Pariksha-Guru - Chapter - 12 in Hindi Short Stories by Lala Shrinivas Das books and stories PDF | परीक्षा-गुरु - प्रकरण-12

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परीक्षा-गुरु - प्रकरण-12

परीक्षा-गुरु

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प्रकरण-१२.

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सुख दु:ख +

लाला श्रीनिवास दास

आत्‍मा को आधार अरु साक्षी आत्‍मा जान

निज आ त्मा को भूलहू करि ये न हिं अपमान[29]×

मनुस्‍मृति.

"सुख दु:ख तो बहुधा आदमी की मानसिक बृत्तियों और शरीर की शक्ति के आधीन हैं.एक बात सै एक मनुष्‍य को अत्‍यन्त दु:ख और क्‍लेश होता है वही बात दूसरे को खेल तमाशे की सी लगती है इस लिये सुख दु:ख होनें का कोई नियम नहीं मालूम होता" मुन्शी चुन्‍नीलाल नें कहा.

"मेरे जान तो मनुष्‍य जिस बात को मन सै चाहता है उस्‍का पूरा होना ही सुख का कारण है और उस्‍मैं हर्ज पड़नें ही सै दुःख होता है" मास्‍टर शिंभूदयाल नें कहा.

"तो अनेक बार आदमी अनुचित काम करके दुःख मैं फँस जाता है और अपनें किये पर पछताता है इस्‍का क्‍या कारण ? असल बात यह है कि जिस्‍समय मनुष्‍य के मन मैं जो बृत्ति प्रबल होती है वह उसी के अनुसार काम किया चाहता है और दूरअंदेशी की सब बातों को सहसा भूल जाता है परन्तु जब वो बेग घटता है तबियत ठिकानें आती है तो वो अपनी भूल का पछतावा करता है और न्‍याय बृत्ति प्रबल हुई तो सब के साम्‍हनें अपनी भूल अंगीकार करकै उस्‍के सुधारनें का उद्योग करता है पर निकृष्‍ट प्रबृत्ति प्रबल हुई तो छल करके उस्‍को छिपाया चाहता है अथवा अपनी भूल दूसरे के सिर रक्‍खा चाहता है और एक अपराध छिपानें के लिये दूसरा अपराध करता है परन्तु अनुचित कर्म्‍म सै आत्‍मग्‍लानि और उचित कर्म्‍म सै आत्‍मप्रसाद हुए बिना सर्बथा नहीं रहता" लाला ब्रजकिशोर बोले.

"अपना मन मारनें सै किसी को खुशी क्‍यों कर हो सक्ती है ?" लाला मदनमोहन आश्‍चर्य सै कहनें लगे.

"सब लोग चित्तका संतोष और सच्‍चा आनन्‍द प्राप्‍त करनें के लिये अनेक प्रकार के उपाय करते हैं परन्तु सब बृत्तियों के अबिरोध सै धर्म्‍मप्रबृत्ति के अनुसार चलनेंवालों को जो सुख मिल्‍ता है और किसी तरह नहीं मिल सक्ता" लाला ब्रजकिशोर कहनें लगे मनुस्‍मृति मैं लिखा है "जाको मन अरु बचन शुचि बिध सों रक्षित होय ।। अति दुर्लभ वेदान्‍त फल जगमैं पावत सोय[30]" जो लोग ईश्‍वर के बांधे हुए नियमों के अनुसार सदा सत्कर्म्‍म करते रहते हैं उन्‍को आत्‍मप्रसाद का सच्‍चा सुख मिल्ता है उन्‍का मन वि‍कसित पुष्‍पों के समान सदा प्रफुल्लित रहता है जो लोग कह सक्‍ते हैं कि हम अपनी सामर्थ्‍य भर ईश्‍वर के नियमों का प्रतिपालन करते हैं, यथा शक्ति परोपकार करते हैं, सब लोगों के साथ अनीत छोड़कर नीति पूर्वक सुहृद्भाव रखते हैं, अतिशय भक्ति और विश्‍वासपूर्वक ईश्‍वर की शरणागति हो रहे हैं वही सच्‍चे सुखी हैं. वह अपनें निर्मल चरित्रों को बारम्‍बार याद करके परम संतोष पाते हैं. यद्यपि उन्‍का सत्‍कर्म्‍म मनुष्‍य मात्र न जान्‍ते हों इसी तरह किसी के मुख सै एक बार भी अपनें सुयश सुन्‍नें की संभावना न हो, तथापि वह अपनें कर्तव्‍य काम मैं अपनें को कृत कार्य देखकर अद्वितीय सुख पाते हैं उचित रीति सै निष्‍प्रयोजन होकर किसी दुखिया का दु:ख मिटानें की, किसी मूर्ख को ज्ञानोंपदेश करनें की एक बात याद आनें से उन्को जो सुख मिलता है वह किसी को बड़े सै बड़ा राज मिलनें पर भी नहीं मिल सक्ता. उन्‍का मन पक्षपात रहित होकर सबके हितसाधन मैं लगा रहता है, इस्‍कारण वह सबके प्‍यारे होनें चाहिए. परन्तु मूर्ख जलन सै, हटसै, स्‍वार्थपरता सै अथवा उन्‍का भाव जानें बिना उन्सै द्वेषकरै. उन्‍का बिगाड़ करना चाहें तो क्‍या कर सक्ते हैं ? उन्‍का सर्वस्‍व नष्‍ट होजाय तो भी वह नहीं घबराते; उन्‍के ह्रदय में जो धर्म्म का ख़ज़ाना इकट्ठा हो रहा है उस्‍के छूनें की किस को सामर्थ्‍य है. आपनें सुना होगा कि:-

"महाराज रामचन्‍द्रजी को जब राजतिलक के समय चौदह वर्ष का बनवास हुआ उस्‍समय उन्‍के मुखपर उदासी के बदले प्रसन्‍नता चमकनें लगी.

"इंगलेण्ड की गद्दी बाबत एलीज़ाबेथ और मेरी के बीच विवाद हो रहा था उस्‍समय लेडी जेनग्रेको उस्‍के पिता, पति और स्‍वसुरनें गद्दीपर बिठाना चाहा परन्तु उस्‍को राज का लोभ न था वह होशियार, बिद्वान और धर्मात्‍मा स्‍त्री थी. उस्‍नें उन्‍को समझाया कि मेरी "निस्बत मेरी और एलीज़ाबेथ का ज्‍याद: हक़ है और इस काम सै तरह, तरह के बखेड़े उठनें की संभावना है. मैं अपनी वर्तमान अवस्‍था मैं बहुत प्रसन्‍न हूँ इस लिये मुझको क्षमा करो" पर अन्त मैं उस्‍को अपनी मरज़ी के उपरांत बड़ों की आज्ञासै राजगद्दी पर बैठना पड़ा परन्तु दस दिन नहीं बीते इतनेंमैं मेरी नें पकड़ कर उसै कैद किया और उस के पति समेत फांसी का हुक्‍म दिया. वह फांसी के पास पहुँची उस्‍समय उस्‍नें अपनें पति को लटकते देखकर तत्‍काल अपनी याददाश्‍त मैं यह तीन बचन लाटिन, यूनानी और अंग्रैजी मैं क्रम सै लिखे कि "मनुष्‍य जाति के न्‍याय नें मेरी देह को सजा दी परन्तु ईश्‍वर मेरे ऊपर कृपा करेगा, और मुझको किसी पाप के बदले यह सजा मिली होगी तो अज्ञान अवस्‍था के कारण मेरे अपराध क्षमा किए जायेंगे. और मैं आशा रखती हूँ कि सर्वशक्तिमान परमेश्‍वर और भविष्‍य काल के मनुष्‍य मुझ पर कृपा दृष्टि रक्‍खेंगे" उस्‍नें फांसी पर चढ़कर सब लोगों के आगे एक वक्‍तृता की जिस्‍मैं अपनें मरनें के लिये अपनें सिवाय किसी को दोष न दिया वह बोली कि "इंगलेण्ड की गद्दी पर बैठनें के वास्‍तै उद्योग करनें का दोष मुझ पर कोई नहीं लगावेगा परन्तु इतना दोष अवश्‍य लगावेगा कि "वह औरों के कहनें सै गद्दी पर क्‍यों बैठी ? उस्‍नें जो भूल की वह लोभ के कारण नहीं, केवल बड़ों के आज्ञावर्ती होकर की थी" सो यह करना मेरा फर्ज था परन्तु किसी तरह करो जिस्‍के साथ मैंनें अनुचित व्‍यवहार किया उस्के साथमैं प्रसन्‍नतासै अपनें प्राण देनें को तैयार हूँ" यह कहक़र उस्‍नें बड़े धैर्यसै अपनी जान दी"

"दुखिया अपनें मनको धैर्य देनेंके लिये चाहे जैसे समझा करैं परन्तु साधारण रीति तो यह है कि उचित उपायसै हो अथवा अनुचित उपायसै हो जो अपना काम निकाल लेता है वही सुखी समझा जाता है, आप बिचार कर देखेंगे तो मालूम हो जायगा कि आज भूमंडल मैं जितनें अमीर और रहीस दिखाई देते हैं उन्‍के बड़ोंमैं सै बहुतों नें अनुचित कर्म करकै यह वैभव पाया होगा" मुन्शी चुन्‍नीलालनें कहा.

"क़भी अनुचित कर्म करनेंसै सच्‍चा सुख नहीं मिलता-प्रथम तो मनु महाराज और लोमेश ऋषि एक स्‍वरसै कहते हैं कि "कर अधर्म पहले बढ़त सुख पावत बहुत भांत ।। शत्रु न जय कर आप पुन मूलसहित बिनसात।।[31]" फ़िर जिस तरह सत्‍कर्म का फल आत्‍म-प्रसाद है इसी तरह दुष्‍कर्म का फल आत्‍मग्‍लानि, आंतरिक दुःख अथवा पछतावा हुए बिना सर्वथा नहीं रहता मनुस्‍मृति मैं लिखा है "पापी समुझत पाप कर काहू देख्‍यो नाहिं ।। पैसुर अरुनिज आतमा निस दिन देखत जाहिं।।[32]" लाला ब्रजकिशोर कहनें लगे "जिस्‍समय कोई निकृष्‍ट प्रबृत्ति अत्यन्त प्रबल होकर धर्म्‍मप्रबृत्ति की रोक नहीं मान्‍ती उस्‍समय हम उस्‍की इच्‍छा पूरी करनेंके लिये पाप करते हैं परन्तु उस काम सै निवृत्ति होते ही हमारे मनमैं अत्यन्त ग्‍लानि होती है हमारी आत्‍मा हमको धिक्‍कारती है और लोक परलोकके भय सै चित्त बिकल रहता है जिस्‍नें अपनें अधर्म्‍म सै किसी का सुख हर लिया है अथवा स्‍वार्थपरता के बसवर्ती होकर उपकार के बदले अपकार किया है, अथवा छल बलसै किसी का धर्म्‍म भ्रष्‍ट कर दिया है, जो अपनें मन मैं समझता है कि मुझसे फलानें का सत्‍यानाश हुआ, अथवा मेरे कारण फलानें के निर्मल कुल मैं कलंक लगा, अथवा संसार मैं दु:ख के सोते इतनें अधिक हुए मैं उत्‍पन्‍न न हुआ होता तो पृथ्‍वी पर इतना पाप कम होता, केवल इन बातों की याद उस्‍का हृदय विदीर्ण करनें के लिये बहुत है और जो मनुष्‍य ऐसी अवस्‍था मैं भी अपनै मनका समाधान रख सकै उस्‍को मैं बज्रहृदय समझता हूँ जिस्नें किसी निर्धन मनुष्‍य के साथ छल अथवा विश्‍वासघात करके उस्की अत्यन्त दुर्दशा की है उस्‍की आत्‍मग्‍लानि और आंतरिक दु:ख का बरणन् कोन कर सक्ता है ? अनेक प्रकार के भोगविलास करनेंवालों को भी समय पाकर अवश्‍य पछतावा होता है. जो लोग कुछ काल श्रद्धा और यत्‍नपूर्वक धर्म्मका आनन्‍द लेकर इस दलदल मैं फस्‍ते हैं उन्‍सै आत्‍मग्‍लानि और आंतरिक दाहका क्‍लेश पूछना चाहिये."

"टरकी का खलीफ़ा मौन्‍तासर अपनें बापको मरवाकर उस्के महल का कीमती सामान देख रहा था उस्‍समय एक उम्‍दा तस्‍वीर पर उस्‍की दृष्टि पड़ी जिस्‍मैं एक सुशोभित तरुण पुरुष घोड़े पर सवार था और रत्‍नजटित "ताज" उस्‍के सिर पर शोभायमान था. उस्‍के आसपास फारसी मैं बहुतसी इबारत लिखी थी ख़लीफ़ा नें एक मुन्शी को बुलाकर वह इबारत पढ़वाई. उस्‍मैं लिखा था कि "मैं सीरोज़ खुसरोका बेटा हूँ मैंनें अपनें बापका ताज़ लेनेंके वास्‍तै उसे मरवाडाला पर उस्‍के पीछें वह ताज मैं सिर्फ छ: महीनें अपनें सिर पर रखसका" यह बात सुन्‍तेही ख़लीफ़ा मौन्‍तासर के दिल पर चोट लगी और अपनें आंतरिक दु:खसै वह केवल तीन दिन राज करकै मर गया."

"यह आत्‍मग्‍लानि अथवा आंतरिक क्‍लेश किसी नए पंछी को जाल मैं फसनैसै भलेही होता हो पुरानें खिलाड़ियों को तो इस्‍की ख़बर भी नहीं होती. संसार मैं इस्‍समय ऐसे बहुत लोग मौजूद हैं जो दूसरे के प्राण लेकर हाथ भी नहीं धोते" मास्‍टर शिंभूदयाल नें कहा.

"यह बात आपनें दुरूस्‍त कही. नि:संदेह जो लोग लगातार दुष्‍कर्म करते चलेजाते हैं और एक अपराधी सै बदला लेनें के लिये आप अपराधी बनजाते हैं अथवा एक दोष छिपानें के लिये दूसरा दूषितकर्म करनें लगते हैं या जिन्‍को केवल अपनें मतलब सै ग़र्ज रहती है उन्‍के मन सै धीरे, धीरे अधर्म की अरुचि उठती जाती हैं" लाला ब्रजकिशोर कहनें लगे जैसे दुर्गन्‍ध मैं रहनें वाले मनुष्‍यों के मस्‍तक मैं दुर्गंध समा जाती है तब उन्‍को वह दुर्गंध नहीं मालूम होती अथवा बार, बार तरवार को पत्‍थर पर मारनें सै उस्‍की धार अपनें आप भोंटी हो जाती है इसी तरह ऐसे मनुष्‍यों के मन सै अभ्‍यास बस अधर्म की ग्‍लानि निकल कर उन्‍के मन पर निकृष्‍टप्रबृत्तियों का पूरा अधिकार हो जाता है. बिदुरजी कहते हैं "तासों पाप न करत बुध किये बुद्धि कौ नाश ।।बुद्धि नासते बहुरि नर पापै करत प्रकाश [33]।। यह अवस्‍था बड़ी भयंकर है सन्निपात के समान इस्‍सै आरोग्‍य होनें की आशा बहुत कम रहती हैं. ऐसी अवस्‍था मैं निस्सन्देह शिंभूदयाल के कहनें मूजब उन्को अनुचित रीति सै अपनी इच्‍छा पूरी करनें मैं सिवाय आनन्‍द के कुछ पछतावा नहीं होता परन्तु उन्कों पछतावा हो या न हो ईश्‍वर के नियमानुसार उन्‍हैं अपनें पापों का फल अवश्‍य भोगना पड़ता है. मनुस्‍मृति मैं लिखा है "बेद, यज्ञ, तप, नियम अरु बहुत भांति के दान ।। दुष्‍ट हृदय को जगत मैं करत न कुछ कल्‍यान।। [34]". ऐसे मनुष्‍यों को समाज की तरफ़ सै, राज की तरफ़ सै अथवा ईश्‍वर की तरफ़ सै अवश्‍य दंडमिल्ता है और बहुधा वह अपना प्राण देकर उस्‍सै छुट्टी पाते हैं इसलिये सुख-दु:खका आधार इच्‍छा फल की प्राप्ति पर नहीं बल्कि सत्‍कर्म और दुष्‍कर्म पर है.

इस्तरह अनेक प्रकार की बातचीत करते हुए लाला मदनमोहन की बग्‍गी मकान पर लौटआई और लाला ब्रजकिशोर वहां सै रुख़सत होकर अपनें घर गए.