Pariksha-Guru - Chapter - 16 in Hindi Short Stories by Lala Shrinivas Das books and stories PDF | परीक्षा-गुरु - प्रकरण-16

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परीक्षा-गुरु - प्रकरण-16

परीक्षा गुरू

प्रकरण-१६

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सुरा (शराब)

लाला श्रीनिवास दास

जेनिंदितकर्मंनडरहिं करहिंकाज शुभजान ।।

रक्षैं मंत्र प्रमाद तज करहिं न ते मदपान ।।[37]

बिदुरनीति.

"अब तो यहां बैठे, बैठे जी उखताता है चलो कहीं बाहर चलकर दस, पांच दिन सैर कर आवैं" लाला मदनमोहन नें कमरे मैं आकर कहा.

"मेरे मन मैं तो यह बात कई दिन सै फ़िर रही थी परन्तु कहनें का समय नहीं मिला" मास्‍टर शिंभूदयाल बोले.

"हुजूर ! आजकल कुतब मैं बड़ी बहार आ रही है, थोड़े दिन पहलै एक छींटा होगया था इस्सै चारों तरफ़ हरियाली छागई है. इस्‍समय झरनें की शोभा देखनें लायक है" मुन्शी चुन्‍नी लाल कहनें लगे.

"आहा ! वहां की शोभाका क्‍या पूछना है ? आमके मौर की सुगंधी सै सब अमरैयें महक़ रही हैं. उन्‍की लहलही लताओं पर बैठकर कोयल कुहुकती रहती है. घनघोर वृक्षों की घटासी छटा देखकर मोर नाचा करते हैं. नीचै झरनाझरता है ऊपर बेल और लताओं के मिलनें सै तरह, तरह की रमणीक कुंजै और लता मंडप बन गये है रंग, रंग के फूलों की बहार जुदी ही मनकों लुभाती है. फूलों पर मदमाते भौरों की गुंजार और भी आनंद बढ़ाती है. शीतल मंद सुगन्धित हवा सै मन अपनें आप खिला जाता है निर्मल सरोवरों के बीच बारहदरी मैं बैठकर चद्दर और फुआरों की शोभा देखनैं सै जी कैसा हरा हो जाता है ? बृक्षों की गहरी छाया मैं पत्‍थर के चटानों पर बैठकर यह बहार देखनें सै कैसा आनंद आता है ?" पंडित पुरुषोत्तमदास नें कहा.

"पहाड़ की ऊंची चोटियों पर जानें सै कुछ और विशेष चमत्‍कार दिखाई देता है जब वहां सै नीचे की तरफ़ देखते हैं कहीं बर्फ, कहीं पत्‍थर की चटानें, कहीं बड़ी बड़ी कंदराएँ, कहीं पानी बहनें के घाटों मैं कोसोंतक बृक्षों की लंगतार, कहीं सुअर, रीछ, और हिरनों के झुंड कहीं जोर सै पानी का टकराकर छींट, छींट हो जाना और उन्मैं सूर्य की किर्णों के पड़नें सै रंग, रंग के प्रतिबिंबों का दिखाई देना, कहीं बादलों का पहाड़ सै टकराकर अपनें आप बरस जाना, बरसा की झड़ अपनें आस पास बादलों का झूम झूम कर घिर आना अति मनोहर दिखाई देखा है" मास्टर शिंभूदयाल नें कहा.

"कुतब मैं ये बहार नहीं हो तोभी वो अपनी दिल्‍लगी के लिये बहुत अच्‍छी जगह है" मुन्शी चुन्‍नीलाल बोले.

"रात को चांद अपनी चांदनी सै सब जगत को रुपहरी बना देता है उस्‍समय दरिया किनारे हरियाली के बीच मीठी तान कैसी प्‍यारी लगती है ?" हकीम अहमदहुसैन नें कहा, "पानी के झरनें की झनझनाहट; पक्षियों की चहचहाहट, हवा की सन् सनाहट, बाजे के सुरों सै मिलकर गानेंवाले की लय को चौगुना बढ़ा देते हैं. आहा ! जिस्‍समय यह समा आंख के साम्नें हो स्‍वर्ग का सुख तुच्‍छ मालूम देता है"

"जिस्‍मैं यह बसंतऋतु तो इसके लिए सब सै बढ़कर है" पंडितजी कहनें लगे, "नई कोंपल, नयै पत्ते, नई कली, नए फूलों सै सज सजाकर वृक्ष ऐसे तैयार हो जाते हैं जैसे बुड्ढ़ों मैं नए सिर सै जवानी आजाय"

"निस्सन्देह वहां कुछ दिन रहना हो, सुख भोग की सब सामग्री मौजूद हो, और भीनी-भीनी रात मैं तालसुर के साथ किसी पिकबयनी की आवाज आकर कान मैं पड़े तो पूरा आनंद मिले" मास्‍टर शिंभूदयालनें कहा.

"शराब की चसबिना यह सब मज़ा फ़ीका है" मुन्शी चुन्‍नीलाल बोले.

"इसमैं कुछ संदेह नहीं" मास्टर शिंभूदयाल नें सहारा लगाया. "मन की चिन्‍ता मिटानें के लिये तो ये अक्‍सीर का गुण रखती है. इस्की लहरों के चढ़ाव उतार मैं स्‍वर्ग का सुख तुच्‍छ मालूम होता है. इस्‍के जोश मैं बहादुरी बढ़ती है बनावट और छिपाव दूर हो जाता है हरेक काम मैं मन खूब लगता है."

"बस; विशेष कुछ न कहो ऐसी बुरी चीज की तुम इतनी तारीफ करते हो इस्सै मालूम होता है कि तुम इस्‍समय भी उसी के बसवर्ती हो रहे हो" बाबू बैजनाथ कहनें लगे. "मनुष्‍य बुद्धि के कारण और जीवों सै उत्तम है फ़िर भी जिस्के पान सै बुद्धि मैं विकार हो, किसी काम के परिणाम की खबर न रहैं हरेक पदार्थ का रूप और सै और जाना जाय. स्‍वेच्‍छाचार की हिम्‍मत हो, काम-क्रोधादि रिपु प्रबल हों, शरीर जर्जर हो, यह कैसे अच्‍छी समझी जाय ?"

"यों तो गुणदोष सै खाली कोई चीज नहीं है परन्‍तु थोड़ी शराब लेनें सै शरीर मैं बल और फुर्ती तो ज़रूर मालूम होती है" मुन्शी चुन्‍नीलाल नें कहा.

"पहले थोड़ी शराब पीनें सै नि:संदेह रुधिर की गति तेज होती है, नाड़ी बलवान होती है और शरीर मैं फुर्ती पायी जाती है परन्‍तु पीछै उतनी शराब का कुछ असर नहीं मालूम होता इसलिये वह धीरे, धीरे बढ़ानी पड़ती है. उस्‍के पान किये बिना शरीर शिथिल हो जाता है, अन्‍न हजम नहीं होता. हाथ-पांव काम नहीं देते. पर बढ़ानें सै बढ़ते, बढ़ते वोही शराब प्राण घातक हो जाती है. डाक्‍टर पेरेरा लिखते हैं कि शराब सै दिमाग और उदर आदि के अनेक रोग उत्‍पन्‍न होते हैं डाक्‍टर कार्पेन्‍टर नें इस बाबत एक पुस्‍तक रची है जिस्‍मैं बहुत सै प्रसिद्ध डाक्‍टरों की राय सै साबित किया कि शराब सै लक़वा, मंदाग्नि, बात, मूत्ररोग, चर्मरोग, फोड़ाफुन्सी, और कंपवायु आदि अनेक रोग उत्‍पन्‍न होते हैं, शराबियों की दुर्दशा प्रतिदिन देखी जाती है, क़भी, क़भी उनका शरीर सूखे काठ की तरह अपनें आप भभक उठता है, दिमाग मैं गर्मी बढ़नें सै बहुधा लोग बावले हो जाते हैं."

"शराब मैं इतनें दोष होते तो अंग्रेजों मैं शराब का इतना रिवाज़ हरगिज न पाया जाता" मास्टर शिंभूदयाल बोले.

"तुम को मालूम नहीं है. वलायत के सैकड़ों डाक्‍टरों नें इस्‍के बिपरीत राय दी है और वहां सुरापान निवारणी सभा के द्वारा बहुत लोग इसे छोड़ते जाते हैं परन्‍तु वह छोड़ें तो क्‍या और न छोड़ें तो क्‍या ? इन्‍द्र के परस्‍त्री (अहिल्‍या) गमन सै क्‍या वह काम अच्‍छा समझ लिया जायगा ? अफसोस ! हिन्‍दुस्‍थान मैं यह दुराचार दिन दिन बढ़ता जाता है यहां के बहुत सै कुलीन युवा छिप छिपकर इस्‍मैं शामिल होनें लगे हैं पर जब इङ्गलैंड जैसे ठंडे मुल्‍क मैं शराब पीनें सै लोगों की यह गत होती हैं तो न जानें हिन्‍दुस्‍थानियों का क्‍या परिणाम होगा और देश की इस दुर्दशा पर कौन्‍सै देश हितैषी की आंखों सै आंसू न टपकैंगे."

"अब तो आप ह्यदसै आगे बढ़ चले" मुन्शी चुन्‍नीलाल नें कहा.

"नहीं, हरगिज नहीं मैं जो कुछ कहता हूँ यथार्थ कहता हूँ देखो इसी मदिरा के कारण छप्‍पन कोटि यादवों का नाश घड़ी भर मैं हो गया, इसी मदिरा के कारण सिकंदर नें भर जवानी मैं अपनें प्राण खो दिये. मनुस्‍मृति मैं लिखा है "द्विजघाती, मद्यप बहुरि चोर, गुरु, स्‍त्री, मीत ।। महापातकी है सोउ जाकी इनसों प्रीति ।। × इसी तरह कुरान मैं शराब के स्‍पर्शतक का महा दोष लिखा है."

"आज तो बाबू साहब नें लाला ब्रजकिशोर की गद्दी दबा ली" मुन्शी चुन्‍नीलाल नें मुस्‍करा कर कहा.

"राम, राम उन्‍का ढंग दुनिया सै निराला है. वह क्‍या अपनी बात चीत मैं किसी को एक अक्षर बोलनें देते हैं" मास्‍टर शिंभूदयाल बोले.

"उन्‍की कहन क्‍या है अर्गन बाजा है. एक बार चाबी दे दी घन्‍टों बजता रहा," मुन्शी चुन्‍नीलाल नें कहा.

"मैंनें तो कल ही कह दिया था कि ऐसे फ़िलासफर विद्या सम्‍बन्‍धी बातों मैं भलेही उपकारी हों संसारी बातों मैं तो किसी काम के नहीं होते" मास्‍टर शिंभूदयाल बोले.

"मुझ को तो उन्का मन भी अच्‍छा नहीं मालूम देता" लाला मदनमोहन आप ही बोल उठे.

"आप उन्सै जरा हरकिशोर की बाबत बातचीत करैंगे तो रहासहा भेद और खुल जायगा देखैं इस विषय मैं वह अपनें भाई की तरफ़दारी करते हैं या इन्‍साफ़ पर रहते हैं" मुन्शी चुन्‍नीलाल नें पेच सै कहा.

"क्‍या कहैं ? हमारी आदत निन्‍दा करनें की नहीं है. परसों शाम को लाला साहब मुझ सै चांदनीचौक मैं मिले थे आंख की सैन मारकर कहनें लगे "आजकल तो बड़े गहरों मैं हो, हम पर भी थोड़ी कृपादृष्टि रक्‍खा करो" मास्‍टर शिंभूदयाल नें मदनमोहन का आशय जान्‍ते ही जड़ दी.

"हैं ! तुम सै ये बात कही ?" लाला मदनमोहन आश्‍चर्य सै बोले.

"मुझ सै तो सैंकड़ों बार ऐसी नोंक झोंक हो चुकी है परन्‍तु मैं क़भी इन्‍बातो का बिचार नहीं करता" मुन्शी चुन्‍नीलाल नें मिल्‍ती मैं मिलाई.

"जब वह मेरे पीछे मेरा ठट्टा उड़ाते हैं तो मेरे मित्र कहां रहे ? जब तक वह मेरे कामों के लिये केवल मुझ सै झगड़ते थे मुझ को कुछ बिचार न था परन्तु जब वह मेरे पासवालों को छेड़नें लगे तो मैं उन्को अपना मित्र क़भी नहीं समझ सकता" लाला मदनमोहन बोल उठे.

"सच तो ये है कि सब लोग आप की इस बरदास्त पर बड़ा आश्चर्य करते हैं" मुन्शी चुन्‍नीलालनें अवसर पाकर बात आगै बढ़ाई.

"आपको लाला ब्रजकिशोर का इतना क्‍या दबाव है ? उन्सै आप इतनें क्यों दबते हैं ?" मास्‍टर शिंभूदयाल नें कहा.

"सच है मैं अपनी दौलत खर्च करता हूँ इस्‍मैं उन्‍की गांठ का क्‍या जाता है ? और वह बीच, बीच मैं बोलनेंवाले कौन हैं ?" लाला मदनमोहन तेज होकर कहनें लगे.

"इस्‍तरह पर हर बात मैं रोक टोक होनें सै बात का गुमर नहीं रहता; नोकरों को मुक़ाबला करनें का होसला बढ़ता जाता है और आगै चलकर कामकाज मैं फ़र्क आनें की सूरत हो चली है" मुन्शी चुन्नीलाल लै बढ़ानें लगे.

"मैं अब उन्‍सै हरगिज नहीं दबूंगा. मैंनें अब तक दब, दब कर वृथा उन्‍को सिर चढ़ा लिया" लाला मदनमोहन नें प्रतिज्ञा की.

"जो वह झरनें के सरोवरों मैं अपना तैरना और तिवारी के ऊपर सै कलामुंडी खा खाकर कूदना देखेंगे तो फ़िर घंटों तक उन्‍का राग काहेको बन्‍द होगा ?" पंडित पुरुषोत्तमदास बड़ी देर सै बोलनें के लिये उमाह रहै थे, वह झट पट बोल उठे.

"उन्का वहां चलनें का क्‍या काम है ? उन्कों चार दोस्‍तों मैं बैठ कर हंसनें बोलनें की आदतही नहीं है. वह तो शाम सबेर हवा खा लेते हैं और दिन भर अपनें काम मैं लगे रहते हैं या पुस्‍तकों के पन्‍ने उलट पुलट किया करते हैं ! वह संसारका सुख भोगनें के लिये पैदा नहीं हुए. फ़िर उन्‍हें लेजाकर हम क्‍या अपना मज़ा मट्टी करैं ?" लाला मदनमोहन नें कहा.

"बरसात में तो वहां झूलों की बड़ी बहार रहती है" हकीम अहमदहुसैन बोले.

"परन्‍तु यह ऋतु झूलों की नहीं है आज कल तो होली की बहार है" पंडित पुरुषोत्तमदास नें जवाब दिया.

"अच्‍छा फ़िर कब चलनें की ठैरी और मैं कितनें दिन की रुख़सत ले आऊं" मास्‍टर शिंभूदयाल नें पूछा.

"बृथा देर करनें सै क्‍या फ़ायदा है ? चलनाही ठैरा तो कल सबेरे यहां सै चलदैंगे और कम सै कम दस बारह दिन वहां रहैंगे" लाला मदनमोहन नें जवाब दिया.

लाला मदनमोहन केवल सैर के लिये कुतब नहीं जाते. ऊपर सै यह केवल सैर का बहाना करते हैं परन्‍तु इन्‍के जीमैं अब तक हरकिशोर की धमकी का खटका बनरहा है. मुन्शी चुन्‍नीलाल और बाबू बैजनाथ वगैरै इन्‍को हिम्‍मत बंधानें मैं कसर नहीं रक्‍खी परन्‍तु इन्‍का मन कमजोर है इस्‍सै इन्‍की छाती अब तक नहीं ठुकती, यह इस अवसर पर दस पांच दिन के लिये यहां सै टलजाना अच्‍छा समझते हैं इन्‍का मन आज दिन भर बेचैन रहा है इसलिये और कुछ फायदा हो या न हो यह अपना मन बहला नें के लिये, अपनें मनसै यह डरावनें बिचार दूर करनें के लिये दस पांच दिन यहां सै बाहर चले जाना अच्‍छा समझते हैं और इसी बास्‍तै ये झट पट दिल्‍ली सै बाहर जानें की तैयारी कर रहे हैं.