व्रत-भंग
जयशंकर प्रसाद की कहानियाँ
जयशंकर प्रसाद
© COPYRIGHTS
This book is copyrighted content of the concerned author as well as Matrubharti.
Matrubharti has exclusive digital publishing rights of this book.
Any illegal copies in physical or digital format are strictly prohibited.
Matrubharti can challenge such illegal distribution / copies / usage in court.
व्रत-भंग
तो तुम न मानोगे?
नहीं, अब हम लोगों के बीच इतनी बडी खाई है, जो कदापि नहींपट सकती!
इतने दिनों का स्नेह?
उँह! कुच भी नहीं। उस दिन की बात आजीवन भुलाई नहीं जासकती, नंदन! अब मेरे लिए तुम्हारा और तुम्हारे लिए मेरा कोई अस्तित्वनहीं। वह अतीत के स्मरण, स्वह्रश्वन हैं, समझे?
यदि न्याय नहीं कर सकते, तो दया करो, मित्र! हम लोग गुरुकुलमें...
हाँ-हाँ, मैं जानता हूँ, तुम मुझे दरिद्र युवक समझकर मेरे ऊपर कृपारखते थे, किन्तु उसमें कितना तीक्ष्ण अपमान था, उसका मुझे अब अनुभवहुआ।
उस ब्रह्म-बेला में जब उषा का अरुण आलोक भागीरथी की लहरोंके साथ तरल होता रहता, हम लोग कितने अनुराग से जाते थे। सचकहना, क्या वैसी मधुरिमा हम लोगों के स्वच्छ हृदयों में न थी?
रही होगी, पर अब, उस मर्मघाती अपमान के बाद! मैं खडा रहगया, तुम स्वर्ण-रथ पर चढकर चले गए; एक बार भी नहीं पूछा। तुमकदाचित् जानते होगे नंदन कि कंगाल के मन में प्रलोभनों के प्रति कितनाविद्वेष है? क्योंकि वह उससे सदैव छल करता है, ठुकराता है। मैं अपनीउस बात को दुहराता हूँ कि हम लोगों का अब उस रूप में कोई अस्तित्वनहीं।
वही सही कपिज्जल! हम लोगों का पूर्व अस्तित्व कुछ नहीं, तोक्या हम लोग वैसे ही निर्मल होकर एक नवीन मैत्री के लिए हाथ नहींबढा सकते? मैं आज प्रार्थी हूँ।
मैं उस प्रार्थना की उपेक्षा करता हूँ। तुम्हारे पास ऐश्वर्य का दर्पहै, तो अकिञ्चनता उससे कही अधिक गर्व रखती है।
तुम बहुत कटु हो गए हो इस समय। अच्छा, फिर कभी...न अभी, न फिर कभी। मैं दरिद्रता को भी दिखला दूँगा कि मैंक्या हूँ। इस पाखण्ड-संसार में भूखा रहूँगा, परन्तु किसी के सामने सिर
न झुकाऊँगा। हो सकेगा तो संसार को बाध्य करूँगा झुकने के लिए।कपिञ्जल चला गया। नंदन हतबुद्धि होकर लौट आया। उस रातको उसे नींद न आई।
उक्त घटना को बरसों बीत गए। पाटलीपुत्र के धनकुबेर कलश काकुमार नंदन धीरे-धीरे उस घटना को भूल चला। ऐश्वर्य का मदिरा-विलासकिसे स्थिर रहने देता है! उसने यौवन के संसार में बड़ी-बड़ी आशाएँलेकर पदार्पण किया था। नंदन तब भी मित्र से वञ्जित होकर जीवन कोअधिक चतुर न बना सका।
राधा, तू भी कैसी पगली है? तूने कलश की पुत्र-वधू बनने कानिश्चय किया है, आश्चर्य!
हाँ महादेवी, जब गुरुजनों की आज्ञा है, तब उसे तो मानना हीपड़ेगा।
मैं रोक सकती हूँ। मूर्ख नंदन! कितना असंगत चुनाव है! राधा,मुझे दया आती है।
किसी अन्य प्रकार से गुरुजनों की इच्छा को टाल देना, यह मेरीधारणा के प्रतिकूल है महादेवी! नंदन की मूर्खता सरलता का सत्यरूप है।मुझे वह अरुचिकर नहीं। मैं उस निर्मल-हृदय की देख-रेख कर सकूं,तो यह मेरे मनोरंजन का ही विषय होगा।
मगध की महादेवी ने हँसी से कुमारी के इस साहस का अभिनन्दनकरते हुए कहा - तेरी जैसी इच्छा, तू स्वयं भोगेगी।
माधवी-कुंज से वह विरक्त होकर उठ गई। उन्हें राधा पर कन्याके समान ही स्नेह था।
दिन स्थिर हो चुका था। स्वयं मगध-नरेश की उपस्थिति मेंमहाश्रेष्ठि धनञ्जय की कन्या का ब्याह कलश के पुत्र से हो गया, अद्भुतवह समारोह था। रत्नों के आभूषण तथा स्वर्ण-पात्रों के अतिरिक्त मगध-सम्राट ने राधा की प्रिय वस्तु अमूल्य-मणि-निर्मित दीपाधार भी दहेज मेंदे दिया। उस उत्सव की बड़ाई,पान-भोजन आमोद का विभवशाली चारुचयन कुसुमपुर के नागरिकों को बहुत दिन तक गल्प करने का एख प्रधानउपकरण था।
राधा कलश की पुत्र-वधू हुई।
राधा के नवीन उपवन के सौध-मन्दिर में अगरु, कस्तूरी और केशरकी चहल-पहल, पुष्प-मालाओं का दोनों सन्ध्या में नवीन आयोजन औरदीपावली में वीणा, वंशी और मृदंग की स्निग्ध गम्भीर ध्वनि बिखरतीरहती। नंदन अपने सुकोमल आसन पर लेटा हुआ राधा का अनिंद्य सौन्दर्यएकटक चुपचाप देखा करता। उस सुसज्जित कोष्ठ में मणि-निर्मित दीपाधारकी यन्त्रमयी नर्तकी अपने नूपुरों की झंकार से नंदन और राधा के लिएएक क्रीड़ा का कुतूहल का सृजन करती रहती। नंदन कभी राधा केखिसकते हुए उ्रूद्गारीय को सँभाल देता। राधा हँसकर कहती- बड़ा कष्टहुआ।
गृह के नीचे के अंश में जल भर गयाथा। थोड़ा-सा अन्न औरइर्ंधन ऊपर के भाग में बचा था। राधा उस जल में घिरी हुई अचलथी। छत की मुँडेर पर बैठी वह जलमयी प्रकृति में डूबती हुई सूर्य कीअंतिम किरणों को ध्यान से देख रही थी। दासी ने कहा - स्वामिनी!वह दीपाधार भी गया, अब तो हम लोगों के लिए बहुत थोड़ा अन्न घरमें बच रहा है।
देखती नहीं यह प्रलय-सी बाढ़! कितने मर मिटे होंगे। तुम तोपक्की छत पर बैठी अभी यह दृश्य देख रही हो! आज से मैंने अपनाअंश छोड़ दिया। तुम लोग जब तक जी सको, जीना।
सहसा नीचे झाँककर राधा ने देखा, एक नाव उसके वातायन सेटकरा रही है, और एक युवक उसे वातायन के साथ दृढ़ता से बाँध रहाहै।
राधा ने पूछा - कौन है?
नीचे सिर किए नंदन ने कहा - बाढ़-पीड़ित कुछ प्राणियों को क्याआश्रय मिलेगा? अब जल का क्रोध उतर चला है। केवल दो दिन केलिए इतने मरने वालों को आश्रय चाहिए।
छत पर आकर उसने कहा - एक वस्त्र दो, राधा! राधा ने एकउ्रूद्गारीय दिया। वह मुमूर्षु व्यक्ति नग्न था। उसे ढककर नंदन ने थोड़ासेंक दिया; गर्मी भीतर पहुँचते ही वह हिलने-डुलने लगा। नीचे से माँझीने कहा - जल बड़े वेग से हट रहा है, नाव ढीली न करूँगा, तो लटकजाएगी।
नंदन ने कहा - तुम्हारे लिए भोजन लटकाता हूँ, ले लो। कालरात्रि बीत गई। नंदन ने प्रभात में आँखें खोलकर देखा कि सब सो रहेहैं और राधा उसके पास बैठी सिर सहला रही है।
इतने में पीछे से लाया हुआ मनुष्य उठा। अपने को अपरिचितस्थान में देखकर वह चिल्ला उठा - मुझे वस्त्र किसने पहानाया, मेरा व्रतकिसने भंग किया?
नंदन ने हँसकर कहा - कपिंजल! यह राधा का गृह है, तुम्हें उसकेआज्ञानुसार यहाँ रहना होगा। छोड़ो पागलपन! चलो, बहुत से प्राणी हमलोगों की सहायता के अधिकारी हैं। कपिंजल ने कहा - सो कैसे होसकता है? तुम्हारा-हमारा संग असम्भव है।
मुझे दण्ड देने के लिए ही तो तुमने यह स्वांग रचा था। राधातो उसी दिन से निर्वासित थी और कल से मुझे भी अपने घर में प्रवेशकरने की आज्ञा नहीं। कपिंजल! आजतो हम और तुम दोनों बराबर हैंऔर इतने अधमरों के प्राणों का दायित्व भी हमीं लोगों पर है। यह व्रत-भंग नहीं, व्रत का आरम्भ है। चलो, इस दरिद्र कुटुम्ब के लिए अन्नजुटाना होगा।
कपिंजल आज्ञाकारी बालक की भाँति सिर झुकाए उठ खड़ा हुआ।