Guphayen in Hindi Short Stories by dhirendraasthana books and stories PDF | Guphayen

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Guphayen

कहानी

गुफाएं

धीरेन्द्र अस्थाना

चीजें या तो अपना अर्थ खो बैठी थीं या अपने मूल में ही निरर्थक हो गयी थीं। जीप में, ड्राइवर की बगलवाली सीट पर बैठा वह, अपने जीवन में पसर गयी जड़ता की टोह लेने के प्रयत्न में थका जा रहा था और ग्रहणशीलता से लगभग खाली हो चुकी उसकी आंखों के सामने से झरने, पहाड़, वादियां, सीढ़ियों वाले खेत और नेपाली युवतियों के झुंड इस तरह गुजर रहे थे मानो बायस्कोप के जमाने के मुर्दा दृश्यों की ऊब थिर हो गयी हो। जीप नेपाल के एक ऐसे पहाड़ी कस्बे की तरफ बढ़ रही थी, जिसके बारे में उसके दोस्त शिव ने कहा था, ‘दिल्ली के जिस नरक में तुम जल रहे हो, उसमें तानसेन तुम्हारे लिए फुहार और ताजगी का काम करेगा।‘

फुहार! वह हंसा, तभी ड्राइवर ने जीप को एक झरने के पास रोक दिया, ‘साहब! यहां का पानी बड़ा गजब है। फ्रेश हो लें।‘

फ्रेश? वह बड़ी जोर से चौंका। यही तो कहा था उसने अपनी पत्नी से, ‘बरसों—बरस एक जैसी जिंदगी जीते—जीते मेरे भीतर जीवन का सोता शायद सूख गया है। मैं अब फ्रेश होना चाहता हूं। अगर पंद्रह—बीस रोज के लिए अकेला ही निकल जाऊं?‘

यात्रा पर अकेला वह कभी नहीं जाता था फिर भी, पत्नी ने बिना देर लगाये अनुमति दे दी थी। पिछले लंबे समय से वह खुद यह महसूस कर रही थी कि अविनाश सारे काम कुछ इस तरह कर रहा है मानो कोई प्रेत किसी तांत्रिक के इशारे पर बोल—डोल रहा हो। इस प्रेत से लड़ते—लड़ते वह खुद प्रेत हुई जा रही थी। दफ्तर से लेकर दोस्तों के बीच हुई कहासुनी तक को शब्दशः बयान कर देनेवाला अविनाश अब एक शिला में बदल गया था। उसकी खामोशी और खिंचे—खिंचे रहने के भाव के कारण जो ऊब और मनहूसियत उन दोनों के बीच पसर गयी थी, उसका असर बच्चों की कोमल आत्माओं पर किसी बिजूखे की तरह उतरने लगा था — बच्चों को बाप से न सिर्फ अलगाता हुआ बल्कि उन्हें बाप की उपस्थिति से आतंकित, उदास और निर्लिप्त करता हुआ। अब अविनाश के, रात को घर लौटने के वक्त का भी इंतजार नहीं करते थे बच्चे। अविनाश भी घर लौटकर बच्चों के बारे में कुछ नहीं पूछता था। हद तो यह थी कि चिटि्‌ठयों के बारे में एक पागल उत्सुकता से भरा रहने वाला अविनाश अब अपने नाम आये खतों को यूं देखता था मानो वे खत न होकर अखबार के भीतर से निकले किसी कपड़ों, इलेक्ट्रोनिक्स या जूतों की नयी दुकान के इश्तहार हों। कई बार तो वह अपने नाम आयी चिटि्‌ठयों को कई—कई दिन तक बंद ही पड़ा रहने देता था। वह समझ नहीं पा रही थी कि अविनाश के जीवन में कहां, क्या गलत हो गया है कि तभी अविनाश ने बाहर जाने का प्रस्ताव रखा।

‘कहां जाओगे?‘ उसने पूछा था।

‘नेपाल।‘ अविनाश ने उत्साहित होकर नहीं, एक टूटती हुई उदासी के बीच आंखें झपकाते हुए कहा था, ‘बस्ती में शिव है। वह एक जीप और ड्राइवर का इंतजाम करवा देगा।‘

ग्ग्ग्

शिव ने पूछा था, ‘मैं भी साथ चलूं?‘

‘नहीं।‘ उसने साफ मना कर दिया था, ‘अगर मुझे ड्राइविंग आती, तो ड्राइवर को भी साथ न ले जाता।‘

‘क्या हो गया है तुम्हें?‘ शिव सशंकित हो गया था। वह अविनाश की आदतों से परिचित था। वह जानता था कि अविनाश जिस समय टूट रहा होता है, निपट अकेला होता है। बुरा वक्त गुजर जाने के बाद ही दोस्तों को पता चलता था कि अविनाश किसी हादसे की गिरफ्त से छूटकर लौटा है। अपनी यातनाओं में किसी को हिस्सेदार बनाने का अहसास तक अप्रिय था उसे।

‘मेरे लिए यह जीवन बेमानी हो गया है। सुना तुमने!‘ अविनाश हांफते हुए बोला था, ‘जीवन रहे या न रहे, मैं दोनों अहसासों से खाली हो गया हूं.... और इतना अधिक खालीपन मुझसे झिल नहीं रहा है। मुझे अकेले ही जाने दो, सिर्फ अपने साथ। मैं देखना चाहता हूं कि सिर्फ अपने ही साथ रहा जा सकता है या नहीं।‘

‘मगर वहां तुम अकेले होगे। उनके तौर—तरीकों से एकदम अपरिचित। अजनबियों के बीच यूं अकेले जाना...‘

इस वाक्य पर अविनाश ने यूं देखा कि शिव को अपना आप एकदम बेगाना—सा लगने लगा! बेगाना और अर्थहीन। इसके बाद वह कुछ नहीं बोला।

ग्ग्ग्

एक ठंडा मगर सख्त आतंक सहसा उसके कलेजे पर पसर गया। पहले तानसेन और फिर पोखरा, और इन दोनों के बीच का सफर, जिसे फुहार बताया था शिव ने, और जिन दो कस्बों के प्राकृतिक वैभव पर अभिमान था नेपाल को—कुछ भी तो नहीं छू पाया था उसे।

जीप के भीतर घुस आये बादल, झील, शराब की बेशुमार दुकानें, यौवन से लदी—फंदी नेपाली युवतियां, झरने, पहाड़, पेड़, सारे संसार से आये विदेशी पर्यटक, खूबसूरत सेल्स गर्ल्स, सुहाना एकांत, अकेली पगडंडियां, लकदक बाजार, कोहरा, रिमझिम बरसात, उद्‌दाम, छलरहित और उन्मुक्त जीवन, चट्‌टानें, हनीमून मनाने आये जोड़ों का उत्साह, संगीत—कितना कुछ था नेपाल की धरती पर! कितना समृद्ध, कितना अप्रतिम और कितना स्वप्निल!

लेकिन इन सबके बीच वह कहीं नहीं था। इन सबके बीच से, एक अदृश्य और अतृप्त आत्मा की तरह गुजरता हुआ वह फिर तानसेन के होटल सिद्धार्थ के उसी कमरा नंबर तेरह में था, जहां वह आते हुए रुका था—ठीक उसी स्थिति में—टूटा, थका, बेचैन, उदास, जड़ और प्रतिक्रियाहीन। अपने भीतर के अंधकार में, बौराये हुए आदमी की तरह, हाथ—पांव मारता हुआ। सिरे से ही पराजित लेकिन फिर भी जीवित।

क्यों? उसने सोचा और ड्रेसिंग टेबल के सामने आ गया। उसने देखा, वह हांफ रहा था। उसने चाहा कि हाथ में पकड़े शराब के गिलास को आइने पर फोड़ दे। ‘क्यों जीवित है वह? जीवित है भी या सिर्फ जीवित होने के भ्रम को जी रहा है? अपने भीतर यह किस अंधेरी गुफा में उतर गया है वह, जहां कोई छाया, कोई रोशनी, कोई आहट नहीं पहुंच पा रही है? वह कौन—सा शापग्रस्त क्षण था, जब उसके बीचोंबीच धरा गया था वह?‘

ऐसे ही एक जर्जर, विरक्त और बीहड़ क्षण में, जब दुनिया उसे निराश करने लगी थी, वह अपने भीतर उतर गया था, दबे पांव। उत्सुकता में डूबा हुआ दूर तक निकल गया। लौटने लगा, तो रास्ते खो चुके थे। ठीक उसी तरह, जैसे पोखरा की महेंद्र गुफा में खो गये थे। उस ऊबड़—खाबड़, पथरीली, नुकीली चट्‌टानों से भरी गुफा में वह तब तक चलता रहा था, जब तक एक ठोस अंधकार ने उसका रास्ता नहीं रोक लिया। वापसी में वह भटक गया और बाहर निकलने के उस रास्ते की तरफ मुड़ गया, जिसके बारे में उसे बताया गया था कि इस रास्ते से सिर्फ दुःसाहसी लोग ही बाहर निकलते हैं—अपने साहस और सामर्थ्य की परीक्षा लेने के लिए।

ल्ेकिन वह अपने साहस की थाह लेने उस रास्ते नहीं गया था। वह तो भटककर वहां पहुंचा था। ऊंची—नीची, गोल, फिसलन—भरी, संकरी और ठोस अंधकार में डूबी कई चट्‌टानों पर पांव टिकाते उन्हें छलांगते हुए अंत में वह पायदान आता था, जिस पर खड़े होकर एक संकरे रास्ते के जरिये, छलांग लगाकर बाहर निकलना होता था। इस संकरे रास्ते से तीन चट्‌टान पहले जो चट्‌टान थी, उसमें और दूसरी चट्‌टानों के बीच एक गहरी खाई थी—अंधेरे में जड़ तक डूबी हुई। और इसी चट्‌टान पर छलांग लगानी थी और वह भी बिना किसी सहारे के। अंधेरे में उसकी हिम्मत जवाब दे गयी। उसने लौटना चाहा, लेकिन यह देखकर लगभग चीख ही पड़ा कि जिस चट्‌टान पर वह था, उस तक आना तो सरल था लेकिन वहां से वापस लौटने के लिए फिर एक अंधेरी छलांग की जरूरत थी और गलत छलांग का अंजाम जिस्म का खाई की अतल और नुकीली गहराई में गिर जाना था।

इतनी खामोश, अकेली और मर्मांतक मौत! वह सिहर उठा था और दोनों तरफ से कटी हुई उस चट्‌टान पर बैठा रह गया था—एक धूमिल—सी प्रतीक्षा में, कि शायद कोई आये।

और करीब पौने घंटे की व्याकुल और दहशत—भरी प्रतीक्षा के बाद लड़कियों का एक दल उधर आया था। उसी रास्ते—अपने साहस को तौलता हुआ। उस दल की मुखिया लड़की ने उसे सबसे पहले देखा। पहले घने अंधकार में, किसी प्रेत की तरह बैठे हुए, फिर टॉर्च की रोशनी में, उसकी बेबसी और कातरता को पढ़ते हुए।

‘ऐसे आना चाहिए यहां!‘ मुखिया लड़की की आवाज अंधेरे में गूंजी। वह एकाएक ढेर—सी खुशी से भर उठा। इस हत्यारी गुफा में अकेला नहीं है वह।

वे नेपाली युवतियां थीं। रस्सी और रोशनी की मदद से उन्होंने उसे चट्‌टान से नीचे उतारा और बाहर निकलने के सीधे रास्ते तक पहुंचा आयीं।

महेंद्र गुफा की हत्यारी खाइयों से मुक्त करा दिया था उसे, नेपाली युवतियों ने। लेकिन अपने भीतर की जिस हत्यारी गुफा में वह दोनों तरफ से कटी हुई चट्‌टान पर बैठा है, वहां से कौन आकर ले जायेगा उसे! मुखिया लड़की का वाक्य फिर उसकी चेतना में कौंध उठा—‘ऐसे आना चाहिए यहां!‘

महेंद्र गुफा में पैंतालीस मिनट प्रतीक्षा करनी पड़ी थी उसे, लेकिन अपने भीतर की गुफा में कैद हुए तो जमाना गुजर गया है। बाहर, कैसा होगा जीवन, उसने सोचा और रुआंसा हो आया।

शराब चढ़ ही नहीं रही थी। तीन लार्ज पैग पी लेने के बाद भी लग रहा था, मानो बीयर का पहला घूंट भरा हो।

‘हे ईश्वर! मुक्ति दो मुझे।‘ वह बुदबुदाया। अचानक ही वह बहुत दयनीय हो उठा था। अपनी इस दयनीयता को देख उसे सहसा वे क्षण याद हो आये, जब इस धरती पर अपनी उपस्थिति को वह एक गहरी मोहासक्ति के भाव से महसूस किया करता था। दूसरों को आपस में नफरत करते और एक क्रूर प्रतिहिंसा में डूबते—उतराते देख, अपने एकांत में वह उनके ओछेपन पर खुलकर और खिलकर, एक संत की तरह, उपेक्षा भाव से मुस्कराता था। अपने होने को एक दुर्लभ अहसास की तरह संवारा था उसने। उसे मालूम था कि दूसरे ही नहीं, स्वयं उसकी बीवी भी कई दफा उससे कहती थी, ‘इतना दंभ अच्छा नहीं है अविनाश, दूसरों का इतना ठंडा तिरस्कार एक दिन तुम्हें बहुत अकेला कर देगा।‘

वह सिर्फ हंसता था और लापरवाही से कहता था, ‘मैं दंभी नहीं हूं। लेकिन मुझसे जुड़ने के लिए लोगों को मेरे स्तर तक उठकर सोचना और महसूस करना होगा। अगर लोग मेरी तरह सहनशील और कल्पनाशील नहीं हो सकते, तो मुझे मेरे साथ तो रहने दे सकते हैं कि नहीं। या कि मैं भी नीचे गिर जाऊं।‘

तब वह नहीं जानता था कि बाह्‌य जगत के शोर, हलचल, घटनाओं और लोगों से दूर रहकर वह जो यात्रा अपने साथ कर रहा है, वह उसे एक ऐसी चट्‌टान पर ले जाकर खड़ा कर देगी जिस पर सिर्फ वही होगा, लोगों की चिंताओं, सरोकारों और दिलचस्पी से कतई खारिज। वह नहीं जानता था कि एक दिन अकेली चट्‌टान पर बैठे—बैठे, चुपचाप मर जाने की पीड़ा उसके अस्तित्व को नोचने—खसोटने और चींथने लगेगी, कि चट्‌टान पर बैठे—बैठे ही मरना होगा उसे।

यही सही। उसने सोचा और एक पैग शराब और पीकर कुर्सी पर पसर गया। तभी उसकी नजर घड़ी पर गयी। अभी सिर्फ शाम के छः बजेे थे। कल उसे चले जाना था। वह पंद्रह दिन का कार्यक्रम बनाकर आया था और छः दिन के भीतर ही भाग रहा था। यादगार के लिए कुछ खरीदारी कर ली जाये, उसने सोचा और कुर्सी से उठ खड़ा हुआ। मंुंह—हाथ धोकर और बाल संवारकर वह कमरे से बाहर आया और होटल की सीढ़ियां उतरने लगा। होटल के ठीक सामने पार्किंग स्थल पर, उसकी जीप खड़ी थी। लेकिन ड्राइवर का कहीं पता नहीं था।

पी रहा होगा वह भी। उसने सोचा और बाजार की चढ़ाई चढ़ने लगा। बाजार की सीमा पर स्थित मोतियों की मालाओं और कंगनों की एक छोटी—सी दुकान पर वह ठिठक गया।

वह एक खाली दुकान थी। यानी ग्राहकों से खाली। चेहरे—मोहरे से नेपाली लगते हुए भी, जो लड़की सामान बेच रही थी, उसे लगा, वह नेपाली नहीं है। यानी एक हिंदुस्तानी की दुकान। वह दुकान के करीब आया।

आहट पाकर, जरा भी उत्साहित हुए बिना, लड़की ने उसकी तरफ देखा।

हे भगवान! लड़की की आंखें देखकर वह सिहर उठा। क्या यह भी दोनों तरफ से कटी हुई किसी चट्‌टान पर बैठी है—एक अनजाने अभिशाप को जीती हुई, किसी बुद्‌दुआ की मुसलसल यातना में जलती हुई!

लड़की अजीब तरीके से सुंदर थी। उसकी आंखें बहुत गहरी थीं लेकिन आंखों से भी अधिक गहरी थी वह उदासीनता, जो उनमें दूर तक पसरी हुई थी। एक नजर में यूं लगता था जैसे आंखों को जीवन से निर्वासित हो जाने का दंड मिला हो। उसके होठों में रस था लेकिन यौवन की जीवंतता नहीं थी। उसके गाल रक्तिम थे लेकिन कुछ—कुछ निस्तेज भी थे। उसके बाल, उसकी गर्दन, उसकी उंगलियां, उसका ललाट... जैसे किसी स्वप्न का शापग्रस्त टुकड़ा थी वह।

‘क्या चाहिए?‘ लड़की ने कहा।

वह चौंक गया। उसकी आवाज में उत्सुकता नहीं, भय था। मानो वह कुछ खरीदने नहीं, लड़की के एकांत को तहस—नहस करने आया हो।

उसने जवाब नहीं दिया और लड़की को देखता रहा। लड़की कुछ इस तरह खुद को सहेजने—समेटने लगी कि अपना देखना उसे खुद ही नागवार लगने लगा।

‘कुछ लेंगे?‘ लड़की ने फिर पूछा।

‘क्या?‘

‘कुछ भी।‘ लड़की थोड़ा असहज हो गयी, ‘कंगन, माला... मेरे पास बहुत सुंदर—सुंदर चीजें हैं।‘

‘जो चाहे दे दो।‘ वह मंत्रमुग्ध था जैसे।

‘जो चाहूं...!‘ लड़की बुदबुदायी और दुकान में इधर—उधर देखने लगी। वह कुछ परेशान—सी हो गयी थी, मानो तय न कर पा रही हो कि क्या दे। आखिर उसने सफेद मोतियों की एक सुंदर—सी माला निकाली, ‘यह देखिए... सिर्फ पैंतालिस रुपये।‘

‘नेपाली या इंडियन?‘ वह बाकायदा ग्राहक बन गया।

‘इंडियन। पैक कर दूं?‘ लड़की थोड़ा—थोड़ा दुकानदार की मुद्रा में आ रही थी।

‘तुम्हें पसंद है?‘ उसने अचानक ही पूछा।

‘क्या?‘ लड़की जैसे समझी नहीं।

‘हार।‘

‘मुझे!‘ लड़की चौंक गयी, फिर मुस्कराकर बोली, ‘मेरी पसंद से उनके लिए हार लेंगे।‘

‘कौन उनके?‘ उसने सहजता से पूछा। दरअसल वह बातचीत को देर तक चलने देना चाहता था। और देर तक ही इस दुकान पर बने भी रहना चाहता था।

‘अपनी पत्नी के लिए।‘ लड़की भी सहज थी।

‘मैंने अभी विवाह नहीं किया।‘

‘तो फिर होने वाली के लिए ले रहे होंगे।‘

‘होनेवाली भी कोई नहीं।‘ वह पूर्ववत सहज था।

‘तो फिर इस दुकान पर क्यों आये हैं?‘ लड़की को असमंजस ने घेर लिया था।

‘तुमसे बात करने के लिए।‘ उसने निस्संकोच कहा।

‘यानी आप यह हार नहीं ले रहे हैं?‘ लड़की कुछ—कुछ दुखी होने लगी थी।

‘ले रहा हूं, अगर यह तुम्हें पसंद है।‘

‘मेरी पसंद का हार यह है।‘ लड़की ने एक—दूसरा हार दिखाते हुए कहा, ‘इसकी चमक कभी फीकी नहीं पड़ती। पर यह एक सौ पचास रुपये का है।‘

उसने चुपचाप एक सौ पचास रुपये लड़की को पकड़ा दिये। लड़की के होंठों पर मुस्कराहट खेलने लगी। वह हार की बिक्री पर कम, अपनी पसंद के स्वीकार पर ज्यादा प्रसन्न थी। उसकी प्रसन्नता उसके पोर—पोर से छलकने लगी थी।

लड़की को प्रसन्न देख उसे बहुत अच्छा लगा। शब्दों में भरपूर आत्मीयता उंडेलते हुए उसने पूछा, ‘तुम नेपाली नहीं लगतीं!‘

लड़की सहसा बुझ गयी और हार पैक करने लगी। धीरे से बोली, ‘मैं हिंदुस्तान की ही हूं। लखनऊ से आयी थी यहां।‘

‘दुकान खोलने?‘ वह चकित हो गया।

लड़की जैसे तड़प उठी। उसकी आंखों से आंखें मिलाते ही वह एकाएक दुखी हो गया। उसके प्रश्न से लड़की आहत हो गयी थी।

‘मेरा आशय तुम्हें दुख पहुंचाना नहीं था, क्षमा कर देना।‘ उसने विनम्रता से कहा।

‘अरे नहीं।‘ लड़की ने मुस्कराने की असफल कोशिश करते हुए कहा, ‘यह क्या कह रहे हैं आप? यह हार लें।‘

‘मैं तुम्हारा नाम जान सकता हूं?‘ उसने हार को जेब में रखते हुए कहा।

‘शैदा।‘ लड़की की उदासीन आंखों में एक चमक—सी कौंधी। शायद एक लंबे अरसे के बाद वह अपना नाम ले रही थी। उसे ऐसा ही लगा।

‘खूबसूरत।‘ वह बुदबुदाया।

‘क्या?‘ लड़की उत्सुक हो गयी।

‘नाम।‘ उसने कहा।

‘क्या फर्क पड़ता है।‘ लड़की ने जैसे अपने—आपसे कहा और एक नामालूम—सी उदासी में डूबने—उतराने लगी।

‘चलूं?‘ उसने लड़की से इस तरह पूछा जैसे अपनी किसी वर्षों पुरानी परिचिता से इजाजत ले रहा हो।

लड़की पहले खिलखिलायी, फिर उसने जिस तरह गर्दन हिलायी उसका अर्थ ‘हां‘ भी था और ‘ना‘ भी। उसने तत्काल तय किया कि वह अभी कुछ दिन और यहीं रहेगा।

ग्ग्ग्

अगली शाम वह फिर शैदा के सामने था। रात को देर तक वह पीता रहा था और शैदा के बारे में सोचता रहा था। शैदा के लखनऊ से यहां आने और कंगन की दुकान खोलकर बैठ जाने के पीछे की व्यथा को तो पढ़ लिया था उसने शैदा की आंखों में, लेकिन कथा से अपरिचित रह जाने की बेचैनी रात—भर उसकी चेतना में करवटें लेती रही थी। सुबह वह देर से उठा, तो तैयार होने के बाद, सबसे पहला खयाल उसे शैदा के पास जाने का ही आया। पर तभी वह ठिठक गया। उसे लगा, बिना पिये वह शैदा से इतनी अंतरंगता और अनौपचारिकता से बात नहीं कर सकता, जितनी इस बातचीत के लिए जरूरी है। रात, उसे सहसा ही यह भी लगा था कि जैसे महेंद्र गुफा में उसे बचाने के लिए नेपाली लड़कियों का दल चला आया था, ठीक वैसे ही शैदा ने भी उसके भीतर की गुफा में प्रवेश किया है, कि हत्यारी गुफा में वह अकेला नहीं है।

दिन में वह बाजार की दूसरी दिशा में निकल गया था और कुछ कैसेट्‌स, एक चाइनीज बैग और एक जेबी शतरंज खरीद लाया था। लौटकर उसने होटल में ही खाना खाया और फिर सो गया।

और अब वह फिर शैदा के सामने था।

शैदा ने उसे देखा, मुस्करायी और बोली, ‘एक मिनट।‘

शैदा व्यस्त थी। वह एक लड़की को तरह—तरह के कंगन दिखा रही थी। लड़की को निपटाने के बाद उसने शरारत से कहा, ‘अपनी पसंद के कंगन भी दिखाऊं?‘

‘एक शर्त पर।‘ उसने संजीदगी से कहा।

‘क्या?‘

‘अच्छा, पहले कंगन दिखाओ।‘

शैदा ने मोतियों जड़े कंगन निकालकर उसे दिखाये और बोली, ‘इंडियन करेंसी में बावन रुपये।‘

रुपये देने के बाद उसने कुछ देर तक कुछ सोचा फिर आहिस्ता से बोला, ‘शैदा! बुरा मत मानना और मेरा जी भी मत दुखाना। ये कंगन और यह हार मैंने तुम्हारे लिए ही खरीदे हैं। इन्हें रख लो, प्लीज!‘ उसने झटके से वाक्य पूरा किया और जेब में रखा हार शैदा के हाथ में ठूंसकर लंबे—लंबे डग भरता अपने होटल की तरफ बढ़ गया।

‘सुनिए...सुनो!‘ पीछे से शैदा की पुकार आयी। उस पुकार में चिंता, व्यग्रता, आतुरता, आशंका, खुशी और दुख के भाव गड्‌डमड्‌ड हो गये थे।

उसने पीछे मुड़कर नहीं देखा। शैदा द्वारा कंगन और हार अस्वीकार कर दिये जाने से पैदा हुए अपमान को झेल नहीं सकता था वह।

ग्ग्ग्

रात के आठ बज रहे थे, जब उसके कमरे के दरवाजे पर किसी ने दस्तक दी।

‘कौन हो सकता है?‘ उसने विस्मय से सोचा और दरवाजा खोल दिया।

‘शैदा!‘ उसकी चीख निकल गयी।

‘यह सच नहीं हो सकता।‘ उसने सोचा और शैदा के कंधे को छुआ। शैदा ही थी। उसने गले में अपनी पसंद का हार और हाथों में अपनी पसंद के कंगन पहन रखे थे। काले रंग की साड़ी पहने वह एक स्वप्न की तरह थिर थी।

‘तुम...यहां...कैसे?‘ उसकी जबान लड़खड़ा गयी।

‘तानसेन बहुत छोटी जगह है... मैं भागते हुए आपके पीछे आयी थी। इस होटल में चढ़ते देखा, तो लौट गयी। सोचा, दुकान बंद करके आऊंगी।‘ शैदा एक सांस में सब बता गयी।

‘पर बिना नाम के...!‘ वह अभी तक चकित था। उसे अब तक यकीन नहीं हो रहा था कि शैदा उसके सामने खड़ी है।

‘आपका नाम भी बहुत खूबसूरत है।‘ शैदा मुस्करायी, ‘भीतर आने को नहीं कहेंगे?‘

‘हां।‘ वह हड़बड़ा गया और दरवाजा छोड़कर भीतर आ गया।

‘मुझ पर, एक अजनबी पर भरोसा हो, तो दरवाजा बंद कर दूं?‘ उसने पूछा।

‘है।‘ शैदा ने बिना किसी दुविधा के जवाब दिया और कुर्सी पर बैठते हुए बोला, ‘इसे जारी रख सकता हूं?‘ उसने अपना गिलास दिखाया।

शैदा ने गर्दन हिला दी।

गिलास की शराब खत्म करके उसने शैदा की आंखों में देखा और बोला, ‘एक बात बताओगी?‘

‘पूछिए!‘ शैदा की आंखों में सहसा एक उदास व्यग्रता उतर आयी...

चट्‌टान। उसने सोचा। दोनों तरफ से कटी हुई चट्‌टान।

‘तुम कौन हो?‘

‘आप कौन हैं?‘ पूछा शैदा ने।

‘मैं?‘ वह लड़खड़ा गया। ‘मुझे नहीं मालूम। मुझे कुछ नहीं मालूम कि मैं कौन हूं और क्यों हूं।‘ उसे लगा, उसे थोड़ी—सी शराब की और जरूरत है। वह उठकर नया पैग बनाने लगा।

‘मैं कौन थी, यह तो मालूम है मुझे।‘ शैदा का स्वर टूटा हुआ था। ‘पर अब कौन हूं और क्यों हूं, मैं भी नहीं जानती।‘

उसने तड़पकर शैदा को देखा। शैदा की आंखें नम थीं। बहुत आहिस्ता से बोली वह, ‘यह निशानी आप मुझे क्यों दे जा रहे हैं? ऐसा क्यों किया आपने?‘

‘मैं चाहता था, तुम्हें तुम्हारी पसंद की चीज मिले ताकि तुम प्रसन्न हो सको।‘

‘पर क्यों?‘

‘मुझे लगा कि तुम जैसी लड़की को जीवन से भागना नहीं चाहिए।‘

‘जीवन!‘ शैदा की उदासी घनी हो गयी, ‘जीवन कभी किसी का नहीं होता। जीवन हमारे लिए नहीं, हम जीवन के लिए होते हैं।‘

‘शैदा!‘ वह भावुक हो गया और गिलास की शराब हलक में उंडेल उसकी तरफ बढ़ा।

‘नहीं, विश्वास मत तोड़ो।‘ शैदा उठकर खड़ी हो गयी। ‘अगर विश्वास टूट जाये तो...‘

‘तो?‘ वह ठिठक गया।

‘तो हिंदुस्तान से आयी लड़की को तानसेन में कंगन बेचकर जीना पड़ता है।‘ शैदा सुबकने लगी।

संवेदना के सारे तंतु जैसे एक साथ कराह उठे हों। अस्फुट स्वर में पूछा उसने, ‘यानी तुम्हें छला जा चुका है, तुम्हें भी?‘

‘नहीं, मुझे किसी ने नहीं छला।‘ दृढ़ता से कहा शैदा ने, ‘अपने बारे में ही सोचती रहती थी मैं। और एक दिन मैंने पाया कि अपने बारे में सोचते—सोचते जीवन से ही बाहर चली गयी मैं। जो साथ चल रहा था, वह जीवन में रह गया और मैं...‘ शैदा वाक्य पूरा नहीं कर पायी।

यह जवाब नहीं था जैसे, चीत्कार था। लेकिन उसे लगा, किसी तिलिस्म को भेदने के लिए मानो कोई सूत्र वाक्य उच्चारा गया हो। उसे महसूस हुआ कि कमरा छत, दीवारों, फर्नीचर और शैदा समेत घूमने लगा है। उसकी आंखों में ढेर—सा दर्द उतर आया और दिल डूबने लगा। हाथ—पैरों में तेज सनसनाहट भी होने लगी थी, एकाएक।

उसने एक बड़ा पैग बनाया और एक ही सांस में नीट पीकर हांफता हुआ बोला, ‘जाओ, इस समय जाओ, प्लीज, मेरा विश्वास मत करो इस समय, वरना मैं सब कुछ नष्ट—भ्रष्ट कर दूंगा, तुम्हें भी। जाओ।‘ वह दहाड़ा और फिर कुर्सी पर गिरकर रोने लगा।

जैसे नन्हें बच्चे को चूमते हैं, उसी तरह, उसकी दोनों बहती हुई आंखों को चूमा शैदा ने और बिस्तर पर लिटाकर बाहर निकल गयी। चुपचाप।

होटल की सीढ़ियां उतरते समय शैदा को लगा, वह खुद भी रो रही है। किसके लिए? उसने सोचा, तो रुलाई कंठ तोड़कर बाहर आती—सी लगी।

रचनाकाल : 1988

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