भारतीय सिनेमा के सौ वर्ष
जीवन के साथ कदमताल करता सिनेमा
सुभाष सेतिया
कला के सभी रूपों में सबसे नई विधा होते हुए भी सिनेमा आज सबसे लोकप्रिय कला विधा का रूप ले चुका है। यही नहीं यह हमारे जीवन के सबसे करीब भी हो गया है। निषेध और वर्जनाओं के साथ भारतीय जीवन में प्रवेश करने वाली फ़िल्में आज हमारे सामाजिक, सांस्कृतिक जीवन का अभिन्न हिस्सा बनकर सभी कलाओं को अपने में समेटे न केवल मनोरंजन का सबसे सुलभ साधन है बल्कि जीवन की हर गतिविधि से ताल मिलाकर चलते हुए, वह हमारे दुःख—सुख का सच्चा साथी बन गया है। पिछले सौ सालों में भारतीय सिनेमा गांव के बाहर खड़े अवांछनीय अतिथि के रूप को बहुत पीछे छोड़ कर परिवार का अंतरंग साथी बन गया है और समाज को कई रूपों में प्रभावित भी कर रहा है। समाज के एक छोटे से वर्ग में आज भी सिनेमा को बहुत श्रेष्ठ कला विधा नहीं माना जाता, किन्तु एक शताब्दी की यात्रा के बाद सिनेमा कबे प्रति निषेध और नकार की स्थिति लगभग समाप्त हो चुकी है। निषेध से सामाजिक स्वीकृति का तक का यह रूपांतरण इसलिए संभव हुआ कि फ़िल्में हमारी अनुभूतियों को सहलाती हैं और आम भारतीय के सुख—दुःख , हार—जीत, मान—अपमान तथा समस्याओं , उपलब्धियों से एकाकार होकर हमारे साथ—साथ चलती हैं। कभी—कभी फ़िल्में हमारे वर्तमान से आगे भी निकल जाती हैं तो उसमें आगत का संकेत होता है और वे हमें नई चुनौतियों के लिए तैयार करती हैं। दूसरे शब्दों में कह सकते हैं कि सिनेमा हमारे लोकजीवन का रसपूर्ण और ज्ञान परक अंग बन चुका है।
सिनेमा ही व्यापकता और विविधता की उसकी अद्भुत शक्ति है। इसमें साहित्य से लेकर फोटोग्राफी तक संस्कृति की सभी अभिव्यक्तियां समाहित हैं। संगीत प्रारंभ से ही भारतीय फिल्मों का एक सशक्त अंग रहा है।
सच तो यह है कि फिल्मी संगीत आधुनिक शहरी वर्ग के लिए एक तरह से लोकसंगीत बन चुका है। जन्म दिन के उल्लास से लेकर मृत्यु के शोक तक के क्षणों में फिल्मी गाने हमारे दुःख—सुख के साथी बनते हैं। स्कूल—कालेज के वार्षिक दिवस समारोह हों या खेल प्रतियोगिताएं, गांवों के मेले—ठेले हों या महानगरों की बड़ी—बड़ी पार्टियां, रामलीलाएं हों या विवाह—शादी जैसे पारिवारिक आयोजन, हर अवसर के अनुरूप फ़िल्मी गीत—संगीत सुन—सुनकर हम आत्मविभोर होते हैं। रेडियो और टेलीविजन चैनल अपना अधिकांश समय फिल्मी गीतों को समर्पित करके श्रोताओं को बांधे रखने की कोशिश करते हैं। लगभग सारे एफ.एम रेडियो चैनलों का स्टैपल फूड फ़िल्मी गाने ही हैं। यही नहीं, विदेशों में बसे भारतवंशियों को देश के साथ सांस्कृतिक रूप से जोड़े रखने में, फ़िल्मी संगीत का उल्लेखनीय योगदान है। ‘मेरा जूता है जापानी' और ‘आवारा हूँ' जैसे गीतों ने 1950 के दशक में ही राजकपूर को सोवियत संघ के देशों में हीरो बना दिया था। फ़ल्मी संगीत ने हमारे परंपरागत शास्त्रीय संगीत तथा लोकसंगीत को आम लोगों तक पहुंचाने में काफी बड़ी भूमिका निभाई है। हिंदी फ़िल्मी गानों के कारण देश के विभिन्न भागों तथा भाषाओं में एकात्मता लाने में भी भरपूर मदद मिली है। सभी प्रांतों के लोगों में हिंदी फ़िल्मी गीत गाए और सुने जाते हैं। व्ही शांताराम, राजकपूर, बिमल राय, महबूब खान, बी.आर.चोपड़ा, गुरूदत्त, यश चोपड़ा, हृषीकेश मुकर्जी, मनोज कुमार, गुलज़ार जैसे अनेक फिल्मकारों ने अपनी फिल्मों में संगीत को विशेष तरजीह दी है जिनके माध्यम से नौशाद, एस.डी.बर्मन, मदन मोहन, सी.रामचंद्र, रोशन, सलिल चौधरी, हृदयनाथ मंगेशकर, शंकर—जयकिशन, लक्ष्मीकांत प्यारेलाल, कल्याण जी आनन्द जी, ओ.पी.नय्यर, खय्याम, ऊषा खन्ना, ए.आर.रहमान जैसे असंख्य संगीतकारों की मधुर और रसपूर्ण धुनों को अपनी सरस आवाज़ के जादू में लपेटकर के.एल सहगल, लता मंगेशकर, मोहम्मद रफी, मुकेश, आशा भोंसले, किशोर कुमार, मन्ना डे, हेमंत कुमार, तलत महमूद, शमशाद बेग़म, मुबारक बेग़म, महेंद्र कपूर, शब्बीर कुमार, हरिहरन, कुमार सानू, सोनू निगम, अलका याज्ञनिक, जैसे गायक—गायिकाओं ने फ़िल्म संगीत को लोक चेतना का अभिन्न अंग बना दिया है।
समाज के साथ फ़िल्मों का अटूट रिश्ता केवल गीत—संगीत तक सीमित नहीं है। सिनेमा हमारे समाज और संस्कृति का दर्पण भी है। हमारी फ़िल्में समाज की परिस्थितियों के साथ अपना रूप—रंग बदलती रही है। ‘दो आंखें बारह हाथ', औरत, कोहिनूर और ‘अहूत कन्या' जैसी फ़िल्में 50 के दशक की समस्याओं का चित्रण करती थीं तो ‘थ्री ईडियट', ‘रंग दे बसंती,' और ‘खोसला का घोसला' जैसी फिल्में आज के युवावर्ग और मध्यवर्ग की चिंताओं को आवाज़ देती है। हम सिनेमा को भारतीय समाज की प्रगति व परिवर्तन का साक्षी कह सकते हैं।
देश जब विदेशी सत्ता से मुक्ति के लिए संघर्ष कर रहा था उस समय ब्रिटिश सरकार के तरह—तरह के अंकुशों के बावजूद हमारे फिल्मकारों ने ‘मजबूर' फिल्म के गीत ‘अब डरने की बात नहीं है, गोरा छोरा चला गया' और शहीद फिल्म के गीत ‘वतन की राह में वतन के नौजवां शहीद हों', के माध्यम से लोगों के मन में देशभक्ति का मंत्र फूंकने के प्रयास किए। सोहराब मोदी ने प्रसिद्ध ऐतिहासिक फिल्म ‘सिकंदर' का निर्माण किया जिसका उद्देश्य देशभक्ति का भाव जागृत करना था।
पिछली सदी के छह और सातवें के दशकों को सिनेमा का स्वर्ण युग माना जाता है। छठे दशक में बिमल राय की ‘दो बीघा ज़मीन', राजकपूर की ‘जागते रहो', महबूब खान की ‘मदर इंडिया', और व्ही शांताराम की ‘दो आखें बारह हाथ' जैसी फिल्मों ने सिनेमा को समाज के सरोकारों से जोड़ने में अहम भूमिका निभाई। ऐसी फिल्मों को लोकप्रियता के साथ—साथ अन्तर्राष्ट्रीय मान्यता मिली जिससे यह तथ्य सामने आया कि भारतीय जनमानस सार्थक और यथार्थ सिनेमा देखना चाहता है। गुरूदत्त की ‘प्यासा' और ‘कागज़ के फूल' ने सामाजिक सरोकारों से जुड़ी फिल्मों की कड़ी को और मज़बूत बनाया। इन दो दशकों में राजकपूर, हृषीकेश मुकर्जी, गुरूदत्त, बिमल राय, बी.आर.चोपड़ा, बासु चटर्जी, सत्यजित रे, शक्ति सामंत, कमाल अमरोही, महबूब खान, के.आसिफ, जैसे प्रतिभाशाली फिल्मकारों ने श्रेष्ठ एवं लोकप्रिय फ़िल्में कर्णप्रिय संगीत से सजाकर दर्शकों के सामने प्रस्तुत कीं जिनके कारण यह कालाखंड हिंदी सिनेमा का स्वर्णयुग बन गया।
लेकिन 1970 का दशक आते—आते भारतीय राजनीति और समाज में बदलाव आने लगा। देश का युवावर्ग निराशा और स्वप्न भंग की स्थिति का शिकार रहा था। इसलिए उस दौरान युवा आक्रोश की अभिव्यक्ति को दर्शाने वाली फिल्मों का दौर शुरू हुआ। अमिताभ बच्चन की 1975 में आई फिल्म जंजीर ने हिंसा पर आधारित फिल्मों की नई प्रवृत्ति का सूत्रपात किया। ‘शोले' में हिंसा की पराकाष्ठा थी और इस फिल्म ने लोकप्रियता के सारे रिकार्ड तोड़ दिए। जहां एक ओर क्रोध, आक्रोश और हिंसक विरोध का चित्रण करती फिल्में लगातार बन रही थीं, वहीं दूसरी ओर श्याम बेनेगल की ‘अंकुर' के साथ समांतर सिनेमा या कला फिल्मों का भी रास्ता खुला और यह क्रम 1980 तक जारी रहा। इस दौरान बासु भट्टाचार्य, गोविंद निहलानी, गुलज़ार और महेश भट्ट जैसे नए फिल्मकार यथार्थ सिनेमा की कतार में आ लगे। रजनी गंधा, अनुभव, आषाढ़ का एक दिन, भूमिका, मंथन, कोशिश, घरौंदा जैसी अनेक प्रयोगात्मक फिल्में बनीं। सत्यजित रे की ‘शतरंज के खिलाड़ी' भी इसी दौर की फिल्म है। 1990 के दशक में देश में उदारीकरण और वैश्वीकरण की बयार बही तो भारतीय सिनेमा भी मारधाड़ और हिंसा प्रधान फिल्मों की गली से निकलकर पुनः रोमांटिक, पारिवारिक और भावपूर्ण फिल्मों के राजमार्ग पर चलने लगा। इक्कीसवीं सदी में इसमें और गति आई और बड़े बजट की महंगी फिल्में बनने लगीं। मल्टीप्लेक्स संस्कृति का प्रादुर्भाव हुआ। आज नई सामाजिक समस्याओं पर आधारित फिल्में बन रही हैं। ‘‘लगे रहो मुन्ना भाई, लगान, रंग दे बासंती, थी ईडियट्स, ‘तारे ज़मीं पर' ‘‘पा'', ‘ब्लैक', और लाइव पीपली जैसी फिल्मों ने विषयों की नवीनता तथा नई चुनौतियों से जूझने की हिम्मत के बल पर भारतीय फिल्म जगत को अन्तर्राष्ट्रीय स्तर की फिल्मों की पंक्ति में बिठा दिया है। देश के राजनीतिक, आर्थिक और सामाजिक इतिहास के साथ कदमताल करता हुआ भारतीय सिनेमा हर युग में नई पीढ़ी के सपनों और आकांक्षाओं का सहगामी भी रहा है।
संस्कृति के साथ—साथ हमारे सामाजिक व पारिवारिक जीवन पर भी फिल्में अपना गहरा प्रभाव छोड़ती हैं। समाज की ज्वलंत समस्याओं को उठाने में फिल्मों की अग्रणी भूमिका रही है। 1940—1950 के दशक में अहूत कन्या और सुजाता जैसी फिल्मों के ज़रिए अस्पृश्यता की समस्या पर चोट की गई तो ‘दुनिया ना माने', घूंघट जैसी फिल्मों के माध्यम से बेमेल विवाह और अन्य सामाजिक कुरीतियों की ओर ध्यान दिलाया गया। 1957 में बनी ‘मदर इंडिया' ने भारतीय समाज तथा परिवार का एकदम सच्चा और यथार्थ चित्र प्रस्तुत किया। अर्थ, मासूम, मंडी, स्पर्श, क्या कहना, दोस्ताना जैसी फिल्मों में नए उभरते सामाजिक सरोकारों को सामने लाने की चेष्टा की गई है। फिल्मों में चित्रित वातावरण का भी हमारे रोज़मर्रा के जीवन पर सीधा असर पड़ता है। घरों की सजावट से लेकर खाने—पीने के सलीके और फैशन की नई—नई प्रवृत्तियां युवा पीढ़ी फिल्मों और फिल्मी कलाकारों से ही ग्रहण करती हैं। अधिकतर युवक—युवतियां किसी ना किसी फिल्मी अभिनेता या अभिनेत्री को अपना आइडियल या आदर्श मानकर चलती हैं। वे अपने आचरण, दृष्टिकोण तथा व्यवहार को अपने आदर्श फिल्मी कलाकार के अनुरूप ढालने की कोशिश करते हैं।
भारतीय लोकजीवन में फिल्मों में योगदान की चर्चा इस तथ्य के आख्यान के बिना अधूरी रहेगी कि फिल्मों ने राष्ट्रीय अखंडता, सांस्कृतिक समन्वय, सामाजिक चेतना और भावात्मक एकता को प्रगाढ करने के साथ—साथ राष्ट्रीय और अन्तर्राष्ट्रीय स्तर पर हिंदी के प्रसार को खूब प्रोत्साहन दिया है। हिंदी फिल्में सभी प्रांतों और देशों में रहने वाले भारतीय देखते हैं तथा फिल्मीं गीत—संगीत का रसास्वादन करते हैं। इससे उनमें हिंदी सीखने और बोलने की स्वाभाविक इच्छा पैदा होती है। फिल्मों में प्रयुक्त होने वाली हिंदी की शैली और स्वरूप ही ऐसा है कि यह भाषा सभी के गले आसानी से उतर जाती है। हाल में दक्षिण अफ्रीका में आयोजित विश्व हिंदी सम्मेलन में हिंदी के प्रसार में हिंदी फिल्मों के योगदान को विशेष रूप से सराहा गया।
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