कहानी - डायन शोभा रस्तोगी (1512 words)
मज़मा लगा था | भारी भीड़ थी | बच्चे- जवान -बूढ़े, महिला-पुरूष,लूले-लंगड़े, सूरदास सब मौजूद | पुलिया का पनवाडी नत्थू, चतरू चाय वाला, फ़क़ीरा सब्जी ठेले वाला, मोची गोविन्दा, मेहतर, दुकानदार सब खडे थे |
मारो – मारो का शोर कान फ़ाड़ रहा था | किसको और भला क्यों? सब नदारद था फ़ुलवा की समझ से | मारापिट्टी से जी भर गया तो चलो चलो की आवाज़ | भीड़ छंटने लगी |
घर की चौखट पे खड़ी जरा सा दरवज्जा भिड़ा देख रही थी वह | उसके माँ बापू भी गए थे उस किसी को मारने |
उन्हें आता देख वह अंदर हो ली | ‘ सुसरी, डाइन है डाइन | अपनो मरद खा गई | औलाद खा गई | पतो न और किन-किन्ने खावेगी? मरती ऊ न दारी|’ ‘माँ, कौन ए जे ? लोग बाए काए मार रए ?’ ‘डाइन हते|’ डाइन कौन होवे माँ ?’ ‘चुप्प कर तू | भीतर जा | रोटी चढ़ा दे | संझा है गई | लट्टू चास दे |’ डरी सहमी वह चौके में घुस गई | उसका बावला मन अपने ही सवाल के जवाब के लिए कूद-फ़ाँद रहा था | उत्तर क्या खूँटी पे टँगे होते हैं ? उतारो और बाँच लो | जवाब के लिए तो पनीला रेगिस्तान तथा सूखी धारा के बीचोंबीच से गुजरना होता है | तोपर भी कोई गारन्टी नहीं कि हाथ लग ही जाए | फ़ुलवा सोचे जा रही थी | आह ---- रोटी जल गई | --- डाइन कैसी होवे ---- ओह तवे से रोटी पलट्ते भान ही न हुआ और जलते तवे पे उंगलियाँ ही रख दीं | फ़ूल सी नरम खाल मुचड़ गई|
चुपचाप गीला आटा चेप लिया | माँ जानती तो सुनाती चार छह | दिमाग कहीं तो दीदे कहीं | एक कुरेदन उसके दिमाग के बंद सूराख को कुरेदती रही | किर्र – किर्र |
चौका निपटा वह बाहर निकली | माँ मंदिर, बापू चौपाल गए | साहस कर फ़ुलवा थोड़ी दूर तक गई | साँझ गहरी हो आई थी | इसी ठाँव दिन - रात मिलते हैं | थका दिन | रात आत्मविश्वास से लबरेज़ | निशा के साँवले सौन्दर्य को देख दिवस के चेहरे पर मुस्कान फ़ैल गई | दिन की इसी मुस्कुराहट के प्रकाश में फ़ुलवा ने देखी सड़क | जहाँ – तहाँ पत्थर | खून के धब्बे | टूटी चप्पल | लाल रक्त के निशां दूर तक भाग रहे थे | पुराने बंद पड़े कारखाने की पिछली सुनसान गली तक | वहाँ कोई आता-जाता न था | फ़ुलवा आगे बढ़ी | और आगे | ‘डाइन है वहाँ |’ माँ की डाँट याद हो आई | डर में लिपटी उलटी हो ली |
‘ऐ डाइन को पक्को इलाज करनो पड़ेगो |’ रात माँ बापू की बातचीत में डायन ही थी | ‘तुमने ज़मीन के काजग तो पक्के कराय रक्खे हैं न अपने नाम ?’ ‘करा तो लए हैं | जब तलक जे न मरे चैन कित ठौर पड़े ? ‘लालाजी [देवर] ऊ जइके कारन निकर गए | अपने छोरा ऊ ए खा गई कुलच्छ्नी | मरत ऊ नाय | बुजरगन की जमीन ते एक अंगुल ऊ न दिंगे बाय |’ ‘तू काहे चिंता कत्ते | पंचायत बिठा के डायन तो घोसित करा दयो है | पंचन कू बिदेसी दारू पिलबाई हती | देसी ए तो कोऊ हाथू न लगात | पर एक बात हते | दारू हए बडे काम की चीज | सुसरो कोउ काम करबानो होय | कित्तो पढ़ो-लिखो कोऊ होय | संस्कारन की कित्ती ऊ घुट्टी पी राखी होय | जे दारू … बोउ… बिदेसी… सबरे कामन ए निबटा देत ए | जा डाइन को कछु नाय | सब कछु फ़ुलवा को ए |’ फ़ुलवा के कानों ने सब वैसा का वैसा अंदर ले लिया | कुछ समझा | कुछ सिर से परे हो लिया | लकड़ी गीली थी | जली नहीं | किन्तु सुलगन पकड़ ली | हौले हौले धुआँ धुंधियाने लगा | आग पाँव पसार रही थी | पर थी कहाँ ? नहीं दिखा |
भोर उठे ही माँ बापू खेत पे चले गए | फ़सल कटान पे थी | रसोई निपटा स्कूल की तैयारी थी फ़ुलवा की | चार रोटी अखबार में दबा धर ली बस्ते में | सर्राती भई स्कूल पहुँची |
‘दीदी जी, पेट में दरद है | जल्दी जाऊँ ?’ एक कालांश बीतते ही विनय की उसने |
‘क्या हुआ?’
‘बोई महीना बालो दरद |’
‘अच्छा, जा |’
फ़ुलवा उसी पल स्कूल से बाहर | बढ़ गई पुराने कारखाने की ओर | बस्ते से आ रही रोटी की गंध उसके हौसलों को हवा दे रही थी | इधर उधर देखा | चारों तरफ़ देखा | कोई देख न ले | चाक-चौकन्नी हो आगे हो ली | माँ को पता लगा तो कुटाई पक्की | पैर वापसी चाहते | मुए दिल को कौन समझाए ? डरते-काँपते बढ़ चले | आगे | और आगे | आस पास कोई घर नहीं | बंद कारखाने की जर्जर दीवारें फ़टी पड़ी थीं | छिली थीं | जगह-जगह से रिस रहीं थीं | ईंटें अधनंगी खड़ी थीं | लोहे के सरिए भी ताँक – झाँक रहे थे | कारखाने की बाईं तरफ़ पतली गली | झोंपड़ीनुमा घर | मुड़ी वह | मुड़ तो गई गली में | धड़कन बढ़ गई | चौकस नज़र | देखा चहुँ ओर | कोई पंछी भी न था | अजीब सी बदबू नथुनों में भर गई | कै आने को हुई | रोटी की गंध झाँकने लगी बस्ते से | ‘ओह ! जे मेरी चाची लगे | सायद, डाइन नाम है चाची को |’ डायन नाम कौंधने लगा | अटक खड़ा सा भिड़ा था द्वार | अधटूटे कब्जे | सीला दरवज्जा | फ़ुलवा का हाथ लगते ही चरमराया | ‘ को ए निपूता ? भाग …’ ‘चाची…’ बटोर हिम्मत कह ही डाला | अंदर से आता दरवज्जे के बीच से निकलता माथे की दाईं भौंह पे सट्ट से लगा लोटे का किनारा | फ़ट– कट गया | खूनमखून | आँख झपक गई | हाय – हाय कह ओढ़नी का पल्लू धर दिया घाव पे | ‘हाय’ का स्वर सुन द्वार तक आई वह | चौंकी | बोली – ‘ को ए तू ? इहाँ काहे ? ‘ चाची, रोटी लाई थी तेरे काजे |’ जल्द ही अखबार में बँधी रोटी चौखट पे पटक उल्टे पैर भाग ली फ़ुलवा | एक हाथ भौं पे दबाए | भय से काँपती | दिल को मुट्ठी में पकड़ घर पहुँची | शुकर है माँ नहीं आ पाई थी इतने खन | मुट्ठी खोल दी | राहत की साँस ली | बस्ता फ़ेंक घाव धो दवा लगाई | ‘ ओह, तो डाइन ऐसी होवे |’ दर्द सालता रहा | ‘बाने मेरे लोटा चौं मारो ? मैं तो बाय रोटी देवे गई | अब कबहु न जाऊँ |’ चीखता रहा जख्म | चस – चस | गुस्से में फ़ूल कुप्पा हो गया | सूजन आ बैठी |
साम पड़े माँ घुसी तो लगी गाली बकने | ‘ का है गयो ? किन्ने मारो? ’कछु न माँ | पाँव फ़िसल गयो | पाटी [चौखट] लग गई |’ दो – चार दिन घर में रही | घाव थोड़ा पपड़ाया | फ़िर सुलगी लकड़ी धुआँ छोड़वे लगी | सफ़ेद | काला | मिश्रित | इसके पार कुछ था | अदृश्य | पर था जरूर |
टक –टक दरवाजा बजा पीछे हटी | क्या भरोसा ? कोई लोटा आन लगे | थोड़ी देर राह देख द्वार पीछे किया | डायन खड़ी थी | ‘ चाची, रोटी |
‘तू फ़ुलवा है न | मेरी बच्ची |’ तड़प थी | बाँहें फ़ैल गईं | भीतर तक डरी फ़ुलवा | कलेजे लग गई डायन के |
‘ तू मेरी चाची ?’
‘………?’
‘चल, चाची ई | काहे आई इत ?’
‘डाइन नाम है तेरो ?’
‘हा…हा…हा’ अट्टहास कर उठी वह | हँसी में आँसू शरीक होते गए | हँसी नदारद | दिनों, महीनों, वर्षों से रुके अश्रुओं ने राह देख ली चल पड़ने की | पूरी तरह भीगे | नमी से नम वह और फ़ुलवा | पीड़ा की गिरह खोल आँसू बह रहे थे | व्यथा थी अकेलेपन की | अपनों द्वारा छले जाने की | फ़ुलवा का तन – मन डाइन के आँसुओं में पूरी तरह डूब चुका था | नहा लिया था | निखर गया था | अब उसे वह डायन नहीं लग रही थी |
रात बिस्तर पर फ़ुलवा की आँखें बंद थीं पर नींद से कोसों दूर | ‘ओह ! डाइन मेरी माँ है | ये ताऊ – ताई | मेरो बाप तम्बाकू की लत मेँ सीधा हो लिया | ताऊ ने सहर ले जा फ़ूँक दिया | मेरो भाई पैदा हेते ही चल बसो | बदचलन, कुलटा कह माँ ए घर से निकाल दियो | जमीन के झूठे कागज बनवा लए पंचायत से मिल के | अपनी कोई औलाद न भई तो मोय अपना लियो | मेरी माँ कू डाइन …पूरे गाँव की डाइन … पति, बेटा कू खावे वाली डाइन, अकेलापन भोगती डाइन …बस्स जमीन – जायदाद के तांईं ?’
रात ने कितने ही काले कंबल बिछाए – ओढ़ाए | पर फ़ुलवा की आँखें तो अब उजला उजाला ही देख रहीं थीं | भोर की रक्तिम किरणों का आलोक फ़ुलवा के नैन कोरों से फ़ूट रहा था | वो भी भद्द काली रात मे
‘सुन रए ओ | काँ ओ तुम ? फ़ुलवा न दिख रई कईं | चौका समेट लेवेई इत्ते खन |’
‘सकूल की तैयारी कर रई होगी |’
‘न है न | बिस्तरा भी न उठा आज तो | जे देखो …दरवज्जा भी खुलो पड़ो है |’
‘हैं ? कऊँ चली गई का ?’ शोर मच गया | रातों – रात फ़ुलवा गायब | अड़ोस – पड़ोस के लोग – लुगाई सब जमा होने लगे | बच्चे, बड़े, बुजुर्ग सभी | ‘ कल्ल दुपहरिया में पुराने कारखाने से निकलते देखी |’ एक किशोर ने कुछ बताया | ‘हैं ? पुराने कार्……… डाइन लै गई मेरी मलूक सी बच्ची कू |’ भाग – दौड़ हुई | सब के सब पुराने कारखाने की ओर | जहाँ परिंदा भी पर न मारता वहाँ लोग ही लोग | पंचायती ठेकेदार, छुट्भैये नेता, प्रधान सभी | डायन के टूटे- फ़ूटे घर के सामने एकत्रित |
‘आओ माँ बापू ! आपको स्वागत है मेरे घर में |’
‘कहा बक रई ए री फ़ुलवा ? तू बहका दई दीखे जा रंडी ने ? डाइन अपनो घर तो खाय …’
‘बस्स माँ | इसे गाली न दीजो | मैं यंईं रहूँगी |’
‘न लल्ली | तू जा के साथ ? लील जावेगी तोय भी जे …’
‘बापू … ना | यंई रहूँगी | एक बात बताओ मोय …मैं तुम्हारी छोरी हूँ कि ना ?’ पति – पत्नी अवाक एक दूजे का मुँह देखने लगे | कई प्रश्न उलझते उत्तरों की अलगनी पे टँगे झूल रहे थे | हाँ – ना की चौखट भार से दोहरी हो रही थी | उन्होंने लोगों को देखा | ‘ हाँ, लाली | तू हमारी ई हते | ‘ तो मेरी बात मानो | बोलो हाँ के ना ?’ बोल लल्ली | पर तू यां न रहेगी |’
‘जाय तुम डाइन कह्तो, कौन लगे तुम्हारि ?’ मुँह सूख गए | बोल चुक गए | कैसे पता लगा इसे ? हमने न बताया | झूठ के हजार तालों में बंद था जो सच, आज उजागर कैसे ? ‘बोलो, माँ-बापू |’ कोई चारा न देख बोल फ़िसल पड़े – ‘ छोटे की घरवारी ए |’ भीड़ आश्चर्यचकित | सुगबुगाहट बढ़ी | ‘ फ़िर जे डाइन कैसे ?’ ‘ जे अपने मरद कू…’ ‘ बस्स्… माँ | जा |’ ‘ न लाली, तू ऊ चल गैल |’ ‘ मेरे संग मेरी चाची ऊ जावेगी |’ ‘जे डाइन ?’ ‘ना जे डाइन ना है | तुम बनायो जाय डाइन्…ठीक है… जा तू | मैं जा डाइन के संग ई रहूँगी |’ ‘ न लाली | भली ए… चाल लखमी … अपने घर चाल |’ भीड़ ने डायन का नाम पहली बार सुना | ----------------------------
-------- शोभा रस्तोगी 965026727
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