मैं चोर नहीं हूँ
"मम्मी मम्मी, कल प्रिसिंपल सिस्टर ने आपको बुलाया है।" स्कूल से आते ही गुड़िया ने मुझसे कहा। मैंने उसके कंधे से बैग उतारते हुएपूछा, "क्यों बेटा? " "पता नहीं वो बोलती है मैंने नकल की है", उसने मासूमियत से जवाब दिया। नकल!! .....इन दिनों उसके टेस्ट चल रहे थे, पहली कक्षा में थी वो। मैंने हैरानगी जताई, "किस चीज़ की नकल बेटा?" "आज जो टेस्ट था न उसमें“ उसने मुझे समझाने का प्रयास किया। सवाल ही नहीं उठता था कि मेरी बेटी नकल करे। अक्रोश से मेरा चेहरा तमतमाने लगा। मैं खुद उसे पढ़ाती थी, विषय से संबंधित सारे प्रश्नों के उत्तर उसे आते थे, फिर नकल क्यों करती भला? मैं समझ गई कि बात कुछ और हुई होगी। अचानक मन पलट कर बचपन की गलियों में दौड़ चला। मुझे वो दिन याद आ गया जब मैंने भी इसी तरह स्कूल से आकर पापा से टीचर की शिकायत की थी।
घटना तब की है जब मैं दूसरी कक्षा में पढ़ती थी। सभी दिन की तरह उस दिन भी मैं तैयार होकर स्कूल पहुंची। घंटी बज चुकी थी, सभी बच्चे अपनी अपनी जगह पर बैठ गए। तभी मेरे पास बैठी सकीना अपनी नई कॉपी निकाल कर मुझे दिखाने लगी। कितनी सुंदर थी वो गुलाबी रंग की जिल्द वाली कॉपी। "अरे सकीना तुमने अपना नाम इसमें क्यों नहीं लिखा" मैंने उसकी कॉपी को अंदर से बाहर तक देखते हुएकहा। वो कहने लगी कि उसके पापा बाद में सुंदर तरीके से लिख देंगें। तभी पीछे की सीट पर बैठी गीता बोली, "बाहन, हमको भी दिखाओ।" हम सभी हंसने लगे। गीता हमेशा बहन को बाहन कहती थी। दरअसल मैं और गीता दोनों ही उत्तर प्रदेश के थे, इसलिये गीता के शब्दोच्चारण में वो लहजा झलकता था, जबकि मैं स्थानीय बोलचाल को अपनाये हुएथी। यही वजह थी कि गीता को मुझसे जलन भी होती थी। बात आई-गई हो गई और कक्षा समाप्त हुई। खेल का पीरियड आ गया तो हम सब खेलने दौड़ पड़े।
जहां पढ़ते हुए समय पहाड़ सा लगता है वहीं खेलते समय यही समय पलक झपकते ही बीत जाता है। अगली कक्षा की घंटी बजी और हम फिर से वापस अपनी अपनी सीट पर आ गए। तभी मास्टर जी आ गए और हम सब ने उठ कर उनका अभिवादन किया। अभी कुछ ही पल बीता था कि सकीना जोर जोर से रोने लगी। मैंने घबरा कर पूछा "क्या हुआ सकीना"?" "मेरी नई वाली कॉपी चोरी हो गई" उसने सुबकते हुएकहा। "क्या!!" मैं लगभग चीख ही पड़ी। बड़ा गुस्सा आ रहा था उस पर कि कम से कम नाम ही लिख दिया होता, तो ढूंढ भी लेते वरना तो कोई भी कह देगा कि मेरी कॉपी है। अब क्या था, कक्षा में हंगामा मच गया। शोर बढ़ने लगा तो मास्टर जी ने फटकार लगाई, सब चुप। मास्टर जी ने सकीना से पूरी बात पूछी। फिर मास्टर जी ने सभी बच्चों से स्वयं का बैग चैक करने को कहा। मास्टर जी बोले, "किसी ने सकीना की कॉपी ली हो तो चुपचाप वापस कर दे।"
सभी अपना बैग दिखाने लगे। मैंने भी अपना बैग खोल कर देखा, पर वहाँ कॉपी नहीं थी। होती कहाँ से जब मैंने ली ही नहीं थी। हम सब बच्चों ने कह दिया सर से कि उनके पास सकीना की कॉपी नहीं है। तब सर ने हम सभी बच्चों से कक्षा से बाहर जाने को कहा। हम सभी बाहर निकलने में अफरा-तफरी मचाने लगे। जब सब बच्चे बाहर निकल गए तब स्वयं सर ने सब बच्चों के बैग की तलाशी ली और कुछ ही देर बाद सभी बच्चों को अंदर आकर बैठ जाने के लिए कहा। हम अंदर आ गए। सबने देखा कि सर के मेज पर गुलाबी रंग वाली नई कॉपी रखी थी यानी कि चोर कक्षा में ही था। सब बच्चों के बीच फुसफुसाहट होने लगी कि आखिर किसने चुराई होगी कॉपी। मैं भी सोच में मग्न थी कि जिसने भी चुराई थी उसे सर से बता देना चाहिए था। "मीनू".. सर ने सख्त लहज़े में पुकारा, "यहाँ आओ।" अपना नाम सुनकर मैं चौंक गई। आखिर सर मुझे क्यों बुला रहे हैं? मैं उठकर सर के पास गई तो उन्होंने पूछा- "सकीना की कॉपी तुमने चुराई थी?.. सच सच बताना।" "जी?" मैं कुछ समझ ही नहीं पाई। वे लगभग चीखते हुए बोले, "सकीना की कॉपी तुमने चुराई थी? "
"नहीं, नहीं सर जी, मैंने नहीं चुराई! " मैंने रूआंसे होकर कहा। तड़ाक ..एक झन्नाटेदार थप्पड़ मेरी गाल पर पड़ा। "बदतमीज़ लड़की एक तो चोरी करती है उस पर झूठ भी बोलती है" सर गुर्राते हुए बोले। "नहीं सर, मैंने चोरी नहीं की। सकीना ने मुझे अपनी कॉपी दिखाई थी, तभी मैंने उसे कहा था कि उस पर अपना नाम लिख दो, पर मैंने चोरी नहीं की, सच्ची बोल रही हूँ। मेरे पापा की कॉपी की दुकान है, फिर मैं चोरी क्यों करूंगी।" मैंने तड़प कर विनती करते हुए कहा।
"ठीक है, तुमने चोरी नहीं की न, तो अब ऐसा करते हैं कि कक्षा में जितने भी बच्चे हैं उतनी ही पर्ची बनाते हैं और सभी में एक एक बच्चे का नाम लिखते हैं। तुम खुद एक पर्ची उठाना, फिर जिसका नाम आयेगा वो चोर, ठीक है।" सर ने हमदर्दी जताते हुए कहा। मैंने हामी में सिर हिला दिया। बालमन में यह विश्वास गहरे बैठा था कि ईश्वर सब जानता है, वो न्याय करेंगे और जो चोर होगा उसी का नाम खुलेगा। मुझे वापस अपनी सीट पर जाकर बैठने को कहा गया। मेरी सहेली तुलसी भी मेरी ही कक्षा में थी। उसे सर ने पर्ची लपेटने में मदद के लिए अपने पास बुलाया।
कुछ देर बाद पर्ची तैयार हो गई। मैं मन ही मन भगवान से कह रही थी कि चोर पकड़ा जाए, उसी का नाम आए। सर ने मुझे बुला कर एक पर्ची उठाने के लिए कहा। मैंने खुशी से एक पर्ची उठा ली और सर को दे दिया। पर्ची खोली गई, उसमें मेरा ही नाम था। पर्ची में अपना नाम देखकर यूं लगा जैसे किसी ने मुझे ऊँची पहाड़ी से धक्का मार दिया हो। मैं रोने लगी। रोते रोते कहती रही, "सर भगवान की कसम, मैंने चोरी नहीं की।" परन्तु सर ने मेरी एक बात नहीं सुनी।
कक्षा की ही एक लड़की कविता को बुलाकर सर ने कहा, "इसके गले में एक तख्ती लटकाता हूं, जिस पर लिखा होगा मैं चोर हूं और तुम इसे सभी कक्षाओं में लेकर जाओगी, तथा सभी टीचर को बताना कि इसने कॉपी चुराई है।" "जी", न चाहते हुए भी कविता को सर की बात माननी पड़ी और मैं चुपचाप सर झुकाए हुए उसके साथ चल पड़ी। मान-अपमान, लाज-भय, दुःख-सुख की अनुभूति से परे, एक मूरत की तरह निःशब्द बस उसके साथ चल रही थी। गालों पर बह आए आँसू सूख चुके थे। जैसे ही कविता मुझे लेकर बगल वाली कक्षा में पहुंची, मोनिका मेम ने हमें देख लिया और तुरंत अपने आंचल की ओट में करते हुए कविता से सारी बात बताने को कहा। कविता ने रोते हुए हर बात सच-सच बता दी। "नहीं मीनू ऐसा नहीं कर सकती, मैं इसे जानती हूँ। ये बहुत ही अच्छी बच्ची है।" मोनिका मेम ने यह कहते हुए मेरे सिर पर प्यार से हाथ फेरा और मेरे गले से तख्ती उतार कर फैंक दी। फिर कविता से बोली, "जब तक छुट्टी होने की घंटी नहीं बज जाती, तुम दोनों यहीं पर बैठो।"
कुछ देर बाद स्कूल की छुट्टी हुी तो मैं अपना बैग लेने कक्षा में गई, वहाँ से सभी बच्चे जा चुके थे, बस तुलसी खड़ी थी। मैं चुपचाप अपना बैग लेकर चलने को हुई तो तुलसी ने कहा, "मीनू मैं जानती हूँ तुम चोर नहीं हो।" मैंने पलट कर उसकी तरफ देखा, आँखें भरने लगी थी मेरी। "अगर मैं चोर नहीं थी तो भगवान ने पर्ची में मेरा ही नाम क्यों दिखाया तुलसी? " कहते कहते मैं रो पड़ी। वो बोली, "क्योंकि सर ने हर पर्ची में तुम्हारा ही नाम लिखा था।" "क्या!!!" तुलसी के इस रहस्योदघाटन से मैं भीतर ही भीतर सिहर उठी। इतना बड़ा छल, इतनी बेईमानी, इतना बड़ा इल्ज़ाम लगाया मुझपे। "और वो कॉपी? वो तो मेरे बैग में नहीं थी" मैंने पूछा। "जब हम लोग बाहर निकलने लगे थे तब वो कॉपी गीता ने तुम्हारे बैग में रख दी थी, मैंने खुद देखा था, पर सर की पिटाई के डर से मैंने कुछ नहीं कह पाई" तुलसी ने अफसोस जताते हुए कहा।
घर आते ही मैंने रो-रोकर अपने पापा से सारी बात बताई, मुझे यकीन था कि यह झूठ पापा बर्दाश्त नहीं करेंगे और जरूर सर की शिकायत हेड मास्टर जी से की जायेगी। तब सबको यकीन हो जायेगा कि मैं चोर नहीं हूँ। पर नहीं...पापा ने मेरी बात सुनकर हँसते हुए कहा, "कोई बात नहीं, जाओ अपना काम करो।".....और मैं ठगी सी खड़ी रह गई। जैसे किसी ने मन को मुट्ठियों में लेकर निचोड़ दिया हो, जैसे किसी ने मेरे परखच्चे उड़ा दिए हों। ... मैं होकर भी नहीं थी, संज्ञाशून्य, संवेदनारहित, आहत मन सिसक कर रह गया।
अतीत ने मेरे सारे जख्म फिर से ताजा कर दिए थे। एक दर्द की लहर सी उठी और आँसू छलक पड़े। कुछ भी हो जाए मैं अपनी बेटी पर यह इल्ज़ाम नहीं लगने दूँगी। मैं अपनी बच्ची की भावनाओॆ को आहत नहीं होने दूँगी। "मम्मी-मम्मी भूख लगी है", नन्हीं गुड़िया की आवाज़ मुझे वापस वर्तमान में ले आई और मैं नम आँखों से मुस्कुराती हुई उसके लिए नाश्ता तैयार करने लगी।
दूसरे दिन मैं गुड़िया के साथ उसके स्कूल गई और प्रिंसिपल से मिली। मैंने उन्हें स्पष्ट किया कि मेरी बेटी नकल नहीं मार सकती, क्योंकि उसे सब कुछ याद है। आप चाहे तो उसका दोबारा टेस्ट ले सकते हैं। गुड़िया और क्लास टीचर को सामने बुलाया गया और पूछताछ की गई। गु़ड़िया ने माना कि वो किताब देख रही थी। मैंने क्लास टीचर से पूछा, कौन सी किताब थी। टीचर ने बताया, विज्ञान की। मैं मुस्कुरा उठी। अब सारा मामला मेरी समझ में आ चुका था। गलती मेरी ही थी। मैंने गुड़िया से कहा था कि अंग्रेजी विषय का टेस्ट खत्म हो जाए तो विज्ञान की किताब निकाल कर पढ़ना, क्योंकि अगले दिन विज्ञान का टेस्ट होना था। मामला समझ में आते ही प्रिंसिपल ने इस गलतफहमी के लिए मुझसे माफी मांगी। मैंने उनका धन्यवाद किया और घर लौट आई। मैं बहुत खुश थी कि मैंने अपनी बेटी के गले पर कोई पट्टी नहीं बंधने दी।
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इतना सताया है
तुमने मुझको कि
अब मन करता है
कह दूं अलविदा
रूख न हो उधर का कभी भी
जहां लुटी हो हमारी ज़िन्दगी
वक्त जहां नहीं
ठहरता था पलभर
अब जम कर
देता है सदा
उम्मीदें टूटी, अपने खोये
हसरत छूटी, सपने सोये
मुरझाया सा क्यों
लगता है सब कुछ
सांसें हो गई
सीने से अलहदा