आलेख
डा. मुसाफ़िर बैठा
स्त्रियों की अलबेली ‘स्पेशल छुट्टी’
हम मूलत: बेइमान लोग हैं, किसी अच्छाई और नेकी के लिए किये गए काम अथवा प्रावधान की भी वाट लगा देना सदियों से हमने अपने पुरखों से सीखा है, अपनी संस्कृति से जाना है! अब हम इस स्वार्थ समृद्ध बेईमानी कर्म में पारंगत हो गये हैं। सुविधाओं का गलत फायदा उठाना हमारी आदतों में शुमार हो गया है।
यह आलेख आपको स्त्री विरोधी लग सकता है, यानी कि इन पंक्तियों का लेखक आपको स्त्री कामगारों का विरोधी भी लग सकता है पर यदि आप ईमान पर जाएँ तो आलेखकार को शायद आप बरी कर दें और डिट्टो भी। यह इसलिए भी कह रहा हूँ कि एक स्त्री अधिकारवादी पुरुष से इस आलेख को केवल इस आधार पर छापने से मना कर दिया कि यह स्त्री कामगार को मिले एक खास अधिकार को नकारता है जो कि स्त्री-अशक्तता पर आधारित है। जबकि मेरा मानना है कि यदि किसी अशक्तता से हम किसी विधि पार पा लेते हैं अथवा किसी ‘प्रॉप’ अथवा सहायक यंत्र-साधन के जरिये हम सशक्त हो लेते हैं तो इरादतन अशक्त मोड में बने रहना अच्छी बात नहीं!
स्त्री कामगारों को सभी राज्य सरकारों अथवा केंद्र सरकार में तो नहीं लेकिन कुछ सरकारी कार्यालयों में महिला कर्मियों के लिए ‘स्पेशल लीव’ यानी ‘विशेष छुट्टी’ का प्रावधान है। महीने में दो दिन लगातार. छुट्टी की मूल संकल्पना का उद्भव इस विचार से हुआ कि कामगार रजस्वला स्त्रियों को उनके ‘एम.सी.’ के असुविधाजनक और कष्टप्रद दिनों में काम से आराम दिया जाए. एक तरह से छुट्टी के पक्ष में यह तर्क उचित ही है। पर वर्ष में 24 (चौबीस) अतिरिक्त छुट्टियों की यह योजना महिलाओं के लिए आवश्यक सुविधा से अधिक अनुचित लाभ उठाने के मौके और मौज में तब्दील हो गयी दिखती है. जिस तरह से नेकी के कॉन्सेप्ट पर शुरू हुए तमाम धर्म के प्रावधानों के अन्दर से ही भक्त धर्मेतर और धर्म-विरुद्ध सुविधा पा जाने में नहीं हिचकते, कुछ कुछ उसी तरह इस स्त्री-कल्याणकारी योजना का दुरूपयोग होना शुरू हुआ!
और यह सब भी तब हो रहा है जब सेनेटरी नेपकिन का ईजाद हो चुका है। सेनेटरी नैपकिन के विज्ञापन आ रहे हैं जिनमें दावा किया जाता है कि इनको पहन कर महिलायें नाचने से लेकर खेलकूद तक, कोई भी भागदौड आदि तक का काम कर सकती है, कोई असुविधा नहीं. जियो जीभर के! विज्ञापन का यह दावा अनुचित भी नहीं है। दिनोंदिन इसको तकनीक की सहायता से अधिक उपयुक्त बनाकर अधिकतम आरामदेह बनाने की कोशिश की जा रही है। अब रजस्वला महिलाओं को भी इन दिनों की असुविधाओं को धत्ता बताते हुए काफी कुछ स्वाभाविक सी स्थिति में खुद को पाने की स्थिति आ चली है। यानी, जब असुविधाएं थीं तब तो इस छुट्टी का प्रयोजन जंचता था, पर सहजकर सुविधाओं के जमाने में अब इन छुट्टियों की योजना बेमानी सी हो गयी है। यह छुट्टी देना नाहक ही छूट देना सा अब लगता है जिसके चलते काम के घंटों की बर्बादी होती है। सरकारी कार्यालयों में कभी शौचालय अथवा वॉशरूम तक नहीं थे तब इसका चलन हुआ था। जब सुविधाएं शुरू भी हुईं तो पहले केवल पुरुषों के लिए। लेकिन अब वह असुविधा जनक स्थिति गुजरे जमाने की बात हो गयी। तकनीक - कुशल समय में अब महिलाओं को उन माहवारी के दिनों में भी बेहतर और भरोसेमंद 'प्रोटेक्शन' प्राप्त करने के साधन उपलब्ध हैं। अब तो किसी किसी सार्वजानिक क्षेत्र में महिला कर्मियों की संख्या इतनी है कि ऐसी छुट्टियाँ देने से वहाँ का कामकाज गहरे प्रभावित हो जाएगा. बैंक सेक्टर इसका सर्वोत्तम उदाहरण है जहाँ स्त्रियां काफी संख्या में काम कर रही हैं और यहाँ इस छुट्टी का कोई प्रावधान नहीं है। निजी सेक्टर में भी ऐसा कोई प्रावधान नहीं है.
हो यह भी रहा है कि यह छुट्टी प्रयोजन के मौके पर शायद ही ली जा रही है, ‘असुविधा’ की स्थिति में न होने के समय भी यह छुट्टी ली जा रही है और असुविधा के दिनों में वे दफ्तर आ रही हैं। ऐसा इसलिए कि इस छुट्टी के साथ अन्य छुट्टियों की गलबहियाँ खोजकर या अपना कोई काम निकलने के अवसर का ध्यान रख कर ली जा रही हैं। जैसे, यह छुट्टी प्रायः या तो शनिवार-रविवार की सार्वजनिक छुट्टी के आगे अथवा पीछे ली जाती है अथवा अन्य सार्वजनिक छुट्टियों के इर्द गिर्द। यानी यह छुट्टी प्रायः सोम-मंगल अथवा वृहस्पति - शुक्र को ली जाती है, बुद्धवार को नहीं, जैसे कि बुद्धवार को माहवारी आना कामकाजी महिलाओं के लिए मना हो! पन्द्रह - बीस स्त्री कर्मियों वाली किसी एक दफ्तर की ही केस स्टडी की जाए तो इस बाबत निराले निष्कर्ष निकलेंगे। मसलन, आप सकते हैं कि नौकरी भर बिना कोई माह नागा किये उक्त कार्यालय की सभी महिलायें 60 अथवा पैंसठ वर्ष की उम्र तक यह छुट्टी लेती रही हैं। किसी एक भी दफ्तर के दो-चार छुट्टी उपभोक्ता महिलाओं द्वारा इन छुट्टियों के लिए जाने का महज एक साल के ब्योरे अथवा डेटा का अध्ययन यदि आप कर जाएँ तो बड़े ही रोचक और चकित कर देने वाले तथ्य एवं निष्कर्ष हाथ लगेंगे. सबसे ताज्जुब एवं भयावह बात तो यह कि अमूमन सभी कामकाजी महिलाओं में आप मेन्सुरेशन-डिसौडर तो पाएंगे ही पाएंगे! मजेदार तो यह कि ‘एम.सी.’ होने की उम्र पर्याप्त पार कर जाने के बाद भी यह खराबी बदस्तूर जारी रहती है! और ताज्जुब यह कि इस सतत चली आ रही गड़बड़ी के बावजूद इन महिलाओं में अपना इलाज़ करवाने की कोई हड़बड़ी नहीं! कोई चिंता नहीं! 'एम.सी.’ आने का जो गणित है, वह इन स्त्रियों के मामले में एकदम फेल! यह इस माह में एक तारीख को आई है तो अगले महीने दस को बड़े मज़े में आ जाएगी और उसके आगे के माह में पचीस को. पर हैं सब निश्चिन्त, डॉक्टर से भी कोई परामर्श इस मसले पर कभी नहीं, कोई खर्च दवा - दारू पर करने की जरूरत नहीं। इतनी बड़ी गड़बड़ी लेकिन इलाज करवाने की कोई हड़बड़ी नहीं!
इस छुट्टी की सुविधा प्राप्त नौकरी के काल में संतान जनने वाली कोई महिला संभव है कहीं ऐसी भी न मिल जाए कि गणना करने पर उसकी संतान का गर्भाधान 'कागज़ी' एम.सी. के दिनों ही हुआ मिले! चमत्कार यह खूब खूब संभव है! किसी भी ऑफिस में ऐसी सौभाग्यवती गर्भवती कामकाजी महिला आपको मिल सकती है आपको!
एक गौर करने वाली बात यह भी है कि क्या मजाल है कि इन नौकरीशुदा महिलाओं को यह एम.सी. किसी छुट्टी के दिन आ जाये!!!!! आप समस्त कार्यालयों में रजस्वला – अरजस्वला - उम्र महिलाओं का इस विशेष छुट्टी का रिकॉर्ड देख जाइए, हर माह वे बिन नागा किये इन दो दिनी छुट्टियों का उपभोग किये मिलेंगी. इस मामले में प्रगतिशील से प्रगतिशील, कर्मठ से कर्मठ एवं रिटायरमेंट की दहलीज पर खड़ी महिला के यहाँ भी आप ईमानदारी तो ताखे पर रखा पाएंगे!!!!
*******************************