असमान
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कई बार दिमाग के अँधेरे में एक साथ
अनगिनित प्रश्न कौंधते हैं
कुछ चमकता है अक्सर
और बहुत कुछ रह जाता है अँधेरे में
अँधेरे के आवरण से ढकी हैं
सबसे सुन्दर चीजें
सबसे सुन्दर क्षण बह गए गलियारों में उपेक्षित
सभी पौधों को सामान कतार में
एक साथ नहीं रोपा गया
विश्व की हरीतिमा का भविष्य हैं जो
उनमें से अधिकांश को न पर्याप्त जगह मिल रही है
और न खाद पानी अपेक्षाकृत
समुचित उन्नति के दावों के बीच
उदास और मुरझा रही शुरूआत
प्रश्नों की झड़ी लगा रही है
पर उंगलियाँ भी कोई चीज़ हैं
जिन्हें कानों में डालकर बचा जा सकता है
वहां से गुजरते समय
अपनी जिम्मेदारी को धूल की तरह झटकारते हुए-
सुरेन्द्र रघुवंशी
चारण
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अभी भी मौजूद हैं चरणों की कौम
विडम्बनाओं से भरे समय में भी
वे लिख रहे हैं स्तुति गान
दरवारों में गा रहे हैं विरुदावली तन्मय होकर
कला इनके पास आकर होती है शर्मिंदा
शब्द रोते हैं और सिसकते हैं स्वर
प्रश्नों के अम्बार अपने उठाये जाने
और अनगिनित क्रांति गीत अपने गाये जाने की प्रतीक्षा में हैं
और वे नतमस्तक होकर व्यस्त हैं चरण वंदना में
गिरवी रखकर अपने स्वाभिमान की दौलत
सत्ता की क्रूर तिजोरी में
सिक्कों की चंद थैलियों के लिए-
सुरेन्द्र रघुवंशी
हम जो हैं
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हम जो गौण हैं
और मुख्यधारा का जल ही नहीं रहे कभी
बहते रहे जहाँ -तहां गली कूचों में
हमारी इच्छाएँ विलीन होती रहेंगी यूं ही
या छपेंगी समय के गाल पर
और आते रहेंगे उनके संस्करण अनवरत
या नामी न होने के कारण उपेक्षित मानते हुए निरंतर
खारिज किये जाते रहेंगे लौह सत्य
हम जो धूल धूसरित और फटेहाल हैं
ठहर से गये समय के कोने कुचारे में पड़े हैं हल बैल लिए हुए सहमे से भयभीत
अपने बंज़र हो गए खेत में बादलों की ओर निहारते बार-बार
न्याय बरसेगा कभी
उम्मीदों की तपती धरती पर हरे सपनों को जिंदा रखने के लिए ?
हम जो जन सीता हैं
अपने हिस्से का वनवास भोगते हुए भी
हुआ हमारा अपहरण
फिर एकांत विरह और त्रासदीपूर्ण युद्ध में
विजय के पश्चात् भी देनी होंगी कितनी अग्नि परीक्षाएं अपनी पवित्रता के प्रमाण के लिए
देश को समृद्धि की संतान सौंपने के बाद भी
क्या अब भी करना होगा हमें
अपने लिए धरती फटने का इंतजार
अपने समय की रफ़्तार में हमें शामिल करने के लिए
रुकेगा व्यवस्था का वाहन या सरपट दौड़ जायेगा
या हम ही ओझल हो जायेंगे समय की आँख से-
सुरेन्द्र रघुवंशी
एक दिन
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हम पहुंचेंगे उन जगहों पर
जो कल्पनाओं में हमें बुलाती रहीं
और हमारी विवशताएँ हमें वहां जाने से रोकती रहीं
हम संकल्प के आवेग में उड़ा चुके होंगे बाधाओं को
और उस सुबह तुम्हारे साथ विश्वामित्री नदी के किनारे
कितना सुखद होगा सूर्योदय का दर्शन
कितनी ताज़ा और स्फूर्ति से भरी होती है सुबह
हमारी आँखों में सुनहरी इच्छाओं को जगाती हुई
उस पहाड़ पर चढ़ना जिसका मैं कविताओं में
जिक्र किया किया करता हूँ अक्सर
कितना रोमांचक अनुभव होगा बतियाते और हांफते हुए आकाश की और देखना
जबकि पहाड़ ने पहन रखे होंगे हरे -भरे वस्त्र
और चिड़ियाँ पेड़ों पर बैठी या उड़ते हुए
गा रही होंगी दुनिया का मौलिक शांति गीत
उस पहाड़ की ऊँची चोटी पर तुम्हारे साथ खड़े होकर
मैं बार-बार दोहराऊंगा तुम्हारा यह कथन
कि कठिनाइयों से भागने से नहीं
बल्कि उनका सामना करने से ज़िन्दगी खूबसूरत बनती है-
सुरेन्द्र रघुवंशी
चंदेरी
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यह एक प्राचीन शहर है
कलात्मक साड़ियों की सुन्दरता में लिपटा हुआ
बुनता हुआ जीवन के वस्त्र समय के ताना-बाना में
यहाँ घाटी की तरह कटी रह गयीं इच्छाएं
दिल्ली के रास्ते तक नहीं पहुंचाता यहाँ का दरवाज़ा
किलाकोठी वाली पहाड़ी पर मौजूद बैजू बाबरा
छेड़ते हैं रोज राग पर नहीं सुनता देश
वे अक्सर कहा करते हैं कि शासक बहरे हो गये
और जीवन की आपाधापी में बाबरे हो गये लोग
राजा शिशुपाल के अहंकारी अट्टाहास के नीचे दबा है
यहाँ इतिहास का गौरव
और कृष्ण की चेतावनियों को पढ़ रहा है संसार
यहाँ के पत्थर बोलते हैं इतिहास की भाषा
और यह भी कि अपने सतीत्व की रक्षा के लिए
आज भी स्त्री को देखा जा सकता है यहाँ से
जौहर करते हुए विडंबनाओं की अग्नि लपटों में
मुग़ल आक्रान्ताओं के घावों से सिहर उठी यह नायिका
विन्ध्याचल पर्वत श्रंखला की गोद में विश्राम करते हुए
अपने लिए समतापूर्ण न्याय की प्रतीक्षा कर रही है
सुरेन्द्र रघुवंशी
तुम भी बच्चे
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जब मंगलयान उडान भर रहा था अन्तरिक्ष में ऊँचाई की ओर
तब तुम्हारे लिए बची थी पृथ्वी के घूरों पर जगह अपने लिए
बाहर फेंक दिए गये कचरे में तुम तलाशते हो ज़िन्दगी
जब स्कूलों में ज्ञान की कक्षाएं लगती
हैं
तब तुम पेट के भूगोल का रास्ता खोज रहे होते हो
हम गंभीर बहसों में खोये होते हे
और तुम चुपचाप टेबिल साफ कर गिलास और थालियाँ रख जाते हो
नीले आसमान में इन्द्रधनुष के कुछ रंग फीके लगते हैं उस वक्त
रोज प्रगति की ट्रेन दौड़ जाती है रफ़्तार से
और तुम धूल धूसरित फटेहाल
उसको देखते रह जाते हो कौतूहलवश
गुजरते हुए अपने पिचके पेट के ऊपर से
सुरेन्द्र रघुवंशी
विज्ञप्ति
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यह दिसम्बर का एक दिन था
बदलियों पर लेटकर रिसता हूआ बूँद-बूँद में
विद्यालय के प्रांगण में शिक्षक
मर चुकी कुतिया के पिल्लों को दूध पिला रहे थे
बच्चे उन्हें घेरे थे चरों ओर से
बच्चों को दूध पिलाने वाली वोतल से वे
कूँ -कूँ करते बहुत छोटे पिल्लों को दूध पिलाते रहे
और इसीलिए वह शिक्षक हैं
बच्चे चारों ओर से उन्हें घेरे थे
व्यवहार की चाक से जीवन के वोर्ड पर
इबारत लिख रहे थे शिक्षक
बच्चे उतार रहे थे उसे ह्रदय की अभ्यास पुस्तिका में
संसार भर में ऐसे शिक्षकों के रिक्त स्थानों की पूर्ति के लिए
सहर्ष विज्ञप्ति जारी कर रही थी हवा-
सुरेन्द्र रघुवंशी
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