भूख के अहसास को शेरो-सुखन तक ले चलो........
भूख के अहसास को शेरो-सुखन तक ले चलो
या अदब को मुफलिसों की अंजुमन तक ले चलो
कविता को भूखों और गरीबों के सरोकारों से जोड़ने की पैरवी करने वाला यह शेर अदम गोंडवी का है; जिन्होंने वास्तव में अपने शेरो-सुखन की दुनिया को भूख और गरीबी के अहसास, शोषण के समक्ष दम तोड़ते जज्बात और सामाजिक भेद-भाव के हालात का पर्याय बना दिया|
और भी कवियों ने जनता के लिए लिखा है, गरीबी और भूख को अपनी कविता में बखूबी आवाज़ दी है; लेकिन अदम साहब जैसा बिलकुल सपाट भाषा में बिना किसी काव्यशिल्प की जद्दोजहद के तीखा व्यंग्य, अन्यत्र नहीं देखने में आता| वे हिंदी ग़ज़ल के क्षेत्र में दुष्यंत कुमार की विरासत को सहेजने वाले माने जाते हैं| मध्य प्रदेश सरकार द्वारा उन्हें 1998 में दुष्यंत कुमार अलंकरण से सम्मानित भी किया गया| सच भी है कि दुष्यंत कुमार ने जिस तरह हिंदी में ग़ज़ल लिखना शुरू किया और अपनी रचनाओं में तुच्छ स्वार्थों की राजनीति, स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद भी देश की निम्नवर्गीय जनता की जस की तस स्थिति और शासन तंत्र की यथास्थितिवादिता पर आघात किया; उसी को आगे बढ़ाया अदम गोंडवी ने| लेकिन जहाँ दुष्यंत कुमार की कविता में तीखे रूपकों और सटीक दृष्टांतों के माध्यम से बात कही गई है; वहीँ अदम जी की विशिष्टता यह है कि उनकी कविता बिना किसी शास्त्रीयता या आधुनिकता के दांव-पेचों के अपनी सरलता से मुग्ध कर लेती है, ठेठ देहाती व्यक्ति के मानस में भी उनकी कविता सहज ही उतर जाती है| जैसे सरल व्यक्तित्व के वे स्वयं थे, वही सरलता उनकी गज़लों में उतर आई है| यदि आलोचकों के प्रचलित मुहावरे में कहें तो उनके लेखकीय और व्यक्तिगत व्यक्तित्व में कहीं कोई विसंगति नहीं है|
जिस भाव से उन्होंने कविता की है, उसी भाव से जिंदगी भी जी है| बिलकुल सरल ग्रामीण वेशभूषा, वैसी ही सहज मुखाकृति, सामान्य कद-काठी और खिचड़ी बाल लिए हुए उनका संपूर्ण व्यक्तित्व भारत के एक सामान्य ग्रामीण का प्रतिनिधि था| उन्होंने ग्राम्य जीवन को करीब से देखा था, जिया था| यह वह समय था की जब एक लम्बे इंतजार के बाद भी स्वतंत्र भारत की स्वतंत्रता का गांवों पर अभी तक भी कोई खास असर न दिखा था| सत्ता के लोलुपों ने वायदों पर वायदे किये, नीतियों पर नीतियाँ बनाई लेकिन ग्राम्य अर्थव्यवस्था खस्ताहाल ही रही| शासन के इसी ढोंग से क्षुब्ध होकर उन्होंने लिखा-
तुम्हारी फाइलों में गाँव का मौसम गुलाबी है
मगर ये आंकड़े झूठे हैं, ये दावा किताबी है
देश की हालत को उनका संवेदनशील मन जिस रूप में अनुभव कर रहा था, वह कुछ यूं अभिव्यक्त हुआ है -
भारत माँ की एक तस्वीर मैंने यूँ बनाई है
बँधी है एक बेबस गाय खूँटे में कसाई के
गिरते हुए राजनीतिक मूल्यों, सत्ता के दुरुपयोग, राजनेताओं की चरित्रहीनता जैसे विषयों ने उन्हें सदैव पीड़ित रखा| इन मसलों पर वे बराबर लिखते रहे| यही विषय था जिसके लिए वे सबसे ज्यादा चर्चित भी हुए| उनका एक एक शेर धारदार है, पैना है, भीतर तक उद्वेलित करता है-
काजू भुने प्लेट में, व्हिस्की गिलास में
उतरा है रामराज विधायक निवास में
पक्के समाजवादी हैं, तस्कर हों या डकैत
इतना असर है खादी के उजले लिबास में
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जो डलहौजी न कर पाया वो ये हुक्काम कर देंगे
कमीशन दो तो हिन्दोस्तान को नीलाम कर देंगे
दलितों के दम पर अपने राजनीतिक समीकरण हल करने वाले बहुत हुए हैं; लेकिन स्वयं राजपूत खानदान से होते हुए भी जिस क्षुब्ध ह्रदय से अदम जी दलितों के प्रति प्रशासन, कानून और समाज के रवैये को बयां करती हुई अपनी लम्बी नज्म ‘मैं चमारों की गली तक ले चलूँगा आपको’ में ललकारते हैं; उसका दूसरा उदाहरण मिलना मुश्किल है| हमें लगभग रोज ही अख़बारों में कमोबेश ऐसी ही खबरें दिखती हैं, पर ऐसी खरी शायरी दूसरी नहीं मिलती|
ये कुछ शेर तो महज बानगी भर हैं; जहाँ भी उन्होंने विसंगति देखी चाहे वह सांप्रदायिक अलगाववाद की हो, जातिगत वर्ग-भेद की हो, आर्थिक असमानता की हो, अन्यायपूर्ण लोकाचार की हो, सांस्कृतिक पतन की समस्या हो; उसके खिलाफ कलम चलाई| जो सामाजिक-आर्थिक रूप से शोषित जनता पर हो रही ज्यादतियों की आवाज़ आजादी से पहले प्रेमचंद जी के उपन्यासों और कहानियों में सुनाई दी थी; उसी वर्ग, उसी सताई हुई जनता की आह उनकी भी कविता में फूट पड़ी है| प्रेमचंद जी ‘कलम के मजदूर’ थे, तो अदम जी भी ‘मजदूरों की कलम’ से कम न थे| उन्होंने अधिक नहीं लिखा है, उनका रचना संसार सीमित है; उनका पहला काव्य संकलन ‘धरती की सतह पर’ 1987-88 में और दूसरा ‘समय से मुठभेड़’ उनके जीवन के अंतिम समय में वर्ष 2010 में छपा| लेकिन जितना भी उन्होंने लिखा उसी की गहराई है कि काव्य के शोधार्थियों ने उन्हें नागार्जुन के समकक्ष रखा है और संत कवि कबीर की परम्परा का कवि होने का मान दिया है|
आजादी के वर्ष 1947 में उत्तर प्रदेश के गोंडा जिले के आटा परसपुर ग्राम में पैदा हुए अदम जी का वास्तविक नाम रामनाथ सिंह था लेकिन कविता की दुनिया में तख़ल्लुस ‘अदम’ के साथ आये, और गोंडा से ताल्लुक रखने के कारण अदम गोंडवी कहलाये| शिक्षा तो मामूली ही हुई, लेकिन कविता का संस्कार उन्होंने गाँव की माटी से बखूबी गढ़ा| खेती-किसानी करते हुए वे अपनी शायरी में लगातार भ्रष्टाचार और देश की स्वार्थपरस्त राजनीति के खिलाफ आग उगलते रहे| शायद इसी का फल था कि अन्य बहुत से खरी-खरी कहने वाले कवियों और लेखकों की तरह वे भी आर्थिक रूप से तंग ही रहे, कर्ज में डूबे रहे| लीवर की गंभीर बीमारी ने उन्हें जकड़ा हुआ था, लेकिन धन के अभाव में समुचित इलाज़ न हो सका| जैसे उनकी पंक्तियाँ खुद को अभिव्यक्त कर रही हों-
खुदी सुकरात की हो या कि हो रुदाद गाँधी की
सदाक़त ज़िन्दगी के मोर्चे पर हार जाती है
फटे कपड़ों से तन ढांके गुज़रता हो जहाँ कोई
समझ लेना वो पगडण्डी अदम के गाँव जाती है
आम आदमी के संघर्ष का स्वर मुखरित करने वाले अदम को अंतिम समय में स्वयं वही संघर्ष झेलना पड़ा; लखनऊ के संजय गाँधी आयुर्विज्ञान संस्थान में भर्ती होने में खासी अड़चनें आई, कई घंटे तक बिना इलाज़ के अचेत पड़े रहे| अंतिम दिनों में उनकी बीमारी की खबर फैलने पर बहुत से संगठनों, साहित्यकारों और उनके कई प्रशंसकों ने व्यक्तिगत रूप से भी सहयोग तो दिया लेकिन तब तक देर हो चुकी थी; 18 दिसंबर, 2011 की सुबह इस माटी के इस रतन ने आखिरी सांस ली| उनकी मृत्यु पर किसी शायर ने अपनी भावनाएं व्यक्त करते हुए बड़ा मौजूं शेर कहा था- फिर कोई उनके कलम जैसा हो/ न अदम हो तो अदम जैसा हो|
उनके अंतिम दिनों में उनके गाँव को प्रशासन की ओर से गोद लिए जाने की घोषणा की गई, तमाम विकास कार्यों की योजना बनाई गई| मृत्यु के बाद उन्हें पद्म सम्मान दिए जाने की माँग भी उठी| पद्म सम्मान की माँग अपनी जगह है, लेकिन उन्हें सच्ची श्रद्धांजलि हम तभी दे पायेंगे, अगर इन पंक्तियों में संजोये गए उनके स्वप्न को साकार कर सकें, जिसके लिए वे जीवनभर कलम उठाए रहे-
एक सपना है जिसे साकार करना है तुम्हे
झोपड़ी से राजपथ का रास्ता हमवार हो|
विकास वर्मा