beti in Hindi Short Stories by Pranjali Awasthi books and stories PDF | beti

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कहानी शीर्षक - बेटी

पूस की सर्द आधी रात ... और सिहरती ठण्ड भी कलुआ के फटे कपड़ों से होकर उसके अंदर घुसने की पूरी कोशिश में लगी थी पर कलुआ तो अपने दोनों हाथों को बगलों में दबाए सिर पर साफा (मफ़लर)लपेट कर कानों को ढके दाँत किटकिटाते अपनी छोटी सी झोपड़ी के बाहर तेजी से चहलकदमी करता हुआ आसमान की तरफ ताकता और बुदबुदाता जा रहा था ,"हे देवी मैया जी ! हमार जमुनिया को बेटा होय बस बिटिया ना चाही हमका।छटांक भर लड़ुआ चढाव। देवी मैया ! बस हमार सुन लेओ तुम "

झोपड़ी के अंदर जमुनिया कराह रही थी और कलुआ की हर फरियाद के साथउसका दर्द भी बढ़ता जाता था और मैया री ...की चीख के साथ बच्चे का रूदन सन्नाटे को चीर गया और गाँव की अनुभवी दाई झोपड़ी से तेजी से चलकर बाहर आते हुए बोली ,"रे कलुआ ! तोहार घर मा लक्समी आई है।"

कलुआ को तो काटो तो खून नहीं ..ऐसा लगा जैसे किसी ने पिघलता शीश़ा कानों में डाल दिया और वो चिल्ला भी नहीं सकता।इतनी ठण्ड में भी माथे पर चुहचुहा आईं पसीने की बूँदों को साफ़े से पोछते हुए बोला,"ओ काकी तनिक धियान से देख लेओ कहीं मोड़ा तो नहीं।","ना रे " दाई इतना ही बोल पाई कि कलुआ तेजी से दौड़ता हुआ जमुनिया की चारपाई के पास पहुँचा।जमुनिया के बगल में लेटी नन्ही सी बच्ची ऐसे हाथ पैर चला रही थी जैसे अपने पिता के गले लग कर कहना चाह रही हो कि मेरा स्वागत मुस्कुराहट से करो बाबा ..अपने बच्चे को अपनी आँखों के सामने देख एक पल को कलुआ सब कुछ भूल गया क्या लड़का क्या लड़की .. और झुक कर जैसे ही उठाने को हुआ कि उसकी आँखों के सामने पड़ोस के रज्जन चाचा की दहेज की आग से जली बिटिया पारो का चेहरा घूम गया ..और उसकी भृकुटियाँ तन गईं बढ़ते हाथों को झटक कर जमुनिया और बच्ची को छोड़ वो झोपड़ी से बाहर निकल गया।

चौराहे की फुटपाथ पर तम्बाकू मलते जाते उसके दिमाग मे बस यही था कि कैसे वो बिटिया नाम के बोझ को ढोएगा उसे याद आया जुम्मन चचा कहते थे कि तम्बाकू में अफीम मिला कर चटाकर उन्होंने इस बोझ से छुटकारा पाया था आज उनके चार बेटे हैं कोई पंक्चर जोड़ता है कोई परचूनी की दुकान करे है चचा कितने सुखी है कमाया खर्च किया कोई दहेज जोड़ने की चिन्ता नही। और ख्याल आते ही तेज कदमों से अपनी झोपड़ी की तरफ चल दिया अंदर पहुँच कर बोला “ला जमुनिआ बिटिया देओ।“

“काए को?“ जमुनिआ बोली

“जे मोड़ी हमार घर के लाऐं नाही है मोड़ी तो अमीरन के घर मा नीक लागत है।“ कलुआ ने उत्तर दिया

“तुम का करिहो जाके संगे? हमें तोहार नियत ठीक नहीं लागत। हम न देव।“जमुनिया समझ गई की कलुआ के मन में खोट है।

“अरे दरद ना होई बस तम्बाकू चटाऐं जाके और खेल खतम हुई जाए।“ कलुआ ने उसे समझाते हुए कहा। अपने बच्चे की मौत की आशंका से भी जमुनिआ का हृदय कांप उठा वो अपनी बेटी को छाती से चिपका कर क्रोध से फुँफकारते हुए बोली “हम ना देव हम मर जाव पर हमार बेटी ना देव हम चली जाई कोन्हऊ और.. पाल लेव हमार मोड़ी। मजदूरी करब पर तोहार ना देई।“ जमुनिआ के क्रोध के आगे कलुआ की हिम्मत ना हुई कि बेटी उससे छीन पाता और वो अपना सा मुँह लेकर बड़बड़ाता हुआ चला गया।

बेटी का नाम बड़े प्यार से लक्समी यानी लक्ष्मी रखा जमुनिआ ने। लक्ष्मी के साल भीतर ही वो भी कलुआ के साथ मजदूरी करने जाने लगी थी नन्हीं लक्ष्मी साथ ही रहती कुछ दूरी पर खेलती या सोती पर जमुनिआ उसे आँखों से ओझल ना होने देती। धीरे-धीरे कलुआ भी अपनी बेटी को चाहने लगा तोतली जुबान में जब पिताजी दोदी (गोदी) चिल्लाती तो कलुआ उसको सीने से लगा लेता और इसी तरह मेहनत मजदूरी करके दोनों लक्ष्मी को पालने में लगे थे हालांकि इसके बाद जमुनिया को दो बेटे और हुए और गृहस्थी का बोझ भी बढ़ गया।

लक्ष्मी के तीन साल की होते होते जमुनिया उसको गाँव के ही प्राथमिक पाठशाला में छोड़ आती जिससे कुछ देर को वो वहाँ अन्य बच्चों के साथ खेल सके और पढ़ भी सके।लक्ष्मी का समय पाठशाला में खूब कटता।समय भी पंख लगाकर उड़ता जा रहा था।

और उस दिन तो कलुआ का सीना गाँव वालों के सामने और भी चौड़ा हो गया था जब हेडमास्टर साहब ने कहा कि लक्ष्मी ने सबसे ज्यादा अंकों के साथ कक्षा पाँच की परीक्षा उत्तीर्ण की है। अब तो जमुनिआ और कलुआ की आँखों में एक ही सपना था लक्ष्मी को पढ़ा लिखा कर काबिल बनाना। दोनों दिन रात महनत करने लगे जिससे बेटी का दाखिला शहर के बड़े स्कूल में करवा सकें।

हर कक्षा में लक्ष्मी अब्बल आकर गाँव भर के बालकों के कान काटी हुई थी। एक भी छात्र ऐसा नहीं था जो कलुआ की बेटी की बराबरी कर पाता। हेडमास्टर साहब भी लक्ष्मी की तारीफ करते नहीं अघाते थे।इसी तरह देखते देखते लक्ष्मी अब लक्ष्मी सत्रह साल की सुंदर सुशील पढ़ाकूू लड़की बन चुकी थी इण्टर करने के बाद वो कॉलेज में दाखिला चाहती थी। जमुनिआ और कलुआ के बालों पर सफेदी की झलक दिखने लगी थी अथाह मेहनत से चेहरे कुछ निस्तेज होते हुए भी संतुष्ट थे कि बेटी को पढाने में कोई कसर नही रखी पर अब खर्चे भी दिन ब दिन बढ़ते जा रहे थे और मुँह बाए सामने खड़े थे कॉलेज की पढ़ाई और बेल की तरह बढ़ती जाती बेटी की शादी की भी चिन्ता होने लगी थी दहेज के नाम पर कुछ भी नही जोड़ा था अभी तक।

कलुआ ने यह सब देख के निर्णय लिया कि वो शहर जाकर कुछ काम धन्धा देखेगा और गांव में जमुनिआ भी मजदूरी और सरपंच के घर में काम करेगी तभी कुछ हल मुमकिन है। और ऐसा विचार आते ही कलुआ अपने शहर जाने की तैयारियों में लग गया।

शहर आकर कलुआ को बहुत ही मुश्किल से एक फैक्ट्री में मशीन चलाने का काम मिल गया जहाँ उसकी पगार गाँव से अच्छी थी अगर इसी लगन और मेहनत से वो काम करता रहा तो उसके खर्चों पर वह काबू कर लेगा और अपनी लक्समी को कॉलेज में दाखिला भी दिला देगा।यही सोच कलुआ से जी तोड़ मेहनत करवाती।

इस बार कलुआ जब पैसे देने गाँव आया था तो लक्ष्मी को उसके अंक पत्रों और हेडमास्टर साहब की मदद से शहर के कॉलेज में दाखिला भी दिला दिया था।और वो पुनः अपनी फैक्ट्री के जीवन में पूरे उल्लास के साथ डूब गया था।और जमुनिया अपने बाकी बच्चों के साथ अपने तरीके से गाँव की जिंदगी से जूझ रही थी वहीं लक्ष्मी अपनी पुस्तकों को ही अपना कर्तव्य मान माँ बाबा के सपने को पूरा करने में तल्लीन हो गई थी। गाँव से कॉलेज ज्यादा दूर नहीं था सवारी आसानी से मिल जाती थी।और जिन्दगी इसी तरह वक्त की ताल पर बढ़ने लगी

तीन साल होने को आए लक्षमी ने स्नातक परीक्षा अधिकतम अंकों के साथ उत्तीर्ण कर ली। पर सब कुछ अच्छे से चलता रहे और इच्छानुसार होता रहे इतनी आसान जिन्दगी कब हुई है किसी के लिए।शहर में कलुआ पर गाज़ सी गिर पड़ी जब उस पर फैक्ट्री मालिक ने अपने दस हजार रूपये चोरी होने का इल्जाम लगा दिया और बिना खास जाँच पड़ताल उसको जेल में डलवा दिया।कसूर ना तो मालिक का था ना ही कलुआ का सिर्फ वक्त का ही कसूर था कि बेकसूर कलुआ को एक साल की सजा हुई।कलुआ ने किसी तरह हाथ पैर जोड़कर याचना करके फैक्ट्री मालिक को इस बात के लिए राजी कर लिया कि वो उसके गाँव एक पत्र भेज देगा कि कलुआ का फैक्ट्री के ही काम से अन्य शहर में एक वर्ष के लिए भेज दिया है जहाँ से उसका आना जाना सम्भव नहीं और उसकी पगाऱ का हिस्सा भी मालिक के पास ही सुरक्षित रहेगा। कलुआ जानता था कि जमुनिया और लक्षमी इतने स्वाभिमानी और सक्षम हैं कि अपना भार वहन कर लेंगे।और स्वयं को दिलासा देने लगा कि इस तरह वे सब दुःख और उदासी के भंवर में डूबने से भी बच जाऐंगे।

अब जेल में समय व्यतीत करते हुए भी कलुआ को अपने परिवार की बहुत फिक्र थी और एक यही चिन्ता थी कि लक्ष्मी की उम्र अब शादी लायक हो चली है जेल से रिहा होते ही अब एक मात्र उद्देश्य यही होगा कि जल्दी से जल्दी शादी का दहेज इकट्ठा करके वो अपनी लाडली के योग्य वर देख कर उसके हाथ पीले कर सके पर आखिर कैसे वो इतना दहेज जोड़ पाएगा।शादी तो संसार का नियम है।बेटी है तो ब्याहनी तो पड़ेगी ही पर उसकी सबसे बड़ी समस्या यही थी कि इतना दहेज कहाँ से लाएगा ? बिटिया चाहे जितनी सुघड़ हो पर दहेज का दानव मुँह पसारता ही है और जितना भी डालते जाओ कभी इसका पेट ही नहीं भरता।

बस रोज रोज इसी उधेड़ बुन में उसके दिनरात कट रहे थे और जेल में भी दैनिक कार्य मुआवजा जो मिलता वो जमा करता जा रहा था जब घर जाएगा तो खाली हाथ कैसे जाएगा भले ही वहाँ पहुंच कर उसे ना जाने कितनी कहानियाँ गढ़नी पड़ेगीं।कहते हैं ना एक झूठ छुपाने के लिए हजार झूठ बोलने पड़ते हैं बस यही सब सोचते सोचते एक वर्ष हो गया।

आज उसकी रिहाई का दिन था जेलर ने उसको हिद़ायत देते हुए उसके जमा रूपए व कपड़े उसे सौंप दिए और वो तेजी से सब सम्हाल बस स्टॉप की तरफ दौड़ लिया।खिचड़ी बाल और गहरी चिन्ता की लकीरें लिए हुए भी आज उसका तांबई चेहरा परिवार से मिलने की खुशी की आभा से जगमगा रहा था।हाँ ..अब वो बहुत मेहनत करेगा वहीं गाँव के पास ही कहीं काम ढूड़ेगा और मजदूरी करेगा, अपनी लाडो का ब्याह करेगा।कहते हैं ना जब जागो तब सवेरा ..अब वो समय बर्बाद ना करके जिम्मेवारियों का निर्वहन करेगा और अपनी जमुनिया के चेहरे ..अरे लक्ष्मी के बारे में सोचते सोचते वो जमुनिया को भूल ही गया था कैसी हो गई होगी जिम्मेदारियों ने और भी जल्दी बूढ़ा कर दिया होगा उसे ,..हाय री किस्मत !

यही सोच रहा था कि बस का हार्न बजा और बस झटका देकर रूक गयी।उसका गाँव आ चुका था कलुआ जल्दी जल्दी उतर कर पगडण्डी के रास्ते की तरफ दौड़ा।गाँव के रास्ते की दुकान से उसने छटाँक भर मीठे शक्कर के बतासे ले लिए अब खाली हाथ भी जाना ठीक नहीं लगा उसे। बच्चे पूछेंगे तो कह देगा ऐसे ही मीठा खाऐं का मन था सो ले लिए। वो तेजी से बढ़ा जा रहा था कि सामने से जुम्मन चचा और कुछ लोग निकल आए और उसको रोक लिया और आवभगत शुरू कर दी।जुम्मन चचा दाढ़ी पर हाथ फेरते हुए बोले ,"ओरे कलुआ ! बिटिया होय तो तोहार जैसन गाँव भरे का नाम रोश़न कर दियो मोड़ी ने।हम सबही बहुत खुस हैं भाई "कलुआ हैरान था जुम्मन चचा और बिटिया की तारीफ कुछ समझ नहीं पा रहा था वो ,"का हुआ चचा ?हम तोहार मतलब ना समझे"कलुआ ने आश्चर्य से आँखें चौड़ी करते हुए पूछा।

"अरे भैय्या ! तोहार लक्ष्मी कलक्टर बन गई बहुत मेहनत करी मोड़ी ने रातदिन ना जानी बिटिया "जुम्मन चचा आगे बोले,"तुम तो शहर गए पर यहाँ बिटिया की वजह से बच्चे बच्चे की जुबान पर एकही नाम था कलुआ की बिटिया का "

और यह सुनकर कलुआ को वो दिन याद आया जब वो दुआ कर रहा था कि बिटिया ना हो उसके मुँह से अनायास निकल ही गया,"अरे चचा !हम तो बेकारही डरत रहे अपन किस्मत संग लावे हैं जे मोड़ियाँ।हे देवी मय्या हर घर में खुशी देओ बिटिया देओ बिटिया " उसका चेहरा गर्व और संतुष्टि से दमक उठा और हर्षातिरेक में गाँव वालों ने उसे काँधे पर उठा लिया ।