डर
"पता नहीं कैसे कैसे बेवकूफ लोग हैं? अख़बार नहीं पढ़ते या पढ़ कर भी समझते नहीं हैं, या समझ कर भी भूल जाते हैं, और हर बार एक ही तरह से बेवकूफ बनते जाते हैं,"टेबल पर अख़बार पटकते हुए पतिदेव झल्लाए।
"ऐसा क्या हुआ?" चाय के कप समेटते हुए मैंने पूछा।
"होना क्या है फिर किसी बुजुर्ग महिला को कुछ लोगों ने लूट लिया ये कह कर कि आगे खून हो गया है माँजी अपने गहने उतार दीजिये।अरे खून होने से गहने उतारने का क्या सम्बन्ध है? और खून तो हो चुका उसके बाद ख़ूनी वहाँ खड़े थोड़ी होंगे। लेकिन पता नहीं क्यों लोग लोजिकली सोचते ही नहीं हैं, बस आ गए बातों में और गहने उतार कर दे दिए।"
"अरे तो वो बूढ़ी महिलाओं को निशाना बनाते हैं, घबरा जाती हैं बेचारी नहीं समझ पातीं, आ जाती हैं झांसे में।"
"अरे बूढ़ी नहीं अब ५० -५५ साल की कामकाजी महिलाएँ कैसे नहीं समझ पाती समझ नहीं आता, और खैर मान लिया महिलाएँ हैं लेकिन कितने ही आदमी भी तो ठगे जाते हैं लड़कियाँ लिफ्ट लेती है और सुनसान रास्ते पर गाड़ी रुकवा कर लूट लेती हैं जब पता है कि आपके रास्ते सुनसान हैं तो क्यों देते है लोग लिफ्ट ?"
"अब बेचारे लड़कियों को मदद करने से नहीं मना कर पाते क्या करें?" मैंने हँसते हुए कहा।
"हाँ जी तुम्हें तो मौका मिल गया न हम मर्दों को कोसने का। हम तो बस..."
"अरे आप इतना नाराज़ क्यों होते हैं अब शायद परिस्थितियाँ ऐसी होती होंगी इंसानियत भी तो कोई चीज़ है। फिर किसी के माथे पर थोड़े लिखा है कि जिसकी मदद कर रहे हैं वो धोखेबाज है। चलिए अब नहा लीजिये ऑफिस के लिए देर हो जाएगी।" मैंने बात ख़त्म करते हुए कहा।
वैसे बात तो सही है, रोज़ ही तो एक जैसी घटनाएँ होती हैं, पैदल चलती महिलाओं की चेन खींचना, मोबाइल छुड़ा लेना, गहने उतरवा लेना, लिफ्ट ले कर लूट लेना लेकिन पता नहीं क्यों लोग सीख ही नहीं लेते?
* * *
"देर हो रही है जल्दी चलिए न हॉस्पिटल दूर है। किसी को देखने जाना हो और वो भी इतनी देर से ठीक नहीं लगता, फिर लौटने में भी तो देर हो जाएगी।" मैंने हड़बड़ी मचाते हुए कहा।
"हाँ भाई चलो अभी बहुत देर भी नहीं हुई है।" पतिदेव गाड़ी स्टार्ट करते हुए बोले।
"एक तो वैसे ही आपसे जब जल्दी आने को कहो तब और ज्यादा देर से आते हो उस पर घर से निकलने में भी देर.बहुत देर से हॉस्पिटल जाना ठीक भी तो नहीं लगता।"मैंने झुँझलाते हुए कहा.
"बस अभी पहुँच जाएँगे इतनी भी देर नहीं हुई है." पति देव ने शान्ति से जवाब दिया।
मोड़ पर गाड़ी धीमी हुई तभी सामने एक लड़की खड़ी दिखी। लगभग गाड़ी के सामने खड़े हो कर उसने हाथ दिया तो गाड़ी रोकना ही पड़ी।
"अंकल प्लीज मेरी मदद कीजिये प्लीज मेरी गाड़ी स्टार्ट नहीं हो रही है।" गाडी रुकते ही वह खिड़की के पास आ गयी शीशा नीचे होते ही बोली।
सड़क के किनारे एक कार खड़ी थी ऐसा लगा कि सड़क के किनारे की गीली मिट्टी में फँस गयी है. अब मना तो किया नहीं जा सकता था सो पतिदेव तुरंत गाड़ी से उतर गए और उसकी गाड़ी में बैठ कर गाड़ी स्टार्ट कर दी. गाड़ी निकालने की बड़ी कोशिश की लेकिन ये क्या गाड़ी तो हिली ही नहीं फिर गाड़ी रिवर्स की लेकिन आगे लेने पर एक इंच भी नहीं हिली. अब तक मैं भी गाड़ी से नीचे उतर आयी. इस सुनसान रास्ते पर एक अकेली लड़की की मदद करने का एहसास सुखद था. वह लड़की मेरे पास आ कर खडी हो गयी और उसके साथ आया शराब की गंध का जोरदार भभका. मैं दो कदम पीछे हट गयी.
ओह इसने तो शराब पी रखी है। लगता है नशे में गाड़ी कहीं ठोंक दी. अब मैंने गाड़ी को ध्यान से देखा तो पता चला कि गाड़ी का अगला हिस्सा दबा हुआ है जिसकी वजह से पहिया आगे को नहीं घूम पा रहा है. मैंने पतिदेव को बताया कि अगला पहिया नहीं घूम रहा है ये सुन कर वे गाड़ी से उतर गए.
"कहाँ रहती हो? कहाँ जाना है?" मैंने पूछा. ये गाड़ी अब बिना मेकेनिक के कहीं नहीं जा सकती थी ये तो तय था. समय निकला जा रहा था .हमें हॉस्पिटल जाना है ये कहाँ की मुसीबत में फँस गए, मैंने मन ही मन सोचा.
"अंकल प्लीज़ कुछ करिए न, मुझे मूसाखेड़ी जाना है मेरी गाड़ी को पता नहीं क्या हो गया है प्लीज़ अंकल."
"तुम यहाँ किसके घर आयी हो ? मूसाखेड़ी तो बहुत दूर है यहाँ से।"
"आंटी मैं अपनी एक सहेली के यहाँ आयी थी वो यहीं इसी कालोनी में रहती है। "
"तो तुम अपनी उसी सहेली के यहाँ चली जाओ गाड़ी लॉक कर दो .सुबह किसी मेकेनिक को फोन कर के बुला लेना वो गाड़ी ले जायेगा." मैंने किसी तरह पीछा छुड़ाने की गरज से कहा.
"आंटी मेरा उस सहेली से झगडा हो गया है.अब मैं उसके घर नहीं जा सकती .आप लोग कहाँ जा रहे है? आंटी प्लीज़ मुझे लिफ्ट दे दीजिये प्लीज़ आंटी।"
"कहाँ रहती है तुम्हारी सहेली?"
उसने दूर एक घर की तरफ इशारा कर दिया।
"बेटा सहेलियों में झगडा तो होता रहता है लेकिन वो सहेली है तुम्हे परेशानी में देख कर जरूर मदद करेगी।" मैंने फिर कोशिश की।
"आंटी मैं अच्छे घर से हूँ मेरे पापा बहुत अच्छी पोस्ट पर है प्लीज़ आंटी मेरी मदद करिए। मैं यहाँ से कैसे जाऊँगी ?"
"तुम्हारे घर से किसी को बुला लो वो आ कर तुम्हें ले जायेंगे और गाड़ी का भी कुछ इंतजाम कर देंगे।" मैं हर तरह से इस बिन बुलाई मुसीबत से पीछा छुड़ाना चाहती थी।
"आंटी मैं होस्टल में रहती हूँ। यहाँ कोई फेमिली मेंबर नहीं है। आप कहाँ तक जा रहे है मुझे किसी टेक्सी स्टैंड तक छोड़ दीजिये प्लीज़। "
हे भगवन ये क्या वही हुआ जिसका डर था। कॉलोनी के बाहर सुनसान रास्ता, रात का समय एक अकेली लड़की को लिफ्ट देना, अख़बार में पढ़ी ख़बरें, जानबूझ कर बेवकूफ बनना बहुत सारी बातें दिमाग में घूम गयीं। लेकिन फिर भी दिल पिघलने लगा। ये लड़की रात के इस समय अकेले कैसे कहीं जाएगी. लेकिन सुनसान रास्ते पर उसे गाड़ी में बैठा कर ले जाना भी तो खतरे से खाली नहीं है। कहीं कुछ हो गया तो? घर में बच्चे इंतजार कर रहे हैं लेकिन अगर इसे अकेले यहाँ छोड़ दिया तो ? नहीं नहीं ये तो कोई बात नहीं कि अपने डर की वजह से किसी अकेली लड़की की मदद न की जाये। लेकिन कहीं लेने के देने पड़ गए तो? ऐसे तो बड़ी होशियारी दिखाते है। मैंने मदद के लिए पतिदेव की ओर देखा। वैसे पता था वहाँ तो मदद का ज़ज्बा ज्यादा ही जोर मार रहा होगा। लेकिन हॉस्पिटल के लिए देर हो रही है।
"देखो बेटा हमें तो यहीं पास में जाना है लेकिन हम तुम्हे पास के टेक्सी स्टैंड पर छोड़ सकते है। लेकिन तुम्हारी गाड़ी?"
अब उसने मेरे पतिदेव की तरफ देखा।
"गाड़ी तो यहाँ से हिल भी नहीं पायेगी। ऐसा करो यहीं लॉक कर दो हम तुम्हे पास के टेक्सी स्टैंड तक छोड़ देते है।" मेरे पतिदेव ने सदाशयता दिखाई।"
गाड़ी ठीक से लगा कर लॉक की उसे हमारी गाड़ी में बैठाया। पूरी गाड़ी शराब की गंध से भर गयी। महक इतनी तेज़ थी कि शीशे खोलने पड़े। मैंने पतिदेव की तरफ देखा, समझ तो वह भी रहे थे लेकिन बिना मदद किये वहाँ से आगे बढ़ जाना ठीक भी नहीं लग रहा था।
गाड़ी ने कॉलोनी का रास्ता तय कर मोड़ लिया और बिलकुल सुनसान रास्ता शुरू हो गया इसी के साथ मेरे दिल की धड़कने भी तेज़ हो गयी। हे भगवान यहाँ अगर २-४ लोग सड़क पर खड़े हो कर रास्ता रोक लें तो कुछ किया भी नहीं जा सकता। उनपर गाड़ी तो कम से कम नहीं चढ़ाई जा सकती। पता नहीं हम सही कर रहे है या नहीं?
जैसे जैसे रास्ता सुनसान होता गया मैं ओर अधिक चौकन्नी हो कर बैठ गयी। मोबाइल हाथ में ले लिया और साइड मिरर से उस लड़की पर नज़र रखे हुए थी। हे भगवान बस ठीक से पहुँच जाएँ। अचानक गाड़ी के सामने एक कुत्ता आ गया गाड़ी में ब्रेक लगते ही मेरे नकारात्मक विचारों को भी विराम मिला। मन ने खुद को धिक्कारा,छि ये क्या सोच रही हूँ मैं?
ग्यारह साल पहले जब हम इस कॉलोनी में रहने आये थे तब कितनी ही बार इसी सड़क पर कितनी ही रात गए लोगों को लिफ्ट दी है। किसी पैदल चलते अकेले व्यक्ति के पास गाड़ी रोक कर पूछ लेते थे कहाँ जाना है किसके घर जाना है आइये गाड़ी में बैठ जाइये हम भी उसी ओर जा रहे है, और आज एक लड़की से इतना डर। दुनिया इतनी भी बुरी नहीं है फिर "कर भला हो भला" का ये विश्वास आज डगमगा क्यों रहा है? लेकिन....मन यूँ ही तो हार नहीं मानता , जब उसके डर पर प्रहार होता है तो उसके अपने तर्क शुरू हो जाते है। संभल कर चलना और दूसरों की गलतियों से सीख लेना कोई बुरी बात तो नहीं है। रोज़ इतनी ख़बरें पढ़ते हैं दूसरों को कोसते हैं आज जान बूझ कर खुद को मुसीबत में फँसा देना कहाँ की अकलमंदी है? फिर इस लड़की ने शराब पी रखी है चाहे वह भले घर की हो, लेकिन शराब के शौक पूरे करने के लिए तो माता पिता पैसे नहीं भेजते होंगे? जब घर से भेजे पैसे में खर्चे पूरे नहीं होते तो ये कोई शोर्ट कट अपना लेते है।
अब तक हम तीनों ही खामोश बैठे थे। पतिदेव गाड़ी चला रहे थे, मैं विचारों के झंझावत में फँसी थी और वह...पिछली सीट के अँधेरे में। मैं देख नहीं पाई कि वह क्या कर रही है या उसके क्या हाव भाव है? लेकिन मुझे लगा शायद वह कुछ सोच रही है, या शायद वह इतने नशे में है कि कुछ सोच ही नहीं पा रही है।
टैक्सी स्टैंड आने को था तभी उसने अपनी चुप्पी तोड़ी "अंकल प्लीज आप मुझे घर तक छोड़ दीजिये।" शायद उसे भी अब रात गए अकेले टैक्सी से जाने में डर लग रहा था।
मैंने उससे कहा "बेटा हमें पास ही कहीं कुछ काम है तुम टैक्सी से चली जाओ वो तुम्हे घर तक छोड़ देगा।"तब तक हम चौराहे पर आ गए। उसकी कातरता देख कर एक मन तो हुआ कि उसे उसके घर तक छोड़ दिया जाये। लेकिन उसका घर कम से कम १० किलोमीटर दूर तो था ही और वह भी सुनसान जगह पर।
टैक्सी स्टैंड पर गाड़ी रुकते ही वह उतर गयी। मैंने उसका पता पूछ कर टैक्सी वाले को पता समझाया और उससे कहा "भैया इसे ठीक से इसके घर पहुँचा देना।" उसकी चिंता भी हो रही थी। अजीब उलझन थी। मन का भय आगाह कर रहा था और इंसानियत का तक़ाज़ा मदद करने को कह रहा था। टैक्सी वाला भला आदमी लगा उसने पता समझ कर मुझे आश्वस्त किया कि "मैं भी उसी इलाके में रहता हूँ ये जगह मुझे पता है आप चिंता न करें मैं इन्हें छोड़ दूँगा।"
मैंने उससे कहा -"जाओ बेटा आराम से चली जाओगी।"
वह गाड़ी के बिलकुल करीब आ गयी मेरा हाथ खिड़की पर रखा हुआ था, मेरा हाथ पकड़ कर वह रो पड़ी।"थैंक यू आंटी आई ऍम सॉरी मैंने आपको बहुत परेशान किया। आंटी मेरी शादी हो गयी है ये देखिये।" उसने कुरते में दबा हुआ उसका मंगलसूत्र बाहर निकाला, "मेरा अपने हसबेंड से झगड़ा हो गया है सॉरी आंटी मैंने शराब पी हुई है। आप बहुत अच्छी हैं आंटी आपने मेरी इतनी मदद की।" फिर वह मेरे पतिदेव की ओर मुखातिब हुई।
"अंकल प्लीज़ मुझे माफ़ कर दीजिये मैंने आपको बहुत तकलीफ दी।"वह रोते रोते बोली।
वह शायद लम्बे समय से अपनी परेशानियों से घिरी बहुत अकेली थी और आज हमदर्दी के एक हल्के से स्पर्श ने उसे तरल कर दिया था।
"बेटा अगर आपकी कोई परेशानी है तो आप अपने माता पिता को क्यों नहीं बताती?"
"आंटी वो मुझसे बहुत नाराज़ होंगे मैं उन्हें नहीं बता सकती।"
"नहीं ऐसा नहीं है, वो चाहे कितने भी नाराज़ हों, हैं तो माता पिता, उनसे ज्यादा आपका भला और कोई नहीं सोच सकता। इस तरह अकेले रह कर शराब पी कर खुद को परेशानी में डालने से तो कोई हल नहीं निकलने वाला तुम मेरी बेटी जैसी हो तुम्हें इस तरह शराब के नशे में देख कर दुःख हो रहा है। बेटा कोई भी परेशानी हो अपने माता पिता को जरूर बताओ। हो सकता है वो गुस्से में तुम्हे डांट दें शायद दो थप्पड़ भी लगा दें लेकिन फिर भी वो तुम्हारी परेशानी को दूर करने के लिए कुछ न कुछ जरूर करेंगे।"
वह मेरा हाथ पकड़े हुए थी मैंने उसे गले लगा लिया। उस बीस मिनिट के असमंजस के बाद मात्र तीन मिनिट में उसके साथ एक ऐसा सम्बन्ध बन गया, ऐसी आत्मीयता हो गयी कि अब मन उसे अकेले छोड़ने को तैयार नहीं था। उसका अकेलापन महसूस कर के ऐसा लगा कि कुछ समय उसके साथ बिता कर उसका अकेलापन दूर कर दूँ। मुझे नहीं पता था कि उसकी असली परेशानी क्या थी लेकिन जो भी थी उसे सुन कर उसे सही सलाह तो कम से कम दे ही सकती थी।
मैंने एक बार पति की तरफ देखा आँखों आँखों में बात हुई और मैंने उससे कहा "अच्छा गाड़ी में बैठो हम तुम्हे छोड़ देते है।" टैक्सी वाले को कहा "माफ़ करना भैया अब हमारा प्रोग्राम चेंज हो गया है हम ही उस तरफ जा रहे है।" वह भी भला आदमी था कहने लगा "कोई बात नहीं मैडम।" शायद वह भी हालात की नजाकत भाँप चुका था।
हमारी गाड़ी नए रास्ते पर मुड़ चुकी थी। मैंने उससे पूछा "अब सच सच बताओ क्या हुआ?"
थोड़ी हिचक के बाद वह कहने लगी "आंटी मैंने अपने मम्मी पापा को बताये बिना शादी कर ली लेकिन अब वह लड़का यानि कि मेरा पति बात बात पर मुझसे झगड़ा करता है वह कोई काम भी नहीं करता अब तो उसके और मेरे खर्चे के पैसे भी वह मुझसे ही माँगता है। आंटी मैं अपने मम्मी पापा की अकेली लड़की हूँ पापा भी अच्छी पोस्ट पर हैं लेकिन फिर भी मैं उनसे कितना माँगू ? मुझे अच्छा नहीं लगता। जब मना करती हूँ तो झगड़ा करता है।"
हे भगवान् ये लड़की कहाँ फंस गयी मैंने मन ही मन सोचा।"उस लडके के घरवालों को पता है तुम लोगों की शादी के बारे में?"
"नहीं आंटी अभी किसी को भी नहीं पता।"
"कहाँ हुई थी शादी ? शादी रजिस्टर हुई है?"
"नहीं आंटी हमने शहर के बाहर एक मंदिर में शादी की थी बस हमारे एक दो दोस्त आये थे।"
"तो शादी के बाद तुम लोग साथ साथ रहे भी नहीं हो ?"
"शादी के बाद हम लोग दो दिन के लिए बाहर गए थे उसके बाद यहाँ जिस मकान में वह रहता है वहाँ मैं उससे मिलने आती हूँ लेकिन अब तो झगड़े ज्यादा होते है।"
सामने लम्बी काली सड़क अँधेरे में डूबी थी और उसी खाली सड़क सा उस का भविष्य दिखाई दे रहा था। बस कार की हेड लाईट जैसी एक ही किरण थी आशा की कि उसके माता पिता को जल्दी से जल्दी इस शादी के बारे में पता चल जाये। मैंने कहा "अच्छा अगर वह लड़का कल तुम्हे छोड़ कर भाग जाये तो क्या करोगी ? कोई सबूत है कि उससे तुम्हारी शादी हुई है ?"
"नहीं आंटी मैंने उससे यही कहा कि हम अब सबको बता देते हैं तो वह मना कर देता है कहता है अभी सही समय नहीं आया।" वह सुबकने लगी .
मेरा मन बैचेन हो गया साफ साफ दिखाई दे रहा था कि वह लड़का सिर्फ अपना उल्लू सीधा कर रहा है। जिस दिन उसे लगेगा कि सोने के अंडे ख़त्म हो गए है वह मुर्गी की गर्दन मरोड़ देगा और किसी को कुछ पता भी नहीं चलेगा।
"यहाँ किसके साथ रहती हो?" मुझे उसकी होस्टल वाली कहानी भी झूठी लगी।
"मम्मी पापा के साथ।"
"इतनी देर तक घर से बाहर रहने पर वो नाराज़ नहीं होते?"
"मैं कह देती हूँ कि फ्रेंड के यहाँ पढ़ रही थी। आंटी मुझे झूठ बोलना अच्छा नहीं लगता लेकिन क्या करूँ कुछ समझ नहीं आता। सच बात बताऊँगी तो मम्मी पापा बहुत नाराज़ होंगे शायद घर से भी निकाल दें मेरा हसबेंड तो खुद का खर्च नहीं उठा पाता मैं कहाँ जाऊँगी क्या करुँगी? अभी मेरी पढाई भी बाकी है।"
"बेटा अगर मेरी बात मानों तो तुम आज ही अपने मम्मी पापा को सब कुछ सच सच बता दो।" अब मेरे पति ने चुप्पी तोड़ी। "वो माँ बाप हैं सुनकर गुस्सा होंगे शायद एक दो थप्पड़ भी मार दें लेकिन फिर भी इस दुनिया में कोई और नहीं है जो उनसे ज्यादा तुम्हारा भला चाहे। तुम चाहो तो हम तुम्हारी मदद कर सकते हैं। "
मैं अवाक् उनका मुँह देखने लगी। मदद कैसे करेंगे मदद ? मैंने प्रश्न मुद्रा बना कर उनकी ओर देखा।
"अंकल यहाँ से राईट फिर एक और राईट।" उसका घर पास आ रहा था।
"देखो यहाँ से सब राईट होने लगा है तो तुम भी अब अपनी जिंदगी को राईट मोड़ दे दो" उन्होंने कहा।
"लेकिन कैसे अंकल ?" उसे शायद एक तिनके के सहारे का ही इंतज़ार था।
"अपने घर में जाओ और अपने मम्मी पापा को सारी बातें बता दो हम लोग बाहर गाड़ी में रुकेंगे अगर जरुरत पड़ी तो तुम्हारे पापा से बात करेंगे।"
"लेकिन वो बहुत गुस्सा होंगे मुझे मारेंगे। मेरा घर से निकलना, मेरी पढ़ाई सब बंद करवा देंगे। क्या पता वो मेरे हसबेंड को अरेस्ट करवा दें उससे मार पीट करें।"
"मारता तो तुम्हारा पति भी है न तुम्हे तुमने बताया नहीं लेकिन ये सही है, है न? तो जब उससे मार खा सकती हो तो पापा से एक दो थप्पड़ खा लेने में इतना डर क्यों? और हो सकता है वो न मारें लेकिन कोई हल तो जरूर ही निकालेंगे। और रही बात तुम्हारे पति से मार पीट करने की तो ऐसा ही हो जरूरी तो नहीं है क्या होगा क्या नहीं होगा सोचते सोचते समय निकल जायेगा और फिर शायद तुम्हारे हाथ में कुछ न रहे।"
"लेकिन अंकल मुझे डर लगता है।"
"बेटा कभी तो इस डर का सामना तुम्हे करना ही होगा लेकिन कहीं ऐसा न हो कि बहुत देर हो जाये। जाओ बेटा हिम्मत करो हम यहीं है तुम्हारे साथ।"
गाड़ी घर के सामने खड़ी थी उसने दरवाजा खोल लिया था नीचे उतरने को हुआ उसका पैर हवा में रुक गया था "आंटी मुझे डर लग रहा है।"
"बेटा किसी न किसी दिन तुम्हे बताना ही होगा लेकिन उस दिन शायद हम यहाँ नहीं होंगे उस दिन अकेले बताना होगा।" मेरे पति में उसका हौसला बढ़ाते हुए कहा।
उसने गाड़ी से उतर कर मेरा हाथ पकड़ लिया "आंटी ..।"
"जाओ देर मत करो."
वह चली गयी घंटी बजा कर उसने पलट कर देखा पता नहीं अँधेरे में उसने क्या देखा लेकिन नज़रों से नज़रें मिलीं और उसे आश्वस्ति सी मिली। एक मिनिट इंतज़ार के बाद दरवाजा खुला सामने एक ऊँचे पूरे व्यक्ति की झलक दिखी। मैंने पतिदेव की तरफ देखा इतने अखबार इतनी ख़बरें पढ़ने के बाद भी ये क्या था?
करीब दस मिनिट इंतज़ार के बाद अन्दर से किसी के ऊँचे स्वर में चिल्लाने की आवाज़ आयी चटाक चटाक की दो आवाज़ों से रात की नीरवता काँप उठी। इन्होने गाड़ी का दरवाज़ा खोला और बाहर निकले। तब तक घर का दरवाज़ा खुल गया वह लड़की बाहर आयी उसके पीछे वही लम्बा तगड़ा व्यक्ति जो निसंदेह उसके पिता थे। मेरे पति और वह व्यक्ति लॉन के बीचों बीच रास्ते में मिले। दोनों के बीच पांच मिनिट बात हुई मैं धड़कते दिल से जाऊं या ना जाऊं की उधेड़बुन में फंसी रही तब तक दोनों ने हाथ मिलाया और पतिदेव वापस आने को पलट गए। गाड़ी स्टार्ट हो गयी थी। उस लड़की ने मुझे देख कर हाथ हिलाया और गाड़ी टर्न हो कर कच्चे रास्ते पर धूल का गुबार उड़ाती हुई हवा से बातें करने लगी और उस गुबार में मेरा डर भी हवा हो गया।
कविता वर्मा