yatra in Hindi Short Stories by Kavita Verma books and stories PDF | यात्रा

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यात्रा

यात्रा

बस शहर की व्यस्त सडकों को पार कर तेज़ी से बढ़ी चली जा रही है। ज्यों ज्यों मंज़िल करीब आ रही है उसका दिल उदासी में डूबता जा रहा है वह इतना खामोश इतना खोया हुआ है कि अपने आसपास की उसे कोई खबर नहीं है। उसे तो यह भी होश नहीं है कि इस समय उसे बस के दरवाजे पर खड़े हो कर बस के लिए रास्ता बनाना है। उसके दिल में भावनाओं का अजीब सा ज्वार उमड़ रहा है ,लेकिन ये भावनाएँ किस तरह की हैं वह यह नहीं समझ पा रहा है।

ऐसा तो पहले कभी नहीं हुआ ,कितने ही लोग इस बस से सफर करते हैं चार दिन की इस यात्रा में साथ रहते हुए भी सिर्फ यात्री रहते हैं और चले जाते हैं। लेकिन इस तरह का जुड़ाव कभी किसी से महसूस नहीं किया उसने। नहीं इसे जुड़ाव कहना भी शायद गलत होगा। इसमें न कोई आवेग है न कस्मे वादे ना रूठना मनाना न चुहल चटपटी बातें बस एक डोर है जो कहीं जुड़ गयी है शायद संवेदनाओं की डोर।

आँखों में भर आया पानी, रोकने की कोशिश करने पर नाक से बहने लगा। उसने जेब से रुमाल निकाला और उसमे समेट लिया। इस कोशिश में उसने मुँह फेर लिया। वह अपनी गीली आँखें दिखाने से बचना चाहता है।

जब सफर शुरू हुआ था तब उसे कहाँ पता था कि यह एक अनजान डगर की यात्रा है वह तो पहले भी सैकड़ों बार इस चार दिन तीन रातों की यात्रा पर जा चुका था। हर बार अपने में मस्त बेखबर और लापरवाह। वह अपना काम जानता था और काम से काम रखता था।

चार दिन पहले जब इस यात्रा की शुरुआत हुई थी सब कुछ वैसा ही था जैसा अब तक हो चुकी सैकड़ों यात्राओं में हो चुका है। वही बस आने पर लोगों में मची अफरा तफरी , सामान रखवाने की जल्दी , कुछ उत्साही लोगों द्वारा अपना सामान बस के अंदर रखने की चालाकियाँ तो कुछ मिलनसार लोगों का आपस में परिचय प्राप्त कर गली, मोहल्ले, ऑफिस या पैतृक स्थान के सहारे कोई पहचान निकालने की कोशिश। ऐसे में वह अब तक नीचे ही खड़ी थी बस से कुछ दूर अपने पास एक अटैची और बेग रखे कंधे पर पर्स लटकाये हाथ में पानी की बोतल लिए कुछ इस तरह खोयी हुई मानों उसे किसी और ही बस की प्रतीक्षा हो ,मानो वह अनंत काल तक बिना उकताहट बिना अधीरता के इंतज़ार कर सकती है।

सभी लोगों का सामान रख कर वह डिक्की बंद ही करने वाला था कि उसे खड़ा देख कर अपने ही अंदाज़ में बोल पड़ा ,"ओ मैडम सामान रखवाना है या यहीं रहने का इरादा है ?"

उसकी आवाज़ की बेरुखी से अप्रभावित वह अटैची लेकर उसकी और बढ़ी और अपना बेग भी उसकी ओर बढ़ा दिया।

"इसे अंदर रखना सीट के ऊपर यहाँ सिर्फ ताला लगे सामान रखते हैं। " वह असमंजस में थी मानों उसकी बात समझ ना आई हो।

"जल्दी बैठो मैडम बस छूटने का समय हो गया है। "

वह अकेली ही थी सफ़ेद सलवार के साथ उसने नीला प्रिंटेड कुरता पहन रखा था दुपट्टा कंधे पर लटका था , एक हाथ में घड़ी दूसरे में नीला कड़ा , बाल ढीले से बंधे हुए, पैरों में काले रंग की हलकी एड़ी वाली चप्पलें , आँखों में अजीब सा सूनापन।

जब वह यात्रा की सफल शुरुआत के लिए फोड़े गए नारियल और पेड़े का प्रसाद उसे देने गया तब भी उसने जोर से आवाज़ लगाईं थी ,"ओ मैडम प्रसाद। " तभी उसने अपनी बड़ी बड़ी पर सूनी सूनी आँखों से उसे देखा था। उन आँखों की उदासी ने उसे अपनी ओर खींचा था। उसका अकेले सफर पर आना भी एक कौतुहल जगा गया। उसने अंदाज़ा लगाया कि वह शादीशुदा है या नहीं लेकिन कुछ तय नहीं कर पाया। जब वह सबको प्रसाद दे कर लौटा तब भी वह खिड़की से बाहर ही देख रही थी प्रसाद उसके हाथ में ज्यों का त्यों रखा था। वह उसे अजीब सी लगी। बस में सभी की आपस में जान पहचान हो गयी थी लेकिन वह गुमसुम खिड़की के बाहर नज़रें गड़ाए थी मानों कुछ ढूंढ रही हो या खुद ही भागते पेड़ों के बीच खो गयी हो।

प्रसाद दे कर केबिन में वापस लौटा तो अनजाने ही उन आँखों की उदासी अपने साथ ले आया। वह इतनी खोयी खोयी सी क्यों है ? अकेले सफर पर क्यों आई ? कोई और उसके साथ क्यों नहीं आया ? कहीं वह घर वालों को बिना बताये तो नहीं आई ? उसे अपना समय याद आ गया ? सौतेली माँ और शराबी पिता की मारपीट से तंग आ कर घर से भाग आया था तब वह इसी बस के ड्राइवर उस्ताद जी ने उसके सिर पर प्रेम से हाथ रखा था। उस्ताद जी के आश्वासन भी वह ऐसे ही खोया खोया पीछे छूटते पेड़ों को देखता रहता था। उस्ताद जी ही कभी कभार हँसी मजाक बाते करके उसे उस उदासी से बाहर खींच लाते थे।

बस नाश्ते के लिए रुकी सब अपने परिचय के दायरे में समा गए पर वह खुद से ही अनजान सी थी। एक प्लेट पोहा और चाय का गिलास लेकर कोने में चुपचाप अकेली बैठी। सब चाय नाश्ते में बातों में व्यस्त थे , वह खाते खाते एक नज़र उस पर डाल लेता। यंत्रवत चलते उसके हाथ दो तीन चम्मच पोहो के बाद एक घूँट चाय गटक लेते , उसकी तन्द्रा तब टूटी जब उसने खाली गिलास मुँह से लगाया फिर चौंक कर गिलास को देखा फिर पोहे प्लेट में यूँ ही छोड़ कर खड़ी हो गई।

……… मंदिर पर बस रुकते ही सभी में उतरने की हड़बड़ी दिखने लगी पर वह तब भी वैसी ही गुमसुम शांत सी बैठी रही और सबके उतरने के बाद पर्स संभाले उदास कदमों से बस से उतर कर खड़ी हो गयी मानों कहाँ जाना है ये विचार कर रही हो , मानो बस रुकने पर उतरना और चलने से पहले चढ़ना अनिवार्य है यात्रा का कोई मकसद उसके विचार को छू भी नहीं गया हो। उसने एक उदासीन सी दृष्टी मंदिर के बाहर लगी प्रसाद की दुकानों पर डाली फिर सामने खड़े भव्य मंदिर की विशाल सीढ़ियों पर और फिर मंदिर के विशाल गुंबद पर।

पता नहीं इस गुमसुम उदासीनता में क्या आकर्षण था कि उसकी नज़र लगातार उसका पीछा कर रही थी। अपनी सैकड़ों यात्राओं में वह बमुश्किल किसी मंदिर में जाता था लेकिन आज उसके अनमनेपन का बड़े कौतुहल से पीछा करते वह भी मंदिर में पहुँच गया। वह मंदिर की भव्यता और शिल्प को निहार रही थी अब तक उसने देव मूर्ति को प्रणाम तक नहीं किया था उसे भान ही नहीं था कि इस विशाल इमारत में आने का एक मकसद होता है यात्रा पर आने का उसका कोई मकसद था ही नहीं। घंटे की जोरदार टंकार से वह मंदिर में स्वयं की उपस्थिति के प्रति चैतन्य हुई जल्दी से हाथ जोड़ प्रणाम कर वह बाहर आकर सीढ़ी पर बैठ गयी।

सभी यात्री होटल के अपने अपने कमरे में चले गए थे। उसकी आँखों में नींद कहाँ थी वहाँ तो वह गुमसुम उदास चेहरा घूम रहा था। वह उठ कर बाहर गार्डन में आ गया ,वह अकेली गार्डन में टहल रही थी। उससे बात करने का ये अच्छा मौका है वह तेज़ी से उसकी ओर बढ़ा "मैडम आप सोई नहीं कुछ चाहिये क्या ?"

वह चौंक कर उसकी तरफ घूमी पलकों पर जमे आँसू चमक उठे शायद उसे एहसास हो गया और उसने तुरंत अपना मुँह फेर लिया। "नहीं कुछ नहीं , बस ऐसे ही टहल रही थी। "

बातों का सिरा पकड़ते ही छूटने लगा लपक कर उसे पकड़ते फिर पूछा ,"आप पहले भी इस यात्रा पर आई हैं क्या ?"

"नहीं ", वह आगे बढ़ गयी उसकी उदासी में एक कशिश थी जो उसे खींच रही थी क्या करे रुके या चला जाये ? कुछ देर वहीँ खड़े वह उसे देखता रहा।

गुलाबी चूड़ीदार के साथ गुलाबी छींट का स्लेटी कुरता पहने गीले बालों को ढीला सा बाँधे गुलाबी दुपट्टा संभालते वह फिर आखिर में बस में चढ़ी।

अगले मंदिर पर उतर कर वह एक छोटी सी दुकान में बैठ गयी और एक कोल्ड ड्रिंक मंगवा लिया। वह भी चाय का गिलास लेकर उसकी टेबल पर आ गया और बैठने की इजाजत माँगी।

"आप अकेली ही हैं और कोई नहीं है आपके साथ ?"

"मैं अकेली हूँ। "

"अभी मौसम ठीक है न सर्दी न गर्मी। "

"हूँ ", बिना उसकी ओर देखे जवाब आया।

"कुछ और लाऊँ आपके लिये ?" बड़ी बड़ी पलकें उठीं उसकी ओर देखते सूनी आँखों में तरलता तैर गयी।

यहाँ बस मंदिर तक नहीं जायेगी करीब आधा किलोमीटर पैदल चलना होगा कहते हुए उसकी तरफ देखा। सब उतर गए वह वहीं बैठी रही। वह दो कोल्ड ड्रिंक ले आया जो वह उस दिन पी रही थी। संवेदना का तार कहीं जुड़ चुका था। एक एक घूँट गुटकते हुए उसने अपने दर्द को बाहर निकाला। किसी बेहद अपने के द्वारा छले जाने का दर्द उसके शब्दों से रिसता रहा। वह उसके दर्द को चुनता रहा उसके अकेलेपन से व्यथित हो कर मन ही मन इस सफर में उसका साथ देने का निश्चय करता रहा। उसके बहते आँसुओं से पिघलता रहा और खिड़की से बाहर नज़र रखता रहा कि बाकि लोग आ न जायें।

उस रात खाना खा कर वह फिर होटल के गार्डन में आ गया तारों सी झिलमिलाती उम्मीद में। वह गार्डन में टहल रही थी उसके होंठों पर मुस्कान आ गई। देर तक टहलते दोनों बतियाते रहे वह बस की यात्रा के अपने अनुभव सुनाता रहा वह उत्सुकता से सुनती रही। अपने बारे में जो वह बता चुकी थी उससे ज्यादा और कोई बात वह करना नहीं चाहती थी। हाँ ये जरूर कहा उसने कि अपने दुखों के लिये वह भगवान से नाराज़ थी और यही नाराज़गी जताने के लिये वह इस यात्रा पर आई है ये सुनकर वह हंस पड़ा।वह तो इस बात से ही खुश था कि अब वह पहले सी उदास नहीं है।

अब तो किसी मंदिर में वह बाहर से ही प्रणाम कर लेती या दर्शन करके वह जल्दी बाहर आ जाती शायद अभी तक भगवान से उसकी नाराज़गी थी। दोनों कभी कोल्ड ड्रिंक कभी नारियल पानी पीते। ख़ामोशी ही उनकी जुबान होती पर सुकून उसका परिणाम होता। ठहरते चलते चार दिन बीत गए , उसकी खोयी हुई आँखों में चमक आ गई। हालांकि वह अब भी आस पास के लोगों और माहौल के प्रति उदासीन थी लेकिन उसके चेहरे पर रौनक थी एक आश्वस्ति का भाव था शायद यही ऐसी यात्राओं का उद्देश्य भी होता है।

अंतिम दिन मंदिर के दर्शन कर वे एक रेस्टॉरेन्ट में बैठ गए। उसने धीरे से उसके हाथ पर हाथ रख दिया नरम मुलायम हथेलियों का स्पर्श संवेदनाओं से भरा हुआ था। वह उस हाथ को देखता रहा फिर उसके चेहरे को। आँखें भरी हुई थीं होंठों पर मुस्कान थी। उसे अर्पित किया गया आभार गालों से ढुलक रहा था। वह भीग गया इच्छा हुई हाथ बढ़ा कर उसे अंजुरी में समेट ले , लेकिन बह जाने दिया।

"तुम ना होते तो …। "

उसके थरथराते होंठों से अधूरे से निकले इन शब्दों ने चार दिन के हर पल को सच्चे दिल से धन्यवाद दिया।

"हूँ लेकिन आज ये यात्रा ख़त्म हो जाएगी। " शब्दों की निष्ठुरता ने उदासी का साया दोनों पर फैला दिया। "लेकिन तुमने जो किया एक एहसान होगा मुझ पर। "

वह खामोश रहा चार दिनों में दोनों एक अदृश्य डोर से बंध चुके थे। वह अपनी उदासी से उबर चुकी थी और उसे भी पहली बार यात्रा की सार्थकता समझ आई थी। दोनों में से किसी ने भी अपना पता या नंबर देने या लेने की कोशिश नहीं की। वे जानते थे यात्रा समाप्त होने पर ये साथ छूटना तय है और फिर बाद में इस तरह मिलना जुलना संभव है ना ही उचित। बस कुछ यादें , एक हल्की सी कशिश और गहरे कहीं एक कसक रह जाने वाले हैं।

ये यात्रा का आखिरी मंदिर है वह फूल माला प्रसाद की डलिया ले आया उसके हाथों पर रखते धीरे से कहा , "शांति मिलेगी। " पीछे पीछे वह भी मंदिर में गया। आज उसने दत्त चित्त से दर्शन किये हाथ जोड़ कर प्रार्थना की, माथे पर तिलक लगाया , परिक्रमा की और प्रसाद भी लिया। उसे प्रसाद देते हुए वह धीरे से मुस्कुराई पर्स खोलने को हुई उसने रोक दिया। इन चार दिनों में अपने दुखों से खुद को उबार कर वह प्रफुल्ल चित्त थी। आज शाम यात्रा ख़त्म हो जाएगी ये साथ छूट जायेगा जिसमे कहीं कोई वादे ना थे कोई आवेग न था न कोई रूठना मनाना न चुहल भरी चटपटी बातें लेकिन फिर भी बिछड़ जाने का दुःख उस पर हावी था ,फिर कभी ना मिल पाने की कसक थी। हालांकि उसे कोई कामना नहीं थी न कोई अपेक्षा लेकिन एक लगाव तो हो ही गया था। वह सचमुच हतप्रभ था।

कविता वर्मा