बाल कहानी
जीवन संग्राम का विजेता
शिव अपने पिता का सहारा बना हुआ था। स्कूल से आकर गृहकार्य पूरा करके वह पिता के साथ काम में लगा रहता। खेतों की निराई, गुड़ाई, कटाई, पशुओं की देख-रेख आदि सभी कामों में वह सहायता करता। वह अभी बालक ही था। पिता उससे खेलने के लिए कहते तो उसका उत्तर होता-पहले आपके साथ काम कर लूँ, तब चला जाऊंगा।" पिता की सहायता करना अपना उत्तरदायित्व समझता था शिव। कम आयु में ही उसमें इतनी समझ न जाने कहाँ से आ गयी थी?
एक दिन उसके पिता खाद-बीज आदि खरीदने शहर गये हुए था। शाम का समय था। शिव ट्यूबवेल के द्वारा खेत में पानी डालने की व्यवस्था में जुटा था। जब पूरे खेत में पानी लग चुका तो वह ट्यूबवेल का स्विच बन्द करने चला गया। मगर जल्दी में उसने भीगे हाथ से जैसे ही स्विच का बटन दबाया, उसकी चीख निकल गयी। शिव का हाथ उस तार से लग गया जिसमें करेंट प्रवाहित हो रहा था। शिव वहीं बेहोश हो गिर गया। शिव की चीख सुनकर पड़ोसी किसान दौड़ा हुआ वहां चला आया। उसने रबर की चप्पल पहनकर डण्डे से तुरन्त शिव को बिजली से अलग किया। थोड़ी ही देर में शिव के पिताजी आैर कुछ दूसरे व्यक्ति भी वहाँ आ पहँुंचे। वे तुरन्त गाँव के प्रधान की गाड़ी माँगकर लाये आैर उसमें शिव को डालकर तुरन्त ही शहर के अस्पताल को ले गये। अस्पताल में उपचार के कुछ समय बाद शिव को होश तो आ गया, परन्तु उसकी वह बाँह बेकार हो गयी जिसमें करेंट लगा था। डाक्टरों ने चार-पांच दिन तो उस बाँह का इलाज किया, परन्तु फिर कोई भी फायदा नहीं हुआ। उल्टे उस बाँह में गलन उत्पन्न हो गयी। डॉक्टरों ने कहा कि यदि उस बाँह को काटा न गया तो पूरे शरीर में सैप्टिक फैल जाएगी। कोई आैर रास्ता न होने के कारण अन्तत: शिव के लाचार पिता को बेटे की बाँह काटने की अनुमति देनी ही पड़ी। कुछ दिन अस्पताल में रहने के बाद शिव कटी बाँह लेकर अपने गाँव लौट आया। लेकिन अब वह पुराना शिव न रहा। वह हताश, उदास रहकर सदैव अपनी उस कटी बाँह को देखता रहता। उसका खान-पीना, हँसना-बोलना सब छूट गया। शिव को सदैव यही लगता कि उसके शरीर की पूरी की पूरी शक्ति कहीं चली गयी है। शिव के पिता को उसकी स्थिति देखकर बहुत दुख होता। लेकिन आखिर ऐसा कब तक चलता। एक दिन शिव के पिता ने उसको बड़े प्यार से पास बुलाया आैर समझाते हुए बोले तुम तो मेरे इतने समझदार बेटे हो, इस तरह निराश होना तुम्हें शोभा नहीं देता। यह तो सोचो कि भगवान की कितनी कृपा है कि तुम्हारी जान बच गयी। किन्तु शिव झुँझलाते हुए बोल पड़ा-ऐसी जिंदगी से तो मर जाना ही अच्छा होता आैर यह कहते हुए उसकी आँखों से आँसुओं की धारा बह निकली। वह सिसकते हुए बोला-अब मैं आपके साथ खेत में भी काम न कर पाऊँगा । इस पर पिता ने उसका सिर थपथपाते हुए कहा-बेटा! खेत का काम करने के लिए मैं अकेला ही बहुत हूँ। तुम अपना पूरा मन पढ़ाई में लगाओ। खूब पढ़ो-लिखो, बस यही मेरी इच्छा है। शिव बहुत होनहार आैर मेहनती बच्चा था। परन्तु इस हादसे के कारण वह पिछले चार महीने से स्कूल नहीं जा पाया था। पिता के समझाने पर उसके स्कूल जाना शु डिग्री किया लेकिन स्कूल के उद्दण्ड आैर शरारती लड़के शिव को "लूला" कहकर चिढ़ाने लगे। ये वे बच्चे थे, जिन्हें वह कभी पढ़ाई में तो कभी खेल में हरा चुका था। शिव अभी भी पहले की भाँति खेल के मैदान में जाता, परन्तु वह एक कोने में उदास खड़ा रहता था क्योकि अब पहले की भाँति वह खेल में भाग नहीं ले सकता था। बात यहीं तक सीमित न थी। वे उद्दण्ड लड़के उसे अपंग आैर असहाय कहकर जब तब उसकी पिटाई भी कर दिया करते। ऐसे ही एक दिन शिव उन बच्चों से पिटकर खेल के मैदान में-एक पेड़ के नीचे बैठा फूट-फूट कर रो रहा था। वह सोच रहा था कि कल से स्कूल नहीं आयेगा क्योंकि इतना अपमान अब उससे सहा नहीं जाता था। इसी बीच वहाँ से निकल रहे स्कूल के मास्टर साहब की दृष्टि उस पर पड़ी। वे मास्टर जी ने उसे बड़ी सहानुभूति रखते थे। शिव को रुँआसा देख उन्हांेने कहा अरे ! शिव क्या हुआ तुम्हें? यहाँ बैठे रो क्यों रहे हो ? शिव ने रोते-रोते उन्हें सारी बात बतायी। इस पर मास्टर जी ने उसे समझाया -देखो बेटे! ऐसे डर कर अगर तुम पढ़ाई छोड़ भी दोगे, तो क्या तुम इन चिढ़ाने वाले मूर्खों से बच पाओगे? ऐसे लोग तो तुम्हें जीवन के हर मोड़ मिलेंगे। ऐसे व्यक्तियों की बकवास सुनकर क्या तुम अपने जीवन का रास्ता बदल लोगे? क्या तुम्हारा उन्हें यह सही उत्तर होगा? नहीं...कदापि नहीं।
मास्टर जी की बात सुनकर शिव को बहुत बल मिला। उसने अपने आँसू पोंछ लिये। वह बड़े ध्यान से की अपने मास्टर जी की बात सुनने लगा। वे कह रहे थे- शिव अपने आँसू पोंछ डालो आैर अपने अन्दर छिपी शक्ति को पहचानो। शक्ति तुम्हारे हाथ में नहीं वरन तुम्हरे मन में छिपी है। दृढ़ संकल्प बल से बढ़ो, तुम्हें जरूर सफलता मिलेगी। मास्टर जी कह रहे थे। शिव! तुम पढ़ाई के साथ फुटबॉल, बैडमिन्टन, टेबिल टेनिस जैसे खेल आसानी से खेल सकते हो। मास्टर साहब की बातों का शिव के मन पर गहरा असर पड़ा। वह बार-बार मन में दुहराने लगा शक्ति हाथ में नहीं वरन मन में है। दूसरे दिन जब वह स्कूल गया तो उसका व्यवहार बदला हुआ था। वह दब्बू आैर झेंपू बनकर नहीं बैठा अपितु खेल के मैदान में भी सिर तानकर खड़ा रहा आैर बोला-अब मैं भी खेला करूँगा।" एक हाथ से ! लड़के बोले। हा,ँ एक हाथ से भी तुम्हें हरा भी दूँगा।" शिव ने उत्तर दिया।
अब शिव पूरी तरह से नये सिरे से जीवन का सामना करने को तैयार था। वह पूरे मनोयोग से पढ़ाई आैर खेल में जुट गया था। उसके मन की झिझक आैर संकोच कहीं दूर जा चुके थे। उसके मन में एक ही लगन थी- दो हाथ वाले लड़कों से आगे निकलने की। सच्ची लगन जरूर सफल होती है। जल्दी ही वह इतना अच्छा खेलने लगा कि फुटबॉल टीम का कप्तान बना दिया गया। साथ ही बैडमिन्टन व टेबिल टेनिस में भी वह धूम मचाने लगा। उसके गाँव की टीम जब प्रतियोगिता में शहर गयी, तो वहाँ भी शिव ने अपनी टीम को जिता दिया। जल्दी ही वह क्रीड़ा अधिकारियों की नजर में चढ़ गया। उन्होंने उसकी छिपी प्रतिभा को पहचाना आैर प्रोत्साहित किया। प्रादेशिक आैर राष्ट्रीय स्तर पर भी उसने खेलों में भाग लिया आैर पुरस्कार पाये। पढ़ाई में तो वह होशियार था ही। एमए. तक प्रथम श्रेणी में उत्तीर्ण होता गया आैर उसकी योग्यता आैर पदकों के आधार पर एक बड़े कॉलेज में शारीरिक प्रशिक्षक के पद पर उसकी नियुक्ति हो गयी।
सच है शरीर का कोई भी अंग-भंग होने से जीवन की उतनी बड़ी क्षति कभी नहीं होती, जितनी कि मनोबल के भंग होने से होती है। मनोबल की दृढता ही जीवन की सफलता का सच्चा केन्द्र बिन्दु होता है। जिसने इस रहस्य को जान लिया, वहीं जीवन संग्राम का विजेता होता है।
पूनम नेगी
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