शब्द
स्मृति
एक दीया
प्रेम पुष्प
रात
तुम
ए दरख़्त
भीना सा मौसम
हे प्रिये
एक बूंद
एक सिरा
तुम
क्यूँ
मौन
वो धुन
1. शब्द ...
खिलते
महकते
झिझकते
सिसकते
खिलखिलाते
चलते
ठिठकते
लिरजते
डूबते
तैरते
शब्द में बसा संसार ...!!
2.स्मृति
पतीले में आग पर रखा दूध
ले रहा था उबाल पर उबाल
क्षण भर को ओझल होती नज़र
और एक उबाल …बिखर गया दूध
ह्रदय पटल पर स्मृतियों का उबाल
उठती गिरती बीती यादों की तरंगे
एक स्मृति की कोर में उलझी स्मृति
एक उबाल और बिखर गया हथेली पर
एक उबाल ही था या फूटी कोई ज्वालामुखी
लावा फूट कर फैला था तपिस बढ़ती रही
मुरझाई आँचल के कोने की एक ठंठी फुहार
तपिस अब भी बाकी है और आग पर पड़ा है बिखरे दूध का निशान !!
3. एक दीया
अन्धकार को चीरता एक दीया
जो सरहद पर आँधियों से लड़ता रहा
बर्फ के गोले खाता कहीं रेत पर सोता रहा
मन बावरा दुश्मनों की भीड़ में जीत की आस पर लड़ता रहा
मंजिल की ख़बर नही वक़्त का पहिया तेज़ चलता रहा
कंही सो गए वो कंही इंतज़ार का दीया जलता रहा
कल रात कुछ सो गए कुछ दिलों में ज़ख्म पलता रहा
दीया था आस का अमावस में भी टिमटिमाता रहा
मन था बावरा बावरे को भीड़ में ढूंढता रहा
कुछ सुफेदियों में दफ़न थे कुछ सुपुर्द-ए-ख़ाक होता रहा
दीया था या बावरा मन किस भवर में उलझता रहा
लौ थर-थाराती रही जिन्दगी और मौत का किस्सा भी चलता रहा
दोखज़ के राह पर थे खड़े कुछ ज़न्नत की ओर काफिला भी चलता रहा
हर आँगन में सरहदों पर मिटने वालो की सलामती का दीया रोशन होता रहा
अमन की चाह में ख़ामोशियों के राह पर पाकीज़गी हर क़दम संभलती रही और एक दीया जलता रहा !!!
4. प्रेम-पुष्प
शब्दों के भावों में
मधुर प्रेम-पुष्प है खिला
बंधन अटूट मेरा
ईश्वर-प्रदत तुमसे है मिला
ऋतू आती है
ठहरती है
और चली जाती है
समय के चक्र पर
रंग मौसम का है चला
विरह-मिलन
वेदना-संवेदना
इस डाली के फूल
जगत के तपते
रेगिस्तान में
प्रेम रस है घुला
5. रात
कुछ भावनाओं
की ठहरी
सी धारा नेत्र से
नेह बन
ढुलक कर
गालों से गिर हथेली
पर आ ठहरी है
रात का चन्द्रमा
कटा सा
तन्हा सा
सफ़र में
रुका रुका सा
रात शायद यादों
की आज बहुत गहरी है !!
6. तुम
कुछ पुष्प कुछ अक्षत
कुछ रोली कुछ चन्दन
एक हार था प्रभु के वास्ते
एक उल्लास था भक्ति के रास्ते
एक ही था कठोर मन
भीगा था नेह में
मधुर था स्नेह में
अधरों पर थी लौटी एक मुस्कान
पल जो बीता था कल
सौ बात की इक बात
मधुर प्रेम पर है विश्वास
ईश भी रहता जिनके द्वार
कठोर मन के भीतर
रहता मिश्री घुला मीठा जल
क्यूँ हो तुम जैसे एक नारियल !!!
7. ए दरखत
ये दरख्त जब भी तेरी छावं
की महज़ चाहत हुयी
तेरे पत्तों ने गिर कर
मेरा कोमल मन घायल किया
दोष मेरा क्या ??????
इक बार तो बता दो
माना तेरी छावं के
हकदार हैं कई
मगर क्यूँ
सजा का मुझे हकदार किया ???
ए दरख्त तुझे कई बार
सींचा है मैंने भी अपने स्नेह से
स्वार्थ था शायद या थी असीम चाहत
तूने समझने से ही इनकार किया
ए दरख्त तू यूँ ही हरा भरा रहे
तेरी छावं तेरी चाहतो पर बनी रहे
मैं मुसाफ़िर हूँ दूर से ही
तुझे देख कर नेह जल से तुझे सींचती रहूंगी
आखिर मैंने तुझे प्यार किया प्यार किया प्यार किया
8. भीना सा मौसम
एक भीना भीना सा मौसम
यादों की मुंडेर पर आ बैठा है
एक पल ख़ामोशी के आँचल में
दूजे पल बादलों के संग उड़ पड़ता है
यादों की फुहारों में जीवन बगिया
ख़िल कर ताज़गी से भर उठती है
एक कुमभलाता सा कवल अपने ही
तालाब के पानी में मुस्कुरा उठता है
ये यादें भी निर्जीव को सजीव कर जाती हैं
कभी नवप्राण नव चेतना से काया को नव उल्लास दे जाती हैं !!!!!!
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9. हे प्रिये !
हे प्रिय! जब तुम जुदा होते हो ….
बुँदे भी पलकों से जुदा
होने लगती हैं ये तो मेरी
होकर भी मेरी नही रहती हैं …..
और तो और हाथो की लकीरों
पर गिर कर उन में ही समा जाती हैं ….
लेकिन कभी-कभी तो बुँदे यूँ टूट कर बिखरतीं हैं
मानों मोतियों की लडियां ही टूट कर बिखर गयीं हो …
मैं सहेजना चाहती हूँ इन मोतियों को…..
आँचल में भर कर छुपा लेना चाहती हूँ …..
पर कभी दामन ही छोटा महसूस होने लगता है और कभी …………
आश्चर्य से वशीभूत मैं फिर उसी उद्गम सरिता के पास आ खड़ी होती हूँ
जहां से चलना शुरू किया था …….फिर तुम्हारा जाना ……
मेरा बार-बार ह्रदय पर पत्थर रखना
और हर पत्थर को चीर जल धारा की तरह भावनाओं का भूट आना
और अश्रु धारा का साथ निभाना……. सफ़र ये भी तो अनवरत है जल की धारा की तरह !!
10. एक बूंद !
वो एक बूंद
जो पलक तक
आ ठहरी थी
जाने कितने
ख्वाब समेटे
जाने कितने
सपनो के रंग लिए
अनछुई थी बस
एक स्पर्श से
टूट कर गिरी
और दफ़न हो
गयी हथेली में !!!!
11. एक सिरा
वो उलझनों के
धागे का एक सिरा
जो मैंने वर्षों पहले
तुम्हारे हाथों में थमाया था
कभी समान्तर चले
कभी आगे पीछे
पर चलते रहे निरंतर
हम दोनों के हाथ अब भी
एक एक सिरा है
न वादों की गांठें थी
न ही कसमों की
एक अनकहे संकल्प
के तरुवर की छाया थी
कल रात राह में भी
हम समान्तर सिरा थामे
कुछ ही कदम चले थे क़ि
उलझनों का वो धागा
सिमट गया था लेकिन
सिरा अब भी हमारी
उँगलियों के बीच उलझा हुआ था
12. तुम
यूँ इज़हार-ए-मुहब्बत कर के
तुम मुझे उलझा गए
दर्मंद हुए हम अपने ही दयार में तुम
शाहकार हो गए
हम खामोश रहे ज़ीस्त-ए-हिज्र में भी
तुम मुस्कुरा गए
ये क्या मेरी नशात मिल्लतों पर
तुम दाद-ए-हुनर दे गए
13. क्यूँ
खून का कतरा कतरा
समर्पित हुआ
शर्म से क्यूं फ़िर मैं
लज्जित हुआ ?????
मौन हो कर
ज़ख्मों को क्यूँ
कुरेदते हो ?????
फ़र्ज़ की राह में
आज के दौर में
मेरी वीरता में
मेरी अस्मिता में
मेरे ज़मी के ज़र्रे ज़र्रे में
क्यूं अपनी कायरता भर रहे हो ????
कठपुतली सा बांध रखे हो
धागों को भी अपने
गिरेबां में छुपा रखे हो
वजह तुम्हारा स्वार्थ भरा मौन
तुम्हारी आदत भरी दासता
एक स्वर्ग को नर्क में कर ही दिया तब्दील !
14. मौन
तुम्हारे
मौन
की सीमा
मेरे मौन
होने तक
तुम्हारा
दर्द
मेरे दर्द
में समा
जाने तक
न तुम समझे
न मैं
सफ़र अनवरत !!!!
15. वो धुन
वो धुन
'तेरे-मेरे' दर्मिया की
अब भी गुनगुनाती है
रात के अंधेरों में चाँद की
तरह यादें जगमगाती है
चंद लम्हों की चाह में सदियों की
गुज़र हो जाती है
न तुम आते हो
न ख्याल तुम्हारे
मुझसे जुदा होते हैं
एक चाँद ठहरा रहता है
रात स्याह हो मुस्कुराती है !!