Pariksha-Guru - Chapter - 31 in Hindi Short Stories by Lala Shrinivas Das books and stories PDF | परीक्षा-गुरु - प्रकरण-31

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परीक्षा-गुरु - प्रकरण-31

परीक्षा गुरू

प्रकरण - ३१

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चालाक की चूक.

लाला श्रीनिवास दास

सुखदिखाय दुख दीजिये खलसों लरियेकाहि

जो गुर दीयेही मरै क्यौं विष दीजै ताहि ?

बृन्‍द.

"लाला मदनमोहन का लेन देन किस्‍तरह पर है ?" ब्रजकिशोर नें मकान पर पहुँचते ही चुन्‍नीलाल सै पूछा.

"विगत बार हाल तो कागज तैयार होनें पर मालूम होगा परन्‍तु अंदाज यह है कि पचास हजार के लगभग तो मिस्‍टर ब्राइट के देनें होंगे, पन्दरह बीस हजार आगाहसनजान महम्‍मद जान वगैरे खेरीज सौदागरों के देनें होंगे, दस बारह हजार कलकत्ते, मुंबई के सौदागरों के देनें होंगे, पचास हजार मैं निहालचंद, हरकिशोर वगैर बाजार के दुकानदार और दिसावरों के आढ़तिये आ गये" मुन्शी चुन्‍नीलाल नें जवाब दिया.

"और लेनें किस, किस पर हैं ?" ब्रजकिशोर नें पूछा.

"बीस पच्‍चीस हजार तो मिस्‍टर रसल की तरफ़ बाकी होगें, दस बार‍ह हजार आगरे के एक जौहरी मैं जवाहरात की बिक्रीके लेनें हैं, दस पंदरह हजार यहां के बाजारवालों मैं और दिसावरों के आढ़तियों में लेनें होंगे. पांच, सात हजारका खेरीज लोगों मैं और नौकरों मैं बाकी होंगे, आठ दस हजार का व्‍यापार सीगे का माल मौजूद है, पांच हजार रुपे अलीपुर रोड के ठेके बाबत सरकार सै मिलनेंवाले हैं और रहनें का मकान, बाग. सवारी सर सामान वगैरे सब इन्‍सै अलग हैं" मुन्शी चुन्‍नीलालनें जवाब दिया.

"इस तरह अटकल पंच्चू हिसाब बतानें सै कुछ काम नहीं चल्ता. जब तक लेनें देनें का ठीक हाल मालूम नहीं फैस्ला किस तरह किया जाय ? तुम सबेरे लाला जवाहरलाल को मेरे पास भेज देना मैं उस्सै सब हाल पूछ लूंगा. ऐसे अवसर पर असावधानी रखनें सै देना सिर पर बना रहता है और लेना मिट्टी हो जाता है" ब्रजकिशोर नें कहा.

"कागज बहुत दिनों का चढ़ रहा है और बहुत जमा खर्च होनें बाकी है इस लिये कागज सै कुछ नहीं मालूम हो सक्ता" मुन्शी चुन्‍नीलालनें बात उड़ानें की तजबीज की.

"कुछ हर्ज नहीं, मैं लोगों सै जिरहके सवाल करके अपना मतलब निकाल लूंगा. मुझको अदालत मैं हर तरहके मनुष्‍यों सै नित्‍य काम पड़ता है" लाला ब्रजकिशोर कहनें लगे "तुमनें आज सबेरे मुझसै सफाई करनें की बात कही थी परन्‍तु अभी सै उस्‍मैं अन्‍तर आनें लगा. मै वहां पहुँचा उस्‍समय तुम लोग लाला साहब सै गहना लेनें की तजबीज कर रहे थे परन्‍तु मेरे पहुँचते ही वह बात उड़ानें लगे. मुझको कुछ का कुछ समझानें लगे सो मैं ऐसा अन्‍समझ नहीं हूँ. यदि मेरा रहना तुमको असह्य है, मेरे मेल से तुम्‍हारी कमाई मैं जर्क आता है, मेरे मेल करनें का तुमको पछतावा होता है तो मैं तुम्‍हारी मारफत मेल करकै तुम्‍हारा नुक्‍सान हरगिज नहीं किया चाहता, लाला साहब सै मेल नहीं रक्‍खा चाहता. तुम अपना बंदोवस्‍त आप कर लेना."

"आप वृथा खेद करते हैं. मैंनें आप से छिप कर कोन्‍सा काम किया ? आप के मेल सै मेरी अप्रसन्‍नता कैसे मालूम हुई ? आप पहुँचे जब निस्‍सन्‍देह शिंभूदयालनें मिस्‍टर रसल के लिये गहनें की चर्चा छेड़ी थी परन्‍तु वह कुछ पक्‍की बात न थी और आपकी सलाह बिना किसी तरह पूरी नहीं पड़ सक्ती थी. आपसै पहले बात करनें का समय नहीं मिला इसी लिये आपके साम्नें बात करनें मैं इतना संकोच हुआ था परन्‍तु आप को हमारी तरफ़ सै अब तक इतना संदेह बना रहा है तो आप लाला साहबके छोड़नें का बिचार क्‍यों करते हैं आप के लिये हमहीं अपनी आवाजाई बन्‍द कर देंगे" मुन्शी चुन्‍नीलाल नें कहा.

सादी नें सच कहा है "बृद्धा बेश्‍या तपश्विनी न होय तो और क्‍या करे ? उतरा सेनक किसीका क्‍या बिगाड़कर सक्ता है कि साधु न बनें ?" [10] लाला ब्रजकिशोर मुस्‍कराकर कहनें लगे "मैं किसी काम मैं किसी का उपकार नहीं सहा चाहता. यदि कोई मुझपर थोड़ा सा उपकार करे तो मैं उस्से अधिक करनें की इच्‍छा रखता हूँ फ़िर मुझको इस थोथे काम मैं किसी का उपकार उठानें की क्‍या ज़रूरत है ? जो तुम महरबानी करके मेरा पूरा महन्‍ताना मुझको दिवा दोगे तो मैं इसी मैं तुम्‍हारी बड़ी सहायता समझूंगा और प्रसन्‍नता सै तुम्‍हारा कमीशन तुम्‍हारी नजर करूंगा" लाला ब्रजकिशोर इस बातचीत मैं ठेठ सै अपनी सच्‍ची सावधानी के साथ एक दाव खेल रहे थे. उन्‍नें इस युक्ति सै बात-चीत की थी जिस्सै उनका कुछ स्‍वार्थ न मालूम पड़े और चुन्‍नीलाल आप सै आप मदनमोहन को छोड़ जानें के लिये तैयार हो जाय, पास रहनें मैं अपनी हानि, और छोड़ जानें मैं अपना फायदा समझे बल्कि जाते, जाते अपनें फ़ायदे के लालच सै ब्रजकिशोर का महन्‍ताना भी दिवाता जाय.

"आप अपना महन्‍ताना भी लें और लाला मदनमोहन के यहां कुल अख्‍त्‍यार भी लें हमको तो हर भांति आपकी प्रसन्‍नता करनी है हमनें तो आपकी शरण ली है. हमारा तो यही निवेदन है कि इस्‍समय आप हमारी इज्‍जत बचालें" मुन्शी चुन्‍नीलाल नें हार मानकर कहा. वह भीतर सै चाहे जैसा पापी था परन्‍तु प्रगट मैं अपनी इज्‍जत खोनें सै बहुत डरता था. संसार मैं बड़ा भला मानस बना फ़िरता था और इसी भलमनसात के नीचे उसनें अपनें सब पाप छिपा रखे थे.

"इन बातों सै इज्‍जत का क्‍या संबन्‍ध है ! मुझसै हो सकेगा जहां तक मैं तुम्‍हारी इज्‍जत पर धब्‍बा न आनें दूंगा परन्‍तु इस कठिन समय मैं तुम मदनमोहन के छोड़नें का बिचार करते हो इस्मैं मुझको तुम्हारी भूल मालूम होती है. ऐसा न होकि पीछै सै तुम्‍हें पछताना पड़े. चारों तरफ़ दृष्टि रखकर बुद्धिमान मनुष्‍य काम किया करते हैं" लाला ब्रजकिशोर नें युक्तिसै कहा.

"तो क्‍या इस्‍समय आपकी राय मैं लाला मदनमोहन के पास सै हमारा अलग होना अनुचित है ?" मुन्शी चुन्‍नीलाल नें ब्रजकिशोर पर बोझ डालकर पूछा.

"मैं साफ कुछ नहीं कह सकता क्‍योंकि और की निस्बत वह अपना हानि लाभ आप अधिक समझ सकते हैं" लाला ब्रजकिशोर नें भरम मैं कहा.

"तो खैर मेरी तुच्‍छ बुद्धि मैं इस्‍समय हमारी निस्‍बत आप लाला मदनमोहन की अधिक सहायता कर सकते हैं और इसी मैं हमारी भी भलाई है" मुन्शी चुन्‍नीलाल बोले.

"तुमनें इन दिनों मैं नवल और जुगल (ब्रजकिशोर के छोटे भाई) की भी परीक्षा ली या नहीं ! तुम गए तब वह बहुत छोटे थे परन्‍तु अब कुछ होशियार होते चले हैं" लाला ब्रजकिशोर नें पहली बात बदलकर घरबिधकी चर्चा छेड़ी;

"मैनें आज उन्‍को नहीं देखा परन्‍तु मुझको उनकी तरफ़ सै भली भांत विश्‍वास है. भला आपकी शिक्षा पाए पीछै किसी तरह की कसर रह सकती है ?" मुन्शी चुन्‍नीलालनें कहा.

"भाई ! तुम तो फ़िर खुशामद की बातें करनें लगे. यह रहनें दो. घर मैं खुशामद की क्‍या ज़रूरत है ?" लाला ब्रजकिशोर नें नरम ओलंभा दिया और चुन्‍नीलाल उनसै रुख़सत होकर अपनें घर गया.