पुनर्विवाह==================
नियति और नीरज की शादी की पहली वर्षगांठ थी । दोनों बहुत ही खुश थे । लव मैरिज थी दोनों की और परिवार की सहमति भी मिल गई थी । जीवन बड़ा ही खूबसूरत बीत रहा था । नीरज सरकारी नौकरी में था और अच्छा खासा वेतन भी था उसका । नियति भी नौकरी करती थी । पर इन दिनों मैटरनिटी लीव पर थी । दोनों ने पूरा दिन साथ में बिताया और शाम को परिवार के साथ एक छोटी सी पार्टी भी रखी । सब कुछ हंसी ख़ुशी पूरा हो गया । रात के समय दोनों कमरे में खूब देर तक बातें करते रहे ।
आज शादी की आठवीं वर्षगाँठ पर रात के दस बजे अपने कमरे में अकेली नियति बिस्तर पर अपने बेटे अभिमन्यु को सुलाते हुए अपनी पहली वर्षगाँठ को याद कर रही थी । "आज से सात साल पहले मैं और नीरज अपने आने वाले दिनों की प्लानिंग कर रहे थे । दोनों अपने और अपने आने वाले बच्चे के भविष्य के बारे में सोच रहे थे । कितने खुश थे दोनों ज़िन्दगी जैसी सोची थी उससे भी कहीं ज़्यादा खूबसूरत थी । जाने किसकी नज़र लग गई थी ।" सोचते सोचते नियति की आँखें नम हो गई । जाने क्या लिखा था नियति की नियति ने जो उसका हँसता खेलता छोटा सा परिवार यूँ टूट गया था ।
जब 2 महीने पहले कैंसर से नीरज सबका साथ छोड़ कर चला गया था । 1 साल और 10 महीने पहले जब पता चला था कि नीरज को कैंसर है तो नियति के पैरों तले ज़मीन खिसक गई थी । अभी 6 महीने पहले ही नीरज ने अपने पिता को खोया था और अब नीरज को ये बीमारी । माँ के भी होश उड़ गए थे । पति को खोने के बाद हिम्मत नही थी बेटे को खोने की पर किस्मत का लिखा कौन टाल सकता है । माँ, भैया-भाभी, और खुद नियति ने कोई कसर नहीं छोड़ी थी नीरज के इलाज में ।जब जहाँ जिसने जो करने को कहा वो किया उसने । भगवान में कम ही विश्वास करती थी नियति, पर अब वक़्त ने उसे ये भी सिखा दिया था । कोई मंदिर, कोई मस्जिद कोई जगह ऐसी नही थी जहाँ उसने माथा न टेका हो । बड़े से बड़े डॉक्टर बड़े से बड़े अस्पताल में इलाज कराया, पानी की तरह पैसा बहाया । खुद को, अपनी नौकरी को, अपने बेटे अभिमन्यु तक को भूल गई । बस किसी तरह नीरज ठीक हो जाए यही सोच रहती थी दिमाग में । पर वक़्त के आगे किसकी चली है भला । सब कुछ करके भी नियति नीरज को नही बचा पाई ।
अस्पताल में सुबह 4 बजे जब नीरज ने आखिरी सांस ली तो उसने चीख कर आखिरी बार नियति को पुकारा था; दौड़कर नियति नीरज के पास गई और बोली,"हाँ नीरज, बोलो मैं सुन रही हूँ ।" नीरज ने नियति की आँखों में देखा जैसे कहना चाह रहा हो कि मैं मरना नहीं चाहता, मुझे बचा लो । पर नियति की आँखों में छिपे दर्द को देख कर वो चुप रह गया । और आँखों ही आँखों में देखते हुए उसके प्राण उसके शरीर का साथ छोड़ गए , विराम चिन्ह लग गया था नीरज और नियति के जीवन को ।"बोलो न नीरज, बोलते क्यों नहीं । मैं सुन रही हूँ । बोलो न क्या कहना चाहते हो । नीरज प्लीज़ कुछ बोलो ।" कहते कहते नियति तड़प तड़प कर बिफर पड़ी । मानो कई सदियों से एक तूफ़ान अपने अंदर रोक रखा था वो आज बह जायेगा और साथ ही सब कुछ बहा ले जाएगा । बिलखते हुए अल्फ़ाज़ों से खबर की घर पर और कहा कि आकर नीरज को ले जाओ ।
चारो और रोने की आवाज़े और बीचों बीच पड़ा नीरज का निर्जीव शरीर , जैसे अभी बोल पड़ेगा..."नियति आज फिर ऑफिस के लिए देर हो गई, उठाया क्यों नही मुझे...अब ऐसे क्या देख रही हो ।" "नीरज तुम इतने प्यार से सो रहे थे... इतने मासूम लग रहे थे ...मन ही नहीं किया तुम्हारी नींद खराब कर दूँ ।" जाने ऐसे और कितने मंज़र नियति के ज़हन में समन्दर की लहरों की तरह उठ उठ कर शांत हो रहे थे ।पर वो कुछ नहीं कर पा रही थी । सब कुछ अपनी आँखों से देख पत्थर का बेजान बुत बनकर पड़ी थी एक कोने में सफ़ेद जोड़ा पहने हुए । आँखों से टूट टूट कर सब सपने बहे जा रहे थे । लग रहा था जैसे सफ़ेद गुलाब पर ओस की बून्दे पड़ी हों । पर सफेद गुलाब .... वो तो मुरझा चुका था ।
"2 महीने बीत गए । अब बस मैं और मेरा अभि । यही ज़िन्दगी है । बेचारा अभि उसे तो शायद पता भी नही कि क्या हुआ है उसके साथ । इतनी छोटी सी उम्र में पिता का साया उठ गया था उसके सर से । नीरज अभिमन्यु की एक एक चीज़ का खुद ख्याल रखता था । नियति को तो पता भी नहीं होता था और नीरज सब कुछ अपने आप कर लेता था । अभिमन्यु को भी माँ से ज़्यादा पिता से लगाव था , एक पल नही रह पाता था नीरज के बिना वो । पर इन 2 सालों में इस नन्ही सी जान ने इतना कुछ देखा था कि बिना किसी के कुछ समझाए सब कुछ समझ गया था । किसी से कुछ नही कहता था बस गुमसुम सा रहता था या फिर बात बात पर चिढ जाया करता था । बहुत मुश्किल हो रहा था नियति के लिए अभि को समझ पाना, समझा पाना और उसे संभाल पाना । शायद उस नन्ही सी जान में कई अनकहे जज़्बात पल रहे थे जो वो किसी से कह नही पा रहा था ।
मैं छोटा हूँ सब कहते हैं,
मेरी बातों पर सब हँसते हैं !
क्या मुझे समझ नही आता है,
सब मुझसे छुपाते रहते हैं ..!!
अब माँ को तुम्हे संभालना है,
पापा जाने कहाँ खो गए !
मेरी हर उम्मीद हर ख्वाहिश,
सब सपने मानो सो गए..!!
हर तरफ रो रो कर सबने,
मुझको भी मायूस कर दिया.!
बचपन मेरा बड़ी बड़ी,
ज़िम्मेदारियो से भर दिया..!!
खोता हूँ कभी रोता हूँ,
कब कहाँ किसे दिखाऊं मैं.!
माँ के आंसूं पोंछू या.,
जाकर कहीं छिप जाऊँ मैं..!!
दिल मचल रहा दिल तड़प रहा.,
पापा तुम क्यों कहाँ चले गए.!
अब कौन मुझे समझायेगा.,
सब खेल खिलौने बिखर गए..!!
कोई प्यार नहीं अब करता.,
सब दया तरस ही दिखाते हैं.!
पापा तुम बिन मैं करूँ भी क्या.,
ये सोच समझ नहीं पाते हैं..!!
मैं हूँ उदास पर हँसता हूँ.,
न माँ को कोई मेरी फ़िक्र रहे.!
मेरे होठों पर कभी नहीं.,
पर दिल में तुम्हारा ज़िक्र रहे..!!
इक पीर कसक इक मन में है.,
जिसको मैं कह नहीं पाता हूँ.!
बस तनहा बैठ के रोता हूँ .,
और खूब आंसूं भी बहाता हूँ..!!
किससे कहूँ कौन समझेगा.,
मेरा बचपन जो रूठ गया.!
तुम बिन पापा मेरा जीवन.,
शायद वो रब ही लूट गया..!!
बहुत कोशिश करती थी कि समझ पाये अभि के जज़्बात को पर कामयाब नही हो पा रही थी ।" कैसे पूरी करूँ नीरज तुम्हारी कमी को अभि की ज़िन्दगी में, कुछ तो कह कर जाते ।" अक्सर खुद से ऐसे ही सवाल करती थी और उलझ जाती थी उनके जवाबों में ।
अगले दिन सुबह उठ कर अभि को तैयार किया स्कूल के लिए । और खुद भी तैयार हो गई ऑफिस जाने के लिए । नाश्ता कर जैसे ही निकलने लगी भैया ने आवाज़ दी," ऑफिस से आकर आज सब साथ में चाय पिएंगे तुमसे कुछ बात करनी है।" नीरज के जाने के बाद भैया भाभी नियति और अभि का ख़ास ख़याल रखते थे कि कहीं उन्हें नीरज की कमी महसूस न हो । "जी भैया" कहकर नियति घर से तो निकल गई । पर बार बार उसके जहन में एक ही सवाल था "क्या बात करनी होगी भैया को, आखिर किस बारे में" सोच सोच कर परेशान हुए जा रही थी ।कई बार मन में कुछ गलत और नकारात्मक ख्याल भी आ जाते थे फिर खुद को समझाती कि नहीं भैया ऐसा नही कर सकते, पर अगर किया तो । उलझन में थी नियति काम में मन नहीं लग रहा था उसका । खुद को व्यस्त करने की नाकाम कोशिश भी कर रही थी ।
एक छोटी सी बात ने कितना परेशान कर दिया नियति को ।"अगर नीरज होता तो आज इतनी टेंशन नही होती मुझे ।"पल पल नीरज की कमी ...कैसे रहेगी उसके बिना । जैसे जैसे वक़्त बीत रहा था धड़कने तेज़ होती जा रही थी । शाम 6 बजे जैसे ही घर में कदम रखा भाभी ने आवाज़ दी । "आ गई नियति... मैंने चाय रख दी है...तू हाथ मुँह धोकर कपडे बदलकर आ जा फिर साथ में चाय पीते हैं ।" "जी भाभी"। कहती हुई नियति अपने कमरे में चली गई । हाथ मुँह धोकर कपडे बदलकर सबके सामने आ गई । सब उसका ही इंतज़ार कर रहे थे । पूछने की हिम्मत भी नही हो रही थी और जानना भी चाहती थी कि आखिर भैया क्या बात करना चाहते थे । न जाने क्यों खुद को अपने ही परिवार के सामने एक मुजरिम सा महसूस कर रही थी ।
" क्या बात है नियति चुप क्यों हो?" हिम्मत करके नियति ने पूछा "भैया आप सुबह कह रहे थे न कि कुछ बात करनी है, कहिये न आप क्या कह रहे थे ? "हाँ नियति"भैया बोले "नीरज तो यूँ अचानक हम सबको छोड़ गया जैसे उसका हम सबसे कोई वास्ता ही न हो । तुम्हारी भी उम्र नही थी ये सब झेलने की और अभि तो बहुत ही छोटा है इन सबके लिए ।" नियति आँखें नीची किये ये सब चुपचाप सुनती जा रही थी ।
भैया ने फिर पूछा,"कुछ सोचा क्या तुमने अपने भविष्य को लेकर?" नियति को तो जैसे साँप सूंघ गया । "क्या मतलब इस सवाल का ? मेरा भविष्य...मेरा भविष्य तो खत्म हो गया नीरज के साथ ही अब तो भविष्य सिर्फ अभि का ही देखना है मुझे ।क्या जवाब दूँ भैया को।" नियति के मन में हज़ारों सवालों ने एक साथ आक्रमण कर दिया हो जैसे । जिनका कोई जवाब नही उनके पास ।भैया ने फिर पूछा ,"बोलो नियति क्या सोचा है तुमने?"नियति की आँखें भर गई । रुआंसे गले से सिर्फ इतनी सी आवाज़ निकली "क्या सोचूं मैं भैया !" तब भैया बोले," नियति नीरज के जाने के बाद अब तुम हम सबकी ज़िम्मेदारी हो । मुझे अपना जेठ नही अपना बड़ा भाई समझो, बड़े भाई के नाते ही तुमसे पूछ रहा हूँ । क्या तुम दोबारा विवाह करना चाहती हो?
नियति ज़िन्दगी बहुत लंबी है, नहीं कटेगी अकेले...।देखो अगर तुम चाहती हो तो हम सब तुम्हारा साथ देंगे ।" 'दूसरा विवाह' सुनते ही नियति बर्फ की तरह जम गई । "ये क्या कह दिया भैया ने । मैं ऐसा तो कभी सोच भी नही सकती ।" कुछ देर चुपचाप वही उनके सामने ही बैठी रही । कमरे ने जैसे अचानक से मौन धारण कर लिया हो । तभी ख़ामोशी को भैया की आवाज़ ने चीर डाला और कुछ शब्द नियति के कानों में पड़े जो ये कह रहे थे कि " नियति सोच लो कोई जल्दी नही । तुम्हे जब जैसे ठीक लगे मुझे ज़रूर बताना ।" "जी भैया" कहकर नियति उठी और अपने कमरे में चली गई । चुपचाप आँखें बंद किये इसी सोच में डूबी थी कि," आखिर क्यों ये बात कही भैया ने मुझसे ? क्या हम उन्हें बोझ लग रहे हैं । या फिर सच में मेरी फ़िक्र कर रहे हैं ।"
अचानक उसे अपने ऑफिस की शालिनी मैम याद आ गई । जिनके पति का स्वर्गवास शादी के 6 महीने बाद ही हो गया था । कोई औलाद नही थी उनकी और घरवालों का दबाव और समाज की रूढ़िवादी परम्पराओं ने उन्हें अकेले जीवन जीने पर मजबूर कर दिया था । उन्होने समझोता कर लिया था अपने जीवन से । पर संजय नाम के एक दोस्त ने उनके सूने जीवन में एक बार फिर से रंग भर दिए थे । दोनों एक दूसरे को प्यार करने लगे थे और शादी भी करना चाहते थे । पर दोनों के घरवालो को ऐतराज़ था इस शादी पर । सभी ने समझाने के अथक प्रयास किये । पर कोई हल नहीं निकला था। चाह कर भी दोनों विवाह के बंधन में नहीं बंध पाये थे । अगर शादी के 6 महीने बाद ही शालिनी विधवा हो गई तो इसमें उसका क्या कसूर? क्यों उससे उसका जीवन जीने का हक़ छीन लिया गया था ? क्या एक स्त्री का अपना कोई वजूद नहीं? उसका अपनी ज़िन्दगी को लेकर कोई फैसला खुद करना क्यों समाज की नज़रों में एक गुनाह हो जाता है? वो केवल एक पत्नी या विधवा की ज़िन्दगी क्यों जीती है ? वो अपने स्वयं के लिए क्यों नही जी सकती ? क्यों उसे उसी तरह जीने पर मजबूर किया जाता है जिस तरह उसका परिवार या समाज चाहता है ? क्यों वो अपनी ज़िन्दगी अपनी मर्ज़ी से नही जी सकती ? अगर वो पुनर्विवाह कर फिर से नया जीवन शुरू करना चाहती है तो क्यों रीति रिवाजों और समाज की रूढ़िवादी परम्पराओं के नाम पर उसे अपने सपनो, अपने जीवन की बलि चढाने पर मजबूर किया जाता है ?
सोचते सोचते कब नियति की आँख लग गई उसे पता ही नहीं चला । अचानक अभि की आवाज़ से नियति की नींद टूटी । "माँ...माँ...भूख लगी है । कुछ खाने को दो न ।" "ओह 8 बज गए ।" नियति सोच कर उठी और किचन से जल्दी से खाना बना लाई और अपने हाथों से उसे खिलाने लगी । अचानक फिर से अपने ख्यालों की दुनिया में खो गई ।"आज अगर नीरज होते तो.........?" पर क्यों एक स्त्री को पुरुष का साथ इतना ज़रूरी है ? माना स्त्री और पुरुष एक ही सिक्के के दो पहलु हैं । एक के बिना दूसरा अधूरा है । ये भी सच है कि हमसफर का साथ जीवन के मुश्किल रास्तों पर मखमली घास जैसा होता है जिस पर चलना आसान हो जाता है । सुख के समय हमसफर का साथ खुशियों को दुगना चौगुना कर देता है ।दुःख के समय हमसफर का हाथ थाम लेना ठीक वैसा ही होता है जैसा तपती धूप में घने पेड की छाँव । पर अगर मखमली घास न मिले तो क्या सफ़र पूरा न होगा । अगर सुख में हमसफर न हो साथ तो क्या खुशियाँ खुशियाँ नही रहेंगी । तपती धूप में घने पेड की छाँव न मिले तो क्या ...वो धूप कभी न कभी तो ढल ही जायेगी न ।
माना हमसफर का साथ ज़िन्दगी की एक सबसे बड़ी ज़रुरत है पर अगर दुर्भाग्यवश वो साथ छिन जाए तो क्या ज़िन्दगी वहीँ खत्म हो जाती है ? जब एक पुरुष से उसके जीने का हक़ नही छीना जाता तो क्यों एक स्त्री से उसके जीने का हक़ छीन लिया जाता है । क्यों उसे आज़ादी नहीं मिलती अपनी ज़िन्दगी का फैसला अपने लिए अपने मन से अपनी इच्छानुसार करने की ? अगर वो पुनर्विवाह करना चाहे तो कहीं समाज की रूढ़िवादी परम्पराएँ उन्हें रोक देती हैं और अगर कहीं वो अकेले जीना चाहे तो परिवार वाले, दोस्त, रिश्तेदार मजबूर कर देते हैं पुनर्विवाह के लिए ...ये कह कर की ज़िन्दगी बहुत लंबी है ...अकेले नहीं कटेगी ।
सोच सोच कर नियति के सर में दर्द होने लगा । रात का खाना खाया और सरदर्द की दवा लेकर सोने चली गई । धीरे धीरे दिन बीतने लगे । नीरज की जीवन बीमा पालिसी, अभि के लिए किये गए नीरज के बचत योजना और न जाने क्या क्या जिनके बारे में नियति को कुछ पता न था, भैया की मदद से जानने की कोशिश करती थी ।ऐसे में अपना अकेलापन और नीरज का न होना उसे और भी अकेला कर देता था । कभी ख्याल आता कि भैया से बात करूँ तो वो ये न समझें कि कहीं मैं उन पर कोई बोझ डाल रही हूँ । फिर सोचा खुद ही करने की कोशिश करूँ । फिर लगा कहीं भैया ये न सोचे की नियति सब कुछ खुद ही करने लगी है किसी से कुछ पूछने की ज़रुरत ही नही इसे । अजीब कशमकश में थी ।क्या करे और क्या न करे ।एक जीवन साथी का न होना कितनी मुश्किलें पैदा कर देता है ।
अचानक माँ ने आवाज़ दी,"नियति सुन तो ज़रा ।""आई माँ ।"नियति ने जवाब दिया और अपना पर्स उठाकर माँ के पास आ गई। ये सोचकर कि माँ की बात सुन कर ऑफिस के लिए निकल जायेगी ।"कहो माँ क्या बात है ?"नियति ने पूछा तो माँ रुआंसा होते हुए पूछने लगी,"नियति क्या तू भी मुझे छोड़कर चली जायेगी ? मेरा अभि मेरे नीरज की निशानी है क्या तुम उसे भी मुझसे दूर कर दोगी ?" नियति समझ ही नहीं पाई आखिर क्यों माँ ने ऐसे बात की ? नियति ने माँ को आश्वासन दिया ,"नहीं माँ, मैं और अभि आपको छोड़कर कहीं नहीं जाएंगे ।" माँ के चेहरे पर आशा से भरी हुई मुस्कान छा गई उन्होंने नियति को गले से लगा लिया । माँ को आश्वासन देकर नियति ऑफिस के लिए निकल गई । रास्ते भर सोचती रही कि "सब लोगों ने आजकल मुझपर जो पुनर्विवाह का दबाव बना रखा है आखिर उसकी परिभाषा क्या है ? क्यों करना है मुझे पुनर्विवाह ताकि मुझे एक पुरुष का सहारा मिल सके ? या अभि को एक पिता का प्यार मिल सके । पर अगर इन दोनों में से एक भी लक्ष्य पूरा न हुआ तो क्या अर्थ रह जाएगा पुनर्विवाह का ? मेरे लिए जीवन अगर किसी के साथ ही गुज़ारना है तो वो मेरी मर्ज़ी है ।
मैंने विवाह किया था नीरज के साथ अब वो नही है पर उसकी अभिलाषाएं, उसके सपने, उसकी उम्मीदें... कैसे इन सबको भूल कर एक नया जीवन शुरू कर लूँ , एक ऐसा जीवन जिससे मैं खुद अनजान हूँ । न जाने वो पुनर्विवाह सफल होगा या नहीं । पर हाँ, ये पुनर्विवाह ज़रूर सफल होगा जो मैंने कर लिया है नीरज की इच्छाओं के साथ, उसकी अपेक्षाओं के साथ, उसकी अभिलाषाओं के साथ, उसके सपनों के साथ और उसकी यादों के साथ ।यही है अब मेरे जीवन में मेरे हमसफर । मुझे और किसी जीवन साथी की कोई आवश्यकता नहीं । नीरज का प्यार उसका विश्वास, हिम्मत और हौंसला बनकर मेरे साथ हैं और मुझे मेरी हर मुश्किल से बचाने के लिए और मुझे संभालने के लिए उसके सिद्धांत कदम कदम पर मेरा साथ निभाएंगे । बस यही है परिभाषा अब मेरे जीवन में ---पुनर्विवाह की...।
न भूल पाई कभी
जो मिला था
तुमसे मुझे...
कैसे समझाऊं ...
खुद को
छोड़ गए हो तन्हा मुझे
न भूली
वो ख्याल...
वो जज़्बात ...
कभी तुमसे पाये थे जो
तुमने ही मुझे सिखाये थे
जी रही हूँ
आज भी..."मुफ्लिश''
वही होंसला
वही हिम्मत लिए
वो गम के अँधेरे
तेरे होने से रोशन हो जाते
वो आंसुओं का सैलाब
थाम लेते थे तुम
अपनी बाहों में...
वो निश्चल प्यार "बेपनाह"
हर पल बरसता था मुझ पर
छिन गया ...
उस एक पल में अचानक
चले गए तुम
रोता छोड़ बदगुमाँ से
चाँद के उस पार
दिखता है अब भी
अक्स तुम्हारा हर पल मुझे
जब पाऊँ खुद को
तनहा उलझी हुई
मझधार में ...
जब हो अँधेरी रात
रोशन हो जाता है
दिल मेरा...
जलते हुए उस
तेरी यादों के चिरागों से भी
पता है मुझे
साथ हो तुम हमेशा मेरे
बन कर प्यार
बन कर विश्वास
बन कर होंसला
बन कर मेरी आस..!!-----------------
महक