Tarpan in Hindi Short Stories by Arun Asthana books and stories PDF | तर्पण

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तर्पण

तर्पण

अरुण अस्थाना


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तर्पण

यहाँ उसके घर में उसकी विधवा के सामने बैठकर मेरे भीतर भावुकता उमड़ रही हैं। मुझे तकलीफ इस बात की ज्यादा है कि उसकी मृत्यु की खबर मुझे इतनी देर से क्यों दी गयी और मैं इस बात के लिए भाभी से शिकायत करना चाहता हूँ — अब यहाँ आने के पीछे एक मकसद ये भी जरूर हैं।

आखिर वह मेरा पुराना और अजीज दोस्त था।

मुझे अफसोस है कि मेरा वह बहुत प्यारा, बेहद अंतरंग दोस्त अब नहीं रहा। मुझे इस बात का भी बेहद गम है कि उसकी पत्नी और पांच साल का बेटा बेसहारा हो गए उन्होंने अपना पति और पिता खो दिया। लेकिन सच बताऊँ तो इस मौत से मुझे कोई भारी शॉक लगा — ऐसा भी नहीं। वैसे उसे कोई जानलेवा बीमारी नहीं थी, वह उम्र के उस मुकाम पर भी नहीं पहुँचा था जहाँ लोग मौत का इंतजार करते है। फिर भी

हाँ, मैं विचलित जरूर हूँ। मौत तो मौत है और वह विचलित हर उस शख्स को करती ही है जो मरने वाले से किसी न किसी तरह जुड़ा हो। पर विचलित भी तो मैं लम्बे समय से हूँ। आखिर वह मेरा पुराना और अजीज दोस्त था, तब का दोस्त जब वह बहुत जिंद़ादिल हुआ करता था।

हम एक ही स्कूल से निकल कर अलग अलग कॉलेजो में पहुँच चुके थे पर उसके चटपटे—रंगीन—काले—सफेद चचोर्ं की खबरे मुझ तक पहुँचा ही करती थी।

अपनी शरारती मुस्कान के साथ वह खुद ही बहुत कुछ बताता, जब भी हम मिलते — लगभग रोज ही, बाकी इधर उधर से पहुँचती।

अचानक उसके पिताजी की मृत्यु हो गयी। माँ से तो वह पाँचवी पास करने के बाद से ही बिछुड़ चुका था, वह गाँव में थी। माँ से मिलने वह साल में बस एक बार गाँव जाता— दशहरे पर। माँ से मिलने के साथ गाँव की रामलीला भी एक बड़ा आकर्षण हुआ करती थी उसके लिए। उसके पिताजी ही उसकी माँ भी थे, ऐसे पिताजी मैंने कम ही देखे, मैं अपने पिताजी से बहुत प्यार करता हूँ। वह भी मुझे बहुत चाहते और मानते हैं पर अगर उसके पिता से बराबरी करूँ तो मेरे पिताजी सामने शायद नहीं ठहर पाएँगे।

खैर, तो उसके पिताजी की मृत्यु हो गयी और उनकी जगह कम्पैशनेट ग्राउंड पर वह उन्हीं के दफ्तर में बाबू हो गया। अब उसकी बाबूगीरी के बारे में ज्यादा बताना बेकार हैं क्योंकि दफ्तर कोई हो, बाबू सब जगह एक से होते हैं, तो वैसा ही वह भी बन गया।

ये वही दिन थे जब मैं भी नौकरी के मोर्चे पर निकल पड़ा था और परदेस की होटली रोटियाँ और मकान मालिकों की धौंस झेलता हुआ अपनी नौकरी की हाय—हाय से जूझ रहा था। पूरे तीन साल बाद मैं वापस लौटा। हम फिर लगभग रोज मिलने लगे थे। इन्हीं मुलाकातों ने मुझे सब कुछ बताना शुरू किया।

मसलन अब उसकी जेब में सिगरेट का पैकेट नहीं होता। और जब मैं अॉफर करता तो वह मना कर देता। मैं उससे लड़ने के लिए तड़प रहा था। मौके तलाश रहा था पहले की तरह लेकिन वह कोई मौका ही नहीं दे रहा था। पहले हमारे बीच लड़ाई की सबसे बड़ी वजह अक्सर सिगरेट बनती रही थी, पर अब वह भी बाकी नहीं।

चंद दिनों तक तो मैं जज्ब किये रहा लेकिन जब नहीं रहा गया तो पूछ ही लिया — क्या तबियत ठीक नहीं आजकल

नहीं ठीक तो हूँ।

फिर, क्या हुआ, कम कर दी क्या?

नहीं, छोड़ दी।

क्या ! तुमने सिगरेट छोड़ दी ! अबे तुम तो दिन भर में चार डिब्बी फूका करते थे, जबरदस्ती पिलाते थे, तुम।

एक सिगरेट आदमी की उम्र कई मिनट घटा देती हैं।ष् उसकी आवाज में बस सूचना थी, भावहीन सी।

हुँह, ये सब सोचने लगें तो फैक्ट्रियाँ बंद हो जाएँ दुनिया भर की।ष् मैंने बहुत हल्केपन से लिया उसकी इस सूचना को।

नहीं यार ये सच है सोचना चाहिए। इस बार उसने सीधे मेरी आँखों में देखा।

तो तुमने इसीलिए छोड़ दी।

हूँ।

जिन्दगी लंबी करने के लिए?

...

तब तो साले शर्त रही, तुम मुझसे पहले मरोगे।

मैं देख रहा था कि अब रिक्शा, टैम्पो, टैक्सी पर भी वह हमेशा बायीं ओर ही बैठता या बैठने की कोशिश करता। पहले हम लोगों में दायीं तरफ बैठने को लेकर नोंक—झोंक हों जाया करती थी क्योंकि दाहिनी तरफ बैठने से सामने से आ रही लड़कियों को देखना आसान हुआ करता था। मैं उसमें आये इस बदलाव की वजह तलाश ही रहा था कि एक दिन उसी ने ज्ञान बघारा — ऐसी सवारियों पर हमेशा बायीं ओर ही बैठना चाहिए ताकि कोई ऐक्सीडेंट—वीक्सीडेंट हो तो बचने के चांसेस ज्यादा रहें।

वो कैसे? किसी ने (मुझे याद नहीं किसने) सवाल उछाला।

सपोज, तुम रिक्शे पे बैठे हुए जा रहे हों, पीछे से कोई बस, ट्रक, कार वगैरह टक्कर मारती हैं तो अगर तुम दायीं ओर बैठें होंगे तो सीधे उसकी चपेट में आओगे और बायीं तरफ बैठे होंगे तो फुटपाथ की तरफ गिरोगे, समझे और अगर दायीं तरफ गिरकर टक्कर मारने वाले से बच भी गए तो सामने से आने वाला कोई तुम्हारा भुरता बना सकता है और वह किसी विशेषज्ञ की तरह जाने कितने तर्क दे गया, जाने क्या क्या बता गया। अंजाने में ही अब मैं हर वक्त उसके चेहरे के भावों को, हरकतों, आँखों के कोणों को पढ़ रहा था और उनके मायने, उनके पीछे की सोच को लगभग पूरी आसानी से समझने लगा था।

शादी भी नहीं करना चाहता था वह, पर किसी तरह खींच—खाग्चकर कर ही दी गयी। उसकी पत्नी की तारीफ की जा सकती थी — सूरत और सीरत दोनों से। लेकिन उसमें पत्नी के प्रति भी कोई उत्साह नहीं था। बस पतिधर्म की औपचारिकता भर निभा रहा था वह। मैंने ताड़ लिया ये भी।

यहाँ मैं आपको एक बार फिर बता दूँ — हमारे बीच तब तक श्एक्सट्रीमली पर्सनल जैसा कुछ भी नहीं था, मैं ही उसका सुख—दुख का सबसे खास साथी था। तो मुझे पत्नी के प्रति उसकी बेरूखी खटक रही थी। उसकी पत्नी इस बेरूखी को शायद नियति मानने लगी थी तभी तो संजीदा रहने लगी थी।

दोस्त था मेरा, मैंने एक दिन कुरेदा — तुम स्साले भाभी से कभी प्यार मोहब्बत नहीं जताते क्या

तुम्हें क्या पता।

मैं जो देखता हूँ, उससे तो यही लगता है

क्या देखते हो तुम, अरे उसके साथ सोता हूँ उसे संतुष्ट करता हूँ अब ये सब तुम्हें दिखा तो नहीं सकता बता भर सकता हूँ और बताऊँ भी क्या और क्यों, कोई बताने वाली बात है ये कि मैंने बिस्तर पर बीवी को कब किस क्‌या क्या कैसे कैसे किया

बिस्तर और बीवी, बीवी और बिस्तर बस यही गुण—भाग है तुम्हारा। अबे हमबिस्तर होने भर से बीवियाँ संतुष्ट हो जाती है क्या ष्

तुम्हें क्या पता।

मैं कुआँरा ही था तब तक और सपने देखा करता था रोमाँटिक से।

नहीं मेरा मतलब है वो दिन भर घर में पड़े रहती हैं उन्हें घुमाओ—फिराओ, प्रेम—व्रेम जताओ, मेरा मतलब है

घुमाओ—फिराओ! हुँह, सड़कों पर भीड़ तो देखी हैं तुमने, जाने कितने रगड़ के निकल जाएँगे उसे।

अरे भाई जब भीड़ कम हो तब या किसी शांत, सुरम्य एकांत।

हाँ ताकि चार बदमाश आएँ, मेरी तो टांगे चीर कर झाड़ी में फेंक दें और उसको रौंद—रौंद कर भरता बना दें, फिर कहीं हम चुप न रह पाएँ तो कोर्ट कचहरी में इज्जत का पोस्टमार्टम।

उसकी आवाज इतनी कड़वी पहले कभी नहीं हुई थी। मैंने बात खत्म करनी चाही — तुम तो यार मैं तो ऐसे ही कह गया, मेरा मतलब प्यार मनुहार वगैरह, और क्या...

क्या फायदा इससे, हाँ ? कितने प्रेम किये यार कॉलेज में। अब सामान्य होने की कोशिश में था वह।

प्रेम! अमाँ फ्लर्ट था वो तो, खालिस फ्लर्ट। आला दरजे की सीटियाबाजी। मैं सीधे—सच्चे प्यार की बात कर रहा हूँ अबे आत्मा से आत्मा वाला, मन से। मैंने समझाने की कोशिश की।

हाँ भइये वही। क्या करना ये सब करके, पत्नी है तो पत्नी बनी रहें। ज्यादा प्रेम से क्या मान लो कल मैं न रहूँ तब वह तो बेचारी मेरे प्यार में पागल रोती रहेगी बाकी उमर इसीलिए ऐसा व्यवहार रखो कि ऐसे में तुम्हारी कमी अखरे न ज्यादा दिन। समझा वही पाया।

मुझे ये भी नहीं लगता कि मैं गलत था इस मुद्दे पर लेकिन मैं इससे भी इंकार नहीं कर सकता कि वह अपनी पत्नी को बेहद चाहता रहा होगा। मेरी यही उहापोह, उसके यही सहमे तर्क मेरे दिमाग के कुछ सफों को अनजाने में ही लगातार भरते जा रहे थे।

उसे विक्षिप्त कहा जाए, ये मुझे अच्छा नहीं लगता, पर सच ये हैं कि वह ऐसा ही कुछ बन गया था — दुनिया से डरा, जिंदगी से डरा, खुद से डरा — मरा। चंद बरसों में, बाप बनने से पहले ही वह मुझे इतना बूढ़ा लगने लगा जैसे अगले दो चार साल में उसे रिटायर होना हो या जैसे कैसर का मरीज जिसे मालूम हो कि उसे कब तक जीना है।

मैंने कुछ कोशिशें की पर सब लगभग बेकार गयी। हमारा मिलना भी अब कम ही हो रहा था। उसे शायद मुझसे डर लगने लगा था। मुझसे क्या वह अब किसी से भी शायद ही मिलता, कैद कर लिया था एक तरह से उसने खुद को, लेकिन हम जब मिलते वह मुझे कुछ न कुछ दे जाता चिंता करने के लिए।

कभी मैं उसे बस में श्आपातकालीन निकासश् ढूँढकर उसके पास बैठते पकड़ लेता तो कभी छठी मंजिल पर स्थित अपने दफ्तर में फायर फाइटिंग सिस्टम पर लिखी इबारत पढ़ता वो मेरी नजरों की गिरफ्त में होता। कई बार वह अपने दफ्तर के केयरटेकर से उलझा भी दिखा — बात वही — आग लगने की स्थिति में इस्तेमाल होने वाली आपात सीढियों पर जमा पुराना फर्नीचर क्यों नहीं हटाया जाता।

घर की खिड़कियाँ उसने परमनेंट बंद कर दी थीं। जब कभी खिड़की खुलती भी तो जितनी देर खुलती वह परेशान रहता। भाभी ने भी एक—दो बार जिक्र किया कि वह रात में कई बार उठता है, कभी खिड़की दरवाजे देखता है तो कभी रसोई में जाकर गैस सिलेंडर की नॉब चेक करता है, सुबह सीधे रसोई में जाकर गैस जलाने से हमेशा और सख्ती से मना करता है, कहता है — कुछ देर किचेन खुला रखो, फिर गैस जलाओ।

अरे हाँ, बीवी के बहुत जिद करने पर इसी बीच वो एक बार वैष्णोदेवी के दर्शन को जाने का प्लान भी बना बैठा। मुझे घोर आश्चर्य हुआ, बेहद खुशी भी। कश्मीर तो कश्मीर, पंजाब तक के नाम से उसका रंग उड़ जाता था उन दिनों। हालांकि पंजाब के हालात ठीक हो चुके थे तब तक, फिर भी अपना विश्वास खत्म करने के लिए मैं उसे स्टेशन तक छोड़ने भी गया। ट्रेन की खिड़की से उसने मुझसे कहा — माँ के दर्शन को जा रहा हूँ तो वही रक्षा भी करेंगी। श्रद्धा का भाव तो था ही उसके चेहरे पर मैंने बहुत कोशिश करके कहीं आत्मविश्वास भी देख लिया था।

रात में मैं उसे जम्मू तवी जाने वाली हिमगिरि एक्स्प्रेस में बिठाकर आया और अगली सुबह वह फिर शहर में था। मुझे पता चला, मैंने पूछा — क्यों लौट आए? उसने चुपचाप सुबह का अखबार मेरे सामने कर दिया, पहली खबर थी — एक ही समुदाय के तीस तीर्थयात्री भूने गए।

मुरादाबाद से लौट आया था वह। मैंने उसके चेहरे को गौर से देखा, श्रद्धा की परत एकदम गायब थी। मुझे याद नहीं पड़ता कि इसके बाद कभी वह शहर से बाहर गया था। इधर अखबारों में जब से श्आतंकवादियों ने भूने या उड़ाएश् जैसे संवेदनहीन शीर्षक ज्यादा मोटे और ज्यादा लगने लगे थे तबसे और खासतौर पर ऐसी एकाध वारदातें शहर में या आसपास होने के बाद तो उसे घर के बाहर सात बजे के बाद शायद ही देखा जाता। आठ बजे तक तो उसके घर के सदर दरवाजे में ताला लग जाता।

ष्रात को तो बिल्कुल ठीक ठाक थे, बेटे को अपने पास सुला लिया था लेकिन सुबह...ष् इतना कहकर भाभी फिर रोने लगी हैं। मैं चाहता हूँ कि शिकायत करूँ पर चुप बैठा हूँ। पूछता भी रहा हूँ कि पिछले हफ्ते — पन्द्रह दिनों से उससे मुलाकात क्यों नहीं की, शायद मुझसे मिलकर ही वह बच जाता। मैं बस सोच रहा हूँ। उसकी पत्नी बीच बीच में सुबक पड़ती हैं। बिजली नहीं आ रही। मैं पसीने से बिल्कुल नहा चुका हूँ। हवा का हल्का सा एक झोंका आया है बड़ी राहत मिली हैं। मैं उधर देखता हूँ जिधर से ये झोंका आया हैं। दरवाजा बिल्कुल खुला है, परदा झूल रहा है। मुझे लगता है मेरा दोस्त अभी आएगा और भाभी को डाँटेगा — ये सारे दरवाजे क्यों खोल रखे हैं, उखाड़ कर फेंक दूँ। कहो तो लेकिन उसी दरवाजे से दाखिल हुआ है उसका लड़का — मम्मी तुम्हें पता है अब पापा नहीं आएँगे, अब मैं ये खिड़की खोल दूँ — वह बोल पड़ा है और दाहिनी तरफ वाली खिड़की के पास खड़ा हो गया है।