Pradip krut laghukathao ka sansaar - 4 in Hindi Short Stories by Pradeep Kumar sah books and stories PDF | प्रदीप कृत लघुकथाओं का संसार, भाग-४

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प्रदीप कृत लघुकथाओं का संसार, भाग-४

प्रदीप कृत लघुकथाओं का संसार, भाग-४

अनुक्रम तालिका

रचना विधा

पगला लघुकथा

प्रतिमा संक्षिप्त कहानी

प्रयत्न लघुकथा

प्रायश्चित लघुकथा

प्रारब्ध कथा

पुरस्कार कहानी

परपोते का जन्मदिनलघुकथा

सभी रचना काल्पनिक हैं.

©सर्वाधिकार लेखकाधीन

विनीत निवेदन

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प्रदीप कृत 'लघुकथाओं का संसार' श्रृंखला में प्रस्तुत लघुकथा,कथा और छोटी कहानी उस वर्तमान मान्यता से असहमति प्रकट करती है जिसमें माना गया है कि वर्तमान समय में अथवा इस जमाना में हमारी मुलभुत भौतिक और मानसिक आवश्यकता बिल्कुल बदल गये अथवा हमारे पुरातन साहित्य और ग्रन्थ एवं उसकी नीतियों की अब बिलकुल भी जरूरत नहीं,अर्थात अब वह पूरी तरह आउट डेटेड हो गये हैं.यद्यपि समयांतराल में संभव है कि पूर्ववर्ती सृजनात्मक कृतियों अथवा उसके किसी अंश में सम्भवतः कुछ स्वार्थी तत्व अपने स्वार्थ सिद्धि हेतु पाखंड अथवा अवांछित तथ्य का समावेश प्रत्यक्ष-अप्रत्यक्ष रूप से करते रहे हों तथापि उस तथ्य का परिमार्जन आवश्यक है, न कि अपने पूर्ववर्ती सृजनात्मक कृतियों-उपलब्धियों और विचारों का तिलांजलि दे देना उचित है.

एक बार महान आचार्य चाणक्य अपने प्रिय शिष्य चन्द्रगुप्त का सम्बोधन करते हुये बोले कि आस्था और अन्धविश्वास के मध्य एक महीन रेखा मात्र के विभाजक रहते हैं, जिसे बौद्धिक शक्ति से ही पहचाने जा सकते हैं.अतः बौद्धिक शक्ति का उपयोग करते हुये अनुचित तथ्यों का परिमार्जन आवश्यक है, न कि अपने सम्पूर्ण पूर्ववर्ती सृजनात्मक कृतियों-उपलब्धियों का तिलांजलि दे देना.फिर प्रभु ईशा मशीह (यीशु)भी अपने अनुयायियों को समझाये कि जो अधिक पतित है, उसके परिमार्जन की आवश्यकता भी अधिक होती है.किंतु उपरोक्त तथ्य का विनिश्चय कथा पठन पश्चात स्वयं करें.तथापि एक विनीत निवेदन आवश्य है कि सांसारिक कोई वस्तु, कृति अथवा विचार स्वत: संपूर्ण कदापि नहीं हो सकते.

किन्तु सभी वस्तुओं निमित्त सतत विकास, परिष्कार और कलुषित तथ्यों के परिमार्जन की वृति सदैव अपेक्षित, अनुकरणीय और प्रकृति प्रदत्त वरदान होते हैं. तभी वह सर्व जन सुखाय, बहु जन हिताय हो सकते हैं. उसी निमित्त सभी सुविज्ञ पाठकों से उनके बहुमूल्य विचार भी सादर आमन्त्रित और अपेक्षित हैं.आशा है प्रस्तुत कृति सभी उम्र वर्ग हेतु उपयोगी और मनोरंजक होंगे.

प्रदीप.

पगला (लघुकथा) प्रदीप कुमार साह

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जेल प्रशासन के कायदेनुसार बंदी को मुलाकाती से मिलवाने का समय हो रहा था. मुलाकाती कतार में खड़ा बेसब्री से अपेक्षित बंदी से मिलवाने की प्रतिक्षा कर रहे थे.कतार लंबी थी. भोला उसी कतार में खड़ा रवि का इंतजार कर रहा था. रवि उसके बचपन का दोस्त था.किंतु भोला और रवि में लंबे अरसे से संबंध नहीं रहे थे. वह रवि से मिलने अंततः तब तैयार हुआ, जब रवि की पत्नी कई बार आकर उसके रवि से एकबार मिल आने के आरजू -मिन्नत किये. भोला की वह हैसियत न थी कि वह रवि के कोई काम आ पाता. किंतु पता नहीं अब रवि उससे मिलने इतना ललायित क्यों था, कि उसे मिलने आने हेतु संदेशे पे संदेशा भेजे.

भोला जब पाँचवीं कक्षा में पढ़ता था तब से रवि को जानता है. रवि तब बुरा नहीं था. यद्यपि कभी बुरे संगत में पड़कर कुछ गलतियाँ करता तो समझाने पर अपेक्षित सुधार कर लेता था. पर कालांतर में बुरे संगत से उसमें लोभ की भावना प्रबल हो गयी. उसके किसी गलती पर एकबार भोला उसे समझाने हेतु प्रयत्न किया तो वह कहने लगा कि कोड़े आदर्श की थोथी बातों में उलझने से अच्छा मौके का फायदा लेना ही ज्यादा उचित है. कहते हैं कि बहती गंगा में हाथ धो लेना ही बुद्धिमानी है.फिर चरित्र बिगड़ने वाली कोई चीज थोड़े न है. यदि वैसा है भी तो उसका निर्माण स्वयं कर सकते हो. लेकिन धन सबसे बड़ी चीज है, उससे सब कुछ पाना संभव है. यदि वह हाथ आने से रह गया तो जीवन भर सिवाय पछतावे के कुछ नहीं मिलता.

उसके कुतर्क के समर्थन में उसके अन्य साथी भी सामने आए. उन्होंने भोला से कहा कि वह वास्तविकता से बेहद दूर और आस्तिकता की कोड़ी कल्पनाओं से भरे आदर्श की बातों की दुनियाँ में भटकने वाला पगला (पागल) है. इस तरह रवि उससे आहिस्ते-आहिस्ते दूर होता गया और उससे मिलना-जुलना भी धीरे-धीरे कम कर दिया.फिर बुरे संगति में पड़ा रवि अपराध की दुनियाँ में भी अपने कदम रख दिये.

तभी रवि से मिलने का पुकार हुआ और भोला बीती-बातों की दुनियाँ से बाहर आ गया. वह आगे बढ़कर रवि से मिलने गया. सामने रवि सलाखों के पीछे खड़ा था. भोला को देखकर रवि साहसा रो पड़ा. उसने रोते हुए पुर्वोक्त बात के लिये भोला से मांफी मांगी और बताया कि उसे लुट और हत्या के जुर्म में उम्र कैद की सजा हुई है. सारे सबुत के सामने वकील के उसके पक्ष में दिये दलील काम न आया.बुरे वक्त में सारे सहयोगी उसके पहचान से इंकार कर गए. पत्नी का भगवान से मिन्नत रखना भी प्रतिफलित न हुआ. अब उसका एकमात्र आशा भोला से है.

भोला ने प्रश्न किया कि वह वास्तविकता से अब तक दूर रहा है, फिर वह आस्तिक है और ईश्वर ही के इच्छा पर पूर्ण विश्वास रखता है.फिर वह संसारिक जीवन में आर्थिक और सामाजिक स्तर पर भी बेहद कमजोर है. वह रवि की मदद किस तरह कर सकता है.

इसपर रवि प्रतिप्रश्न किया कि उसे सजा से बचने हेतु क्या करना चाहिये? भोला जवाव दिया कि वह आस्तिक है.ईश्वर संसार में कर्मफल सिद्धांत का प्रतिपादन किये हैं और कर्म की प्रधानता दिये हैं.फिर उक्त सिद्धांतानुसार कर्म के अनुरुप प्रतिफल अकाट्य होते हैं. इसलिये शास्त्र विवेक पुर्वक कर्म करने की सलाह देता है.फिर श्रुति-अनुसार महापाप से निवृति का एकमात्र उपाय स्वेच्छा से अपनी गलती मानते हुए पश्चाताप हेतु दंड प्राप्त करना और निर्धारित दंड को स्वीकार करना बताया गया है. किंतु वह तो व्यहवारिक व्यक्ति है. अपने बचाव का यथासंभव सारी कोशिश कर लिये हों तब एक भोगवादी व्यक्ति की नाई अपने कर्म का प्रतिफल समझ कर सजा को स्वीकार करे. अथवा उसके विचारानुसार सजा की उस अवधि को पश्चाताप स्वरुप महापाप से स्वयं की मुक्ति हेतु सुअवसर समझ कर सहर्ष स्वीकार करे.

"तुमसे सलाह लेना ही मुर्खता है. पगला कहीं के...."कहते हुए रवि पुन: रोने लगा. मिलने का समय समाप्त हो गया था. प्रहरी उसे अंदर ले गया.तब भोला लौट गया.उसे अपने मित्र की प्रत्यक्षत: सहायता न कर पाने का थोड़ा गम था और थोड़ी खुशी इस बात की थी कि उसके मित्र को सुधरने और पश्चाताप करने के अवसर मिले.

(सर्वाधिकार लेखकाधीन)

प्रतिमा (संक्षिप्त कहानी)-प्रदीप कुमार साह

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एक समय किसी गाँव में निर्धन किंतु प्रतिमा निर्माण में सिद्धहस्त एक मुर्तिकार रहते थे.उसके कलात्मक प्रतिमाओं की चर्चा दूर-दूर तक थी. एक दिन साधु से दिखने वाले कुछ अज्ञात लोग आकर उससे कुछ विचित्र प्रतिमा बनवाने निमित्त आग्रह करने लगे. यद्यपि वे काफी विद्वान् थे और अध्यात्मविद् जान पड़ते थे; उनकी मंशा जगत् कल्याण की जान पड़ती थी, किंतु वे काफी निर्धन थे.वैसी परिस्थिति में मुर्तिकार सोचने लगा कि वैसी विचित्र प्रतिमा बनवाकर वे प्रतिमा खरीदने वापस ही न आए तो वह उन विचित्र प्रतिमाओं का क्या करेगा? वैसी प्रतिमा कौन खरीदेंगे? वैसा सोचकर वह बात टालना चाहता था. किंतु उनलोगों के बारंबार आग्रह करने पर अंततः वह प्रतिमा निर्माण हेतु तैयार हो गया.

उसने कहे अनुसार प्रतिमाओं का निर्माण किया. सभी प्रतिमा अत्यंत विचित्र थीं. एक सिंह पर सवार शस्त्र-सुसज्जित दस भुजाओं और त्रिनेत्रयुक्त कोमल स्त्री किसी दुर्दांत पुरुष पर शस्त्राघात कर रही थी तो दूसरा जटाधारी-ध्यानस्थ-त्रिनेत्रधारी दिगम्बर थे जिसने अपने शीश पर चंद्रमा, गले में सर्प और रुद्र की मालाएं एवं कर्ण में बिच्छुओं के कुंडल व कर में त्रिशुल धारण कर रखे थे तथा सामने वृषभ और सिंह साथ-साथ बैठा था. तिसरा और भी विचित्र था.एक चतुर्भुज शस्त्र-सुसज्जित गजमुख बालक मुषक की सवारी कर रहे थे. इसी तरह अन्य सभी प्रतिमा भी विचित्र थीं. खैर नियत समय पर आकर उचित पारिश्रमिक देकर वे सब अपना निर्दिष्ट प्रतिमा ले गये.

थोड़े दिन बाद जब किसी काम से मुर्तिकार का शहर जाना हुआ तो उसने आश्चर्यजनक चीजें देखी. रास्ते में अलग-अलग गाँवों में वे साधु-जन उसके द्वारा निर्मित उन विचित्र प्रतिमाओं के विभिन्न अंग-प्रत्यांग की तुलना और प्रतिपादन संसारिक किसी जीव एवं उनके भिन्न गुण से करते हुए जीवन में समरसता तथा प्रेम की आवश्यकता पर उपदेश कर रहे थे.वे सभी जीव के गुण से थोड़ा-थोड़ा प्रेरणा लेने और उसे ग्रहण करने से सम्बंधित आग्रह कर रहे थे, जिससे मानव जीवन गुणों के खान और कल्याणमय बन सके. उनके नि:स्वार्थ उपदेश सुनने में लोगों का खासा उत्साह था. मुर्तिकार को आश्चर्य हुआ और खुशी भी कि चलो समाज में वैचारिक समरसता और जन कल्याण की भावना तो स्थापित होंगे.

कुछ दिन बाद कुछ सभ्य लोग आकर मुर्तिकार से वैसी ही प्रतिमाओं के निर्माण का आग्रह किया जिसे उसने सहर्ष स्वीकार कर लिये.जब प्रतिमाओं का निर्माण हुआ तो वे सब भी आकर मुर्तिकार का उचित पारिश्रमिक देकर प्रतिमा ले गये. थोड़े दिन बाद जब मुर्तिकार का दूबारा शहर जाना हुआ तो उसने देखा कि उसके द्वारा निर्मित प्रतिमाओं का देवी-देवता के रुप में पुजन किये जा रहे हैं. प्रतिमाओं को चढावा और भोग लगाया जा रहा है. वे सभ्यलोग मजे से चढावे के धन समेट रहे थे. उससे रहा नहीं गया. जब उसने इस संबंध में एक सभ्य व्यक्ति से बात की तो उसने कहा कि अपने काम से मतलब रखो. तुम्हारा प्रतिमा लोगों को पसंद आता है तो तुमसे प्रतिमा खरीदते हैं और तुम्हें पारिश्रमिक मिलता है. लोगों को मेरे द्वारा प्रतिमा पूजन का विश्वास होता है तो मुझसे पूजन करवाते हैं और मुझे दक्षिणा में धन देते हैं. उनकी बातें सुनकर मुर्तिकार को दुःख हुआ किंतु मन में यह कहकर संत्वना दिया कि समाज में कुछ तो सुधार अनवरत चलते रहेंगे.कुछ दिन बाद मुर्तिकार से वैसी प्रतिमाओं के निर्माण की काफी मांग होने लगी. फिर मुर्तिकार वैसे विचित्र प्रतिमाओं के निर्माण में व्यस्त रहने लगा. समाज में प्रतिमा पूजन अब देव पूजन का स्थान ले चुका था.

जब मुर्तिकार का तीसरी बार शहर जाना हुआ तो उसने देखा कि रास्ते में कुछ प्रतिमा उपेक्षित पड़े थे.थोड़ा और आगे जाने पर देखा कि एक व्यक्ति प्रतिमा से भला-बुरा कह रहा था. कारण पुछने पर पता चला कि समाज में अंधविश्वास फैल चुका था. प्रतिमा अब भौतिक संपन्नता देनेवाली शक्ति समझी जाती थी. लोग स्वचरित्र सुधार के जगह प्रतिमा से गुहार (मनोकामनापूर्ति हेतु प्रार्थना) करने में लगे रहते थे. मनोकामना पूरी नहीं होने पर लोग प्रतिमाओं को कोसते थे. वह सब देखकर मुर्तिकार काफी दुःखी हुआ. किंतु वह भी विवश और किंकर्तव्य विमूढ़ था कि अपने स्वार्थ-सिद्धि निमित्त वह केवल अधिकाधिक भौतिक साधन जुटाने हेतु चुपचाप लगा रहे और अपनी आँखों पर निर्लज्जता की पट्टी बाँधे असीमित कामना के पीछे भागता रहे या जीवन के सच्चा सुख पाने के लिए अति-कामना और लोभ का त्याग करे.

(सर्वाधिकार लेखकाधीन)

प्रयत्न (लघुकथा)-प्रदीप कुमार साह

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एकबार एक जिज्ञासु किसी तपोमुर्ति साधु को प्रणाम निवेदित कर उनके समक्ष अपने यक्ष प्रश्न रखे-"हरि कथा सुनने में मेरी अत्यन्त प्रीति है. जितना सुनता हूँ; कथा श्रवण की मेरी भूख शांत नहीं होती, मेरा मन नहीं भरता और मुझे संतुष्टि भी नहीं होती. किंतु हरि कौन हैं और हरिकथा सुनने का औचित्य क्या है, इस प्रश्न के अभी तक समाधान प्राप्त नहीं हुये."

जवाब मिला-"हरि अनंत हरि कथा अनंता; निज मति अनुरुप गावहि श्रुति संता. अर्थात हरि अनंत स्वरुप अर्थात प्रत्येक जड़-चेतन जीव और उनके गुण-धर्म अर्थात स्वभाव एवं उनकें कर्म-विकर्म हैं, तथा कर्म के प्रतिफल स्वरुप भी वही हैं.फिर अनंत द्वारा स्वभावतः संसार के पथ-प्रदर्शन हेतु स्वयं रचित स्वचरित्रानुरूप चरितार्थ प्रत्येक कर्म अर्थात ईश अवतार की प्रत्येक लीला का गान (कथा) भी प्रत्येक संत और ग्रंथ के अनुरूप अनेक हैं. किंतु वह निश्चय ही हरि के समान अजर-अमर हैं और उतने ही प्रभावशाली हैं, जो सभी जानते हैं."

"किंतु इच्छा भी तो अनंत हैं. जब हरि और इच्छा दोनों अनंत हैं फिर एक त्याज्य क्यों?"जिज्ञासु पुनः बीच में ही पूछ लिया.

साधु बोले,"वास्तव में त्याज्य कुछ भी नहीं.यद्यपि हरि और इच्छा दोनों अनंत हैं, तथापि दोनों धनुष के दो विपरीत सिरें हैं, जो एक कभी नहीं हो सकतें किन्तु परिपूरक आवश्य हैं. प्रयत्न -रुपी कर्म-तत्व की रस्सी से दोनों में सामजस्य रखना परम आवश्यक है. प्रयत्न विचार के अनुरुप ही होते हैं. 'सामजस्य विचार' प्राप्ति हेतु धैर्यवान होना और इच्छा का नियंत्रित होना आवश्यक है.किंतु धैर्य-धारण और इच्छा पर नियंत्रण स्वभाव के अनुरूप होते हैं.अतः स्वभाव निर्माण हेतु हरिगुण या सद्गुण ग्रहण करने की आवश्यकता होती है.फिर सद्गुण ग्रहण करने निमित्त कुछ प्रयत्न एवं कर्म किये जाते हैं.अर्थात उत्तम वस्तु अथवा एक उत्तम आदर्श के निरंतर निरीक्षण, श्रवण एवं मनन करने की आवश्यकता होती है. सद्गुण प्राप्ति हेतु वही 'प्रयत्न' कथा सुनना है और उस प्रयत्न पर आश्रित कर्म सत्संग सेवन है.कहे भी गये हैं कि 'कर्म प्रधान विश्व करि राखा, जो जस करहिं सो तस फल चाखा.'फिर कर्म का सार तत्व प्रयत्न ही हैं."

वैसा कहते हुये साधु स्वयं तप-लीन होने के प्रयत्न करने लगे और अपने प्रश्न का समाधान पाकर जिज्ञासु धन्य हो गया.उसने साधु को प्रणाम किया और आज्ञा मांगकर ख़ुशी-ख़ुशी वापस लौट गया.

(सर्वाधिकार लेखकाधीन)

प्रायश्चित (लघु कथा)-प्रदीप कुमार साह

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एकबार अति कुख्यात दस्यु दल (डकैतों का समुह) लूट-मार करते हुये किसी मरणासन्न व्यक्ति के पास तक आ गया. किंतु मरणासन्न व्यक्ति को थोड़ा भी सशंकित, भयाक्रांत अथवा हत्तोतसाहित नहीं देख कर उनके आश्चर्य के ठिकाना न रहा.उनलोगों ने मरणासन्न व्यक्ति से उसका कारण जानना चाहा.

तब मरणासन्न व्यक्ति ने उनलोगों से प्रतिप्रश्न किया कि वे सब निर्ममता से लोगों से लुटे गये धन से कितना समुचित लाभ और आनंद ले पाते हैं? लोगों से निर्मम व्यवहार करने वाले दस्यु कब किस चीज से भयमुक्त रहते हैं?

दस्युओं से उसके प्रतिप्रश्न का जवाब नहीं बना. तब मरणासन्न व्यक्ति ने कहा कि दस्यु कभी सुखी और भयमुक्त नहीं रहते. विकारों से भरा उनका मन निर्बल हो जाता है जिससे वह सत्य से सामना करने योग्य नहीं रहता.जबकि लोग दस्यु द्वारा अपना धन हरण होने के पश्चात भी जीते हैं.संसार में कुछ लोग तो वैसे भी हैं जो मृत्यु समीप रहने पर भी भयमुक्त और शांतचित होते हैं.

यह सुनकर दस्यु और भी आश्चर्य चकित हुये. तब मरणासन्न व्यक्ति आगे बताने लगा कि इसका कारण है कि वे सब श्रीगीताजी का वह श्लोक आत्मसात् कर लिये हैं कि मनुष्य को सत्कर्म प्रभु की सबसे बड़ी सेवा, अपना परम कर्तव्य और स्वयं हेतु सु-अवसर एवं सद्मार्ग समझकर करना चाहिये. इससे मनुष्य में कर्म के प्रति लगाव और समर्पण, कर्म में सावधानी एवं हृदय में दया वो लज्जा जन्म लेती है तथा बुरे भाव और बुरे कर्म के प्रति विरक्ति होता है.इतना कहकर वह चुप हो गया.

मर्म की बातें जानकर दस्युओं ने आगे और अधिक बताने की प्रार्थना की.तब मरणासन्न व्यक्ति ने बताया,'वे सब दृढ़ विश्वास रखते हैं कि कर्मफल सिद्धांत के अनुरूप प्रतिफल देना प्रभु के परम दायित्व हैं. वैसी धारणा रखने से वे प्रतिफल की कामना के प्रति तटस्थ होते हैं. इससे प्रतिकूल समय में भी वे शांतचित्त रहकर अपना अगला लक्ष्य निर्धारित कर लेते हैं और सदैव आशान्वित, कार्यान्वित और चिंतामुक्त रहते हैं.वैसी धारणा तब प्राप्त होती है जब आप किसी का अहित कभी नहीं करते.अपनी गलती पर आपको स्वत: दुःख और ग्लानि होता है.अनजाने में भी बन पड़ी किसी गलती के सम्बंध में ज्ञात होने पर अपनी गलती का स्वतः सुधार कर प्रायश्चित करते हैं. वैसा तब होता है जब आपके हृदय में दया और लज्जा होती है.फिर प्रायश्चित करने से हृदय के विषाद मिट जाते हैं और अत्मबल बढता है."

इतना कहकर उसके प्राण- पखेरु उड़ गये. किंतु जाते-जाते उसने सबकी आँखे खोल दीये.

(सर्वाधिकार लेखकाधीन)

प्रारब्ध (कथा)-प्रदीप कुमार साह

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कौआ अपना आहार अर्थात चुग्गा भरपेट लेकर (चुगकर) सन्तुष्ट हो गया. वह कृतज्ञता और प्रसन्नतावश उन्मुक्त कंठ से आह्लादित स्वर में ईश्वर का आभार और धन्यवाद व्यक्त करने लगा. शायद अपने बोली में ईश्वर का एक स्तुति-विनती कर रहा था जो ईश-विनती कबीरदास जी करते थे कि- "साई इतना दीजिये, जामें (जिसमें) कुटुंब समाय. मैं भी भूखा ना रहूँ, साधु न भूखा जाय."

वास्तव में जब प्राणी-मात्र अपने सहज जीवन यापन हेतु वांछित वस्तु अथवा उपलब्धि प्राप्त कर लेते हैं और अधिकाधिक उपलब्धि पाने की कोई कामना उनके मन को व्यग्र नहीं कर सकते, तब मन स्वत: सन्तुष्टि अनुभव करता है और निःसन्देह प्रसन्न तथा प्रफुल्लित हो जाते हैं. जब किसी सज्जन के मन प्रसन्न हो तब ईश्वर के आभार व्यक्त करने और ईश स्तुति करने से उसे कौन रोक सकता है.

यद्यपि दृश्य सजीव जगत में प्राणी-मात्र के सहज-स्वाभाविक गुण से चींटियों, चूहों, मधुमक्खियों और मनुष्यों के गुण सर्वथा अपवाद हैं.क्योंकि उनके मन कदापि सन्तुष्टि अनुभव नहीं करते, जिसका कारण है लोभादिक विकारों से उनकी बुद्धि और चेतना का जड़ हो जाना. वह अपने समुदाय में अज्ञानतावश अधिकाधिक उपलब्धि पाने के प्रयास को स्वभाविक उपलब्धि की आकांक्षा के रूप में प्रस्तुत करते हैं, इस तरह उनके 'भटकाऊ' आदर्श और लक्ष्य स्थापित हो जाते हैं.

इससे उनकी इच्छा और अपेक्षा सहज जीवन जीने हेतु उपयुक्त स्वभाविक आवश्यकता से काफी अधिक एवं असहज हो जाते हैं जो श्रुतिनुसार प्रतिक्षण प्रत्येक आवश्यकता-पूर्ति के साथ वट-वृक्ष के शाखाओं तथा जटाओं की भाँति उत्तरोत्तर बढ़ते जाते हैं. फिर आवश्यकता से अधिकाधिक संग्रहित उपलब्धि के संरक्षण में वह अपना मूल्यवान जीवन ऊर्जा खर्च कर देते हैं.

वह अधिकाधिक संग्रहित उपलब्धियाँ उन्हें अधिक सुख तो शायद ही उपलब्ध कराते हों किन्तु उन्हें उससे मानसिक दवाब और क्लेश निश्चय ही प्राप्त होते हैं. प्रत्येक शरीरधारी के जीवन, आयु, सफलता और धर्म-कर्म उसके सम्पूर्ण शारीरिक स्वास्थ्य पर आश्रित हैं. सम्पूर्ण शारीरिक स्वास्थ्य उसके शारीरिक और मानसिक अवस्था अर्थात स्वास्थ्य के समन्वय पर आश्रित हैं.

किंतु अच्छे स्वास्थ्य हेतु अच्छा आहार आवश्यक हैं.फिर अच्छे शारीरिक स्वास्थ्य हेतु पौष्टिक आहार और अच्छे मानसिक स्वास्थ्य हेतु मन के आहार जैसे प्रसन्नता, सुख प्राप्ति के अहसास इत्यादि आवश्यक हैं.किंतु वह तभी प्राप्त हो सकता है जब स्वयं में असीमित धैर्य और संतोष हों, फिर श्रुतिनुसार 'सन्तोषम् परम सुखम्' अथवा 'जब आवत संतोष धन, सब धन धूल समान' इत्यादि-इत्यादि हैं...तब संतोष पाना कोई हौआ थोड़े न है.उसके निमित्त समुचित प्रयत्न करने होते हैं.

खैर, कौआ एक आँख बंदकर ईश-स्तुति में बिल्कुल तन्मय था. इतना कि मित्र तोता के आगमन की उसे भनक तक न हुई. आज तोते के प्राण के लाले पड़ गये थे, उसने भाग कर अपने प्राण रक्षा किये. प्राण रक्षा पश्चात आशा-भरोशा पाने और आपबीती बताकर अपना मन हल्का करने के उद्देश्य से अपने मित्र के पास आया, किंतु यहाँ कौआ खुद ही विचारों में कहीं खोया मस्त-व्यस्त था.

अधिक श्रम से तोते की साँस उखड़ रही थी, धड़कन तेज हो गई थी और भूख से व्याकुलता अलग ही थी.किंतु वहाँ मित्र से आशा-भरोशा पाना भी धूमिल मालूम हो रहा था. कौऐ के व्यवहार से वह मन ही मन दुःखी और नाराज हो रहा था. किंतु उसने संयम बनाये रखा और कौआ से कुछ नही कहा. बस अपने साँस पर नियंत्रण पाने की चेष्टा करता रहा. तभी कौऐ की नजर अपने मित्र पर पड़ा.

कौआ चौंक कर तोता से पूछा," मित्र तुम कब आये?"

कौआ की बात सुनकर तोता खीझ गया किंतु चुप ही रहा. वास्तव में समझदार प्राणी ना तो अधिक बोलते हैं और न जल्दी से संयम का त्याग ही करते हैं. कौआ भी कम समझदार थोड़े न होता है. वह भी चुप होकर तोते के अवस्था का निरीक्षण कर वस्तु-स्थिति का अंदाज करने लगा. वस्तु-स्थिति का अंदाज कर कौआ तोते से पूछा,"क्या बात है मित्र, तुम्हें इतनी घबराहट और व्याकुलता क्यों हो रही है? तुम बेहद भूखे भी मालूम होते हो. भूखे रहकर अपनी क्या हालत बना रखे हैं?"

कौऐ की प्रेम भरी मधुर बातें सुनकर तोते के दिल का कड़वाहट मिट गया. वह बोला," कुछ मत पूछो मित्र. मालूम होता है कि आज से अपना प्रारब्ध ही उलटे लिख गये."

"मित्र यह तुम मनुष्य के भाँति प्रारब्ध-प्रारब्ध का कैसा रट लगा रहे हो? प्रारब्ध तो उस निमित्त होता है जब कर्म के अनुरूप अधिक उपलब्धि अथवा कर्मफल की आशा की जाती है अथवा संतोष का आभाव होता है. सच-सच कहो कि तुम्हारी क्या समस्या है." कौआ प्रेमवश अपनी बात पर जोर देकर बोला.

कौआ का थोडा-सा प्रेम पाकर तोते के व्याकुलता के बाँध टूट गये. तोता कहने लगा,"फिर क्या कहूँ मित्र, मेरा प्रिय आहार फल हैं.किंतु आज मनुष्य के लोभ का दुष्परिणाम हमें भी भुगतने होते हैं. पुरे साल के इंतजार के बाद जिस फल के फलने का मौसम आता है, मनुष्य उसे पकने से पहले ही सारे के सारे तोड़ लेते हैं."

थोड़ा ठहर कर तोता दुःखी मन से पुनः बताने लगा,"काफी दिन के तलाश पर आज सुबह एक पके हुए लाल-लाल आम्र फल पर मेरी नजर पड़ी. मैं मजे से उसे खाता की कुछ भूखे लँगूर वहाँ आ गए और उसे लपक लिया.मैं उससे वापस फल लपकना चाहा तो वे मेरे पीछे हाथ धोकर ही पड़ गये और मुझे भागकर अपने प्राण की रक्षा करनी पड़ी. इसे प्रारब्ध न समझुं तो क्या कहूँ?"

तोते की आपबीती सुनकर कौआ को दुःख हुआ. वह मित्र ही क्या जो मित्र के दुःख से दुःखी न हो? फिर घनिष्ट मित्र के संबंध में यह भी कहे गये हैं कि वे पहाड़ से अपने दुःख को धूल और मित्र के राई से दुःख को भी बड़ा समझते हैं. किंतु वह संयत स्वर में तोता से कहा,"मित्र, संसार में प्राणी-मात्र को अवसर और विपत्ति प्राप्त होते हैं. विपत्ति प्राणी को सतर्क, सहनशील और कर्मठ बनाते हैं तथा सुख के मूल हैं.अतः सुख प्राप्ति और आगे की रणनीति हेतु अपने कटु अनुभव, अपनी बीती हुई दुखद बातें अपनी भूल सुधार तक ही सिमित रखनी चाहिये. मैंने एक बगीचे में कुछ पके फल देखें हैं. वहाँ चलकर भोजन कर तृप्त हो लो."

तोता खीझ कर बोला,"मित्र मैंने कह दिया न कि आज के दिन मेरा प्रारब्ध मेरे साथ नहीं हैं. फिर मलूकदास जी की बातें भूल गये कि अजगर करे न चाकरी, पक्षी करे न काम. दास मलूका कह गये, सब का दाता राम."

"मित्र, सब के दाता राम हैं, उस तथ्य को तो मैं बिल्कुल भी नही नकारता. किंतु रामसत्ता स्वीकार करें और रामाज्ञा कि "कर्म प्रधान विश्व करि राखा, जो जस करिहि सो तस फल चाखा" न मानें वह कितना उचित है? फिर मलूकदास मनुष्य थे और मनुष्य के असहज वृत्ति पर भाष्य किये.उन्हें पक्षी के जीवन के संबंध में अधिक क्या पता? किंतु बिना काम किये (तलाशे)तो पक्षी भी आहार प्राप्त नहीं कर सकते,वह तथ्य पूर्ण सत्य है.फिर यह भी कहे गये हैं न कि जिन ढूंढा तिन्ह पाइए, गहरे पानी पैठ."

थोड़ा ठहर कर कौआ पुनः बोला,"यदि तुम्हारा जी अब भी नहीं मानता तो थोड़ा विचार कर यह तो बताओ कि यदि प्रारब्ध हैं तब उसके निर्माण करने वाले ईश्वर-सत्ता क्या नहीं हैं? यदि ईश्वर और उनकी सत्ता हैं तब क्या अब वह दयालु नही रह गये? फिर उनका आज्ञा पालन क्यों नहीं? फिर धर्म-कर्म, पश्चाताप अथवा सही समय का इंतजार भी प्राणयुक्त शरीर ही कर सकता है."

कौआ के मर्म भरी बातों ने तोते की आँखें खोल दिये.तब तोता अपने मित्र कौआ की बात मानकर उसके साथ निर्दिष्ट स्थान गया. वहाँ पके हुए स्वादिष्ट फल थे.फिर स्वादिष्ट फल खाकर तोता तृप्त हुआ और परम दयालु ईश्वर का धन्यवाद किया.

(सर्वाधिकार लेखकाधीन)

पुरस्कार (कथा)-प्रदीप कुमार साह

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कौआ काफी परेशान था. दरअसल उसके कई दिन से अपने घनिष्ठ मित्र तोता से मुलाकात नहीं हुई थी. उसे अपने मित्र को बताने के लिए खुशखबरी थी और वह था कि मिलने आया ही नहीं. कौऐ को बेहद चिंता हुई कि उसका मित्र कहीं किसी मुसीबत में तो नहीं फंसा है. कहते हैं कि सच्चे मित्र की कसौटी संकट के समय ही होते हैं. वैसा सोचकर कौआ तोते से मिलने गया.वहाँ पहुँच कर कौआ देखता है कि उसका मित्र तो सचमुच उदास बैठा था.

"अरे मित्र, क्या हुआ? इस तरह उदास क्यों हो?" कौआ हैरान होते हुए पूछा.

"पक्षी साहित्य अकादमी द्वारा मेरे नाम के चयन पक्षी कवि-सम्राट के सम्मान से सम्मानित करने हेतु किये गये हैं.मेरे दु:खी होने का वही वजह है." तोता बोला.

"मित्र, अकादमी द्वारा पक्षी कथा-सम्राट हेतु मेरे भी नाम के चयन हुए हैं. वह तो हम दोनों के लिये खुशखबरी है.फिर तुम किस हेतु दु:खी हो?" कौआ आश्चर्य चकित हुआ.

"मित्र वह आवश्य खुशखबरी होता, यदि मुझे वह खबर न होती." तोता बुझे मन से बोला.

"कैसी खबर है?" कौआ थोड़े उत्सुकता से और थोड़ा आशंकित होकर पुछा.

"खबर वह है कि पक्षी अकादमी द्वारा सम्मान हेतु चयनित कुछ हस्ति एक-एककर सम्मान लेना कुछ इस तरह अस्वीकार कर रहें हैं कि बाकी पक्षी के लिये उसे स्वीकार करना संकोच की बात हो सकती है.किंतु उस तरह एक समय अकादमी और सम्मान दोनों के औचित्य पर प्रश्न-चिन्ह लगना संभावित हैं." तोता बताया.

"वह तो वास्तव में बुरी खबर है. मेरे विचार से किसी उच्च-कोटि हस्ती को सम्मानीत कर कोई सम्मान अथवा पुरस्कार स्वयं ही सम्मानीत होते हैं. क्योंकि कोई तभी उस मुकाम को छू सकते हैं जब वह पूरे दिलो-जान से अपने कार्य क्षेत्र में पूरा तल्लीन होते हैं. इस तरह उनका लक्ष्य बिना किसी प्रलोभन के-नि:स्वार्थ अपने क्षेत्र का विकास करना होता है, क्योंकि स्वार्थी किसी कार्य में तल्लीन हो ही नहीं सकते. सम्मान अथवा पुरस्कार तो उसके कर्म के दास हैं, क्योंकि कर्मफल सिद्धांत के अनुरूप प्रत्येक कर्म के प्रतिफल प्राप्ति अकाट्य हैं. फिर वैसे हस्तियों द्वारा सम्मान अस्वीकार करना निश्चय ही बेवजह अथवा महज एक छिछला स्वार्थ नहीं हो सकता." कौआ चिंतित होते हुए कहा.

"मित्र, किसी आशंका, संभावना या किसी अन्य बात से पुर्णतया इंकार भी तो नहीं किये जा सकते कि वह छिछलापन न हों. क्योंकि संसार में कुछ वैसे स्वार्थी भी होते हैं जो अपने सामर्थय का दुरुपयोग करते हैं. फिर कुछ वैसे भी हो सकते हैं जो अयोग्य होकर भी सम्मान अथवा पुरस्कार हेतु नामित हो जाते हों." तोता चिंता जताया.

"वह किस तरह संभव हो सकता मित्र!" कौआ आश्चर्य से पुछा.

"वह सब बिलकुल असंभव क्या हो सकता है? यदि बिना मेहनत के कोई मुफ्त सम्मान प्राप्ति हेतु अथवा अपने बेजा स्वार्थ पुर्ति निमित्त केवल ख्याति प्राप्त करने के उद्देश्य से प्रलोभन देकर किसी सम्मान की उपाधि अर्जित कर सके अथवा कुछ अपनी राजनैतिक पहुँच के प्रभाव से, तो कोई दबंगता से उसे हासिल कर सके तब उस स्थिति में यह तय करना बेहद कठिन होगा कि वह सचमुच योग्य हैं और उनके सभी निर्णय विवेक पूर्ण हैं." तोता बोला.

"वह तो वाकई हमारे पक्षी सभ्यता हेतु प्रतिकूल बातें होंगी. हमारी सभ्यता में गणमान्य सम्मानित इसलिए किये जाते हैं कि समाज उनकी कृतज्ञता व्यक्त कर स्वयं उपकरित हो. सम्मान अथवा पुरस्कार की राशि सम्मानित गणमान्य हेतु उक्त क्षेत्र में आगे शोध कार्य में सहायक प्रयोज्य हों. किंतु किसी सम्मान का उपाधि की तरह धारण करने या प्रदान करने की प्रवृत्ति वाकई चिंता जनक हो सकती है. इससे सम्मानित हस्ती, अकादमी और सम्मान सभी संदेहशील हो सकते हैं और एक स्वच्छ संस्कृति पर प्रतिकूल असर पड़ सकता है. इससे एक सभ्यता के अस्तिव और विकास पर दूरगामी प्रतिकूल प्रभाव पड़े बिना नहीं रहेंगे.किंतु वैसे संभावित समस्या से निवृत्ति के क्या उपाय हो सकते हैं." कौआ पुछा.

"अकादमी के कार्य शैली की समीक्षा हो, सम्मानित हस्ती के नाम के चयन प्रक्रिया का मानक तय, पारदर्शी और स्पष्ट हो. यदि वैसा करना संभव नही है तो समानता से यह तय किया जाय कि किसी जिवित हस्ती को सम्मानित न किया जाय. इससे श्रेष्ठ हस्ती अपेक्षा, उपेक्षा अथवा संसय मुक्त रहकर नि:स्वार्थ भाव से अपने क्षेत्र का विकास कर सकेंगे. यद्यपि इसके कुछ प्रतिकूल प्रभाव आवश्य हो सकते हैं किंतु किसी सम्मान का अनादर अथवा उपाधि रूप में धारण करने या त्यागने की प्रवृत्ति पर आवश्य ही अंकुश लगेंगे. किंतु उससे योग्य श्रेष्ठ हस्ती का बिना भेद-भाव से सम्मान होना सुनिश्चित और संभव हो सकेगा." तोता बोला.

"किंतु अभी सम्मान अस्वीकार करने वाले गणमान्य के अस्वीकरण के पीछे क्या विचार हैं?" कौआ पुछा.

उनका उद्देश्य निर्थक नहीं हैं. उनका सरकार से अपेक्षा है कि साहित्यकार-पत्रकार की सुरक्षा भी सुनिश्चत हो. फिर समाजिक सहयोग से साधारण जन-मानस की सुरक्षा के दायित्व भी तो मुख्यत: सरकार के हैं. असमाजिक तत्वों पर इतना अंकुश तो आवश्य हो कि उसे कुछ भी करने की आजादी न मिल जाय. इन कलम के सिपाहियों का महत्व किसी भी तरह सीमा की सुरक्षा में तैनात जवानों से कमतर नहीं हैं. इनके जोखिम भी उतना ही हैं.

इतिहास के पन्नों में दर्ज हैं कि देश, काल, संस्कृति और समाज में इनकी सेवा भी सराहनीय रही है. राष्ट्र के धुर विरोधियों ने किसी युद्धारोपी अथवा युद्ध बंदी के माफिक इनके भी दमन की चेष्टा किये. एक श्रेष्ठ जाबांज के माफिक समाजिक स्तर से वे भी देश हित में अपने प्राण निछावर करने सदैव ततपर रहते हैं. किंतु इनके समक्ष भी आर्थिक, सामाजिक और पारिवारिक मामले की वही मसले, वही समस्याएँ हैं जो सीमा सुरक्षा में लगे जवानों की होती है. समाज और सरकार से उन्हें भी वही विश्वास दिलाना क्या आवश्यक नहीं है जो किसी सीमा सुरक्षा में लगे जवान को दिलाये जाते हैं." तोता अपने विचार रखे.

"मित्र, वह सब तो ठीक है. किंतु वैसा होने से साहित्यकार किसी के अहसान तले दब तो नही जायेंगे? उस तरह भीष्म पितामह की धर्म निष्ठा की भाँति साहित्य-सृजनता पर प्रतिकूल प्रभाव तो नहीं पड़ेगें! उससे तो अच्छा यही है कि इस धर्म का स्वतंत्र, निष्पक्ष तथा यथा-साध्य पालन किया जाय. लेखनी वैसी हो जो शसक्त किंतु संयमित, खरा किंतु सृजनात्मक हो.लेखनी में सभी पक्ष के लिए उचित स्थान देय हो.उसमें स्वयं के अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के मौलिक अधिकार किसी दूसरे के मौलिक अधिकार का हनन न करता हो. यह विषय विशेष गंभीर और चर्चा के विषय हैं, किंतु मुल तथ्य यह है कि समृद्ध साहित्य सृजनता और जिवंत सामाजिक जागरूकता हेतु इन बुद्धिजीवियों का स्वतंत्र, भयमुक्त और निष्पक्ष होना आवश्यक है. किंतु यह भी उतने ही आवश्यक हैं कि किसी भी बुद्धिजीवि द्वारा उचित रीती से और उपयुक्त समय में सही स्थान एवं सम्बंधित संस्थान से ही विरोध प्रकट करना चाहिए.केवल विरोध हेतु विरोध अर्थात् अंधविरोध नहीं होनी चाहिए. ताकि नये सृजन जो हो सकते हैं, वह आवश्य हो. वह भी पूर्व के विशुद्ध सृजन की बलिदान के बगैर."

अब दोनों मित्र निर्णय ले चुके थे कि एक स्वस्थ परंपरा की शुरूआत स्वयं से करते हैं. दोनों पक्षी अकादमी को पत्र द्वारा नम्रता निवेदित करते हुए स्वयं को अयोग्य ठहरा कर ताउम्र सम्मान स्वीकार न करने के संबंध में लिखे. ताकि स्वयं, सम्मान और पक्षी अकादमी जैसे सृजनात्मक संस्थान के अस्तीत्व और गरिमा बनी रहे और प्रत्येक अन्याय के प्रति उनका विरोध भी लेखनी के माध्यम से सदैव मुखरित रहे.

(सर्वाधिकार लेखकाधीन)

परपोते का जन्मदिन (लघुकथा)-प्रदीप कुमार साह

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शाम का समय था, किन्तु अभी घोसला में लौटने का वक्त नहीं हुआ था. कौआ अपने पत्नी और बच्चों के साथ चुहलबाजी करने में व्यस्त था. तभी कौआ की नजर आसमान के तरफ गया. आसमान से एक धवल प्रकाश-पुँज तेजी से नीचे आ रहा था. सभी सतर्क हो गए और एकटक उस पुँज को देखने लगे. वह प्रकाश-पुँज गाँव के उस घर के आँगन में उतरा जहाँ उत्सव मनाये जा रहे थे. पत्नी की सहमति से कौआ कौतूहलवश वहाँ गया. वहाँ पहुँच कर उसने देखा कि उस घर में धूम-धाम से बर्थ-डे पार्टी मनाया जा रहा है और वह धवल प्रकाश-पुँज एक आत्मा थी. आत्मा वहाँ मौजूद लोगों से पूछ रहा था,"अरे मेरा परपोता कहाँ है, आज तो उसके जन्म-दिवस हैं?"

पर कोई उसके जवाब न दीये. वह आत्मा दुबारा पूछा,"यहाँ, अरे यह भीड़ कैसी है?" इसबार भी किसी ने कोई जवाब न दिये. फिर आत्मा ने तीसरे व्यक्ति को रोक कर पूछने की कोशिश की. किन्तु वह रुका ही नहीं. अब आत्मा झल्ला कर बोला,"मेरी बात अरे, कोई सुनते क्यों नहीं?"

कौआ से रहा नही गया. वह आत्मा से कहा,"यहाँ आपकी आवाज सुनने में कोई समर्थ नहीं हैं. उन्हें तो आपकी मौजूदगी के अहसास भी नहीं हैं. इसलिए आपका किसी से कुछ कहना व्यर्थ है."

"काक, अरे तुम तो मुझे देख और सुन सकते हो. तुम्हीं मेरी मदद करो. मुझे मेरे परपोते दिखला दो, आज उसके आठारहवीं जन्म-दिवस हैं." आत्मा बोला.

"वह जो केक काट रहा है, वही आपका परपोता है." कौआ बताया.

"क्या बकते हो, अरे वह तो सर्कस का कोई जोंकर मालूम होता है. फिर अपने जन्म-दिन के अवसर में मेरा प्रपौत्र पूजा-अर्चना और स्वयं के दीर्घायु होने की कामना करने के बजाय स्वयं जोंकर जैसा तमाशा क्यों करेगा?" आत्मा नाराज होकर कहा.

"मालूम होता है, आप मृत्यु-प्राप्ति पश्चात् अपने स्वजन को देखने इससे पूर्व कभी नही आये?" कौआ उस आत्मा से पूछा.

"क्यों? ...ऐसी क्या बात हो गई? अरे मैं यहाँ आता तो था. किन्तु अपने पुत्र-पौत्रों के वेवक़ूफ़ियों से यहाँ आकर हमेशा मुझे दुःखी होना पड़ा. पिछली बार जब अपने इस परपोते के जन्म के समय आया, तब मैं उसे देखकर बहुत खुश हुआ. तभी मैंने निश्चय किया कि मेरा यह प्रपौत्र जब समझदार और स्वनिर्णय लेने योग्य होगा तभी दुबारा आऊँगा." आत्मा बताया.

"आपके पुत्र-पौत्रों में क्या कमी थी?" कौआ पूछा.

"अरे क्या पूछते हो. वे सब संसय में सारा काम ही बिगाड़ देते थे. उन्हें कभी अपने विवेक का स्वयं उपयोग करना आता ही नही था. उन्हें इस बात की समझ ही नहीं थी कि जो अपने सभ्यता, संस्कृति और देश की रक्षा करने में असमर्थ हैं वे विश्व कल्याण की बातें सोच भी नही सकते. जिन्हें उन बातों का ज्ञान नहीं, वे केवल स्वार्थ की बातें ही कर सकते हैं.फिर उनका विश्वकल्याण की बातें करना बेमानी है. उनका जीवन पृथ्वी पर भार स्वरूप हैं. वास्तव में सभी सभ्यता-संस्कृति अपने भौगोलिक वातावरण एवं परिवेश के अनुरूप अनेक पन्थ में बंटे हैं. यदि उनके पंथाई भावों को हटाकर देखा जाय तो सभी के एकमत से यही स्वीकारोक्ति हैं कि सभी जीवों में सद्भावना, प्रेम, कृतज्ञता और बुजर्गों के प्रति सम्मान होना चाहिए." आत्मा बोला.

"मनुष्य में वह सब गुण क्यों होनी चाहिये?" कौआ पूछा.

"वह सभी सत्गुण तो सृष्टि के संपोषक और संरक्षक हैं. उससे मनुष्य को आत्म-संतुष्टि और जीवनी-शक्ति मिलती है.कृतज्ञ होने से देव, पितृ ऋण इत्यादि से मुक्ति और उनके आशीर्वाद मिलते हैं .इससे मन प्रोत्साहित, प्रफुल्लित और विकासोन्मुख होता है, अतएव जीवन में सफलता प्राप्ति होती है.फिर स्वस्थ और सुखी मनुष्य ही स्वस्थ मन और विचार प्राप्त करने योग्य हो सकते हैं. स्वस्थ विचार ही से जगत कल्याण होता है." आत्मा बताया. थोड़ा ठहर कर आत्मा पुन: अपने प्रपौत्र को देखने की इच्छा कौआ के समक्ष व्यक्त किये.

"आप जिसे सर्कस का जोंकर समझ रहें हैं, वास्तव में वही आपका प्रपौत्र है." कौआ पुनः दुहराया.

"वही मेरा परपोता है? अरे देखो, लोग कितने बदल गये हैं. मनुष्य कृतज्ञता और विवेक खोकर कैसे-कैसे बने पड़े हैं! कहाँ वह स्वास्थ्यवर्धक स्वर्गभोग क्षिर के स्वाद और कहाँ यह केक. कहाँ वह कृतज्ञता, प्रेम, दयालुता और परोपकार का उत्सव और कहाँ यह उपहार हेतु उत्सव के व्यापार. कहाँ वह सद्भाव,श्रद्धा और त्याग-विवेक युक्त जीवन और कहाँ यह कृतघन जीवन. कहाँ वह बुजुर्गों का सम्मान करते लोग और कहाँ यह स्वाभिमान की रक्षा में असमर्थ लोग."आत्मा सोचा.

वह आत्मा दु:खी होकर बोला,"यहाँ धर्म भी है, कर्म भी है, किंतु श्रद्धा, विश्वास और सत्भाव रहित महज एक क्रुर क्रीड़ा के रूप में.यहाँ अपने इस आगमन को अंतिम सुनिश्चित करते हुए अपने प्रपौत्र को आशीष और मुबारकवाद देता हूँ." वैसा निश्चय करते हुए दु:खी आत्मा आत्मग्लानी-युक्त स्वधाम पितृलोक को विदा लिया.

(सर्वाधिकार लेखकाधीन)