं में फैल रही थी। कोई झण्डा उनके झण्डे से ऊँचा न उठ जाए, इस पर सभी पक्ष बेहद सचेत और चौकस थे। आखिर माराकाटी प्रतियोगिता के बाद यह फैसला लॉकरनुमा सुरक्षित कमरों में बन्द कर दिया गया था कि कौन सा झण्डा सबसे ऊँचा लहराएगा।

दो दिन की मरघटी नीरवता के बाद आज कोलाहल फिर से हवाओं में तैरने लगा है। लॉकरनुमा कमरों में बन्द परिणाम आज राजपथ पर उद्घोषित किया जा रहा है। प्रत्येक उद्घोषणा के बाद डण्डों और झण्डों का रंग बदलता जा रहा है। कभी लाल ऊपर तो कभी नीला। कभी भगवा तो कभी हरा। कहीं कोई स्थिरता या ठहराव नहीं है। पल प्रतिपल धुकधुकाहट बढ़ती जा रही है। झण्डों का ऊपर नीचे होना निरन्तर जारी है।

दोपहर बीतते.बीतते भीड़ का लगभग आधा हिस्सा अपने अपने झण्डे डण्डे लेकर राजपथ से वापिस लौट गया है। उन्होंने मान लिया है कि वे अपना झण्डा और अधिक नहीं फहरा सकते।

भीड़ थोड़ी छँटी अवश्य है लेकिन शोर अभी थम नहीं रहा है। कोई भी एक झण्डा पूरी ताकत से ऊपर नहीं पहुँच पा रहा है। बैचेनी और अकुलाहट बढ़ती जा रही है। अनेक रंगो के झण्डे अभी भी हवा में लहरा रहे हैं।

राजपथ पर अब शाम उतर चुकी है। हल्का सा धुँधलका भी छाने लगा है। चारों दिशाओं मे फैला कोलाहल एकाएक शान्त हो गया है। एक विचित्र सा षड्यन्त्री सन्नटा फैलने लगा है।

एक अधबूढ़ा व्यक्ति अपनी हथेली को माथे से टिकाए उस सन्नाटे में दूर तक देखने की कोशिश कर रहा है7 झण्डों के रंग एक दूसरे में गडमड होते जा रहे हैं। वह उन रंगों को अलग अलग पहचानने का भरसक प्रयास कर रहा है मगर अब उसे सारे झण्डे एक ही रंग के नजर आ रहे हैं। स्याह काले रंग ने सभी रंगो को अपने में सोख लिया है।

अधबूढ़ा व्यक्ति जनपथ से राजपथ को जोड़नेवाले चौराहे पर घबराया सा खड़ा सोच रहा है, 1यह कैसे हो सकता है? कहीं उसकी आँखों की रोशनी तो नहीं चली गई है!1

कल ही की बात है

कल की ही बात है जब वे घर के सबसे महत्वपूर्ण सदस्य हुआ करते थे। दो कमाऊ बेटे7बहुओं, पत्नी तथा स्नेहिल पोते.पोतियों का यह भरा पूरा परिवार था। वे इस परिवार की धुरी थे और पूरा परिवार इस धुरी के इर्द गिर्द घूमता था। दफ्तर के साथ ही घर पर भी उनका पूरा रौब था। यह भय से उपजा रौब नहीं था, बल्कि दफ्तर और घर दोनों के मुखिया थे वे। उनकी एक आवाज पर घर.दफ्तर का हर सदस्य उनके सामने हाजिर रहता था।

यह भी कल की ही बात है।

4सुनो! सुबह सैर से लौटते समय दूध और सब्जी आप ले आया करो, अब आपको दफ्तर जाने की जल्दी तो होती नहीं है।3 पत्नी ने कहा था।

4पापा! आप बाद में नहा लेना, आपको अब दफ्तर तो जाना नहीं है।3

छोटा बेटा तौलिया और कच्छा.बनियान लिए उनसे पहले बाथरूम की ओर भागा था।

यह अब कल ही की बात है जब वे घर के मुखिया हुआ करते थे।

किस्सा इतना ही है

रात अभी गहराई नहीं थी लेकिन जनवरी की कड़कड़ाती ठण्ड सड़क पर पसरी पड़ी थी। वाहन इस समय सड़क पर कम थे मगर उनकी रफ्तार बहुत तेज थी। यह राजधानी की एक मशहूर सड़क का किस्सा है।

किस्सा7कोताह यूँ देखें तो कतई नया नहीं है। मगर इसने मेरे मन को मथ दिया तो मैंने भी इसे अपने पाठकों तक पहुँचाना जरूरी समझा। मेरी दुकान इस व्यस्त सड़क के चौराहे पर लाल बत्ती के बाईं ओर है। दिनभर वाहनों द्वारा ट्रेफिक के नियमों का उल्लंघन, सिपाहियों द्वारा चुपके.चुपके ली जा रही घूस तथा छोटी मोटी दुर्घटनाएँ मैं दुकान के ग्राहकों को निपटाते हुए रोज देखता हूँ।

1अब इस ठण्ड में कौन ग्राहक आएगा1, यह सोचकर मैं दुकान बढ़ाने की (बन्द करने की) सोच ही रहा था कि सामने सड़क पार करते एक वृद्ध को पीछे से तेज गति से आती 1स्कोडा1 टक्कर मारकर भाग गई। इसे इन्सानियत का तकाजा ही कहें कि मैं दौड़कर उस तक जा पहुँचा। वृद्ध ठण्डी सड़क पर तड़प रहा था। पाठकों! मैंने मदद के लिए इधर उधर देखा मगर व्यर्थ। इक्का.दुक्का आ रहे वाहनों को रोकने का प्रयास भी किया मगर सब बिना रूके दौड़ते चले गए। मैंने मोबाइल से पुलिस तथा एम्बुलेंस को फोन कर दिया क्योंकि असहाय सा मैं यही कर सकता था।

प्रतीक्षा की घड़ियाँ लम्बी होती जा रहीं थीं। वृद्ध की हालत बिगड़ती जा रही थी। मैं नाउम्मीद होता जा रहा था कि एक घण्टे बाद पुलिस की गाड़ी के सायरन से मेरी उम्मीद लौटी। किसी तरह पी.सी.आर. से वृद्ध को हस्पताल पहुँचाया गया। हाँ, पुलिस ने मुझ पर इतनी मेहरबानी अवश्य की थी कि मुझे साथ चलने के लिए विवश करने से पहले दुकान बढ़ाने की मोहलत दे दी थी।

अब मैं अगर यह सब वर्णन करूँगा कि हस्पताल मे कैसे क्या हुआ, कितनी परेशानी हुईं, मुझे किन.किन सवालों से दो चार होना पड़ा तो यह किस्सा लघुकथा की सीमा का अतिक्रमण कर जाएगा। वैसे भी मेरे पाठक उन सब स्थितियों से अच्छी तरह परिचित हैं और इसी कारण से वे किसी जरूरतमंद घायल की मदद करने की बजाय स्थिति से अक्सर किनारा कर जाते हैं।

तो पाठकों! यह किस्सा यूँ समाप्त होता है कि सारी औपचारिकताओं को पूरा करते.करते उस वृद्ध ने हस्पताल मे दम तोड़ दिया। अब मैं इस कारण से व्यथित हूँ और इसके बाद आने वाली परेशानियों के बारे में सोचकर दहशत में भी हूँ। घर पर पत्नी और बच्चे मेरी प्रतीक्षा कर रहे हैं।