मैं धरती……
……. तू आकाश
(काव्य-संग्रह)
कौन बचाएगा
रोते ही रहोगे अपना रोना तो
कौन बचाएगा
उन बचाएगा
उन भ्रूणों को
जो कोख में पड़े है
पनप कर
बाहर आने को आतुर
पड़े ही रहोगे कोप-भवन में
तो कौन बचाएगा
उन ताज महलों को
जो खड़े हैं दुनिया के सामने
प्रेम की जिन्दा मिसाल लिए
सींचते ही रहोगे
अपने गमलों के फूलों को
तो कौन बचाएगा
पृथ्वी को जो
धीमे-धीमे भुर रही है
खोती हुई
अस्तित्व अपना
करते ही रहोगे गीला
अपना आँगन
तो कौन करेगा नम
उन किसानों के खेत
जिनकी आँखें
आसमां को देखते हुए
पथरा गई हैं
बचा रखा है तुम्हें भी
मैने बचा रखे हैं कुछ क्षण
अपने मन के लिए
मैने बचा रखे हैं कुछ लोग
अच्छे सफर के लिए
मैने बचा रखे हैं कुछ रिश्ते
दरकने से बचने के लिए
मैने बचा रखे हैं कुछ रंग
उत्सवों में रंगने के लिए
मैने बचा रखा है तुम्हें भी
सपने साथ देखने के लिए
चुपके से
मेरे चारों ओर
बहता झरना
प्यार का
बन्द हो गया है
बहना शायद
इसलिए तिड़क गई हैं
दीवारें
परकोटे की
तिड़की हुई दीवारों से
सेन्ध मार ली है
आज किसी ने
चुपके से
तपती रेत पर
जब भी मैं
खफा हो जाती हू
उस वृक्षमयी छाया से
दौडॅ पड़ती हूँ
चिलकती धूप में
नंगे पांव
तड़पना चाहती हूँ
जलती रेत में
फफोले उगाना चाहती हूँ
तलवों में
ना जाने कहाँ से
वो बादल की तरह
आ जाता है
सिर पर मेरे
कर देता है
छिड़काव
तपती रेत पर
और तड़प
की जगह
सराबोर हो जाती हूँ
फुहारों में
फफोले तो कहाँ
पैरों में बन्ध जाते हैं
घुँघरू और
नाच उठती हूँ
लश्कारा
जब बरसती है आग
मेरी आँखों से
पनियाए कोर
भिगो देते हैं
देह सारी
तेरी आँख का
एक लश्कारा
छन्न की आवाज़ के साथ
कर देता शांत मुझे
धुँआख जाता है
आस-पास
तुम जब भी आते हो
तुम जब भी आते हो
तीज की तरह
मैं लहरिया बन
इठालाती हूँ
मोठड़ी की तरह
बिखर जाती हैं
खुशियाँ राहों में
तुम जब भी आते हो
तीज की तरह
मैं मेहन्दी बन
फूल पत्ती बिछाती हूँ
रच जाती है
लाली मेरे हाथों में
तुम जब भी आते हो
तीज की तरह
झूला बन पींगे बढाती हूँ
सावन बन जाती है बदली
स्पर्श से तुम्हारे
स्वाहा होने तक
रोए वो भी
रोई मैं भी
पर अंजुलि के
पोरों पर
ले लिए आँसू उनके
मै रोती रही रात भर
उफने वो भी
उफनी मैं भी
छ्न्न से
पानी डाला गया उन पर
मैं उफनती ही रही ताउम्र
तड़पे वो भी
तड़पी मैं भी
पुचकार कर
सहलाया गया उनको
मैं तड़पती ही रही युग तक
कसके वो भी
कसकी मैं भी
पर नेह के
लेप से
मिट गई कसक उनकी
मैं कसकती रही जन्मों-जन्म
धधके वो भी
धधकी
मैं भी
वो फूट पडे
लावा बनकर
मैं धधकती रही स्वाहा होने तक
ताजमहल
मुहब्बत को बदनाम
करने वालों
ज़रा ताजमहल
तुम भी देख आएँ
शाहजहाँ और मुमताज़
गुफ्तगू कर रहे हैं
ज़रा दास्तां तो
हम भी सुन आएँ
मुहब्बत नहीं है
कोई खेल-खिलौना
शाहजहाँ का साहस
यहाँ देख आएँ
मुहब्बत छुपाई है
तुमने भले ही
शाहजहाँ की साफगोई
ज़रा देख आएँ
मुहब्बत का धवल ताज
खड़ा है यहाँ आज
तुम्हारी गवाही पर
मुहब्बत करने वालों
प्रेम की बाणी से
इसे सहला आएँ
इसे विश्व की पहली
इमारत बनाएँ
आज के शाहजहाँ
कितनी मुहब्बत की होगी
मुमताज़ से
तुमने ओ शाहजहाँ !
कि याद में उसकी
बनवा दिया
तुमने मुमताज़ महल
पंच-तत्व में विलीन देह जब
बन गई कब्र-गाह
तो उसकी दूरी भी
नहीं सह पाए तुम
उखाड़ लाए कब्र-गाह ही
जड़वा दिया उसे महल में
जो बीस बरस तक
बनता रहा
सैंकड़ों मज़दूरों के हाथों
उन बीस सालों में भी
तुम्हारी तीव्रता
कम नहीं हुई
ओ शाहजहाँ !
तुम्हारा दिमाग
हावी नहीं हुआ
दिल पर
नहीं पूछे दिमाग ने
कोई सवाल
क्यों ? कैसे ? किसलिए ?
अब कहाँ ?
और खड़ा कर दिया
ताज़महल
सफेद झक्क
मुहब्बत की तरह बे-दाग
शाहजहाँ अब आओ
इस धरती पर
बीस बरस में लोग
बदल देते हैं
मुहब्बत की परिभाषाएँ
नहीं कर पाते इंतज़ार
नहीं कर पाते विश्वास
नहीं रख पाते धैर्य
नहीं रख पाते साहस
ताज़ महल तो आज
मुमताज़ के नसीब में कहाँ
कब्र उखाड़्ते हैं
आज के शाहजहाँ
पर धूप से छाया में नहीं
बल्कि सूरज के
और नज़दीक ले जाते है
ताकि देह ही नही
जल जाए आत्मा भी
मुमताज़ की
और बदला लेते हैं
पिछले जन्मों का
आज के शाहजहाँ !
मैं हैरान-वो हैरान
मैं हैरान हूँ उसकी
धमनियों और शिराओं पर
ले जाती हैं और लाती हैं लहू
ज़िन्दा रखने के लिए शरीर
वो हैरान है मुझ पर
मेरे खून-ए-खंजर रंजिशों पर
करता है हर दिन खून
किसी ना किसी शरीर का
मैं हैरान हूँ उसकी
आंतड़ियों और आमाशय पर
जीभ के स्वाद से फिसल कर
गिरता है निवाला आंतों में
वो हैरान है मुझ पर
कि हम किस तरह
किसी भी पल कहीं भी
छीन लेते हैं निवाला किसी का
मैं हैरान हूँ उसकी लीला पर
कैसे नेह के एक बीज से
बन जाता है मानव
प्रेम-प्यार-मोह में पगा
वो हैरान है मुझ पर
मेरी पनपती ईर्ष्या-घृणा-हिंसा
जो किसी भी समय कहीं भी
फोड़ आती है बम भीड़ में
मन
मन
उम्दा काँच का
एक गिलास
बड़ी नज़ाकत से
उठाते
रखते
छलकाते
फिसल ही पड़ता है
हाथ स और गिर कर
हो जाता है
चकनाचूर
इस जन्मदिन पर
इस जन्मदिन पर
चाहिए मुझे
निकलती किरणे
चिलकारे की तरह
कि मैं देख सकूँ
आगे की दुनिया
इस जन्मदिन पर
चाहिए मुझे
तुम्हारी आँखों का
समुन्दर
उफान की तरह
कि मैं डूब कर उसमें
तिर आउँ
भवसागर से
इस जन्मदिन पर
चाहिए मुझे
हृदय की पावक
तड़प की तरह
जिसमें जलकर
हो जाउँ भस्म
और वो मुट्ठी भर भस्म
उपहार में दे दो
इस जन्मदिन पर
अनचाहा तारा
उठो !
आज रात
उतरेगी
उपेक्षिता
धरती पर
उतार लो ना उसे
अपनी हथेली पर
उठो !
आज रात
टूटेगा
अनचाहा तारा
आसमां से
झपट लो ना उसे
अपने दामन मे
उठो !
आज रात
उफनेगी
नदी बन्धकों पर
बाँध लो ना उसे
अपने बाहुपाश में
उठो !
आज रात
फूटेगा
लावा
पर्वतों से
कर दो ना ठण्डा उसे
अपने लबों के स्पर्श से
प्रार्थनाएँ
मैंने बोई
प्रार्थनाएँ
उस बीज के बोने तक
मैंने सींची
प्रार्थनाएँ
उस कोंपल के फूटने तक
मैंने पोषी
प्रार्थनाएँ
उसके चटकने तक
मैने गाई
प्रार्थनाएँ
उनके खिलने तक
मैंने गुनी
प्रार्थनाएँ
उसके बढने तक
मैंने ध्यायी
प्रार्थनाएँ
उसके फलने तक
मैंने समाधि
प्रार्थनाएँ
ब्रह्माण्ड के पोर-पोर
में समाने तक
नए साल के स्वागत में
किसे कहूँ कि मुझे
नए साल के स्वागत में
चाहिए
कुछ फूल
कुछ बीज
कुछ पत्तियाँ
किसे कहूँ कि मुझे
नए साल के स्वागत में
लिखने है
कुछ गीत
कुछ गज़ल
कुछ शब्द
किसे कहूँ कि मुझे
नए साल के स्वागत में
लेने हैं
कुछ संकल्प
कुछ वादे
कुछ कसमे
किसे कहूँ कि मुझे
नए साल के स्वागत में
रहना है
कुछ देर मौन
नि:शब्द
नम
ताकि दे सकूँ आतंकियों के हमले
से शिकार लोगों को श्रद्धांजलि
दो ना वो ताकत
हे ईश्वर !
दो ना मेरी कलम में
वो ताकत इतनी
कि लिख सकूँ
अपने लिए वो शब्द
कि हर क्षण
बनी रहूँ मैं
मजबूत
चट्टान की तरह
या अल्लाह !
भर दो ना
मेरी कलम से निकले
शब्दों में
इतना बल
कि दुख की
हर घड़ी को
पी सकूँ मैं
शीतल जल की तरह
ओ बुद्धा !
कर दो ना स्पन्दित
मेरी स्याही को
ऐसी धड़कनों से
कि हर सुनामी में
खुद से पहले
कर सकूँ मैं
औरों की
सहायता
ओ क्राइस्ट !
दो ना मेरे वाक्यों को
वो कतार
कि खड़ी रह सकूँ मैं
प्रलय में भी
शांति से
अपनी बारी का
इंतज़ार करते हुए
जापानियों की तरह
ओ वाहेगुरु !
दो ना मेरी कविताओं को
वो अंजाम
कि फुकुशिमा का भय
मुझे कभी ना सताए
और अपनी बेटी को
रोते हुए छोड़कर
भेज दूँ सन्देश मैं
कि ओ बेबी !
तुझसे ज्यादा
इस देश को ज़रूरत है मेरी ।
मुझे ही फटना है
मैं ही बहन खुद की
मैं ही भाई
मैं ही माँ खुद की
मैं ही पिता
खुद से
बात करती हुई----
मैं ही धात्री
मै ही जनक
मैं ही धरती तेरी
मैं ही आकाश
हर पल ओढाती
चादर तुझे-----
मुझे ही बनना है चुग्गा तेरा
मुझे ही पोषना है
मुझे ही करनी सुरक्षा तेरी
जागना है सारी रात
हर पल लुकाती-छिपाती
दुनिया से तुझे----
मुझे ही बरसना है
बरसात बनकर
मुझे ही देना है छाता
मुझे ही बोना है बीज तेरा
मुझे ही फटना है
तुझे लाने के लिए
हर पल तड़पती
फटने के लिए------
माँ जानती है
माँ जानती है
नन्हा सीखा है चलना
घुटरुं-घुटरुं
चलेगा दौड़ेगा
लग ना जाये चोट
इसलिए हटा लेती है
घर के सभी फर्नीचर
रास्ते से
बना देती पूरे घर को
खेल का मैदान
माँ जानती है
बेटा सीखने लगा है अक्षर
जाने लगा है स्कूल
हाथ मे पेंसिल लिए
खींचेगा लकीरे
इसलिए ठोक देती है बोर्ड
घर की सारी दीवारो पर
बना देती है पूरे घर को
स्कूल का ब्लैक बोर्ड
माँ जानती है
बेटा लेने लगा है सपने
आँखों ही आँखों मे
बसने लगी है अप्सरा
इसलिए बांधकर
उसके सिर पर सेहरा
कमरों की दीवारो पर
लिख देती है प्रेम-कविताएँ
और खींच कर परदे दरवाजों पर
खुद छिप जाती है परदों के पार
माँ जानती है
बेटा बन गया है पिता
दो बच्चो का
गृहस्थाश्रम के भंवर मे
फंस गया है इस कदर
कि उठा नहीं सकता बोझ
बूढी माँ की खांसती देह का
इसलिए माँ छोड देती है
अपनी देह भी हौले-हौले
और मुक्त हो जाती है
हर जिम्मे से
नहीं भूलती है माँ !
तुझे भुलाने की कोशिश
हर कदम
सोचते हुए
नियति है
प्रकृति की यही
आना-जाना
क्रम है जीवन का
व्यर्थ है रोना
देह के खाक होने का
अमर तो आत्मा
अमर हैं यादें
अमर है अह्सास
जो हरदम रह्ते है
मेरे आस-पास
तेरा क्या है
जो ले जायेगा साथ
क्यों रोते हो
क्या खो गया तेरा
जब तेरा था ही नहीं
तो खो जाने पर
कैसे हो गया तेरा
गीता के कितने उपदेश
मन की लगी को
बुझाने की
करते हैं कोशिश
जीवन जीने के अन्दाज़
सिखाने के
अब खुल गये हैं
कितने स्कूल
ईश्वर के पास
जाने की
कवायद करते
कईं चैनल आस्था के
कितने ही प्रयास
हर कदम पर
ना भूलने के
देते हैं भुलावा
मुस्कुराते हुए
चलता है जीवन
छ्लावा देते हुए
खुद को
पर नहीं भूलती है माँ !
माँ मुझे दे ना !
माँ मुझे देना
कुछ बीज कि
रोप सकूँ
कुछ पौधे
जिनकी कलियाँ
चटकने से पहले
ना टूट जाएँ
तुझ सी
बालिका वधू की तरह
माँ मुझे दे ना !
कुछ पौधे
कि कर सकूँ परवरिश
कि बन जाएँ वृक्ष
छायादार
ठूँठ ना रह जाएँ
तेरी तरह
माँ मुझे दे ना !
कुछ फल कि
खा सकूँ खुद भी
बाँट दूँ
अपने आस-पास भी
कि कोई
कलम के अन्धेरे में
रह जाए ना तेरी तरह
नहीं बाँच सकती कोई माँ
वो ज़माना चिट्ठी पत्री का
जब बांच नहीं सकती थी माँ
ज़माने भर की चिट्ठियाँ
बस रखती थी सरोकार
अपने बेटों की चिट्ठियों से
जो दूर देश गया था कमाने
सुन लेती थी अपने पति कि बाणी में
या घर की सबसे पढी लिखी बहू से
पर फिर भी उन्हें आँचल में छिपाकर
सुनने जाती थी
पड़ौस की गुड्डी या शन्नो से
तृप्त हो जाती थी आत्मा
और फिर से आँखें ताकती थी हर शाम
उस डाकिए को
-------------------------
इस कमजोरी से उबरी
माँ अब साक्षर होने लगी
चिट्ठियों के लफ्ज़ पह्चानने लगी
इधर बेटे बेटियों के लफ्ज़
होने लगे और गहरे
माँ को नमस्ते ! पापा को राम-राम !
और बाकी बातें
पढे लिखे भाई-बहनों के लिए
लिखी जाने लगी
माँ उन दो पंक्तियों को आँखों में समाए
संजोने लगी चिट्ठियाँ
एक लोहे के तार में
और जब तब निकाल कर पढ लेती
वो दो पंक्तियाँ
डाकिए का इंतज़ार रहता
अब भी आँखों में
-------------------------
माँ ने पढना लिखना शुरु किया
गहरे शब्दों के मर्म को जाना
बेटे-बेटियों की चिट्ठियाँ
अब उसकी समझ के भीतर थी
पर ये शब्द जल्द ही
एस.एम.एस.में बदल गए
मोबाइल उसकी पहुँच से
बाहर की चीज़ बन गया
अब हर रिंगटोन पर
अपने पोते से पूछती
किसका एस.एम.एस ?
क्या लिखा ?
कुछ नही
कम्पनी का है एस.एम.एस
आप नहीं समझोगी दादी माँ!
-------------------------------
माँ को और ज़रूरत हुई
बच्चों को समझने की
उसने जमा लिए हाथ
की-बोर्ड पर
माउस क्लिक और लैपटॉप की
बन गई मल्लिका
जान लिए इंटरनेट से जुड़ने के गुर
पैदा कर लिए अपने ई-मेल पते
बना लिए ब्लॉग
मेल और सैण्ड पर क्लिक हो गए
उसके बाएँ हाथ का खेल भेजने लगी अपने इंटरनेटी दोस्तों को
मेल और सुन्दर संदेश
-----------------------------
बच्चे बड़े हो गए हैं
चले गए गए हैं परदेस
माँ अपने ई.मेल पते देती है
बेटा सॉफ्ट्वेयर इंजीनीयर है
बेटी आर्कीटेक्चर के कोर्स में
है व्यस्त
हर रोज़ अपने लैपटॉप
पर देखती है स्क्रीन
आज तो आया होगा
कोई लम्बा संदेश
उसकी आँखें थक रही हैं
स्क्रीन के रेडिएशन पर
नज़र जमाए
पर नहीं आया कोई मेल
माँ चिट्ठी के ज़माने में
पहुँच गई है
जहाँ नहीं बाँच सकती कोई माँ
अपने बच्चों नहीं चिट्ठियाँ
मैं भी माँ तुझ सी नारी बनूँगी
मैं भी माँ तुझ सी नारी बनूँगी
सुंदर सी गुडिया मैं भी रचूँगी
आने दे मुझको तू धरती पर पहले
न करना लहू की दिल सबके दहले
न बनने दे कोख तू अपनी बूचड़खाना
यही तो है ईश्वर के सृजन का ठिकाना
मैं न सोचूंगी विध्वंस तुझ जैसा
मैं ब्रह्मा-सी रचयिता बनूँगी
मैं भी माँ तुझ सी नारी बनूँगी
सुंदर सी गुडिया मैं भी रचूँगी
क्यों है उदास तू मेरे आने से
कर दे तू क्रांति मेरी दादी से
कह दे बुआ से तू चाची से कह दे
तुम भी तो नारी फिर शिकवा किससे
मैं न चलूंगी पगडण्डियों पर तेरी
मैं संवेदनाओं की गुडिया जनूंगी
मैं भी माँ तुझ सी नारी बनूँगी
सुंदर सी गुडिया मैं भी रचूँगी
मीरा को गर कोख में गिराया होता
लक्ष्मीबाई का भ्रूण लहू किया होता
कल्पना फिर कहाँ उड़ती अन्तरिक्ष में
माँ ने कत्लेआम मचाया जो होता
मैं न उडानों के पंख कतरूँगी
मैं बछेंद्री,मैं इंदिरा, किरण बेदी बनूँगी
मैं भी माँ तुझ सी नारी बनूँगी
सुंदर सी गुडिया मैं भी रचूँगी
मुझे आने दो
जन्म लेने दो माँ
मुझे आने दो धरती पर
मत कतरो माँ !
इस चिडिया के पर
मैं भी देखूँगी
फूल,बादल,चाँद-तारा
मुझे भी बना लो माँ !
अपना राज दुलारा
मत डर तू दहेज से माँ !
स्वावलम्बी मैं बनूँगी
तुझ पर हुए अत्याचार का
बदला गिन-गिन कर लूँगी
तेरी आँखों के आँसू
उठाऊँगी पलकों पर
जीवन के हर मोड़ पर
छाँव रखूँगी तुझ पर
लता मंगेश्कर-सा कूकूँगी
कल्पना चावला-सा उडूँगी
सानिया मिर्ज़ा-सा खेलूँगी
किरण देसाई-सा लिखूँगी
अपनी कोख से बाहर
दुनिया दिखा दे बस
जन्म लेने दो माँ !
मुझे आने दो धरती पर
आने दो बेटियों को धरती पर
आने दो बेटियों को धरती पर
मत बजाना थाली चाहे
वरना कौन बजाएगा
थालियाँ कांसे की
अपने भाई भतीजो के जन्म पर
आने दो बेटियों को धरती पर
मत गाना मंगल गीत चाहे
वरना कौन गाएगा गीत
अपने वीरों की शादी में
आने दो बेटियों को धरती पर
मत देना कोई विश्वास उन्हें
वरना कैसे होंगे दर्ज अदालत में
घरेलू हिंसा के मामले
आने दो बेटियों धरती पर
मत देना कोई आशीर्वाद उन्हें
वरना कौन देगा गालियाँ
माँ-बहन के नाम पर
आने दो बेटियों को धरती पर
मत देना दान-दहेज़ उन्हें
वरना कैसे जलाई जाएँगी बेटियाँ
पराए लोगों के बीच
आने दो बेटियों को धरती पर
पनपने दो भ्रूण उनके
वरना कौन धारण करेगा
तुम्हारे बेटों के भ्रूण
अपनी कोख में
बाबा तुम्हारे कन्धों पर
बाबा तुम्हारे कन्धों पर
चढ़ कर
न जाने
कितने मेले मगरे देखे
न जाने
कितनी दुनिया देखी
बाबा तुमने मुझे
दिखाई दुनिया
जब मुझे
समझ भी नहीं थी
दुनियादारी की
कभी दायें कंधे
कभी बाएँ कंधे
कभी दोनों टाँगे
एक-एक कंधे पर रखकर
मैं लेता रहा आनंद
दुनिया के नजारों का
और जब मैं ज़मीन पर
चलने लायक हुआ तो
तुमने उतार दिया
ज़मीन पर
लेकिन मैं
चला नहीं ज़मीन पर
आसमान में उड़ने लगा
तुमसे दूर...दूर..
इतना दूर हो गया
कि तुम्हारे
गहरे अनुभवों को भी
दरकिनार कर दिया
जब-जब घर में
टी. वी.,फ्रिज,
कंप्यूटर,माईक्रो
जैसे उपकरणों ने
दी दस्तक
मैंने उनसे दूर रहने की
हिदायत देते हुए कहा
तुम नहीं समझोगे बाबा
नए ज़माने की चीज़ों को
मुझे कंधे पर बैठा कर
दुनिया दिखाने वाले बाबा
मैंने खींच दिए परदे
तुम्हारे कमरे के आगे
ताकि ड्राइंग रूम में बैठे
मेरे दोस्तों को
तुम्हारी भनक भी न पड़े
तुम्हे हर चीज़
तुम्हारे कमरे में ही
पहुंचाने की
ज़िम्मेदारी ले ली
ताकि तुम बाहर के
कमरों में आकर
हमें दखल न दो
मै तुम्हारे
सिरहाने बैठ कर
दवाएं देता रहा
और तुम्हारे प्राण उड़ने की
करता रहा प्रतीक्षा
जिंदगी को अपने कंधो पर
दिखाने वाले बाबा
मैं तुम्हे नहीं बैठा पाया
अपने कन्धों पर
जीते जी
कुछ नहीं कर पाया
तुम्हारे लिए
बस अंत समय में ''
कँधा'' ही दे पाया तुम्हे |
ना बहता है दरिया
तुम सितारा बन कर
चमकते रहो
यूँ ही आकाश में
क्या ज़रूरी है कि
देह बन कर
आ जाओ धरती पर
यहाँ बंजर है धरती
इंसान भी
ना फूल उगते हओं
धरती पर प्यार के
ना पौध उगती है
मिट्टी में
प्यार की
ना बहता है दरिया
इंसान के
दिलों में कहीं
तू जो भी है
तू जो भी है
देह-विदेह
आकार-निराकार
जड़-चेतन
मूर्त-अमूर्त
प्रतिमा-कौशल
तू जो भी है
ईश्वर- इबादत
धरती-आकाश
संज्ञा-शून्य
इंसान-खिलौना
सागर-रेत
तू जो भी है
प्रारब्ध-विराम
आज्ञा-उपेक्षा
मुहब्बत-नफ़रत
हिन्दू-मुस्लिम
दोस्त-दुश्मन
तू जो भी है
मुस्कान-अवसाद
खुशी-गम
आशा-नैराश्य
किरण-सुरंग
राह-मंजिल
तू जो भी है
शब्द-निःशब्द
विस्तार-क्षितिज
सितारा-आकाश गंगा
अणु-ब्रह्माण्ड
मै-सर्वस्व
तुझे जाने बिना करती हूँ
बेपनाह-मुहब्बत
पावन-अनुराग
अथाह-प्यार
अलौकिक-प्रीति
सूफियाना -प्रेम
नहीं है मुझे तुझसे
आशा-आकांक्षा
अपेक्षा-उम्मीद
इच्छा-चाह
लालसा-वांछा
अभिलाषा-कामना
मैं जड़-तू चेतन(1)
मैं जड़
तू चेतन
मैं आकार
तू निराकार
मैं मूर्त
तू अमूर्त
मैं प्रतिमा
तू कौशल
और यही है
धरती का सृजन
मैं जड़- तू चेतन (2)
मैं तेरे नेह में
इस कदर भीग गई हूँ
कि ज्यों रूई की बाती
वसा में भीगती है
दिप-दिप जल उठती है
तम से लड़ती है
तेरा निरंतर नेह
मेरी आत्मा को
भिगो रहा है निरंतर
और मेरी देह का सिरा
मेरा मस्तिष्क
दिप-दिप जल रहा है
संघर्षरत है तम से
वलय प्रकाश का
चारों ओर
ओ! मेरे नेह के स्त्रोत
जिस क्षण रुकेगी
तेरी नेह धारा
तो देख !
मेरी आत्मा भी सूख जाएगी
और मेरा मस्तिष्क
प्रदीप्त नहीं होगा
उसी क्षण
और सोच
क्या हश्र होगा मेरा
मैं तो जड़ हूँ
और तू चेतन
देख मै और भी
जड़ हो जाऊँगी ।
तू तृष्णा-तू तृप्ति
तू तृष्णा
तू तृप्ति
ना आए कभी
संतृति
तू ही जगाता
तृष्णा
तू ही देता
तृप्ति
लगी रहे
तृष्णा
मिलती रहे
तृप्ति
अधूरे सपने
सपनों में
दिखते
अधूरे सपने
तड़प से ज्यादा
तड़पते हुए
और सपनों में
रह जाते हैं
अधूरे सपने
अधूरे ही
01 ओ पुरुष ! (1)
कब आएगा
वो दिन
जब बेतहाशा
दौड़ूँगी
अँधेरी सड़कों पर
बेधड़क
तुझसे
ना डरते हुए
ओ पुरुष !
ओ पुरुष ! (2)
ओ पुरुष !
तू पिता
तू भाई
तू पति
तू मित्र सा
संरक्षक
फिर भी
हर पग पर
क्यों डर लगता है
जो मुझे
बनाता है
अन्दर से कमजोर सा
ओ पुरुष ! (3)
ये मेरी भूल है
या कोई भ्रम
कि तुझसे
कन्धे से कन्धा
मिलाकर
चलने की चाह है
तू मखौल भी
उड़ाता है
मेरे भ्रम का
फिर भी
अपेक्षा क्यों करता है
कदम से कदम
मिलाने की
ओ पुरुष !
हर नस की रक्षा में हूँ ओ ! पुरुष !
तूने सदा मुझे
अपनी जूती तले दबाया
और मैंने हमेशा
तुम्हारी धमनिओं में
बहना चाहा
तू न जाने क्यों
मुझे देखते रहे
बेचारी समझ कर
और बंद करके
उस कोटडी में
वीरता के परचम
फहराते रहे
इतना दंभ था
पुरुष तुझमें
फिर भी तेरा माथा
झुकता रहा
कभी तिलक के बहाने
तो कभी
आर्शीवाद के बहाने
कभी तेरी कलाई
मेरे सामने आ गयी
याचना बन कर
रक्षा की
मैं तेरी रक्षा के लिए
तेरे सिर से लेकर
पाँव तक
बहती रही
और जब पहुंची पाँव तक
तो तू समझ बैठा
मुझे पाँव की चीज़
पर मैं तो
तेरे हर अंग की
हर नस की
रक्षा में हूँ
ओ ! पुरुष !
मैं दरवाज़ा
मैं दरवाज़ा
ज़ितना पिटती गई
उतना खुलती गई
और बन गई बेबाक
मैं लोहा
जितना कूटा गया
उतना फैलता गई
और बन गई ढाल
मैं सोना
जितना तपाया गया
उतना पिघलती गई
और बन गई कुन्दन
मैं पानी
जितना उबाला गया
उतना सिमटती गई
और बन गई ओस
पर्वतों से लौटकर (1)
पर्वत रहते हैं
अचल हमेशा
ये बर्फ ही है
जो बिछ जाती है
पर्वतों पर
और पिघलती रहती है
सदा
पर्वतों से लौटकर (2)
मैं जब भी आती हूँ
पहाडों पर
मुझे दिखते हैं पहाड़
उसी जगह
जहाँ थे
बरसों पहले
बस ! बर्फ ही दिखती है
बदली हुई
अलग-अलग
अन्दाज़ में
मैं तुझ पर आना चाहती हूँ
मैं तुझको
काटना तो नहीं चाहती
ओ पहाड़ !
मैं तुझ पर
आना चाहती हूँ
तेरी भुजाएँ
काटने के लिए नहीं
ना ही तुझे
भुरभुरा बनाने के लिए
मैं तो तेरी ऊँचाईयाँ
छूना चाहती हूँ
उत्कर्ष पर आकर
देखना चाहती हूँ
कैसा लगता है
संसार तुझ पर
नदी की तरह उद्दाम वेग से
मैं तो तुझे
सहलाना चाहती हूँ
तुझे और मजबूत
बनाना चाहती हूँ
ओ पहाड़ !
हिम नदी (1)
हिम नदी
कहाँ पिघलती है
सरलता से
अन्दर से
होती हुई
खोखली
बाहर से दिखती
जमी हुई
बर्फ की तरह
हिमनदी (2)
तुम रहो
हिम की तरह
और मैं
तुम्हारी ओट में
बहती रहूँ
नदी की तरह
ना जान पाए
राज़ कोई
इस हिमनदी का
नदी के उद्दाम वेग पर
नदी के उद्दाम वेग पर
नहीं बनाए हैं बाँध
जब टूट जाते हैं बाँध
सह नहीं पाते वेग नदी का
बह जाते हैं पशु-पक्षी
डूब जाते हैं लोग भी
इसलिए मैंने
बना लिए हैं कटाव
जगह-जगह
मोड़ने के लिए धाराएँ
उस तीव्र नदी की
जो मुड़कर भिगो देंगी
इस शहर से उस शहर
ये अलग बात है कि
उद्दाम वेग से कटाव
और गहरे हो जाएँगे
सपने नए उग आए हैं
कुछ सपने टूटे
कुछ बिखरे
कुछ आहत और
कुछ घायल हुए
कुछ जिद्दी थे जो
सपने
वो देखो
फिर से अंकुरित हुए
कुछ हद से ज्यादा
जिद्दी थे
वो पल्ल्वित तक भी
हो आए
कुछ सपने
जो मर भी गए
चिताग्नि पर
ना चढ पाए
उनकी मृत देह को
लिए-लिए
फिरती हूँ मैं
भटकी-भटकी
कर नहीं पाती
तर्पण उनका
गंगाजल में
देखो उन मृत सपनों से
कुछ सपने नए
उग आए हैं
मर भी गए तो वो सपने
आत्मा की भाषा में
आए हैं ।
ज़िन्दगी एक पतंग-सी
ज़िन्दगी एक पतंग
रंग बिरंगी
आकाश में
विचरती
सधे हुए हाथों की
डोर से
संभली हुई
बढती
ऊँची ही ऊँची
महत्वाकांक्षा की
ऊँचाई पर
जाती हुई
पर ना जाने
कब कोई
समेट ले डॉर
अपनी चरखी पर
थककर
और रख दे
पतंग
घर के कोने में
या फिर
उड़ती पतंग
पर ही
कोई दूसरा मांझा
काट दे
आकर
और उड़ती हुई पतंग
लहराती हुई
आ पड़े औंधे मुँह
धरती पर
या फिर कोई
लूट ले उसे
फिर से उड़ाने को
आकाश में
ज़िन्दगी उड़ती हुई
पतंग सी ही
लगती है अच्छी हमेशा
ना सिमटी हुई
किसी कोने में
ना कटते हुए
मांझे से
ना लुटते हुए
किसी हाथों
लगती है कितनी अच्छी
ज़िन्दगी
उड़ती हुई पतंग सी
मैं धरती
मैं एक नदी
बहती हुई समय-सी
अंतत: मिलती हुई समुद्र में
नही मिलना मुझे समुद्र में
अलग से बहना है
भिगोते हुए तट को
मैं एक आकाश
छूता हुआ धरती को
क्षितिज़ पर
अंतत: बरस जाना
धरती पर
नहीं मिलना क्षितिज़ पर मुझे
देना है साया
धरती को अलग रहते हुए
मैं एक धरती
घूमती हुई ब्रह्माण्ड में
देती हुई जीवन
हर एक को
हाँ ! मुझे छूना है
आकाश
सूर्य
चन्द्रमा
और तारे
मैं! दिखती सागर
मैं ! दिखती धरती
खुली हथेलियाँ
आकाश की ओर
ओ आकाश !
रख दे हथेलियाँ औंधी
मेरी हथेलियों पर
मैं ! दिखती पर्वत
ज्वालामुखी लिए
धधकता हुआ
ओ आकाश !
बरसा बूँदें छन्न-सी
मेरे लावा पर
मैं! दिखती सागर
दग्ध ज्वाला
कूप में लिए
ओ आकाश !
बना दे वाष्प
बरसा अन्धेरी सुरंगों पर
मैं! दिखती ब्रह्माण्ड
समेटे हुए
सृष्टि सारी
ओ आकाश !
ले चल मुझे
तेरे उस पार !
मेरा मकसद तुझे पाना तो नहीं ओ आकाश !
मेरा मकसद
तुझे पाना तो नहीं ओ आकाश !
मैं जानती हूँ तुझे पाने के लिए
छोड़नी पड़ेगी धरती
छोड़नी पड़ेगी देह भी
मैं जानती हूँ
कब छूटती है देह
जब ले जाते हैं
कंधो पर देह
और घुल जाती है देह
पंच-तत्वों में
मैं जानती हूँ
कब घुलती है देह
जब छूट जाता है
मोह धरती का
और आत्मा विलग होती है
देह से
मैं जानती हूँ
कब होती है आत्मा
विलग देह से
जब तड़प हो आकाश से मिलने की
और तृष्णा जागे
परमात्मा से मिलन की
कब होगी वो तड़प तुमसे मिलने की ओ आकाश !
मेरा मकसद तुझे पाना तो नहीं ओ आकाश !
रीत चुकी देह में
अगर तुम आए हो
टटोलने देह मेरी
तो लौट जाओ मुनि !
रीत चुकी देह में
नहीं भर पाएगी
गगरी तुम्हारी
अगर तुम आए हो
रौंदने देह मेरी
तो लौट जाओ राही !
रेत हो चुकी देह में
पदचिन्ह ही रह जाएँगे
तुम्हारे
अगर तुम आए हो
मारने सेंध देह में
तो लौट जाओ मित्र !
खण्डहर हो चुकी देह में
गूँजेगी सिर्फ आवाज़ें
तुम्हारी
टटोलना है तो
आत्मा टटोलो
मारनी है सेंध तो
आत्मा पर मारो
रौंदना ही है तो
आत्मा को रौंदो
पर आत्मा तो अमर है
ना टटोल पाओगे ना ही सेंध लगेगी
ना ही रौंद पाओगे आत्मा को
मानव के अश्रु स्त्रोत
मैंने कहा था
इससे
उससे
इनसे
उनसे
और सबसे
कि बन जाओ तुम धरती
बन जाओ तुम आसमान
और करो आदान-प्रदान
धरती कि तरह वाष्प देने का
आसमान कि तरह पानी
बरसने का
ताकि न रहे धरती प्यासी
न रहे आसमान लबरेज
पर तुम नहीं माने
और खाते रहे
दूसरे के हिस्से कि रोटी
पीते रहे
दूसरे के हिस्से का पानी
और खड़ी कर दी दीवारें
हर कदम पर
कट गई धरती
हर उडान पर
बंट गया है आसमान
पी गया है
धरती के हिस्से का पानी
सोख लिए है
धरती के झरने
चबा गया है चंद बूँदें भी
और धरती निरीह आँखों से
ताकती हुई आसमान को
थक गयी है
तिड़क गयी है
मानव के अश्रु स्त्रोत
सूख गए है
आतंक किसी कोख में नहीं पलता
कौन कहता है
भ्रूण हत्या पाप है ?
चल जाता पता
गर माँ को
कि पल रहा है
कोख में आतंक...
तो कर देती वो
खुद ही
उस भ्रूण की हत्या...
बताओ क्या तुम
ठहरा पाते
उसे दोषी ?
कह दो
उन वैज्ञानिकों से....
किये हैं ईजाद
जिन्होंने
भ्रूण जानने के
उपकरण.....
ईजाद करें अब
कोख में पलने वाले
आतंकवादी भ्रूण...
पर कहाँ ?
आतंक
किसी कोख में
नहीं पलता |
माँ तो क्या
माँ के
साए से भी
दूर.......
ईर्ष्या द्वेष की
धरती पर.....
जहां
ममता नहीं
घृणा बरसती है...
हाँ ! आतंक
किसी कोख में नहीं पलता
हाहाकार
हाहाकार
मचा है मन में
मै कौन ?
मैं क्यों ?
किसके निमित्त ?
क्या करने आई हूँ
पृथ्वी पर ?
प्रश्न दर प्रश्न
बढती जाती हूँ
दिल के हर कोने में
पाती हूँ
मचा है
हाहाकार
----------------
चलती जाती हूँ
सड़क पर
शोर गाड़ियों का
घुटन धुँए की
चिल्ल-पौं होर्न की
सबको जल्दी
आगे जाने की
उलझे हैं सारथी
हर गाड़ी के
देते हुए गालियाँ
एक दूसरे को
देख रही हूँ मैं
एयरकंडीशन कार में
बैठी
मचा है
सड़क पर
हाहाकार
--------------------
चलती हूँ हाई-वे पर
दौड़्ते दृश्यों में
एक बस्ती के बाहर
ज़मीन से ऊपर
सिर उठाए
नल के नीचे
बाल्टियों की कतारेंअपनी बारी के
इंतज़ार मे
तितर-बितर लोग
उलझते एक दूसरे से
कि नहीं है सहमति
एक घर से
दो बाल्टी की
मेरे घर के बाहर
एक बालिश्त
घास का टुकड़ा
पी जाता है
ना जाने
कितना गैलन पानी
और यहाँ बस्ती में
एक बाल्टी
पानी के लिए
मचा है
हाहाकार
--------------
पिज़्ज़ा पर
बुरकने के लिए
चीज़
केक को
सजाने के लिए
क्रीम
डेयरी बूथ पर
रोकी कार मैंने
देखकर लम्बी कतार
सड़क तक
थोड़ी धक्कमपेल में
ठिठकी मैं
कोई झगड़ा
कोई फसाद
आशंका मन में
कतार के सबसे
पीछे खड़े
मफलर में
लिपटे चेहरे को
पूछा
“आज क्या है इस डेयरी पर ”
मूँग की दाल
मिल रही है
कंट्रोल रेट पर
बहनजी !
आप भी ले आओ
राशन कार्ड
एक धक्के से
खिसक गया वो
और पीछे
मचा है यहाँ भी
हाहाकार !
--------------
मेरे चाचा का
इकलौता बेटा
सड़क दुर्घटना में
सो गया
सदा के लिए
चीखों-पुकार
करुण-क्रन्दन
नोच गया दिल
पोस्ट्मार्टम के
इंतज़ार में
खड़े हम
अस्पताल के पोर्च में
प्रसव वेदना से
तड़पती
माँ ने
दम तोड़ दिया
छ्ठा बच्चा था
उसका
“अब इतने जनेगी तो
मरेगी ही ना ”
लोगों के जुमले
मचा रहे थे
मन में मेरे हाहाकार
---------------------
हैती में आया है भूकम्प
ले ली है जानें
कितने लोगों की
रोते बिलखते
उजड़ते बिखरते
लोगों के चेहरे
पिछली सारी यादों को
गडमगड करते
कभी सुनामी
कभी बाढ
कभी भूकम्प
कभी सूखा
और नहीं तो
तूफान भंवर
इससे भी नहीं थमा
धरती सागर
तिल-तिल बढती
ग्लोबल वार्मिंग
मच रहा हैं
हाहाकार
-----------------
धरती से ऊपर
क्षितिज पर
आसमान में
कभी बादलों का
रोना वर्षा से
कभी सूरज का सोखना
धरती से
कभी छेद है
ओज़ोन परत में
और धरती के पार
आकाश गंगा के रास्ते
सौर मण्डल के अपने दर्द
कभी सूर्य को ग्रहण
कभी चन्द्र को ग्रहण
कभी टूटता तारा
कभी उलका पिण्ड
अलग होते आकाश से
मचा है खगोल में भी
हाहाकार
------------------
उठती हूँ नींद से
मचा है
हाहाकार
अब भी मन में
उथलता
पुथलता
नख से शिख तक
करता हुआ
आँखे नम
कौन हूँ ?
क्यों हूँ ?
कहाँ से ?
कब आई हूँ ?
अपना ये हाहाकार
कुलबुलाता है
धरती पर
बिसरते लोगों से लेकर
धरती के पार तक
उनके हाहाकार से
छोटा हो गया है
मेरा हाहाकार
-----------------
पिछले दशकों में
पिछले छ: दशक से
महीना-दर-महीना
कमा रहे हैं बाबा मेरे
फिर भी लाखों बाबा
नहीं पहना पा रहे
अपने बच्चों को
पूरे कपड़े
वो फिर रहे हैं नंगे
इन सर्द गलियों में
पिछले पाँच दशक से
व्यंजन-दर व्यंजन
पका रही है रसोई में
मेरी अम्मा
फिर भी लाखों माँए
नहीं दे पाती है
अपने बच्चों को
भरपेट खाना
पिछले चार दशक से
पारी-दर-पारी
मेरी बड़की बहन
लिख रही है
बच्चों की स्लेटों पर
हाथ पकड़ कर्
फिर भी सैकड़ों बच्चे
नहीं देख पा रहे
स्कूल का मुँह भी
पिछले तीन दशक से
अस्पताल-दर-अस्पताल
मेरा भाई
बाँट रहा है दवाइयाँ
आम आदमी के लिए
फिर भी सैकड़ों लोग
तोड़ देते हैं दम
इलाज के अभाव में
पिछले दो दशक से
किश्त-दर-किश्त
मेरे पति
बाँट रहे हैं ऋण
सरकारी खातों से
ज़रूरत मन्दों को
फिर भी आर्थिक मार से
ना जाने कितने लोग
कर लेते हैं आत्महत्या
पिछले एक दशक से
मेरी भाभी
कानों में
हीरे के झुमके पहन
छम्मक-छल्लो सी
घूम रही है घर में
और सैंकड़ों लोगों के
मुँह तक निवाला भी
मुश्किल से
पहुँचा रही है
ये हीरे की खदानें
पिछले एक वर्ष से
पृष्ठ-दर-पृष्ठ
मैं भी लिख रही हूँ कविता
कम्प्यूटर पर
इंटरनेट के सारे रास्ते
जान गई हूँ
की-बोर्ड दबा-दबा कर
ब्लॉग बनाने की रवायतें
और फेसबुक पर
अच्छे दोस्त तलाशने की
मुहिम छिड़ी है
और मेरे आस-पास की
गृहणियाँ तो दूर की बात है
मेरे पूरे मोहल्ले में
इस कोने से उस कोने तक
इस गली से उस पार तक
नहीं है मुहैया
बच्चों को भी
एक अदद कम्प्यूटर !!
ओ बिरादरी वालों
ये बिरादरी वाले
जो करते हैं
इज़्ज़त की परवाह
अपनी खानदानी रवायत
बचाने की खातिर
कर देते हैं
दो प्रेमियों की हत्या
मासूम प्रेम
बह जाता है
इज़्ज़त की
नालियों में
जो घृणा द्वेष
और हिंसा से
उफनती है सदा
ये बिरादरी वाले
लेते हैं चैन की सांस
बन जाते हैं विजेता
क्योंकि बच जाती है
उनकी इज़्ज़त
उनकी ये हत्या भी
ऑनर किलिंग के नाम से
हो जाती है सम्मानित
ये बिरादरी वाले
नहीं जानते कि
उन दो मासूमों के दिलों में
बह रही थी प्रेम की नदी
उन मासूमों ने
नहीं खेला कभी जुआ
नहीं पी कभी शराब
ना ही फैलाया आतंक
ना की किसी की हत्या
सोचो ! ओ बिरादरी वालों
उस प्रेम की नदी से
फूटते प्रेम के ही अंकुर
पल्ल्वित और पुष्पित होते
उनके अंश
प्रेम में पगे हुए
आतंक भरी दुनिया में
देखते अपने माँ-बाप को
डूबे हुए प्रेम में
और बच्चे सराबोर रहते
प्रेम की दुनिया में
ओ बिरादरी वालों !
तुमने कभी उनके बारे में सोचा
जो समाज में करते है
चोरी-डकैती-अपराध
देश मे धर्म के नाम पर
लगाते हैं आग
और भस्म कर देते हैं
समूची सभ्यता
विश्व को बना रहे निशाना
बम-परमाणु बम-मिसाइल
और ज़ेंथ्रेक्स हैं
जिनके हथियार
ओ बिरादरी वालों !
क्या किया है तुमने साहस
उनकी हत्या का
जो तिल-तिल
समूची सभ्यता को
कर रहे हैं होम
आतंकवाद में
और नहीं हो रही खराब
इज़्ज़त बिरादरी वालों की ।
क्या छतें साफ नहीं हो सकती
इतने खूबसूरत शहर की सड़के
दोनों तरफ ताज़ा पुती दीवारें
चौराहों और नुक्कड़ों पर
खूबसूरत हवेलियाँ
लक-दक शीशों के पार
दिखती मॉल की चमक
जिसके चारों तरफ मंडराते
आधुनिक पोशाकों में संवरे लोग
महज 10 रुपये में
ए.सी. बसों का सफर
करीने से सजी दुकानें
फ्लैटों की बालकनी में
बच्चों के बाल संवारती माँए
उन्हीं फ्लैटों में
अपने खूबसूरत आस-पास के
अहसास में सराबोर
एक दिन चढ गई सीढीयाँ
उस छत की
जहाँ से पूर शहर का नज़ारा
दिख रहा था मुझे
पर वो हवेलियाँ,
वो मॉल ,वो बसें
सिर्फ बिन्दु-सी दिखाई दे रही थी
दिख रहा था तो बस
छतों पर पड़ा बेतरतीब कचरा
कभी ना काम आने वाली
टूटी हुई कुर्सियाँ
गुलदान
पुताई के पंछे
पुरानी तस्वीरों के बोर्ड
टूटी ईंटें
घड़े के ठीकरे
जंग लगे मटके के स्टैण्ड,
टूटी बाल्टी
और भी ना जाने क्या-क्या
तमाम छतों पर पड़े
सामान का नज़ारा
लग रहा था भयानक
मै घबरा कर
उतर आई सीढीयाँ
दम फूलने लगा
हाँफ रही थे मैं
कहाँ गई शहर की खूबसूरती
मैं जो चिल्लाती हूँ बच्चों पर
वो सही है कि
बैठक साफ करने से
नहीं आती है सफाई
दरअसल हम सफाई की शुरुआत
बैठक से करते हैं
और तमाम कचरा
गलियारे बेडरूम किचन गैरज
और फिर छत की तरफ
बुहार दिया जाता है
जमता रहता है छतों पर
घर का तमाम कचरा
जो बरसों तक
पड़ा रहता ज्यों का त्यों
उस छत पर पड़ी
नकारात्मक उर्जा के तले
हम दिन रात
उठते बैठते
सोते जागते हैं
और बैठक को साफ कर
इतराते हैं
खुद के सफाई प्रेम पर
जिसमें ना कभी हम बैठते
उस कुण्डी जड़ी बैठक को
भूले भटके मेहमान का
रहता है इंतज़ार
------------------
यूँ ही सजे संवरे लोग
सौन्दर्य संवारने का
दावा करती
ये तथाकथित दुकानों की
थ्रेडिंग से
ईर्ष्या का
एक बाल तक
नहीं उखड़ता
ना तो कोई मसाज
कुण्ठा को क्लांत होने से
बचा पाती है
ना ही ब्लीचिंग
द्वेष को धूमिल कर पाती है
हाँ ! वैक्सिंग फेशिअल ब्लीचिंग
जैसे ग्लोबल शब्दो से
चमकते चेहरों के
दिल की सारी गन्दगी
रक्त शिराओं से बहती हुई
दिमाग की छत पर
जमा हो रही है
-------------------
ऐसे ही हमारी बुहारी
परिवार से समाज
और समाज से
देश के रास्ते होकर
पसर गई है
विश्व की छत पर
जमा हो गया है
सारा कूड़ा कचरा
उस विश्व की छत पर
जिस पर पड़े
आतंकवाद
भ्रष्टाचार
विश्व राजनीति
और परमाणु युद्ध
के खतरों के नीचे
अपने-अपने देशों को
खूबसूरत मॉल
भवनों , हवेलियों को
सजाने का भ्रम पाले हुए
सांस भी नहीं ले पा रहे हैं
मेरा बस इतना सा ही सवाल
मेरे शहर के लोगों से
क्या छतें साफ नहीं हो सकती ?
बैठक बन्द रहती है मिट्टी के डर से
वो बैठक का नज़ारा
ज़िसमें बाबा के दोस्त
जमा करते थे घण्टॉं
और मै भी
उसका हिस्सा हुआ करती थी
फुदकती हुई
कभी इस कुर्सी
त्तो कभी उस मूढे
कभी प्लेट में पड़े
चिवड़े पर झपटती
तो कभी बाबा के गिलास से
आम का पाना पीती
कुछ बड़ी हुई तो
सपने ईज़ाद हुए
माँ से कहने लगी
सोफे लाओ ना
अपनी बैठक में
और गुलदान भी
जैसे मेरी सहेली के घर पर हैं
ताकि हमारी बैठक भी महक उठे
फूलों से
माँ-बाबा ने मुस्कुरा कर
टाल देते
सपने कुछ अंकुरित हुए
ना सही सोफा ना सही गुलदान
सरकण्डी के मूढों को ही सजाने लगी
माँ की पुरानी साड़ी से
अपने पुराने सूटों से
बनाने लगी कुशन और
मैं खुद काढने लगी कशीदे
और सजने लगी बैठक
अब मेहमान आते तो मैं
ट्रे में करीने से ले जाती गिलास
आम के पाने से भरे हुए
एक प्लेट मे बिस्किट सजे हुए
ओम अंकल मेरी
प्रशंसा करते नफाज़त की
रामप्यारी आँटी
मेरा कशीदा निहारती
मैं सकुचा जाती
उनके जैसे सोफे तो ना थे
हमारी बैठक में
सुन्दर बैठक के सपने
बुनते और पनपते रहे
उन सपनों के जंजाल को लिए
मैं ससुराल की चौखट पर आ गई
इंटीरियर
वास्तु
फेंगशुई जैसी
कलाओं की
सीखती रही
बारीकियाँ
सजाती रही
बैठक अपनी
कलात्मक सोफे
काँच के मेज
महंगे गुलदान
कढाईदार कुशन
वास्तु के अनुसार तस्वीरें
फेंगशुई के तमाम खिलौने
मेरी बैठक को महल का
रूप देते रहे
और मैं पोंछती रही
तमाम चीजों को
बड़ी नज़ाकत से
पर नहीं आता है अब
कोई मेहमान
समय की कमी के कारण
कोई आता भी है जल्दी में
तो बैठा दिया जाता है
दालान में...अहाते में
या खड़े-खड़े ही
विदा कर दिया जाता है
महल जैसी बैठक में
बैठने के
नियम तय किए हैं
हर कोई तो
नही बैठाया जाता
उन गद्देदार सोफों पर
इसलिए
ना सजते हैं काजू प्लेटों में
ना बादाम शेक परोस पाती हूँ
महंगी क्रॉकरी
शो-केस में सजी रहती है
और बैठक बन्द रहती है
मिट्टी के डर से
हम करते ही नहीं है प्रार्थनाएँ
हम करते ही नहीं है प्रार्थनाएँ
कि हमारे पड़ौस का
बीमार बच्चा
हो जाए चंगा
चहकता चिड़ियों सा
और खेलने लगे
आँगन में अपने
ताकि हमारे आँगन भी
उसके चहकने की आवाज़ें
आने लगें छन कर
और हमारे आँगन का बच्चा
उचक कर देखने लगे
पडौस की दीवार के उस पार
हम करते ही नहीं है प्रार्थनाएँ
कि इस वर्ष बरसें बादल
किसानों की उन फसलों पर
जो देख रही हैं बाट
भरपूर पैदावार के लिए
ताकि धुँए भरे हमारे शहर में
पहुँचे तादाद में पैदावार
और हमारे जेब पर ना पड़े मार
और हम भरवा सकें
अपने वाहनों में पेट्रोल
और धुँआ करने के लिए
हम करते ही नहीं है प्रार्थनाएँ
कि टूटे ना एक भी सितारा
इस आकाश की ओढनी से
लबालब रहे आकाश की ओढनी
सितारों से
ताकि ढकी रहे धरती
उस ओढनी की छाँव से
कि एक भी उल्कापिण्ड
धरती की छाती पर
गिर कर ना करे विलाप
हम करते ही नहीं है प्रार्थनाएँ
देश के उस पार भी
आबोहवा चलती रहे
ठण्डी और सुखद
कि सरहद पर बची रहे गोलियाँ
ताकि एक भी चिंगारी
हमारी या उनकी सरहद पर
घास के एक भी टुकड़े को
जला ना सके ।
हम करते ही नहीं है प्रार्थनाएँ
कि धरती पर जीने वाले
हर एक इंसान को
मुहैय्या हो रोटी कपड़ा और मकान
ताकि खाते वक्त रोटी,
पहनते वक्त कपड़े
और ओढते वक्त चादरें
नहीं आए हमारे सामने
उन लाचार लोगों की सूरतें
कि हम एक भी निवाला
निगल ना सकें हलक से
हम जानते ही नहीं है प्रार्थना
की शक्ति को
वरना वो ताकत
सिमट जाती है
आत्मबल बन कर
फिर क्या ज़ुर्रत
कि पड़ौस का बच्चा
चंगा ना हो
फसलों पर
ना बरसें बादल
टूटे ना सितारे कभी
बहती रहे हवाएँ
ठण्डी और सुखद
इस पार भी
उस पार भी
और धरती पर जीने वाला
हर इंसान हो खुशहाल
कि दर्द का एक शूल भी
उसको छू ना पाए
दरअसल
हम करते ही नहीं है प्रार्थनाएँ
उन सब के लिए ।
हर कविता जन्मी तो नहीं जाती
कुछ कविताएँ घुल गई
आँखों की बूँदों के साथ
कुछ बन्द हो गई
तुम्हारी पलकों तले
हर कविता खोली तो नहीं जाती
कुछ उलझ गई
मेरे स्वप्नों से
कुछ देती रही आवाज़
तुमने मुड़कर नहीं देखा
हर कविता स्वपन तो नहीं दिखाती
कुछ दबी रही दिल में
तुम्हें छू ना पाई
कुछ तेरी खामोशी को देख
खामोश हो गई
हर कविता बोली तो नहीं जाती
कुछ तेरी उपेक्षाओं में
तड़प कर रह गई
कुछ मांगती रही उड़ान
फड़फड़ा कर रह गई
हर कविता आसमान तो नहीं पाती
कुछ तेरी वेदनाओं के
क्रन्दन तले दब गई
कुछ तेरे ताप में
अंकुरित ही नहीं हो पाई
हर कविता जन्मी तो नहीं जाती