Ab Kaha Jaoge in Hindi Short Stories by MB (Official) books and stories PDF | अब कहा जाओगे

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अब कहा जाओगे



अब कहाँ जाओगे

ए असफल


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अब कहाँ जाओगे

इस बार सब्जी मंडी में बम फटा था।

काशी की रूह काँप गई। कोई दस मिनट पहले वह ऐन उसी ट्रक से पीठ टिकाए खडा बोली बोल रहा था। तब उसने कल्पना भी न की थी कि इसी तिरपाल से ढँके मिनी ट्रक में बम रखा है!

मौत की वह छुअन याद आते ही वह बारदृबार काँप जाता है। उसकी आँखों से वह दृश्य हटाए नहीं हटता। वह कितनी चौकस आँखों से दूसरे कुंजों (सब्जीफरोश) को ताकता हुआ बोली बोल रहा था। बोली टमाटर की पेटियों की लग रही थी। उसके कानों में अब तक गूँज रही थी वह गिनती, साऽठ! साऽठ एक! साठदोऽऽ साऽऽठतीन! और वह जैसे ही एक हाथ में रुपये निकाल दूसरे से पेटी सरकाने लगा तो अकस्मात एक धचका सा लगा और वो चूतेडों के बल पीछे को गिर पा। उसके सामने एक खूसट सा चेहरा अपने दैंयत से दाँत दिखाता फिफिया रहा था, अबे एएए ओइऽऽ! ठहर जा...मामा केऽऽ!

उसने सकपका कर आजूदृबाजू देखा दूसरे कुँजडे दाँत निकाल कर उसकी नादानी पर हँस रहे थे। अर्थात ये है कैपीटल! यहाँ कुँजडों की भी गैंग है। बोली कोई भी लगाए, उन्हें जँच गया कि बोली कम पर टूट गई है तो मुकर जाएँगे...माल को हाथ नहीं लगा सकते आप! खिसिया कर वह पीछे हट गया और दूसरी गली में निकल आया।

तभी अचानक भडाम...भडाम की कनफोडू आवाज़ें हुई। अफरा तफरी मच गई। और पता चला पल्ली गली में बम फट गया है। भयभीत काशी ने काँपते पाँवों से जाकर दूर से ही देखा ट्रक के चिथडे उड गए थे। आसपास तमाम कुँजडे घायल अवस्था में पडे छटपटा रहे थे। फुटपाथ और ताज़ा सब्िज़यों पर खून की होली खिल चुकी थी। सब मुँह बाए इधर उधर भाग रहे थे। मंडी में जगह जगह तिरपाल से ढँके मिनी ट्रक खडे हैं! सब में मौत भरी है...इसी जबरदस्त आशंका में भारी भगदड मची थी।

काशी खाली ठेला लेकर कमरे पर चला आया। आज का धंधा चौपट होने का गम नहीं था। बाल बाल बच जाने की खुशी भी न थी। आगे फिर कभी ऐसे ही हादसे में फँस जाने की फिक्र थी।...

मुन्नी का चेहरा उसकी आँखों में छा कर रह गया।

आज फुरसत में उसे याद कर सकता है वो! रोज दोपहर और रात को लौटने पर तो इस आठ बाई दस के कमरे में छह साथी और होते हैं। उनकी गिटर पिटर और मारा मारी में तो कुछ सोच भी नहीं सकता वो।

बम क्या फटा था, उसका पेट खौल गया था। नीचे से ऊपर तक समूचा हिल गया था काशी। हाथ पैरों में अभी तक हल्की सी कंपकंपाहट मौजूद है।

कुँजडों के बाल बच्चे बिलख रहे होंगे! काशी का ध्यान मुन्नी के बजाय सहसा हादसे के शिकार कुँजडों पर चला गया।

गरीब...पेट के लिए मुँह अँधेरे से कैसे छल फरेब करते, एक पाँव पर चकरी बने घूमते फिरते हैं!...तब जाकर रोटी कपडा का जुगाड हो पाता है।

बीवी बच्चे तक संग लगे रहते हैं, जैसे पेट भरना ही झंडा फहराना हो... एक महान संग्राम! इसी के लिए जन्मते हों गरीब गुरबा। और उस पर भी अब ये प्रलय! रोज रोज बमों का फटना। कभी बंद! कभी कर्फयू!

वह दरी बिछाकर लेट गया।

कमरे में छह साथी और हैं। कुल मिलाकर सात पार्टनर हैं। हैं तो अपने आसदृपास के ही सब, पर ज्यादातर मटरगश्ती करने वाले हैं। कोई भाँग का अंटा लगा लेते हैं। कोई कोई चिलम खींच लेते हैं। और अगर किसी रोज कोई अद्धीपौवा ले आता है, तो फिर समाँ बँधते ही और भी अद्धे आने लगते हैं।...कोठा हरदम भभकता रहता है।

शुरू शुरू में तो काशी ने भी सोचा कि शामिल हो जाए! जैसा देश, वैसा भेष...जैसा संग, वैसा ढग! पर एक बार भाँग का गोला लगाया तो आँखें चित्तपट्ट हो गईं। मारे उल्टी और घबराहट के उसका हुलिया बिगड गया। चक्कर पे चक्कर...अगले दिन काम पर भी न जा पाया।

फिर बहुत दिनों बाद बडा जोर पडने पर कि जब बिस्सू ने मुँह में गिलास अडाकर और गर्दन पकड कर उडेल ही दी शराब, तो एक बार वह भी चख ली काशी ने। पर कितनी कडवी और तीखी थी। उसके सीने के भीतर एक लकीरदृसी हो गई। जैसे, किसी ने मिर्च भरे हँसिये से कलेजा चीर कर धर दिया हो! इसलिए, आगे से उसने दारू के लिए भी तौबा कर ली। और चिलम तो वो कभी सपने में भी नहीं पी सकेगा। उसके तो धुएँ से ही गन्नेटे आते हैं काशी को।

वो तो लुगाई है... उसके पार्टनर बोलते हैं।

सभी युवा हैं। दो तो ड्राइवर हैं। कभी आते हैं और कभी नहीं आते दस दस रोज...।

एक नानखटाई का ठेला भरता है, एक चाट का।

और बिस्सू पटरी लगाता है।

बिस्सू खूब मे में है। बिस्सू खूब कमाता है। हालाँकि कोई रोक नहीं है, पटरी पर कोई भी माल लगा सकता है...पर बिस्सू जितनी मेहनत उठाना और चालफरेबी करना सब के बस में नहीं है। माल के अठगुने दसगुने दाम बताकर कभी कभी मुनाफा छोडकर और यहाँ तक कि घाटा उठाकर भी बेच देना उसके बायें हाथ का खेल है। वो जानता है कि ग्राहक कितना ही सयाना बन ले उसे चूना तो लगेगा ही कहीं न कहीं, कभी न कभी! और कुछ नहीं तो चूतिया तो बना फिरेगा पटरी पे इधर से उधर...।

उस जैसे ही तेज तर्रार पटरी वालों के दम पर ही पटरी बाजारों में घमासान है, धकमपेल भीड है। जिसे एक की जरूरत है वो दस का और जिसे नहीं भी जरूरत है, वो भी खरीदार बना डोल रहा है।

काशी इन लोगों के साथ कभीदृकभार रात को या बंद और कफ्‌यू की सन्नाटा खिंची दुपहरियों में ताश जरूर खेल लेता है।

उसने करवट बदली।

कमरे में ठिठुरन भरी थी। सर्दियों में जब पानी की ऊपरी परत पर बरफदृसी तैर उठती है यहाँ, तो कमरे की दीवारें भी गर्क (शीतल) हो जाती हैं। एकदम सील जाती हैं। ऊपर से नीचे तक। हाथ फेरो तो पानी सा छलछला उठता है। वह और भी गुडीमुडी हो गया।

आज मंडी में बम फटा है, इसलिए वो पडा है यहाँ! पटरी पर फटा होता तो बिस्सू पडा होता। और चौक पर फटा होता तो नानखटाई और चाट वाले रूम पार्टनर पडे होते।

जाका मरे सो रोए, बंदा पाँव पसारे सोए!

ये ही तो दुनिया का चलन है... काशी ने फिर एक लंबी साँस ली।

जब पहली बार आया था इस महानगर में तो इसकी विचित्रताओं और विस्तार ने उसकी आँखें चौडी कर रख दी थीं।

एक एक्सप्रेस ट्रेन की जनरल बोगी के माफत यहाँ प्रवेश पाया था काशी ने। उन गगनचुंबी इमारतों, सरोवरों, सरपट भागती सडकों और फैक्टरियों की ऊँची चिमनियों को देखदृदेख कर वह इतना बौना हुआ जा रहा था, बल्कि गायब! कि उसका बाप भी उसे नहीं ढूँढ पाता। गाडी कभी सुरंग में घँस जाती और कभी पुल पर चली जाती। पर हर बार अपनी धडधडाहट में किसी चौडी सडक को क्रॉस करती थी। और उन चौडीदृचौडी, क्षितिज तक लंबवत फैली चिकनी सडकों पर वाहनों की चींटी चाल उसे हैरत से भर देती।...कि इस शहर में क्या सारी दुनिया ही आ बसी है! कितनेदृकितने मंदिर, मस्जिद, गुरुद्वारों और चचोर्ं के गुंबद, कलश और झंडे नीले आकाश में लहरा रहे थे! कितने हरेदृभरे ग्राउंड निकले। चिडियाघर, अप्पूघर और सर्कस के तंबू...कि वो हतप्रभ रह गया। स्टेशन से पहले एक नदी और नहर भी तो निकली थी! और तीन राजाओं के किले। कमाल है! आदमी के अलावा इस धरती पर और कोई है भी कि नहीं?

...और अब इस कमरे में लेट कर तो उसे शहर का वह विस्तार हफतों महसूस भी नहीं होता! वह बारदृबार अपनी मुनिया का चेहरा याद करने की कोशिश करता है...तो उसे छोटादृसा गाँव, वह छोटा सा घासफूस का घर, जर्जर माँ बाप, भोली भाली पक्के रंग की घरवाली और मासूम मुन्नी के सिवा और कुछ नहीं दीखता।

कभी कभी तो उसे मंडी की चिल्लपों में भी मुन्नी का रोना सुनाई पडने लग जाता है। हर ऊबड खाबड चेहरे में वही एक नन्हा चेहरा नमूदार हो उठता है। और कइयों बार कॉलोनियों की बहुमंजिला इमारतों की और मुँह फाड कर सब्जी लेने का हाँका लगाते लगाते अपनी औरत का भोला चेहरा दिख उठता है।

यों ठेला धकियाते दोपहर में तपती सडक पर जब भी पाँव झुलसने लगते हैं उसे डगमगाते कदमों वाला बाप रह रह कर याद आता है, कि जिसने जीवन संग्राम लगभग जीत लिया है अब...।

...और कभी कभी मूसलाधार बारिश में खुली सडक पर बेपनाह भीगते हुए लपलपाती बिजली में माँ का झुर्रियों भरा चेहरा झाँक उठता है, जो अब लगभग बुझने बुझने को है! बारिश हर साल कम होती जा रही है।

सूरज देवता ऐसे तिलमिला उठे हैं कि बचे खुचे पानी के भी प्राण सूखने लगे हैं। पानी की किल्लत ने ही सोने से गाँव का मटियामेट कर दिया है। पहले तो नहर बंबे सूखे, कुएँ नीचे घँसे, खेती उजडी...फिर पीने लायक पानी भी न के बराबर रह गया, धंधे रोजगार उजड गए, तो जब जवान जवान लोगों के जत्थे के जत्थे ही भाग उठे शहरों की तरफ...तो काशी भी वहाँ क्या माटी खोद कर खाता? भले वो अकेला था, बूढ़ाबूढ़ी की लठिया था और मुन्नी...

उसने फिर उसाँस भरी।

दीवाल पर कुछ छायाएँ बनीं। उसने द्वार की ओर देखा बिस्सू और नानखटाई और चाट वाला लौट आए थे।

क्या...चौक में और पटरी पे भी बम फट गया? अकस्मात उसके मुँह से निकला।

मारकाट मच गई है। सबने एक साथ कहा।

पुलिस? काशी का मुँह फटा।

उसने भी बहुत लोग मार डाले। कोई बोला। मानो सब बोले।

अब धंधे का क्या होगा! उसने खुद से कहा।

तुझे धंधे की पडी है... उधर सैंकडों बिल्डिंगें धू धू करके जल रही हैं... आदमी, औरतें, बच्चा सब जलते पुतलों की नाईं टपक रहे हैं! आदमी का काल आ गया है...।

किसने कहा? पता नहीं! मानो सबने कहा।...

काशी सोच में डूब गया।

अब यहाँ से भी उखड के कहाँ जाएगा धंधे के लिए! पापी पेट को कैसे पालेगा? और जो चार जीव और पीछे लगे हैं! मुन्नी का भविष्य बडे अंधकार में है... उसे घबराहट होने लगी।

शायद! उसके पार्टनर भी ऐसा ही कुछ सोच रहे होंगे। उसने इधर उधर नजर घुमाई आज कोई भी चिलम नहीं खींच रहा... ताश की गड्डी नहीं दिख रही कहीं!

फिर तमाम निःश्वासों के बाद काशी ने किसी से पूछा, लडाई किस बात की है?

क्या...पता! कोई रूखा सा बोला।

कौन कराता है?

कोई नहीं बोला। फिर थोडी देर बाद कोई बोला, भरे पेट के...

और सरकार...रोकती नहीं? काशी ने अभी कहा ही था कि एक साथी बमक कर चढ बैठा उस पर, चुप रहे बे एएए! फालतू का खोंच कर रिया है... कोई सरकार बरकार है भी! सारी दुनिया पे तो तस्करों, उग्रवादियों और दलालों का राज है!

फिर कोई कुछ नहीं बोला। गहरी निस्तब्धता छा गई जो कभी शायद ही टूटे।