(नाटक)
खरकाई दलमा से प्यार करती है
जयनंदन
सूत्रधार 1 - सगी बहनों की तरह दो दिशाओं से आकर दो नदियां खरकाई और सुवर्णरेखा सोनारी के पास दोमुंहानी में आकर मिलती हैं और एक-दूसरे से गलबाहीं करके अपने खट्टे-मीठे सफर का बयान करती हैं जिसे चुपचाप सामने खड़ा सुनता रहता है दलमा पर्वत। आज से कोई 100 वर्ष पहले 1904 में दोनों ने एक ऐतिहासिक फैसले पर विचार-विमर्श किया था जो दलमा को आज भी याद है।
खरकाई - जानती हो सुवी दी, उड़ीसा की ओर से जंगलों और पठारों के बीहड़ में मेरे साथ-साथ चलते हुए कुछ युवक आये हैं...वे भले से लगते हैं...उनकी आँखों में एक चमक है और चेहरे पर एक दृढ़ इच्छा-शक्ति। वे एक कारखाना लगाना चाहते हैं जिसके लिए वे एक उपयुक्त भूमि की तलाश में हैं जहां पर्याप्त पानी हो और आसपास जमीन के भीतर इफरात खनिज भंडार।
सुवर्णरेखा - तब तो उन्हें यह जगह पसंद आ गयी होगी, काई ! यहां हम दो-दो नदियां हैं...हमारे अन्तस्थल से जितना पानी चाहे निकाल लें, घटनेवाला तो है नहीं, अच्छा है हमारी तरलता, हमारी ममता बड़े पैमाने पर काम आ सकेगी। मैं यह भी जानती हूं कि थोड़े दूर-दूर पर यहां की धरती के एक बड़े भूभाग के गर्भ में कुछ ऐसा है जो मिट्टी नहीं है। शायद यह उन्हीं के काम की चीज है।
खरकाई - सुवी दी, तो तुम सहमत हो ?...मैं तो सोच रही थी तुम इसे नापसंद करोगी। नाहक वे हमारा दोहन करेंगे, गंदगी डालेंगे...।
सुवर्णरेखा - नहीं काई...ऐसा नहीं सोचते...हम नदियां तो बनी ही हैं जलापूर्ति के लिए। गोद में बच्चे होते हैं तो मां को अच्छा लगता है काई। बच्चे के मल-मूत्र से गोद गंदी भी हो फिर भी मां तो उसे दूध पिलाती ही है न...ममता लुटाती ही है न! लगाने दे उन्हें कारखाना...लाखों-करोड़ों का भला होगा इससे...देश की भी प्रगति होगी।
सूत्रधार 1 - दलमा ने अपने शीर्ष से दो छोटे चट्टानों को नीचे लुढ़का दिया तो ऐसा लगा जैसे सुवर्णरेखा के इस संवाद पर उसने ताली बजा दी है। खरकाई ने अपनी शर्मीली आँखें उठाकर दलमा को निहार लिया और बनावटी गुस्सा दिखाते हुए कहा,
खरकाई - देख रही हो न दीदी...फिर हमदोनों की बातें वह कान खड़ा करके सुन रहा था।
सुवर्णरेखा ( हहर-छहरकर बहते हुए कहा) - सुनने दे न,,,क्यों झल्लाती हो बेचारे पर...वह मन ही मन तुम्हें बहुत प्यार करता है काई। तुम जब भी बोलती हो वह कान लगा देता है...तुम्हारी आवाज सुनने का वह बहुत दीवाना है।
सूत्रधार 1 - खरकाई शरमा गयी। दलमा के होठों पर भी एक मुस्कान तिर आयी। 1904 से लेकर आज तक दोनों नदियों में न जाने कितना पानी बह गया। तब के ‘साकची’नामक एक छोटे से जंगली गांव ने आज ‘जमशेदपुर’नाम से एक विशाल काया धारण कर लिया है।
सूत्रधार 2 - खोजी दल के वे युवक एक बहुत बड़े स्वप्नदर्शी तथा राष्ट्रनिर्माता उद्योगपति जमशेदजी नसरवानजी टाटा के कर्मठ सहकर्मी थे। जमशेदजी नागपुर एवं बंबई में कई कपड़ा मिलों और तेल मिलों के सफल संचालन के बाद लोहे और इस्पात का कारखाना लगाने की योजना बना चुके थे। चूंकि उनके मन में कहीं यह घर कर बैठा था कि जो राष्ट्र लोहे पर आधिपत्य जमा लेता है वह शीघ्र ही सोने पर भी कब्जा कर लेता है।
सूत्रधार 1 - उनकी मौलिक परिकल्पना के अनुरूप 1907 में साकची की सरजमीन पर टाटा आयरन एंड स्टील का कारखाना शुरू हो गया। बृहत पैमाने पर देश का यह पहला लोहे का कारखाना था। उसी समय से जमशेदजी भारतीय औद्योगिक क्रांति के अग्रदूत और पितामह माने जाने लगे। इस नगर का नामकरण उन्हीं के नाम पर जमशेदपुर हो गया तथा साक्ची के बगल में स्थित कालीमाटी स्टेशन टाटा नगर हो गया।
सूत्रधार 2 - जमशेदजी के अवदान और इस नगर के बारे में उनकी कल्पनाशीलता को देखते हुए यह सर्वथा उचित भी था। 1902 में उन्होंने अपने पुत्र दोराब को अपने सपनों के इस्पात नगर का चित्र खींचते हुए लिखा था कि इस बात का ध्यान रखना कि सड़कें खूब चौड़ी हों। उनके दोनों बाजू में तेजी से बढ़नेवाले छायादार पेड़ लगाये जायें। इस बात का भी खयाल रखा जाये कि बाग-बगीचों के लिए पर्याप्त जमीनें छूटी रहें। फुटबॉल, हॉकी के लिए भी काफी स्थान का प्रावधान हो। हिन्दुओं के मन्दिरों, मुसलमानों की मस्जिदों, ईसाइयों के गिरजाघरों और सिखों के गुरुद्वारों के लिए जगह निर्धारित रहे।
सूत्रधार 1- जमशेदजी टाटा के उत्तराधिकारियों ने इन निर्देशों का पूरा-पूरा अनुपालन किया और जमशेदपुर नगर एक कल्पनाशील और भावुक कलाकार की एक जीवंत रचना की तरह तराशा गया। सारा कुछ एकदम व्यवस्थित....
सूत्रधार 2 - खेल-कूद को यहां इतना प्रोत्साहन मिलता रहा कि खेल की राजधानी माना जाता है यह शहर। यह एक बड़ी उपलब्धि है कि यहां के दर्जनों खिलाड़ी अर्जुन पुरस्कार से सम्मानित किये जा चुके हैं। खरकाई और सुवर्णरेखा जल शोधन संयंत्र से होते हए नलों के द्वारा कारखाने से लेकर हजारों घरों तक से जुड़ गयीं और एक बड़ी आबादी के दुख-सुख, जीवन-मरण एवं उत्सव-जश्न में शामिल हो गयीं। दलमा ने अपने शीर्ष स्थित एक फुलाये हुए महुआ पेड़ की खुशबू के झोंके द्वारा खरकाई की जल सतह पर थपकी देते हुए पूछा,
दलमा - काई ! अब कैसा लग रहा है अपने असीमित विस्तार और बहुउद्देशीय उपयोग पर...खुश हो न।
खरकाई - टकटकी लगाकर देखते ही तो रहते हो सब कुछ...फिर भी पूछा है तो बता ही देती हूं...सच, बहुत अच्छा लग रहा है। हमारे अस्तित्व के इतने रूप-रंग हो सकते थे, हमें खुद पता कहां था। तुम भी तो खुश होगे...तुम्हारे सूने जिस्मों पर भी तो बहुत सजावट दिखने लगी है...गेस्ट हाउस, टावर, मंदिर, क्या-क्या तो बन गये हैं देख रही हूं। तुम्हारे ओट के जंगल भी सुरक्षित वन्य जीव आश्रयणी बन गया है।
दलमा - तुम ठीक कह रही हो काई...इस पूरे इलाके की ही तकदीर में जैसे ढेर सारे अमृतफल लद गये हैं। मेरी खामोशी पर मनुष्यता की चहल-पहल और हंसी-खुशी के बड़े-बड़े पेड़ उग आये हैं। अपने कंधे और पीठ पर आदमी के आने-जाने से मुझमें वात्सल्यता फूटने की एक सुखद प्रतीति होने लगी है...लगता है जैसे जमाने से स्थिर-शांत खड़ा मैं अचानक चलने-फिरने लग गया हूं।
खरकाई - ( रीझकर एकटक देखती रह गयी दलमा को) सच दोस्त! तुम ऊपर से चाहे कितने भी सख्त हो मगर अपने भीतर बहुत तरलता रखते हो। तुम तो एकदम हम नदियों जैसी बातें करने लगे। और सुनाओ न...मनुष्य तुम्हारे कंधों पर और तुम्हारी पीठ पर चढ़कर क्या-क्या कौतुक करते हैं ?
दलमा - मैं सचमुच तुम्हें सुनाना चाहता ढ़ध्र्ठ्ठ काई। अपने भरे हुए अन्तस को छलकाकर और बहाकर मिलाना चाहता हूं तुम्हारी धारा में।
खरकाई - मेरे धारालिंगन में तुम्हारा स्वागत है, दोस्त।
दलमा - धन्यवाद काई। तरह-तरह के लोग आकर ठहरते हैं मेरे गेस्ट हाउस में। एक रात इस नगर के एक चर्चित कवि संकेत तरल की प्रेमिका परिणति आकर ठहरी। उसने पूरे नगर का परिभ्रमण किया और अपने उद्गार व्यक्त करते हुए संकेत से कहा-
परिणति - तुम्हारी कविताओं से प्रभावित होकर मैंने तुमसे प्यार किया...अब मेरा प्यार और भी बढ़ गया है कि तुम एक बेहतरीन शहर में रहते हो जिसमें सार्वभौम कविताओं की तरह लालित्य और सौंदर्य है।
दलमा - किसी शहर के लिए यह एक बहुत बड़ा कॉम्पलीमेंट है न काई !
खरकाई - मजनूं को लैला की कुतिया भी अच्छी लगती थी, गिरिराज! कहीं इसी निगाह से तो नहीं देखा इस शहर को परिणति ने!
दलमा - संभव है काई। लेकिन उसने जो देखा उसके बारे में उसकी बातचीत के आधार पर मैं तुम्हें संक्षेप में बता सकता हूं कि उसे टिस्को कारखाना ले जाया गया जहां उसने जी ब्लास्ट फर्नेस में लौह अयस्क को हॉट मेटल में पिघलते देखा, फिर हॉट मेटल को एल डी-1 और एल डी-2 में मोल्टेन स्टील में बदलते देखा, फिर मोल्टेन स्टील को इंगट एवं स्लैब में ढलते देखा, फिर इनसे स्ट्रिप में तथा बार और रॉड में फिनिश होकर बाजार में जाने के लिए तैयार होते देखा। उसे टेल्को कारखाना दिखाया गया जहां स्वचालित मशीनों द्वारा हर आठ मिनट में एक ट्रक की चेसिस एसेम्बल हो जाती है। इसके अलावा भी उसने कई कंपनियां देखीं...बियरिंग बनानेवाली टिमकेन, फावड़ा और कुदाल बनानेवाली एग्रिको, ट्यूब और पाइप बनानेवाली ट्यूब डिवीजन, सीमेंट बनानेवाली लाफार्ज, ऑक्सीजन बनानेवाली ऑक्सीजन प्लांट, बिजली पैदा करनेवाली जोजोबेड़ा पावर प्लांट, भारी इंजीनियरिंग सामान बनानेवाली टाटा रोबिंस फ्रेजर, डब्बों और कन्टेनरों के लिए टिन बनानेवाली टिन प्लेट कंपनी, मोटे-पतले केबुल बनानेवाली इंडियन केबुल, कील, कांटी, फेंसिंग तार और नट-बोल्ट बनानेवाली इंडियन स्टील वायर प्रोडक्ट्स कंपनी। वह देखकर खुश हुई कि एशिया का सबसे बड़ा औद्योगिक गार्डेन के रूप में पहचान रखने लगा है यह शहर।
परिणति ने जुबिली पार्क देखा जिसे टाटा स्टील कंपनी ने अपने पचास साल पूरे होने पर गोल्डेन जुबिली मनाते हुए 1957 में इसे विकसित किया था। इसी से लगा एक चिड़ियाखाना है, सफारी पार्क है, चिल्ड्रेन पार्क है, एम्यूज्मेंट पार्क तथा जल-क्रीड़ा के लिए एक लेक है। गेस्ट हाउस में मेरे शीर्ष से खड़े होकर उसने पूरे नगर की विहंगम छवि को निहारा और कहा-
परिणति - पर्वत पर खड़े होकर धरती पर बसे एक नगर को देख रही हूं...लेकिन ऐसा लगता है जैसे जमीन पर खड़े होकर रौशनी से जगमगा रहे चाँद-सितारों से भरी आकाशगंगा को देख रही हूं। ऐसा कम ही शहर होगा जहां संख्या और ऊंचाई के मामले में मकान से ज्यादा वृक्ष नजर आते हों।
परिणति ने देखा कि होटलों और रेस्तराओं में सर्वसुलभ और सर्वरुचिकर डिश है इडली और दोसा। यों उसने संकेत के एक दोस्त के यहां गोइठे की आग में पकी सत्तूवाली लिट्टी और बैगन का भुर्ता भी खाया जिसके बारे में उसका खयाल है कि उसके चटकदार और दिलकश स्वाद को उसने स्थायी रूप से अपने भीतर सुरक्षित कर लिया है। परिधान के मामले में उसने देखा कि पुरुषों के लिए पतलून और शर्ट तथा महिलाओं के लिए साड़ियां अथवा सलवार-कुर्ता ही मुख्य लिबास है।
खरकाई - दल्लू महाराज! कहां तो तुम बोलते नहीं हो और जब शुरू हो जाते हो तो रुकते नहीं हो। 100 वर्षों से तुम देख रहे हो इस शहर को...क्या ये सारे डिटेल्स मुझे आज ही देने जरूरी हैं ?
दलमा – पिछले सौ वर्षों से मैं इस जमशेदपुर को देख जरूर रहा हूं काई, लेकिन पहली बार कवि की प्रेमिका की नजर ने मुझे इसकी वास्तविक तस्वीर दिखायी है। हो सकता है तुम्हारे लिए इसमें कुछ नया नहीं हो, चूंकि घर-घर जाकर कई कोणों से तुम इसे देखती रहती हो...पर मैं तो एकदम अभिभूत हूं काई...। दो-एक मिनट तुम और दे देती तो उसका निष्कर्ष मैं तुम्हें बता देता।
खरकाई - ठीक है कह डालो...निष्कर्ष भी सुन ही लेती हूं मैं।
दलमा - परिणति ने कहा है- यह एक बड़ी बात है कि इस शहर का मुख्य पर्व टिस्को के संस्थापक जमशेदजी नसरवानजी टाटा की जयंती है, जिसमें सभी धर्म, संप्रदाय और जाति के लोग भाग लेते हैं। जुबिली पार्क, मुख्य-मुख्य भवनों, कारखाने के मुख्य द्वारों और गोलचक्करों पर भव्य विद्युत साज-सज्जा द्वारा मनोहारी आकृतियां गढ़ी जाती हैं और एक सप्ताह तक मेले का दृश्य उपस्थित रहता है। यह शहर थोड़ा-सा मुंबई है, थोड़ा-सा दिल्ली है, थोड़ा-सा कलकत्ता है, थोड़ा-सा अमृतसर है, थोड़ा-सा हैदराबाद है, थोड़ा-सा चेन्नई है, थोड़ा-सा बनारस है, थोड़ा-सा पटना है, थोड़ा-सा लखनऊ है, थोड़ा-सा लंदन है, थोड़ा-सा न्यूयार्क है...थोड़ा-सा...थोड़ा-सा...थोड़ा-सा...। मतलब सबका थोड़ा-थोड़ा मिलकर जब पूरा बनता है तो वह जमशेदपुर होता है।
खरकाई - दल्लू...तुम सचमुच बहुत भोले हो। मैं बताती हूं तुम्हें जिसे परिणति ने नहीं देखा। इस शहर में थोड़ा इथोपिया भी है...थोड़ा सोमालिया भी है और थोड़ा नामीबिया भी है। इसका अर्थ भूख, गरीबी और दुख-तकलीफ से है गिरिराज।
(आश्चर्य से दलमा, पहाड़ से मानो बुत बन गया।)
खरकाई - हैरत से मत देखो दल्लू। सिक्के के दूसरे पहलू भी हैं जिसमें कुछ स्याही हैं, कुछ धब्बे हैं। टाटा प्रबंधन शहर की अपनी लीज-भूमि में बसी कॉलोनियों और बाजारों के एक खास हिस्सेे में ही अपनी नागरिक सुविधायें उपलब्ध कराती है लेकिन इसके अलावा इस आबादी से कहीं दस गुणा ज्यादा आबादी आसपास के मानगो, जुगसलाई, हरहरगुटू, नामदाबस्ती, बिरसानगर, बागुनहातु, गोविंदपुर, लक्ष्मीनगर आदि में बसर करती है जहां नगरपालिका या अधिसूचित क्षेत्र समिति है और वहां बिजली, पानी, सड़क और जल-निकास आदि सभी मामले में स्थिति नर्क से भी बदतर है।
अपनी सांसों को बचाने में हलकान-परेशान यह शहर पहले रंगकर्म और साहित्य के क्षेत्र में अपनी अच्छी पहचान रखता था। ‘अभिसारिका’एक नाट्य संस्था हुआ करती थी जिसने 14 वर्षों तक अखिल भारतीय लघुनाटक प्रतियोगिता कराकर नाटक को यहां एक नयी दिशा और जमीन दी। अब अभिनय के शौक रखनेवाले नये लड़के टीवी के ग्लैमर की ओर भागकर मुंबई और दिल्ली कूच कर गये हैं और अब रंगकर्म लगभग मृतप्राय है।
हमारे पानी में अब कई रंग घुल गये हैं, दल्लू। इनमें मजदूरों के धूसर पसीने मिले हैं, बंद कारखानों और विभागों के बेरोजगार हो गये लोगों के खारे आँसू मिले हैं, वातानुकूलित बंगलों और क्लबों में पिये गये शराब के मूत्र मिले हैं और मेरे पाश्व में स्थित पार्वती श्मशान घाट पर बड़ी संख्या में जलनेवाले मुर्दे की राख मिली हैं। मरने की ऐसी रफ्तार पहले कभी नहीं देखी गयी थी, दल्लू। पसीने, आँसू, मूत्र और राख ऐसे मिश्रण हैं जिन्हें कोई भी ट्रीटमेंट प्लांट फिल्टर नहीं कर सकता। इनकी टीसें मेरे पूरे वजूद में रच-बस गयी हैं।
मुझे माफ करना दल्लू, बहुत लंबा सुना गयी मैं तुम्हें...दरअसल तुमसे घनिष्ठ कोई है भी तो नहीं जहां मैं अपने मन की तहें खोल सकूं।
सूत्रधार - दलमा जैसे मंत्रमुग्ध होकर खरकाई को देखे जा रहा था। पहली बार उसे यह आभास हुआ कि खरकाई सचमुच बहुत अतल, अथाह और गहरी है। उसका प्यार और भी गाढ़ा हो गया।
दलमा - आज तुमने मुझे पूरी तरह जीत लिया काई। मैं तो ऊपर से ही देखने का आदी था...तुमने मुझे एक नयी दृष्टि देकर आज बहुत संपन्न बना दिया है। यों लगता है जैसे मेरी ऊंचाई अब जाकर वास्तविक ऊंचाई हुई है।
खरकाई - इतनी छोटी सी बात कहने में तुमने एक सदी लगा दी दल्लू। चलो, अब भी बहुत देर नहीं हुई है। एक अनुरोध और है तुमसे...कल तुम जरा फिर से मेरी तरफ मुखातिब होना...एक और त्रासद पक्ष दिखाऊंगी...इसके बाद कहने के लिए मेरे पास कुछ भी नहीं रह जायेगा।
सूत्रधार 1 - अगले दिन खरकाई ने अपने पाश्व के पार्वती श्मशान घाट पर उसका ध्यान खींचा जहां एक शव की अंत्येष्टि हो रही थी और वहां भारी संख्या में शोक-संतप्त लोग मौजूद थे।
खरकाई - देखो दल्लू, यह कोई मामूली आदमी नहीं था, यह एक बड़ी कंपनी की यूनियन का ईमानदार नेता था जिसे भी छंटनी का शिकार बना लिया गया। उसकी चार कुंवारी बेटियां हैं। उसने आत्महत्या कर ली, यह सोचकर कि जब उसके जैसे जन-प्रतिनिधि के साथ यह सलूक किया जा सकता है तो आम कर्मचारी तो तिनके की तरह फूंककर उड़ा दिये जायेंगे।
सूत्रधार 2 - खरकाई ने देखा कि दलमा के सारे पेड़-पौधे स्तब्ध-अवाक हो गये हैं। प्रेम जताने के लिए हमेशा उतावला रहनेवाले इस पर्वत ने मानो समाधि ले ली हो। खरकाई को लगा कि आज से वह भी बहना छोड दे और हमेशा के लिए रुक जाये। मगर दूर से सुवर्णरेखा उसे आवाज दे रही थी,
सुवर्णरेखा - आओ काई...चलो चलें...हमारा धर्म रुकना नहीं है।
सूत्रधार 1 - दूर सुवर्णरेखा की बालुकाराशि पर कुछ ग्रामीण सोने के महीने टुकड़े ढूंढ़ रहे थे और गा रहे थे...नदी माता तुमीं आमादेर जीबोनेर धार....!
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