Neha Agarwal
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सुनो ना
आज कुछ कहना है तुमसे बहुत दिनों से सोच रही हूँ कि दिल की हर बात कह दूँ। पर जाने क्या सोचकर रूक जाती हूँ।
अच्छा एक बात तो बोलो जरा,
क्या तुम्हें हमारी पहली मुलाकात याद है।
मैं तो कभी भी नहीं भूल सकती वो दिन ,
कितना डरावना था ना सबकुछ,
मैं बस स्टैंड पर खड़ी किसी सवारी का इंतजार कर रही थी। पर जिसका दूर दूर तक कोई नामोनिशान नहीं था। और आखिर होता भी कैसे,
पूरा शहर अचानक से दंगो की आग में जल जो उठा था। मैं अकेली बेबस हैरान परेशान सी बस भगवान को ही याद कर रही थी।
हर आहट पर मेरी रूह सिहर जा रही थी। बस बार बार यही दुआ कर रही थी। कि किसी तरह सही सलामत अपने घर की चारदीवारी तक पहुंच जाउँ, दिल किसी अनहोनी के डर से सूखे हुये पत्तों सा काँप रहा था। तभी अचानक तुमने अपनी बाइक मेरे सामने रोक दी थी। और जल्दी से बोले थे।
"देखो जानता हूँ मैं,
कि मैं आपके लिए अजनबी हूँ पर यहाँ किसी सवारी का इंतजार करना बेकार है जगह जगह लोग वाहन जलाने में लगे हैं प्लीज आप मेरा भरोसा किजिये मैं पूरी कोशिश करूँगा कि आपको बिना किसी नुकसान के आपके घर पहुंचा दूँ,।।"
जानते भी हो इतनी घबराहट में भी मुझे तुम्हारा एक एक शब्द आज भी मुहँजबानी याद है। चाहती तो नहीं थी तुम पर भरोसा करना पर और कोई आप्शन भी तो नहीं था मेरे पास,
इसलिए ना चाहते हुए भी तुम्हारी बाइक पर बैठ गयी। और फिर तुमने भी जान पर खेलकर मुझे मेरे घर पहुंचा दिया था।
मेरी माँ तो तुम पर वारी जा रही थी। तुम अपने घर जाना चाहते थे पर मम्मा ने हालात का हवाला देकर तुम्हें उस रात हमारे ही घर पर रोक लिया था। कुछ तो बात जरूर थी तुममें जो सिर्फ एक ही रात में तुमने पूरे घर को अपना बना लिया था।
माँ को एक बेटा और छुटकी को बड़ा भाई मिल गया था। कम खुश तो पापा भी नहीं थे उन्हें शतरंज का साथी जो मिल गया था। आज एक बात तो मैं दावे के साथ कह सकती हूँ कि तुम सच में शतरंज के माहिर खिलाड़ी हो। अच्छी तरह से जानते हो कि कब कौन सी चाल चलनी है और कैसे शह और मात देनी है। आज यह भी समझ मे आया, कि क्यों इतना अच्छा खेलने के बावजूद तुम उस रात के बाद हर बार पापा से हार क्यों जाते थे ।आखिर शाहरूख खान के बडे़ वाले फैन थे ना तुम औऱ वो क्या कहता है हाँ ध्यान आ गया।
हार के जीतने वाले को बाजीगर कहते है ।
सच बहुत बड़े वालें बाजीगर निकले तुम तो।
उस रात के बाद जाने अनजाने तुम जैसे हमारे घर के सदस्य बन गये थे। कुछ मुझ मैं भी तो बदला था उस रात।
पूरा शहर सुलग रहा था पर मुझे बारिश की सुमधुर संगीत सुनाई दे रहा था मेरे चारों तरफ महकी हवायें चल रही थी। जो बार बार मेरी जुल्फों को बिखेर दें रही थी।
फिर अक्सर ही माँ तुम्हें खाने पर बुलाने लगी थी। क्योंकि जानती थी कि नौकरी के चलते इस शहर में तन्हा हो,
और अपनी माँ के हाथ के खाने को मिस करते हो वैसे एक बात तो है ना हर माँ के हाथ का खाना बहुत स्वादिष्ट होता है ना क्योंकि वो माँ की ममता के साथ परोसा गया होता है।
मेरी जिंदगी में एक सबसे खूबसूरत दिन भी तो आया था ना, वो दिन जब मुझे पता लगा कि कि चाहत के इस सफर में मैं तन्हा नहीं हूँ।
तुम और सिर्फ तुम मेरे हमसफर हो यकीन मानो ऐसा लगा था कि पूरा आसमान मेरे कदमों तले आ गया हो।
उस पर भी सोने पर सुहागा यह कि हमारे घर वालों को हमारे मिलन पर कोई एतराज नहीं था।
शादी की तारीख फाइनल हो गई थी। पर तुम सबसे ज्यादा खफा थे। तुम्हारा बस चलता तो तुम उस पण्डित का खून ही कर देते।
जिसने पूरे दस महीने बाद का मुहूर्त निकाला था और हमारे घर वाले तो मुहूर्त के बिना कुछ करने ही नहीं वाले थे।
कितना बेताब रहते थे तुम मेरे लिए और मैं अपनी किस्मत पर नाज करती। तुम्हारी दिवानगी मुझे और बहुत ही खास बनाने लगी थी। मैं नयी जिंदगी के सतरंगी सपनों को संजोने लगी थी।
एक शहर में ही तो थे ना हम,
रोज कहीं ना कहीं मिलते पर तुम्हारा मन नहीं भरता था। तुम अब हमारे रिश्ते को आगे ले जाना चाहते थे और मैं लक्ष्मण रेखा पार नहीं करना चाहती थी। मुझे समाज के बनाये नियम अच्छे लगते थे। और तुम्हें यह सब मेरा पिछड़ापन। तुम खफा हो जाते तो लगता रुह जुदा हो गई हो जिस्म से।
पर फिर मैं मना ही लेती थी तुमको। एक दिन तुमने ऐसे ही गुस्से में बोल दिया था मुझे कि मैं अपनी खूबसूरती पर घमंड करती हूँ।
सुन कर लगा जैसे किसी ने एवरेस्ट से थक्का दे दिया हो। सच है ना तुम्हारे प्यार में मैं खुद को एवरेस्ट की ऊंचाई पर ही तो खड़ा समझती थी। पर फिर खुद को ही समझा लिया मैंने शायद गुस्से में कह दिया होगा तुमने ऐसा।
अगले ही दिन मेरी सबसे अच्छी सहेली का जन्मदिन था। और तुम फिर से बार बार मुझे छत पर चलने के लिए कह रहे थे। जिससे हम तन्हाई में कुछ वक्त गुजार सके। वहां पार्टी में लगभग सारे ही मित्र आये हुए थे।
और मैंने आज एक बार फिर तुम्हारी बात नहीं मानी थी। उसी पार्टी में जब मेरे कालेज के एक दोस्त ने मुझ से कुछ बात करी तो तुम गुस्से से आग बबूला हो गये।
जबकि वो तो बस मुझे मेरी होने वाली शादी की बधाई दे रहा था।
एक बार फिर तुम मुझ पर बरस रहे थे। तुम्हें लगता था कि मुझे तुम्हारी परवाह नहीं, मैं तुम पर विश्वास नहीं करती।
पर सच बोल रही हूँ कभी भी नहीं था ऐसा।
पर तुम गुस्सा हो गये थे और मेरे लाख मनाने पर भी मान नहीं रहे थे।
तुमने फिर से मेरे सामने एक शर्त रख दी थी। तुम मुझे बहुत करीब से महसूस करना चाहते थे। तुम्हें लगता था कि कोई बुराई भी तो नहीं ना आखिर हमारी शादी तो होनी ही है।
पर मैं एक बार फिर अपने कदमों को आगे नहीं बढ़ा पायी।
मैं शादी के लिए सुर्ख लाल रंग का लहंगा पंसद कर रही थी। वहीं दूसरी तरफ तुम अपना गुस्सा कम करने के लिए कुछ खरीद रहे थे।
क्या कहाँ था तुमने हमारी आखिरी मुलाकात पर।
बहुत घमण्ड है ना तुम्हें खुद पर आज मैं तुम्हारा सारा गुरुर मिट्टी में मिला दूँगा।
उसके बाद तुम्हारे गुस्से की आग तो बुझ गई पर मैं आज भी जल रही हूँ। आज खत इसलिए लिखा।
खुद को मर्द समझते हो ना तुम तुम्हें लगता है जो तुम्हें सही लगता है बस वो ही सही है। बहुत हिम्मत है ना तुममें सुनो कम से कम एक वादा तो निभा ही दो तुमने कहा था कि मेरा हर दर्द तुम्हारा है तो फिर जाओ। फिर से एक बोटल खरीद लो। और अगर हिम्मत है तो सिर्फ कुछ बूंदें खुद पर छिड़क कर देखो। जानती हूँ मैं कि कभी नहीं कर सकते तुम ऐसा मैंने आज तक किसी मर्द का चेहरा तेजाब से जला हुआ नहीं देखा।
अब मैं आगरा में हूँ उस शहर में जो अपनी खूबसूरती के लिए पूरी दुनिया में जाना जाता है। पर मैं भी कुछ ऐसा करके दिखा दूँगी दुनिया को कि भले तुम मेरी खूबसूरती को छिन लो।पर मैं फिर भी अपना रास्ता बना ही लूँगी।तुम्हारे जले हुए चेहरे की तस्वीर के इंतजार में, और हाँ किसी औऱ चीज़ का भी इतंजार है ।वैसे कोई वादा तो आज तक निभाया नहीं तुमने देखना चाहती हूँ कि तुम्हारी फितरत बदली या नहीं
सुनों ना
कुछ लिखना चाहती हूँ तुम्हें मैं,
लिखना चाहती हूँ वो प्यार
जो कभी मुझ पर बरसा था।
वो मनुहार
जो मेरी जिंदगी थी।
वो सात वचन जो
सात फेरों के साथ हमें लेने थे
पर अब कुछ नहीं है मेरे पास
क्यों हुआ ऐसा
क्यों हुई बिन बादल बरसात
सुनो तुम्हारी वो बड़ी वाली अलमारी है ना
उसके पीछे कहीं कूड़े
में मिल जायेगा तुम्हें
मेरा टूटा हुआ दिल।
हो सके तो कम से कम उसे भिजवा देना।
पर सुनो खुद मत आना गलती से भी
मैंने अब टूट कर बिखरना छोड़ दिया है।
तुम्हारी
नोना बाबू
(आज एक बात और जानती हूँ कि तुम मुझे नोना क्यों बोलते थे सच कुछ ज्यादा ही भोली निकली ना मैं)