Ek dost ka dusare dost ko patra in Hindi Letter by Vrajesh Shashikant Dave books and stories PDF | एक दोस्त का दुसरे दोस्त को पत्र

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एक दोस्त का दुसरे दोस्त को पत्र

vrajesh dave

dave.vrajesh@gmail.com

दिनांक -12/04/2016

दोस्त,

क्षमा करना, मैंने तुम्हें केवल ‘दोस्त’ ही कहा। चाहता तो औरोंकी भांति ‘मेरे प्रिय दोस्त’ जैसा सम्बोधन कर सकता था। पर, मेरा मानना है कि, प्रत्येक दोस्त प्रिय ही होता है, और मेरा अपना ही होता है। तो फिर ऐसा सम्बोधन करना आवश्यक है क्या?

दोस्त, एक बात और। मैं ना तो तुम्हारा नाम जानता हूँ, ना ही पता। ना ही तुम्हें जानता हूँ, न तुम मुझे जानते हो। सुना है, कि दोस्तोंके नाम नहीं हुआ करते। दोस्त, दोस्त होता है। मुझे तो यह भी ज्ञात नहीं, कि तुम पुरुष हो या स्त्री! क्या यह सब जानना जरूरी है, तुम्हें दोस्त कहने के लिए? दोस्तोंकी कोई जाति नहीं होती। मित्रका ह्रदय महत्वपूर्ण होता है, शरीर नहीं।

मित्र, सखा, दोस्त… ! यह मेरा प्रथम पत्र है, तेरे नाम। मैं तेरी आंखोमे ताजा जन्मे विस्मयको देख रहा हूँ। तूँ भी अपना चहेरा दर्पनमे देख ले, तूँ स्वयमके प्रेममे पड जाएगा। तेरे अधरों पर आए स्मितको देख कर अच्छा लगा। दोस्त वही होता है, जो अधरों पर स्मित ला दे।

तेरे स्नेहमें बंधा हुआ मैं, यह बताना तो भूल ही गया, कि मैं यह पत्र क्यों लिख रहा हूँ? आजका युग सोशयल मीडियाका है। अनेक माध्यम है, संवादके । तीव्र गतिसे शब्द, यात्रा करके मित्रके पास पहोंच जाते है। किन्तु, क्या वह मित्रोंकी भावनाओंको भी...?

मैं नहीं जानता। इस तेज गतिके युगमें यह पत्र लिखना, तुम्हारे मनमें अनेक सवालोंको जन्म देता होगा, है ना? यह सहज है, स्वाभाविक है।

चलो, सर्व प्रथम में मेरा परिचय दे दूँ। अरे, मैं तो भूल ही गया, मित्रोंको परिचयकी आवश्यकता थोड़ी न होती है।

बस, इतना बता देता हूँ, कि मुझे पत्र लिखना पसंद है। पत्र पढना भी पसंद है। जब मैं पत्र पढ़ता हूँ, तब मुझे उसमें दिखती है तेरी छबी। जैसे तुम मेरे सामने ही हो और अपने अधरोंसे, स्मितके साथ, तुम मेरे साथ बात कर रहे हो। अपने मनकी बात कह रहे हो। तेरी आंखोमे उभरती उर्मियोंको देखकर मेरी भावनाएं, मेरे ही ह्रदयकी, शत्रु बन जाती है। तेरे गालोंके खंजन, तेरी पलकोंका झुकना, तेरी भवोंका स्वत: खींचना, हाथोंसे बालोंको यूं ही छूना… क्या क्या बताऊँ?

तेरे हाथोंसे लिखे शब्दोंमें छिपी तेरी सुगंध मुझे आश्वस्त करती है, कि तुम मेरे आसपास ही हो। दूरियाँ तो शरीरकी होती है। मन, ह्रदय एवं आत्मा तो जैसे मेरी आत्माके समीप ही हो। तेरा पत्र मुझे देता है, तेरा सानिध्य, तेरा सामीप्य। मित्रका समीप होना बड़े ही भाग्यकी बात है। मैं भाग्यशाली मानता हूँ, स्वयमकों।

तेरा पत्र तेरे मनोभावोंको, तेरे भाव जगतको खोल देता है, मेरे सामने। मुझे यह सब अच्छा लगता है। तुम्हें भी तो अच्छा लगता है। एक दोस्त दूसरे दोस्तके सामने कितना अनावृत होता है! कोई पर्दा नहीं, कोई मुखौटा नहीं। बस, यही कारण है पत्र लिखनेका, बाकी सब माध्यमको छोडकर।

कारण! मित्रोंको पत्र लिखनेका कारण होता है क्या? कभी नहीं। जिसे कहीं भी, कभी भी, बिना कारण आवाज दी जा सके, पुकारा जा सके, मिला जा सके... वही तो मित्र होता है, तुम्हारी भांति!

पता नहीं समयके कितने अंतरालके बाद मैं पत्र लिख रहा हूँ। पिछला पत्र मैंने कब लिखा था? किसको लिखा था? याद नहीं। लगता है, जैसे पत्र लिखना कोई बीते हुए युगकी बात हो!

हाँ, एक युगसे पहले मैं पत्र लिखा करता था, नियमित रूपसे।

‘किसको?’ तेरा यह सवाल उचित है। इस युगसे पहले मेरे भी तो थे, कई मित्र, पत्रमित्र!

‘पत्रमित्र’! यह शब्द नया लगता है न? अंजाना सा लगता है न? हा हा हा...

हाँ मित्र, यह एक नया शब्द है, आजकी पीढ़ीके लिए। जैसे आपके सोशियल मित्र हैं, वैसे ही मेरे पत्रमित्र हुआ करते थे।

अंजाने, अनदेखे देशको देखनेकी तमन्ना, मनुष्यमें सदैव रही है। अंजाने-अनदेखे व्यक्तिको मिलना, समझना, उससे बातें करना, उसे मित्र बनाना मनुष्यका स्वभाव है। इसी तमन्ना और स्वभावके कारण मनुष्य नए नए मार्ग ढूंढ लेता है, मित्र खोजनेका।

पत्रमित्र भी इसी कड़ीका एक पड़ाव था। किसी अंजाने अनदेखेको पत्र लिखना, फिर उसके पत्रकी प्रतीक्षा करना, दुरसे डाकियेको उसका पत्र लेकर आते देखना, डाकियेके पास दौड़ जाना, मित्रका पत्र लेकर दौड़कर नदीके किनारे जा बैठना, कोई देख तो नहीं रहा उस बातका आश्वासन मिलनेके बाद ही पत्रको खोलना, एक ही धडकनमैं पूरा पत्र पढ़ लेना, पढ़कर अकेले अकेले ही खुश होना, बार बार पत्र पढना, पत्रका जवाब लिखना, उसे डाकमें डालना, फिरसे प्रतीक्षा करना.....।

कितना अदभूत होता था वह समय? एक मीठी पीड़ा, एक आनंदकी अनुभूति साथ लेकर हवा चलती थी।

“कितने थे, तुम्हारे पत्रमित्र?” किसने पूछा यह सवाल? तुमने? तुम तो यहीं कहीं नहीं हो, तो फिर यह आवाज किसकी थी?

“तो क्या हुआ? सवालका जवाब तो देना ही पड़ेगा।“

मेरे कई मित्र थे पर, तीन चार मित्र खास थे। क्या नाम थे उनके? शायद… नहीं... शायद ... । यादों पर समयकी गहरी धूल चड गई है। कोई भी नाम याद नहीं आ रहा है।

शायद समयकी आंधीमे वो सब कही खो गए है। नहीं, वो सब नहीं, खो तो मैं ही गया हूँ। समयके प्रवाहमें मैं बहता गया, नए नए बहाने बनाकर दुनियाकी बातोंमे उलझता गया और पता ही नहीं चला, कि मित्रोंका साथ कब छूट गया। हो सकता है, वह आज भी समयके उसी पड़ाव पर मेरी प्रतीक्षा कर रहे हो। और मैं, खो गया हूँ कोई अनजानी-सी भीड़में। स्वयमसे ही बिछड़ गया हूँ।

तुम्हें कहानी पसंद है? या कविता? कोई गीत गुनगुनाना या संगीतकी किसी धुन पर अधरोंसे बंसी बजाना? दूर क्षितिज पर बिखरे रंगोसे चित्र बनाना अथवा थिरकते पैरोंसे नृत्य करना?

तूँ यहाँ आ जा अथवा मुझे वहाँ बुला ले। अच्छा, तूँ ही आ जा। खुले आकाशके नीचे, नदीके किनारे, किसी बड़ेसे पेड़की शाख पर अथवा पहाडकी चोटी पर चड़कर हम दूर क्षितिजको देखते रहेंगे।

तुम अपनी कहानी मुझे सुनना, मैं तुम्हें मेरी कहानी सुनाऊँगा।

कहानी मुझे पसंद है, पर कविता भी। शायद कविता अधिक पसंद है। कवितामें यह क्षमता है- थोड़े से शब्दोंमें बड़ी गहन बात कह देनेकी।

घरसे बाहर निकलते ही बहेती हवा कविता करती है। कलकल बहेता पानी, पवनसे हिलते पर्ण, मिट्टी, रास्ता, रास्ते पर पड़ते प्रत्येक पदचापकी ध्वनि, बारिशकी बूंदें सब अपनी अपनी कविता सुनाते है मुझे। जब मैं घर वापस आता हूँ तब घरक़ी दीवारें भी कुछ बोलती है। मैं दीवार पर कान रखता हूँ तो मुझे वहाँ भी कविता सुनाई देती है। मैं सोचता रहता हूँ, कि क्या निर्जिव दिवारें कविता कर सकती है? पर मेरे घरक़ी दीवारें कविता अवश्य करती है। तुझे विश्वास नहीं है न? बस, यही तो सुंदर बहाना है मेरे घर आनेका!

यहांकी हर ध्वनि न केवल कविता है, अपितु हर ध्वनिमें संगीत भी है। पंछियोका कलशोर, किसीके शब्द, किसीका मौन… प्रत्येकमें संगीत बहता है। इस संगीतमें भी कविता है। यह पत्र जब तुम पढ़ रहे होगे तब, कागजकी सरसराहटमें संगीत सुनाई देगा। एक पलके लिए रुक जाओ, सांसोको रोककर पन्नेको फिरसे पलटना। हाँ, बस इसी तरह। एक मधुर संगीत तुम्हारे कानोंको सुनाई दिया ना? कविता एवं संगीतका कैसा अदभूत समन्वय!

जब सारा जग सोया होता है, तब मैं सूरजसे भी पहेले जाग जाता हु, क्यूंकि कुछ पंछी सूरजसे पहले जाग जाते है और इतना शोर मचाते है कि मेरी नींद उड जाती है। मुझे वह सोने नहीं देते। सोते हुए पैडको भी जगा देते हैं।

मैं खिड़कीसे बाहर झांककर उन पंछियोंको देख लेता हूँ, और वह मेरा चहेरा देख लेनेके बाद ही चुप होते हैं। मेरी तरफ एक नजर करके, पंख फड़फडाके उड जाते है, दूर आकाशमें।

मैं भी चला जाता हूँ घरसे दूर, बहेती नदीके पास जा बैठता हूँ। फिर, गहरे आकाशकी तरफ द्रष्टि करता हूँ। आकाशमें कितनी सारी बातें, घटनाएं घट जाती है, एक साथ!

तारे और नक्षत्र डूब जाते हैं, धीरे धीरे अंधकार छुपने लगता है, प्रकाश दस्तक देने लगता है, बादल रंग बदलने लगते हैं, क्षितिज काला-नारंगी-गुलाबी-श्वेत रंगोंसे भर जाता है। जैसे किसी चित्रकारने गगनके कागज पर रंगोकी बौछार करके अपनी चित्रकारिका परिचय दिया हो!

अनेक पंछी उड़ने लगते हैं। कई तो नदीके पानीमें जल क्रीडा करते हैं। बड़े ही नटखट लगते है, यह सारे।

काली पंखवाले आठ दस पंछी हंमेशा पानीकी ऊपरी सतह पर ही तैरते रहते हैं। पानीकी सतहको स्पर्श करके दौड़कर उड़नेकी उनकी चेष्टा तो अनुपम है, अदभूत है, अवर्णनीय है। पानीकी सतह पर एक लकीर-सी खींच देते है। यह लकीरोंको देखनेमें बड़ा ही आनंद आता है। मैं उसे देखते रहता हूँ, अपलक! यह एक रोमांच है, क्षणभर का, पर इसका प्रभाव स्थायी है । तू इस रोमांचको अनुभव करनेके लिए एक बार आ जा।

हकीकतमें तो, मैं मेरी खिड़कीको झाँकते उन पंछियोंको ढूँढनेके लिए ही नदी तट तक चला जाता हूँ, पर वह वहाँ नहीं मिलते। उस पैड परसे उड़ कर ना जाने वह कहाँ चले जाते हैं! मैं नहीं जानता। सुबहको जानेके बाद देर शामको लौटते हैं, वह सब। दिनभर कहाँ रहते होंगे?

मेरी तीव्र झंखना है, उनके दिनभरके ठिकानेको जाननेकी। मन तो करता है कि एक दिन मैं भी उड़ कर उनका पीछा करूँ और जान लूँ कि दिनभर कहाँ खो जाते हैं यह पंछी? किन्तु, अकेले पीछा करना आनंद भी नहीं देता और अच्छा भी नहीं लगता। मेरे अकेलेमें इतना साहस भी तो नहीं।

तू आए, तो दोनों साथमें उसका पीछा करेंगे और रहस्य परसे पर्दा हटायेंगे।

कितने सारे बहाने हैं यहाँ आनेके लिए!

मेरे कानों पर कोई आवाज पड रही है। लगता है मेरे दरवाजे पर कोई दस्तक दे रहा है। यह दस्तक दरवाजे पर है या मेरे दिल पर? दस्तक तेज हो, उससे पहेले मुझे यह पत्र समाप्त कर देना पड़ेगा।

अभी तो और भी बहोत लिखना है, पर इस दस्तकने विवश कर दिया है। मुझे मेरे इन शब्दोंको विराम देना ही होगा। यह पत्र तेरे और मेरे बिचका संवाद है। दरवाजे पर कोई तीसरा प्रतीक्षा कर रहा है। दरवाजा खोलते ही उसकी उपस्थिती हमारे साथ हो जाएगी। किसी तीसरी व्यक्तिके सामने मैं मेरी बात तेरे साथ कैसे कर सकूँगा? अत: पत्र रोकना पड़ेगा। किन्तु मैं तुम्हें यह बताना भी चाहूँगा कि कौन है मेरे द्वार पर, दस्तक देता हुआ?

कौन होगा मेरे द्वार पर? क्या तुम हो? शायद तुम ही हो। यह कल्पना कितनी सुंदर है! अभी अभी हवाकी एक मधुर लहर मेरे खंडमें प्रवेश कर गई। पूरे खंडको स्पर्श करती हुई चली गई। क्या वह मात्र हवा थी? या तुम? मैंने खंडका कोना कोना तलाश लिया, किन्तु....... ।

यदि तुम साक्षात मेरे सामने आ जाओगे, तो भी मैं मौन ही रहूँगा और यह पत्र तेरे हाथोंमें रख दूंगा। तुझे यह पत्र पढ़न पड़ेगा, मेरे सामने। इस खंडके किसी कोनेमें जाकर जब तुम इस पत्रको पढोगे, तब तेरे मुख पर पल पल बदलते भावोंको देखते रहेना मुझे अच्छा लगेगा। मेरे पत्रकी प्रत्येक बातोंका, प्रत्येक शब्दोंका, प्रत्येक भावोंका जवाब तेरे इन भावोंमें मुझे मिल जाएगा।

मैंने आजतक नहीं देखा, किसीको मेरे पत्रको पढ़ते हुए । मुझे उन भावोंको देखना है, तेरे मुख पर। तूम आओगे ना? मेरे खतको मेरे ही सामने पढ़ोगे ना? तुझे मिलनेकी, तुझे देखनेकी तीव्र उत्कंठाके साथ पत्र सम्पन्न करूँ?

मैंने द्वार खोल दिया है। द्वार पर कोई नहीं है। न हवा, न तुम। कितने सारे बहाने रख दिये थे मैंने तेरे सामने, मेरे घर आनेके लिए? पर, तुम भी .... ।

फिरसे कोई अपेक्षा, कोई भ्रमणा, कोई छलना मेरी भावनाओंके साथ खेल गई, जीत गई । मैं पुन: परास्त हो गया। अब रह गया है वही परिचित एकांत, मौन और में।

भवदीय,

तुम्हारे आनेकी प्रतीक्षा करता,

मौनके साम्राज्यका कैदी,

तेरा मित्र।