Pagalpan ka Ilaaz - 2 in Hindi Fiction Stories by Pradeep Kumar sah books and stories PDF | पागलपन का इलाज,भाग-२

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पागलपन का इलाज,भाग-२

पागलपन का इलाज,भाग-२(कहानी)-प्रदीप कुमार साह

  • __________________________________________
  • तब उसी कथा श्रवण आनन्द का स्मरण करते हुये मेरा गाँव में उस जगह पहुँचना हुआ जहाँ गाँव के कुछ बुजुर्ग पूर्व समय में सत्संग करने इकट्ठा होते थे.संयोग से वहाँ सत्संग कार्यक्रम तत्समय जारी थे.गाँव के बीचोबीच अवस्थित मंदिर के खुले प्रांगण में एक विशाल वट वृक्ष के नीचे पूर्ववत् बड़े-बड़े राम दरवार के तस्वीर के सामने धुप-दीप,पुष्प-नैवेद्य और भोग लगाकर सत्संग दरवार सजा हुआ था और श्री राम चरित मानस के दोहों,छंदों,सोरठों और चौपाइयों के पाठ्य का सुलय-सुवाचन हो रहा था.

    मैं ने शुद्धता हेतु नल के पानी से अपना हाथ-पाँव धोया और अपने शरीर पर जल की कुछ बूंदें छिड़के. फिर सत्संग दरवार को सिर नवाकर प्रणाम किया.सत्संग दरबार के संचालक महोदय जो वहाँ मौजूद सभी बजुर्गों में सबसे उम्रदार और वरिष्ठ थे,मुझे बैठ जाने का इशारा किया.अब मैं सत्संग दरवार में शरीक हो गया था.पाठ्य के सुलय-वाचन के पश्चात विद्वान संचालक महोदय द्वारा पाठ के पठित अंश के प्रसंगानुसार मनोरम विवेचनात्मक प्रवचन हुये,फिर वहाँ उपस्थित ईशकथा रस-प्रेमी बुजुर्ग महिला-पुरुषों द्वारा मन-भावन भजन, आरती, स्वस्ति वाचन वगैरह कार्यक्रम भी निष्पादित हुये.

    अभी प्रसाद वितरित होना बाकी था.किंतु प्रसाद वितरण से ठीक पहले का वह अल्प समय हल्के-फुल्के विभिन्न समाजिक विषय पर परिचर्चा अथवा नये आगंतुक से परिचय का समय हुआ करता था.किंतु वर्षो बाद और लम्बे अंतराल के पश्चात मेरा सत्संग कार्यक्रम में उपस्थित होना ही शायद मुझे आज का नया आगंतुक-तुल्य ठहरा गया.सो अध्यक्ष महोदय मुझसे मेरा कुशल-क्षेम पूछने लगे और वहाँ उपस्थित सभी बुजुर्ग गण-मान्य के जिज्ञासा,अपेक्षा,प्रोत्साहन और उनके सकारात्मक रुख पाकर मैं भी संयम पूर्वक थोड़े में अपना समाचार कह दिया.सभी हमारी वर्तालाप सुनते रहे और मंद-मंद मुस्कुराते रहे.

  • यद्यपि अध्यक्ष महोदय और वहाँ उपस्थित सभी बुजुर्ग मुझे भली-भाँति जानते-पहचानते थे और मेरी नादानी से भी सदैव अवगत थे.तथापि पूर्व समय में भी यानि अपने परदेश गमन से पूर्व तक मैं उन सभी का सदैव कृपा पात्र और दुलारा रहा तथा उन सभी के अविरल प्रेम भी निरंतर पाता रहा.वर्तमान अध्यक्ष महोदय का पूर्व समय में मुझ पर सदैव विशेष कृपा और स्नेह रहे. किंतु अभी उनके द्वारा ही प्रश्न के रूप में वार्तालाप की पहल करने पर और मेरा जवाब उनके द्वारा कृपा पूर्वक और सहजता से अंगीकार करने के पश्चात ही मेरा संकोच कम हुआ और मुझमें अपनी कुछ जिज्ञासा उनके समक्ष रख पाने का साहस आया.
  • जितने समय से अभी मैं सत्संग कार्यक्रम में शरीक था,मेरे मन में एक बात खटक रही थी.वह यह थी कि पूर्व समय की तुलना में अभी सत्संग कार्यक्रम में उपस्थित मानस परिवार के सदस्य (सत्संगी-जन) की संख्या एक तिहाई से अधिक कम थी.अपने उसी जिज्ञासा को मैंने शब्द में अपने प्रथम प्रश्न के रूप में उनके समक्ष रखे.जवाब में अध्यक्ष महोदय ने बताया कि सत्संग कार्यक्रम में सदेह उपस्थित होने के प्रति लोगों में रुझान कम होने के कई कारण हो सकते हैं, एक प्रमुख कारण टेलीविजन भी है.अभी लोग सत्संग का सीधा प्रसारण अपने टेलीविजन स्क्रीन में देख सकते हैं,शायद इसलिये यहाँ सत्संग कार्यक्रम में उपस्थित होने के प्रति मानस परिवार के सदस्य में उदासीनता आ गई हों.
  • किंतु उनके जवाब ने मेरे मन में एक नई शंका उत्पन्न कर दिये.मैं ने उस शंका को जाहिर भी किया कि निःसंदेह आज विरले ही कोई घर हो जहाँ टेलीविजन ना हों और यदि टेलीविजन का अतिव्यापक एवं अकल्पनीय असर जन-जीवन पर पड़े हैं.तब कुछ लोग उस असर से अछूते कैसे रह सकते हैं.यहाँ उपस्थित मानस परिवार के सभी सदस्य के घर में सम्भवतः टेलीविजन होंगें.फिर यहाँ सत्संग में उपस्थित होना कोई मजबूरी भी नहीं हैं अपितु पूर्णत: स्वेच्छा पर निर्भर है?तब टेलीविजन के उस अकल्पनीय असर से इनके अछूते रह सकने के पीछे क्या कारण हैं?"
  • अध्यक्ष महोदय मुस्कुरा कर बोले,"वास्तव में पुस्तक पढ़कर या टेलीविजन प्रोग्राम देखकर तर्क या कुतर्क बुद्धि सहज ही प्राप्त हो सकते हैं,किंतु व्यवहारिक,सम्यक और उपयोगी ज्ञान तो केवल सत्संग के प्रत्यक्ष सेवन से अथवा समाज में घुलने-मिलने से ही आ सकते हैं.मन में दृढ़ विचार और विवेक तो संसार के प्रत्यक्ष अच्छाई-बुराई से स्वयं रूबरू होने तथा उसे देखने-समझने,ततपश्चात आत्म-चिंतन करने से ही प्राप्त हो सकते हैं एवं सुविचार की प्राप्ति भी तभी हो सकती है.एक जिव सुविचार प्राप्ति के पश्चात ही स्वयं को,अपने समाज और इस संसार को उन्नति पथ पर अग्रसित कर सकते हैं. वास्तव में किसी जिव की प्रवृति में समाजिक वृति का समावेश होना उसे ईश्वर का सबसे बड़ा वरदान प्राप्त होना है.फिर जिसपर अति हरि कृपा होती है वही उनसे प्राप्त वरदान के महत्व को समझ सकते हैं और उसका सदुपयोग भी कर सकते हैं."
  • किंतु मैं मति-मंद उनकी बात फिर भी नहीं समझ पाया और पूर्व की तुलना में अभी मानस परिवार के सदस्य की कम संख्या के सम्बन्ध में अपना पूर्वोक्त प्रश्न पुनः दुहराया.तब किसी ने जानकारी दी कि बाकी के तब के सदस्यों पर हरि की अति कृपा में कोई कमी नहीं आई अपितु वे सब हरि को ही प्यारे हो गये.उस तथ्य से अवगत होने के पश्चात मेरे मन में एक भिन्न शंका ने जन्म ले लिया कि,"यदि उसी क्रम से मानस परिवार के सदस्यों की संख्या एक-एक कर कम होता रहा और संस्था से नये सदस्यों का जुड़ाव भी नहीं हुआ तो शीघ्र ही क्या मानस परिवार के अस्तित्व पर ही संकट नहीं आ जायेंगे?"

    उस प्रश्न पर मानस परिवार गंभीर हो गये. अध्यक्ष महोदय सहज किंतु गंभीर स्वर में बोले,"संसार के गोचर-अगोचर सभी वस्तु का उत्थान और पतन,जन्म और मृत्यु निश्चित है. फिर मानव द्वारा संचित, स्थापित या निर्मित वस्तुओं के शीघ्रता से क्षरण के सम्बंध में क्या कहना?"अब मैंने अज्ञानतावश एक नया सवाल मानस परिवार के समक्ष निवेदित किया,"क्या संस्था से नये सदस्यों के जुड़ाव नहीं होने के पीछे मानस परिवार के इच्छा शक्ति,प्रयत्न अथवा संस्था के अपने प्रचार-प्रसार के तरीका में कोई कमी हैं?क्या इधर-उधर ताश की पत्तियाँ खेलने में अपना समय जाया (खर्च) करने वाले अधिकांश बुजुर्ग और बेवजह निंदा-शिकायत करने में अपना अमूल्य समय नष्ट करने वाले अधिकांश स्त्री-पुरुष के इससे जुड़ाव नहीं हो सकते?"

    "वास्तव में संसार में प्रत्येक वस्तु की उत्पत्ति अथवा स्थापना कुछ निश्चित उद्देश्य के पूर्ति हेतु होते हैं.उसी अनुरूप से उसमें गुण के समावेश होते हैं और अपने गुण के अनुरूप ही उनके प्रयत्न एवं कार्यशैली होती है.मानस परिवार भी पिछले बीस वर्ष से सतत सक्रिय और कार्यशील है. किंतु इसका उद्देश्य है अपने सदस्य के प्रवृति में सद्गुण की वृद्धि करना,रजोगुण और तमोगुण पर विजय दिलाना.इसलिए वह उक्त दोनों गुण प्रधान कार्य जैसे सजावट,बनावट और दिखावट से दूरी बनाये रखती है.किंतु प्रत्येक मनुष्य उपरोक्त दोनों गुण के वशीभूत होकर काम-वासना से पीड़ित रहते हैं जिससे उसी गुण प्रधान कार्य में उनकी रूचि होती है.जहाँ उस रूचि की पूर्ति नहीं होती उस वस्तु के प्रति उनमें जिज्ञासा भी नहीं जगती."

    थोड़ा ठहर कर अध्यक्ष महोदय पुनः बोले,"यद्यपि सत्संग के निरंतर सेवन से साधक के उपरोक्त गुण युक्त कार्य या वस्तु में आसक्ति से धीरे-धीरे मुक्ति मिलती है.फिर श्री राम चरित्र मानस जी स्वतः पूर्ण समर्थ है कि जो एक बार मन लगाकर राम कथा का रस-पान कर ले, उनका श्री राम चरित मानस जी से सहज जुड़ाव हो जाता है.क्योंकि वह उपरोक्त तीनो गुण में पृथक-पृथक गुण प्रधान व्यक्तित्व को भी अपने से जोड़ सकने में पूर्ण समर्थ है.फिर श्री राम कथा रस-पान और निरंतर सत्संग के सेवन के प्रतिफल स्वरुप साधक के सद्गुण में निरंतर वृद्धि होते जाते हैं.किंतु सत्संग के प्रति जिज्ञासा जगना ही अति हरि-कृपा से संभव है."तत्पश्चात उन्होंने गीता प्रेस, गोरखपुर से प्रकाशित श्री मानस में दोहा संख्या-37 से 39 तक अवलोकन हेतु निर्देश दिये.

  • निर्दिष्ट दोहें के अवलोकन पश्चात मैं अवाक् रह गया.तब अध्यक्ष महोदय घड़ी में निर्दिष्ट समय देखते हुये बोले,"आप जिज्ञासु हो.यदि आपके कोई अन्य प्रश्न भी हैं तो उसके समाधान के प्रयत्न आवश्य होगें,किंतु अभी पहले प्रसाद प्राप्त कीजिये."इसके पश्चात अध्यक्ष महोदय के निर्देश से प्रसाद वितरित हुये.सभी प्रसाद ग्रहण किये.फिर तस्वीर,श्री मानस एवं अन्य धार्मिक पुस्तकें, दरी इत्यादि सहेज कर यथास्थान संदूकची में रखे गये.फिर सभी एक दूसरे का अभिवादन करते हुये विदा हुये, किंतु मुझे अध्यक्ष महोदय अपने साथ आने हेतु बोले.मैं और उनके हमउम्र दो-चार बुजुर्ग उनके पीछे-पीछे चल दिये.हमलोग उनके साथ उनके घर पहुँचे.उन्होंने हमलोगों को स्नेह और प्रेम पूर्वक हॉल में बैठाया.
  • फिर मेरे तरफ मुखातिब होकर बोले,"शायद आपके कुछ प्रश्न के समाधान होने रह गये थे..."यद्यपि मैं उनकी बातें सुनकर झेंप गया,तथापि पुनः एक प्रश्न उनके समक्ष रखा,"वर्तमान समय में जो वैभवशाली हैं और जो वैभवशाली नहीं हैं, जो युवा हैं और जो अब युवा नहीं रहे, किसी में सत्संग के सेवन अथवा स्वधर्म पालन और स्व-कर्तव्य-बोध के प्रति भी जिज्ञासा या लेशमात्र रति नहीं जान पड़ता.किंतु आपका सत्संग के प्रति झुकाव किस प्रकार संभव हुये?"
  • अध्यक्ष महोदय बोले,"वास्तव में धर्म एक सुमार्ग है, जिस पर चलते हुये उचित रीती से सर्वदा सर्वमंगल मात्र प्राप्त होते हुये अभीष्ट सिद्धि की प्राप्ति होती है.इस मार्ग पर चलते हुये मनुष्य स्व-कर्तव्य पालन और स्व-अधिकार प्राप्ति हेतु जागृत, दूसरे के अधिकार हनन के कुभाव से विरक्त, साहस तथा सर्वमंगल मात्र की भावना से सदैव ओत-प्रोत होते हैं.किंतु उपरोक्त गुण में दृढ़ता केवल सत्संग के निरंतर सेवन से ही सम्भव है.रही बात मेरा झुकाव सत्संग के प्रति होने का,सो बचपन से ही मेरा सत्संग के प्रति रुझान रहा.किंतु युवावस्था में अपने व्यस्ततम नौकरी पेशा जीवन में सत्संग में जाने के अवसर ढूंढने होते थे.तथापि इन्हीं दिनों के अनेक अनुभव से सत्संग-सेवन में मेरी रूचि अधिक गहराया."
  • "कहते हैं कि सत्संग का सेवन चौथपन में होना चाहिये?"मैं ने उनके समक्ष प्रश्न रखा.
  • "मजबूत नींव पर ही धर्म रूपी भव्य इमारत खड़ी हो सकती है और नींव अर्थात स्वास्थ्य की मजबूती से ही भव्य इमारत खड़ी रह सकती है. बेहतर तो यह होता है कि नींवारम्भ से ही नींव की मजबूती अर्थात सुचरित्र और सत्संग सेवन का ख्याल रखा जाय."उन्होंने अपने विचार जाहिर किये.
  • "कृपया सत्संग-सेवन में आपकी रूचि गहराने वाले अपने कुछ विशेष अनुभव के सम्बंध में बतायें."मैं उनसे अनुरोध किया.
  • वह कहने लगे,"जब मैं स्वास्थ्य विभाग में सेवारत था,तब मुझे अपने एक लंबे सेवाकाल में अनेक रोगी के परीक्षण से अनुभव हुये कि अधिकांश रोगी किसी रोग से अधिक अपने मानसिक दुर्बलता से पीड़ित होते थे.उनके जल्दी स्वस्थ होने में उनकी मानसिक दुर्बलता, उनके असहज-असंयमित दिनचर्या, उनके असन्तुष्टि, तनाव, भय और दुश्चरित ही अधिक बाधक थे.फिर एक समय मेरे किसी निकट सम्बंधी में भी एक युवक दिमागी असंतुलन जनित रोग से पीड़ित हुआ.उसके गरीब परिवार अनेक चिकत्सक से उसके इलाज करवाये.किंतु उसे स्वास्थ्य लाभ प्राप्त नहीं हुये.अंततः समुचित सुक्षाव के लिये उनलोगों ने मुझसे सम्पर्क किये.किंतु मुझे उस रोग के इलाज के समुचित ज्ञान न थे.मुझे उस रोग के एक सफल चिकत्सक के पता की जानकारी भी नहीं थी.
  • तब मैंने उस विषय में अपने सहकर्मियों के समक्ष चर्चा चलाया.तब मेरे एक सहकर्मी जो एक बेहतरीन अस्थि रोग विशेषज्ञ थे और मेरे एक अच्छे मित्र भी थे,उस रोग के एक सफल चिकित्सक का पता बताया.मेरे उस चिकित्सक मित्र की उस मनोचिकित्सक से अच्छी जान-पहचान भी थी.उन दिनों पागलपन के इलाज के सफल चिकित्सक के रूप में उस मनोचिकित्सक की ख्याति देश ही नहीं अपितु विदेशों में भी थी.उनका यहाँ के नजदीकी शहर राँची में ही अपना नर्सिंग होम था.उस समय मेरी मासिक तनख्वाह सौ रुपये से भी कम थी,तब उनका प्रति रोगी देखने के चिकित्सकीय फ़ीस हजार रुपये होते थे.इतना ही नहीं उनसे इलाज करवाने हेतु रोगी के नाम की रजिस्ट्रेशन भी करवाने होते थे.इसके वावजूद उसे इलाज हेतु बुलाने में तीन-तीन महीने लग जाते थे.
  • खैर,रजिस्ट्रेशन के पश्चात डॉक्टर से एप्वाइंटमेंट मिलने पर उक्त रोगी के इलाज के लिये उनके परिवार के साथ मुझे भी जाना पड़ा.मेरे चिकित्सक मित्र ने मौका-बेमौका सम्भालने हेतु एक सिफारिश पत्र भी लिख कर मुझे दिये. वहाँ पहुँचने पर चिकित्सकीय फ़ीस के हजार रुपये एडवांस में काउंटर पर जमा कराने बोला गया.काउंटर पर मैं रुपये जमा करवाने लगा तो दस रुपये कम पड़ गये.शायद दस रुपये का एक नोट कहीं गुम हो (खो)गया था.किंतु शेष के दस रुपये जमा करवाने हेतु कुछ समय की मोहलत देने के लिये भी काउंटर पर तैनात स्टाफ तब तैयार न थे.तथापि मेरे बार-बार मिन्नत करने पर उसने इस सम्बंध में डॉक्टर से पूछना ही अधिक उचित समझा.जब वह वापस लौटा तो वैसा लगा,मानो बुरी तरह पिट कर वापस आये हों.उसने मुझे बताया कि डॉक्टर ने मुझे चेंबर में बुलवाया है.
  • मैं चेंबर में गया.वहाँ डॉक्टर साहब बैठे थे.उन्होंने मुझ से रूखेपन से कहा,"पूरा चिकित्सकीय फ़ीस जमा क्यों नहीं करते?"
  • मैं ने सारी बात बतायी और उनके विश्वास हेतु उन्हें अपने चिकित्सक मित्र के सिफारिश पत्र भी दिखाये, इसके बावजूद वह पूर्ववत ही रूखे बने रहे.वह खुश्क स्वर में बोले,"देखिये,नर्सिंग होम के जो नियम हैं सो हैं. उसमें मैं आपकी कुछ भी सहायता नहीं कर सकता.फिर उपचार प्रारंभ करने के साथ दवाई की जरूरत होंगी,उसके लिये रूपये कहाँ से लाओगे?बेहतर होगा कि आप पूरी व्यवस्था करने के पश्चात ही आओ."
  • इससे आगे वह कुछ कहने-सुनने हेतु तैयार नहीं हुये.अंततः मैं निराश होकर चेंबर से बाहर आ रहा था कि एक युवक दरवाजे को धक्का देते हुये चेंबर में धड़ल्ले से अंदर घुस आया.(क्रमश: भाग-3में)