Vivah ek Parampara in Hindi Love Stories by Bharat Malhotra books and stories PDF | विवाह एक परंपरा

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विवाह एक परंपरा

Bharat Malhotra

bigb17871@gmail.com

विवाह एक परंपरा

मनुष्य अपने जन्म से मृत्यु तक संबंधों के जाल में उलझा हुआ है। हम जिसे समाज कहते हैं वो और कुछ नहीं संबंधों का ही ताना-बाना है। कुछ संबंध हमारे जन्म से ही हमारे साथ अनिवार्य रूप से जुड़ जाते हैं जिन्हें हम जैविक संबंध कहते हैं जबकि कुछ संबंधों का चुनाव हम स्वेच्छा से करते हैं जिन्हें सामाजिक संबंध कहा जाता है। ये सामाजिक संबंध हमारे जीवन को सरल एवं सुसंस्कृत बनाने में प्रमुख भूमिका निभाते हैं। मित्रता एवं विवाह ऐसे ही प्रमुख सामाजिक संबंध हैं जिनके बिना हम जीवन की कल्पना भी नहीं कर सकते।

आदिम काल में मनुष्य समाज में विवाह की परंपरा नहीं थी। स्त्री-पुरुष अपनी इच्छानुसार कामाचार कर सकते थे। कोई बंधन नहीं, कोई मर्यादा नहीं बस दो व्यक्तियों की परस्पर सहमति पर्याप्त थी परंतु वैदिक काल के आते-आते विवाह नामक संस्था ने समाज में अपनी जड़ें जमा ली थीं। हमारे उपनिषदों के वर्णनानुसार प्राचीन भारतीय संस्कृति में वैवाहिक संस्था को स्थापित करने का श्रेय श्वेतकेतु को जाता है। श्वेतकेतु महर्षि उद्दालक के पुत्र थे। किवदंती के अनुसार एक बार जब श्वेतकेतु अपने माता-पिता के साथ बैठे थे तो वहां किसी अन्य पुरूष का आगमन हुआ एवं उनकी माता उस पुरूष के साथ एकांत में प्रेमालाप के लिए चली गईं। श्वेतकेतु के पूछने पर महर्षि उद्दालक ने बताया कि परंपरानुसार स्त्री या पुरुष अपनी इच्छा से किसी भी अन्य विजातीय पात्र से शारीरिक संबंध बना सकते हैं। ये बात श्वेतकेतु को अच्छी नहीं लगी। उन्होंने विवाह के नियम बनाए एवं उन्हें समाज में प्रचारित किया। धीरे-धीरे ये नियम समाज में सर्वस्वीकृत होते चले गए। इन नियमों के अनुसार किसी भी स्त्री एवं पुरुष के संबंधों को सामजिक स्वीकृति आवश्यक हो गई। स्त्री पुरुष का संबंध अब निजी बाबत से एक सामजिक सरोकार हो गया। जिसमें दोनों के परिवारों के उपरांत समाज की भी इच्छा का ध्यान रखा जाने लगा।

प्राचीन काल में विवाह मूलतः स्त्री एवं पुरुष की पसंद से एवं सहमति से किया जाता था। स्वयंवर प्रथा इसका सबसे बड़ा उदाहरण है। स्वयंवर का शाब्दिक अर्थ है अपना वर स्वयं चुनना। इसमें युवती विवाह इच्छुक युवकों में से अपनी पसंद के योग्य पात्र का चयन करती थी। कालांतर में इसमें कुछ निश्चित परीक्षाएँ भी रखी जाने लगीं। उस मापदंड पर खरे उतरे व्यक्ति से ही क विवाह करती थी। परंतु कुछ समय पश्चात स्वयंवर का स्थान नियोजित विवाह ने ले लिया अर्थात् विवाह वर-वधू के माता-पिता या घर के अन्य बड़े सदस्यों द्वारा तय किया जाने लगा जिसमें युवक एवं युवती की सहमति अनिवार्य नहीं थी। विवाह कुल, जाति, आर्थिक पक्ष आदि अनेक कारकों पर आधारित हो गया। विवाह दो व्यक्तियों से अधिक दो परिवारों का गठबंधन हो गया जिसने हमारी सामाजिक व्यवस्था को मजबूत करने में अभूतपूर्व योगदान दिया। परंतु वहीं दूसरी ओर जिस व्यक्ति के साथ पूरा जीवन बिताना है उसे चुनने का अधिकार हमसे छीन लिया गया जिससे कभी-कभी जीवन में द्वंद्व की स्थिति उत्पन्न हो जाती थी।

वास्तव में नियोजित विवाहों में स्त्री की इच्छा को कोई महत्व नहीं दिया जाता था। चूँकि स्त्री आर्थिक रूप से स्वावलंबी नहीं थी इसलिए अपने परिवार की इच्छा के अनुरूप चलना उसकी मजबूरी थी। पति का अर्थ ही है पालन करने वाला एवं भार्या का अर्थ है भरण-पोषण किए जाने योग्य स्त्री। दोनों के उत्तरदायित्व भिन्न-भिन्न थे। स्त्री घर चलाने, बच्चों का पालन-पोषण करने की उत्तरदायी थी तो पुरूष आर्थिक एवं बाहर की अन्य बातों का। परंतु जैसे-जैसे स्त्रियों में शिक्षा का प्रचार-प्रसार हुआ वैसे-वैसे स्थिति में परिवर्तन आने लगा। आज नारी जब आर्थिक रूप से स्वावलंबी होने लगी है तो वो पति की पसंदगी का हक भी चाहने लगी है। इसीलिए आधुनिक युग में प्रेम विवाह का प्रचलन बहुत तेजी से बढ़ा है। नियोजित विवाह के विपरीत प्रेम विवाह में केवल एक ही बात मायने रखती है और वो है लड़का व लड़की द्वारा एक दूसरे को पसंद किया जाना। उनके लिए अन्य कोई बात मायने नहीं रखती, ना ही अभिभावकों की स्वीकृति, ना ही जाति भेद, ना आर्थिक भेद।

विवाह चाहे नियोजित हो या प्रेम दोनों के अपने-अपने लाभ भी हैं और अपनी-अपनी हानियां भी। प्रेम विवाह में प्रायः शैक्षणिक पृष्ठभूमि या कार्य की प्रकृति समान होती है इससे दोनों पात्र एक-दूसरे से वैचारिक स्तर पर अधिक समीप होते हैं। एक-दूसरे की प्रतिबद्धताओं को बेहतर ढंग से समझ सकते हैं वहीं नियोजित विवाह में बहुधा शिक्षण का स्तर समान होने पर उतना बल नहीं दिया जाता। विचारों में अंतर होने से आपस में मतभेद बढ़ते हैं एवं घर्षण की स्थिति पैदा होती है। नियोजित विवाह में पारिवारिक पृष्ठभूमि समान होने के कारण नवविवाहित अपने ससुराल पक्ष में शीघ्रता से घुलमिल जाते हैं वहीं प्रेम विवाह में एक-दूसरे की पारिवारिक प्रथाओं से अनभिज्ञ होने की वजह से संबंधित पक्ष के व्यक्तियों से तारतम्य बैठाने में बहुत कठिनाई होती है। नियोजित विवाह में दोनों परिवारों की सहमति होने की वजह से दाम्पत्य जीवन में यदि कोई मुश्किल आ जाती है तो सब लोग मिलकर उसका निवारण करने का प्रयास करते हैं जबकि प्रेम विवाह में ये दंपति को प्रायः उनके हाल पर यह कहकर छोड़ दिया जाता है कि तुम्हारी पसंद थी तुम्हीं भुगतो। नियोजित विवाह के नियमों में दो महत्वपूर्ण नियम थे "असगोत्रता" एवं "असपिंडता" अर्थात् एक ही गोत्र या एक ही पिंड से उत्पन्न (जिनमें रक्त का संबंध हो) व्यक्तियों में विवाह वर्जित था। वैज्ञानिक दृष्टिकोण से भी ये बात सिद्ध हो चुकी है कि इस प्रकार के विवाहों से उत्पन्न संतति को कई तरह के अनुवांशिक रोग होने की प्रबल संभावना होती है। स्वाभाविक रूप से प्रेम विवाह में इन सब वर्जनाओं का ध्यान रखना संभव नहीं हो पाता जिससे संतान को कठिनाइयों का सामना करना पड़ता है।

विवाह किसी भी प्रकार का हो दोनों को निभाने के लिए जिस भाव की सबसे अधिक आवश्यकता है वो है धैर्य। दुर्भाग्य से आज की पीढ़ी में धैर्य की अत्यधिक कमी हो गई है। जिसका प्रमाण हमें तलाक की बढ़ती हुई संख्या से मिलता है। 1955 के हिंदू विवाह कानून से पूर्व विवाह को जीवन भर का बंधन माना जाता था जिसमें तलाक का कोई प्रावधान ही नहीं था। परंतु आज की स्थिति अलग है। आज तो नगण्य सी बात का परिणाम भी संबंध विच्छेद के रूप में सामने आता है। प्रेम के उपरांत विवाह से भी महत्वपूर्ण है विवाह के उपरांत प्रेम। यदि विवाहोपरांत संबंधों में प्रेम की उष्मा नहीं रहती तो कोई अंतर नहीं पड़ता कि प्रेम विवाह था या नियोजित विवाह। वैसे तो प्राचीन यूनानी सभ्यता के महान विचारक अरस्तू के समय से कुछ विद्वानों की ये अवधारणा रही है कि ये विवाह नामक संस्था का अस्तित्व ही समाप्त हो जाएगा। परंतु अनेक संकटों के बाद भी इसका वजूद अभी तक कायम है। युवावस्था में प्रायः सब लोग होश से ज्यादा जोश से काम लेते हैं एवं भावनाओं के क्षणिक ज्वार को प्रेम समझने की भूल कर बैठते हैं। जब वो ज्वार उतरता है तब अपनी भूल समझ में आती है परंतु तब तक काफी देर हो चुकी होती है। विवाह में यदि युवाओं की पसंद के साथ अभिभावकों की दूरदर्शिता भी संलग्न हो तो योग्य पात्र मिलने के अवसर बढ़ जाते हैं। वहीं अभिभावकों को भी ये ध्यान रखना चाहिए कि पहले की भाँति वो नयी पीढ़ी पर अपने विचार नहीं थोप सकते। नियोजित विवाह भी बुरा नहीं है यदि उसमें लड़का एवं लड़की की पसंद-नापसंद, सहमति-असहमति का ध्यान रखा जाए एवं प्रेम विवाह भी बुरा नहीं अगर उसमें माता-पिता एवं अन्य अभिभावकों के अनुभव का भी लाभ लिया जाए एवं उनकी इच्छा का भी सम्मान किया जाए।

आभार सहित :- भरत मल्होत्रा।